गोस्वामी तुलसीदास - रत्नावली
ॐ
आकाश
सर्वत्र व्याप्त है। परमात्मा ईश्वर इस विराट ब्रह्माण्ड के अणु, अणु में
व्याप्त है। ईश्वर निर्मित समस्त ब्रह्माण्ड में, ईश्वरीय सत्ता
प्रसारित है। अनादि काल से महाविस्फोट, संवर्धन, तथा अंत में प्रलय की
प्रक्रिया - आदि से अंत तक का यह खेल युगों युगों से जारी है। महाकाल
निर्मित समय की अगाध जलधारा की अस्थिरता के मध्य, कुछ ऐसे विरल व्यक्ति जन्म लेते हैं जो अपना विशिष्ट स्थान बना कर, संसार में, अजर अमर हो जाते हैं।
ईश्वर स्वयं मनुज देह धर कर श्रीराम स्वरूप में, भारत की पावन भूमि पर अवतीर्ण हुए। उनकी गाथाएं अमर हो गईं। भारतीय प्राचीन काल में हुए, संस्कृत के प्रकांड विद्वान, देववाणी संस्कृत भाषा में रचित ' रामायण ' ग्रन्थ के अमर रचनाकार, वाल्मिकी ऋषि की पावन स्मृति के साथ साथ, मध्ययुगीन भारत में जन्मे, ' राम चरित मानस ' के अमर रचनाकार, गोस्वामी तुलसीदास जी की स्मृति अनायास हो आती है।
भारतवर्ष इस पृथ्वी पर स्थित एक अद्भुत भूमि खंड है। इस महान देश में कवि पूजित होते हैं तथा कवि की अमर कृति के महानायक श्रीरामचन्द्रजी भी सविनय पूजे जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी का परिचय :
जन्म तिथि : १५५४ -- जन्म स्थान : राजापुर,बांदा -- पुण्य तिथि : १६२३
पंद्रह सै चौवन विषै, कालिंदी के तीर,
सावन सुक्ला सत्तमी, तुलसी धरेउ शरीर ।
गोस्वामीजी सरयूपारीण ब्राह्मण कुल उत्पन्न बस्ती जनपद के गाना के मिश्र थे।
उनके प्रपितामह गाना से कसया आ कर बस गए थे।
पिता का नाम : आत्माराम शुक्ल दूबे या मुरारी मिश्र / माता का नाम : हुलसी
संवत् १५५४ के श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिनअभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं दम्पति के यहाँ तुलसीदास का जन्म हुआ। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक माँ के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में दाँत दिखायी दे रहे थे। उनके जन्म के समय से ही ३२ दाँत मौजूद थे। वे अन्य शिशु की भाँति जन्मते ही रोये नहीँ थे! जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया जिस से बालक का नाम " रामबोला " पड़ गया। उनके जन्म के दूसरे ही दिन माँ का निधन हो गया। पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियाँ नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये।
भगवान शंकरजी की प्रेरणा से राम शैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस ' रामबोला ' के नाम से
बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूँढ निकाला तथा विधिवत उस बालक का नाम
तुलसीराम रखा। तदुपरान्त वे उसे अपने संग अयोध्या ले गये।
वहाँ संवत् १५६१ माघ शुक्ला पञ्चमी को यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया।
संस्कार के समय भी बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का स्पष्ठ उच्चारण किया, जिसे सुन, लोग चकित रह गये। इसके बाद नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके बालक को परम सिद्ध "राम-मन्त्र " की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया।
अपनी सात वर्ष की आयु में, राम बोला ने प्रथम राम कथा श्रवण करने का उल्लेख मिलता है। तुलसीदास जी के शाँत सरोवर रूपी मानस में शिवशंकर की कृपा समान नील कमल खिला ! सूकर क्षेत्र में अगले पांच वर्ष राम कथा सुनते हुए, तुलसी बड़े हुए। श्री सेषसनातन पंडित से काशी में, पंद्रह वर्षों तक वेद अध्ययन किया। तदुपरांत वे चित्रकूट भी गए। तुलसीदास जी वाल्मिकी ऋषि के अवतार माने जाते हैं। भारतवर्ष को दिया महामंत्र ' राम नाम ' तो कल्पतरु है।गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीराम को अपने क्रांतिकारी महाकाव्य ' राम चरित मानस ' में उभारा जो दिव्य, परम पावन, सर्वलोक मंगलकारी तथा लोकरक्षक सिद्ध हुआ। पौराणिक काशी नगरी के महापण्डित मधुसूदन सरस्वती जी ने इस चमत्कारी ग्रन्थ के लिए यह श्लोक लिखा ~~
