Monday, March 18, 2024
शिव ~ पार्वती ( अमर युगल पात्र ) ( भाग - १ )
ॐ
' ागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये जगत पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वर। '
भावार्थः -- अहं विशिष्ट-शब्दार्थयोः सम्यक्-ज्ञानार्थं शब्दार्थौ एवं नित्य-सम्मिश्र
संसारस्य मातापितरौ शिवा-शिवौ भक्त्या नमस्करोमि ॥
हम प्रणाम करते हैं जगत के माता व पिता, पार्वती व परमेश्वर को,
ो शब्द व अर्थके समुचित ज्ञान के लिए जो सदैव संयुक्त रहते हैं
उसी की भाँति सदैव संयुक्त रूप में विध्यमान हैं। शिव शंकर, भोलेनाथ और देवी पार्वती भारत के प्राचीनतम आराध्य देवताओं में अग्रणी हैं। भोलेनाथ शिव, शंकर परम पिता हैं तथा उनकी पत्नी जगज्जननी शिवा ब्रह्माण्ड की माता हैं। ३,००० वर्ष पहले सिंधु घाटी के अवशेषों से त्रिशीर्षएवं विवस्त्र योगेश्वर शिव स्वरूप प्रतिमा उत्खनन से प्राप्त हुई है। असंख्य पुरातन सभ्यताओं के अवशेषों में, गर्भधारिणी माता के अवशेष स्वरूप भी प्राप्त हुए हैं। अतः हम कह सकते हैं कि शिव - शिवा स्वरूप ऐतिहासिक काल से भी प्राचीन होना चाहिए। पश्चिम एशिया के हिटाइट प्रजा तथा बेबीलोनिया के ' तेशब ' देवता तथा भारतीय ' शिव ' में साम्य है। उनकी पत्नी ' माँ ' स्वरूपिणी देवी' शिवा ' सिंह पर सवार हैं व उनके संग मधुमक्खी चित्रित की हुई दिखलाई देती है। इसी तरह सुमेरिया के ' नेर्यल ' देव के लिए लिखे गए सूक्तों में एवं ' शुक्ल यजुर्वेद ' में प्राप्त ' शत्रुंजय - सूक्त ' में काफी समानता है।
शिव ~ शिवा का संपृक्त स्वरूप - ' अर्धनारीश्वर ' कहलाता है।
चित्र:Ardhnarishwar.jpg
दक्षिण भारत में संगम साहित्य के जनक ऋषि अगस्त्य जी को, कृपावश समस्त ज्ञान,
शिव जी ने ही दिया था। अपने योगबल के प्रताप से पाषाण से निर्मित हाथियों की प्रस्तर
प्रतिमाओं को शिवजी ने ईख ( गन्ना ) खिलाया था। शिव ने कदंबवन में मधुरपुरा का निर्माण
किया। मत्स्य कन्या से विवाह की रोचक कथा शिवजी के संग जुडी हुई है।
दक्षिण भारत में अनेकानेक महर्षियों को वेदज्ञान देनेवाले शिवशंकर को दक्षिण भारत में
' दक्षिणामूर्ति ' कहते हैं। योगाचार्य पतंजलि ऋषि को शिवजी ने कृपा कर ' नटेश्वर ' स्वरूप से नृत्य कर दिखलाया था। नंदीकेश्वर शिव को अतः ' नटराज ' भी कहते हैं।
नर्तन करते हुए शिव नृत्य को तांडव कहते हैं जिस के दो स्वरूप हैं। पहला उनके क्रोध का परिचायक, प्रलयकारी रौद्र तांडव तथा दूसरा आनंद प्रदान करने वाला आनंद तांडव स्वरूप नटराज कहलाता है। आनन्द तांडव से ही सृष्टि अस्तित्व में आती है तथा उनके रौद्र तांडव में सृष्टि का विलय हो जाता है। शिव का नटराज स्वरूप भी उनके अन्य स्वरूपों की ही भांति मनमोहक तथा उसकी अनेक व्याख्याएँ हैं। ॥ क्रीं आनंद ताण्डवाय नमः ॥
देवी पार्वती ने उग्र ताण्डव नर्तन करते रूद्र को शाँत रास का नृत्य ' लास्य ' कर शाँत किया था।
लास्य नृत्य देवी की प्रसन्नता, सौंदर्य तथा लावण्य का प्रतिनिधत्व करता हुआ नृत्य है।
एक बार अपनी पत्नी पर मुग्ध होकर शिव ने पार्वती का सप्त सिंधु जल से अभिषेक करते हुए पार्वती का मन बहलाया था। महादेव शिवजी के असंख्य नाम हैं ~ अशनि , शिवशंकर,
रूद्र ,भोलेनाथ, शूलपाणि , हर , उमापति, वृषभध्वज, पार्वतीपति ,गंगाधर , गिरीश, विश्वेशर
अर्धनारीश्वर, शम्भो, महेश, शशांक ,महेश्वर ,देवेश ,भवानीपति, महादेव ,औढरदानी, योगेश्वर
ईश्वर, ईशान ,भोला भण्डारी स्कन्द जनक , गणेशपिता, किरात ,ज्योतिर्लिंग ,साम्ब ,
सदाशिव, दिगंबर , शशिधर ,सुरसरीधर ,प्रलयंकर ,नटेश्वर ,अविनाश ,निरंजन ,पशुपति,
विश्वनाथ,दिनकर ,त्रिपुरारी ओंकारा , त्रिभुवननाथ ,अहिभूषण धारी ,महाकाल, त्रयम्बक ,
सोमनाथ, नागेश, केदार ,धुश्मेश ,रामेश्वर वैध्य्नाथ ,भीमशंकर ,त्रिनेत्र बभ्रुवाहन,
मेरुधर, नीलकण्ठ,श्रीकण्ठ , जलाष इत्यादि
सृष्टि के अंत में प्रलय होता है। रूद्र रूपी शिव समस्त सृष्टि का संहार करते हैं तब उन्हें
प्रलयंकर कहते हैं। त्रिमूर्ति ब्रह्मा सृजन के देव हैं विष्णु स्थिति के संयोजक जीव के कर्ता धर्ता
हैं।तथा शिव तत्त्व प्रलय एवं पुनर्जन्म का संगम माना गया है। शिव स्वरूप एवं शिव महिमा भारतभूमि पर अनेक सदियों से विध्यमान है। मोहनजोदड़ो के ध्वँसावशेषों के उत्खनन से
' ध्यानस्थ शिव प्रतिमा' , नंदी बैल की प्राचीन प्रतिमाएं , प्राप्त हुईं हैं। जिनके आधार पर कह सकते हैं कि, शिव पूजन प्रणाली विश्व की अत्याधिक प्राचीन प्रथा है।
विश्व में जन्म लेनेवाली प्रत्येक वास्तु, नाशवंत है। विनाश लीला के स्वामी शिव हैं !