' आनन्दकानने ह्यस्मिन जङ्गमस्तुलसीतरु:।
कवितामञ्जरी यस्य रामभ्रमर - भूषिता।' ~
यह श्लोक लिखकर रामचरित मानस की प्रकांड पंडित ने भरपूर प्रशंशा की।
' राम चरित मानस ' एक ऐसा वाग्द्वार है जिसमें भारतीय साधना के उच्चतम आयाम तथा ज्ञान की परम्पराएं प्रत्यक्ष दृश्टिगोचर होती हैं।
रत्नावली से तुलसीदास जी का विवाह :
तुलसीदास का विवाह ग्राम बदरिका के विद्वान ब्राह्माण पंडित दीनबंधु पाठक की पुत्री अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली से, ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत १५८९ में हुआ था।
कहीं कहीं उनका नाम बुद्धिमती कहा गया है। परन्तु रत्नावली नाम ही अधिक प्रचलित है। लग्न के समय रत्नावली की आयु मात्र १२ वर्ष की थी। "गौना " माने कम उम्र कन्या की विदाई न हुई थी। इस संबंध में पंडित मुरलीधर चतुर्वेदी ने
' रत्नावली चरित्र ' नामक जो पुस्तक लिखी है। उसे ही प्रामाणिक माना जाता है, क्योंकि रत्नावली से संबंधित अन्य कोई कृति है ही नहीं।
पं. मुरलीधर के अनुसार रत्नावली का जन्म संवत १५७७ में, विवाह संवत १५८९ में और गौना संवत १५९३ में हुआ, जब रत्नावली मात्र १६ वर्ष की थीं ऐसा निर्देश किया है। विवाह होते ही तुलसीदास अपनी विदुषी एवं परम रूपसी पत्नी पर आसक्त हो गए। अपनी पत्नी उन्हें प्राणों से प्यारी हो गईं।
विवाह के कुछ समय पश्चात रत्नावली के भाई आकर उन्हें नैहर ले गए जब तुलसी घर पर न थे। घर
लौटने पर पत्नी की अनुपस्थिति से तुलसी उद्विग्न हो उठे। रह रह कर
रत्नावली का सजीला , सलोना मुख तथा विशाल नयन उन्हें दिखलाई देने लगे ऐसा
स्मृति विभ्रम होने लगा। तत्क्षण अपनी ससुराल के दिशा में, रत्नावली की शोध
करते हुए तुलसी चल पड़े।
सर्वत्र प्रकृति का ताण्डव मार्ग में व्याप्त था। मूसलाधार बरखा हो
रही थी। बार बार सौदामिनी ( बिजली ) चमक रही थी। रात आधी हो रही थी किन्तु
तुलसी अपनी प्राणप्रिया पत्नी के प्रेम मिलान के लिए अधीर हो रहे थे। सच ही
है प्रणयी के पागलपन को तथा प्रेम के उद्दाम वेग को कौन रोक पाया है !
गाँव के पार कालिंदी नदी ज्वार से बिफरी हुई थी। नावों को छोड़ कर खिवैये भी
घरों को चले
दिए थे। सहसा नदी के जल पट पर तैरता, एक लकड़ी का पाट दिखलाई दिया तो
तुलसी ने वेगवती जलधारा में छलांग लगा दी। उसी तख्ते के सहारे जैसे तैसे
नदी पार कर सामने के किनारे पहुंचे। उधर अपने नेहर पहुँच कर रत्नावली अपने भाई से कह रहीं थीं,' भैया मैं अपने शैशव के घर आकर प्रसन्न हूँ ! ऐसी भयानक वर्षा हो रही है आप कल जाकर उनसे मिल आईयेगा। वे हमारी चिंता करेंगें। मैं बावरी उनसे अनुमति लिए बिना नैहर आ गई ! ' भैया ने कहा, ' जीजी इस समय सो जाओ। पानी रूकने पर देख लेंगें। '
आधी रात बीत चली । रत्नावली चिंतित अकेली अपने खण्ड में जाग रहीं थीं।
बाहर
बरखा के भीषण ताण्डव के मध्य में, तुलसी, रत्नावली के आवास के समक्ष आ
पहुंचे थे। एक झरोखा दिखलाई दिया जिसके समीप प्रस्तर खम्भ के सहारे वे ऊपर
चढ़ने लगे। पैर फिसलने को हुआ तो हाथ में एक रस्सी आ गई ! उसी के सहारे वे
ऊपर झरोखे तक आ गए। साँस सम्हल कर लेते हुए किवाड़ खटखटाया।
एक बार - दो बार - अब अपनी हथेली से थपकी देते हुए विह्वल हो तुलसी पुकारने लगे, ' रत्ना मैं आ गया, किवाड़ खोलो प्रिये ' कक्ष के भीतर रत्नावली विस्मय से ठगी अपने पति के स्वर को पहचान गईं !
मेघ गर्जन को पार करती चीरती हुई पुकार रत्नावली की उनींदी नयनों से ओझल हुई। हड़बड़ाकर उठ रत्नावाली ने किवाड़ खोले तो समक्ष अपने पति तुलसी को खड़ा पाया ! अपने हाथों से तुलसी को भींचकर, भीगे हुए तुलसी को रत्ना ने कक्ष के भीतर खींच लिया। साश्चर्य पूछा, ' हे नाथ ! आप ? यहाँ ? इस समय ?