वे आदिदेव हैं। व्याधि जनित उत्पात के देवता रूद्र कहलाते हैं। उसी उत्पात के शमनकारी
कल्याणकारी स्वरूप को ' शिवम् ' कहते हैं। रूद्र देवता के अष्ट - स्वरूप हैं। कई पुराणों में एकादश स्वरूप का वर्णन प्राप्य है। रूद्र उत्पति से जोड़े असंख्य आख्यान भी मिलते हैं। जिनमें से यह प्रख्यात है कि ब्रह्माजी प्रजापति पर अप्रसन्न हुए तब ब्रह्माजी की भृकुटि से ' रूद्र ' उत्पन्न हुए। अतएव वे ब्रह्माजी के क्रोध का प्रतीक हैं। सर्प व नागों के आभूषण धारी शिवजी को ' नागेश ' भी कहते हैं।
शिवजी के अद्भुत सुगठित, स्फटिक सम श्वेत कांतिपूर्ण मुखमंडल तथा शुभ्र सुडौल देहयष्टि ी उपासना अनेक संस्कृत स्तुति एवं श्लोकों में प्राप्य हैं। गौर वर्ण के शिवजी के मस्तक पर
स्वर्णिम केशराशि से बंधे जटाजूट से, जिस पर चन्द्रमा विराजित हैं वही चंद्रशेखर शिव जी
विलक्षण दिखलाई देते हैं। शाँत प्रशांत तेजोमय मुखमण्डल पर अर्धनिमीलित नेत्रों से समस्त
ब्रह्माण्ड व सृष्टि के हर जीव के प्रति करुणा स्नेह निर्झर बहता है। शिवजी की दो भौंहों के मध्य
में तीसरा नेत्र,अधिकांश बंद रहता है जो अर्ध चंद्र सा प्रतीत होता है। किन्तु यदाकदा उद्दीप्त
होकर खुलता है उदाहरणार्थ मदनभस्म प्रकरण ! अपने योगस्थ सुडौल अंगों पर शिवजी भस्म लगाए रहते हैं ,मृगचर्मधारी, बाघम्बर के आसान पर विराजित शिवजी ध्यानमुद्रा में समाधिस्थ रहते हैं। हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में कैलाश पर्वत शिवजी का डेरा है।अतः वे कैलाशपति हैं। मूँज पर्वत पर भी शिवजी का निवास है। प्राचील काल से रूद्र देवता अनार्यों द्वारा पूजित रहे।अनार्य शिव रूद्र को मद्यमाँस भक्षक,भूत वेष्टित, अत्यंत क्रूरकर्मा, तामस देवता स्वरूप पूजते थे।
वैदिक काल में भी उनकी पूजा हुई।तदनंतर त्रिशूलधारी शिव की उपासना ने लिंगोपासना का स्वरूप भी ग्रहण किया। काशी विश्वनाथ उज्जैयनी नगर के लिंग स्वरूप शिव आज २१ वीं सदी में उसी समर्पण सहित विधिविधान द्वारा पूजित हैं। सर्वत्र शिव त्रिशूलधारी, वृषभवाहनासीन.
शिव पुरण के अनुसार समुद्र मंथन हुआ था तब अमृत के साथ समुद्र में से विष भी निकला। समस्त सृष्टि को हलाहल विष के प्रभाव से रक्षित करने हेतु आदिदेव भगवान शिव ने,
अत्यंत भयंकर हलाहल विष पी लिया। विष पान कर शिवजी का शरीर विष के प्रभाव से अत्याधिक गर्म होने लगा।चन्द्रमा शीतल होता है। शिवजी के शरीर को शीतलता मिले इस कारण शिवजी ने समुद्र मंथन से निकले रत्न, चंद्रमा को अपने शीश पर जटाओं में धारण कर लिया। तभी से चन्द्रमा शिव के मस्तक पर विराजमान हैं।एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार चन्द्र का विवाह प्रजापति दक्ष की २७ नक्षत्र कन्याओं से संपन्न हुआ। परन्तु चन्द्र का स्नेह एक रोहिणी नामक पत्नी पर विशेष था। अतः अन्य कन्याओं ने दक्ष से जाकर चन्द्रमा के पक्षपात भरे बर्ताव की बात कह दी। दक्ष ने क्रोध में आकर चन्द्रमा को क्षय होने का श्राप दे दिया। इस श्राप के कारण चन्द्र क्षय रोग से ग्रसित होने लगे। उनकी कलाएं क्षीण होना प्रारंभ हो गईं इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए चन्द्रमा ने भगवान शिव की तपस्या सोमनाथ क्षेत्र में की थी ।
~ लावण्या
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