ऐसी भयानक रात्रि में, भीषण आंधी तूफान के मध्य, आप किस प्रकार आये ? '
तुलसी ने अपनी प्राणप्रिया को कलेजे से लगा लिया। जलधारा शरीर से बहती हुई रत्नावली को आकण्ठ भिगोने लगी। अब तुलसी ने उलाहना दिया - कहा, ' मुझ से बिन बतलाये तुम चलीं आईं ? मैं तुम्हारे बिना एक क्षण को रह नहीं सकता ! '
रत्नावली कुछ बोल न पाईं। शर्म व लज्जा से गड़ी जा रही रत्नावली से तुलसी ने आगे कहा, ' प्रिये मैं झरोखे से गिर पड़ता यदि रस्सी मेरे हाथ न आती ! '
रत्नावली
ने गर्दन उठाकर पूछा, ' कहाँ है रस्सी ? ' बरसते जल की अवज्ञा करती
रत्नावली झरोखे में आईं तो देखा जिसे रस्सी समझे थे वह सर्प था। एक भुजंग
वहां लिपटा हुआ था ! रत्ना ने भयभीत हो चित्कार किया ' स्वामी यह तो सर्प है ! रस्सी नहीं ! '
अब तुलसी भी चकित होकर देखने लगे ! आश्चर्य ! वह सर्प ही था ! अब तुलसी ने आगे कहा, '
प्रिये मैं वेगवती जलधारा में डूब मरता यदि मुझे काष्ट का पाट न मिलता !
देखो वहीं किनारे छोड़ आया हूँ। ' पति पत्नी ने नदी किनारे पड़े उस पाट
को देखा। सहसा पुनः बिजली कड़की। देखते क्या हैं जिसे काष्ठ का तख्ता समझे थे वह किसी दुर्भागी मनुष्य का शव था ! अब रत्नावली अत्यंत उद्विग्न हो उठीं। बोलीं - ' हे मेरे नाथ आप जिसे काष्ठ का पाट जान कर उसे के सहारे नदी तैर कर वेगवती नदी पार कर किनारे आये वह तो मृत व्यक्ति का शव था ! ' रत्नावली के ह्रदय में हेली मची उसे अपने स्वयं पर तिरस्कार हो आया। बोलीं
' धिक्कार है मुझे ! धिक्कार है इस रूप - यौवन को ! मेरे इस हाड़ - माँस के
शरीर पे आसक्त हो, आप मेरे पीछे यूं आये ! मेरे कारण मेरे पति ने अपने
प्राणों की चिंता न कर, सर्प एवं मृत शव जैसी अपवित्र वस्तुओं का सहारा लिया। ' रत्ना के ऐसे वचन सुनकर अब तुलसी भी लज्जित हुए। वे रत्नावली को समझाने की चेष्टा करने लगे। क्रोध से रत्नावली ने कहा, ' नाथ ! इस नश्वर देह पर ये अनुराग शोभा नहीं देता ! यौवन नाशवान है। रूप वसंत की माधुरी लुप्त होगी। हे प्राणनाथ मेरी विनती स्वीकार कीजिए। मोह त्यागिये। मैं अभागिन हूँ जो मेरे कारण मेरे पति इस निर्लज्ज स्थिति में पड़ गए हैं। हे स्वामी, हाथ जोड़कर आप से मेरी प्रार्थना है कि आप ' श्रीराम ' में मन लगाइये। आपने
इतनी तन्मयता से श्रीराम को भजा होता व भगवद भक्ति में डूबे होते, तो अवश्य
आप भवसागर के सारे बंधन काट कर परम पद प्राप्ति पा लेते। '
" अस्थि-चर्म- मय देह यह यामे ऐसी प्रीति।
जो होती रघुनाथ मंह होती न तो भव-भीति। "
ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास द्वारा रत्नावली तथा संसार त्याग का आधार, रत्नावली का उक्त दोहा था, जो रत्नावली ने उद्विग्न अवस्था में कहा था।
भारतवर्ष आध्यात्मिक वैभव से सुसम्पन्न अद्भुत महादेश है। भारत देश की नारी, अपने पति को, युवावस्था के उन्मादी क्षणों में भी ईश्वर भक्ति की ओर
उन्मुख करने में सक्षम होती है। इस का प्रमाण देवी रत्नावली हैं। रत्नावली के दोहे को सुनते ही तुलसीदास के मानस पटल पर पड़े उन्माद, मोह, तथा भ्रान्ति के परदे,एक के बाद एक हटने लगे। पूर्व जन्म के सुसंस्कार दिप प्रज्वलित हुए।
मनोनयन समक्ष के श्रीराम का अलौकिक मंगलकारी शुभ रूप विग्रह, अपने सम्पूर्ण सौंदर्य सहित कौंध उठा ! तुलसी दास जी के पार्थिव शरीर पर मानों दैवी शक्तिपात हुआ।
आत्महँस ने सांसारिक मलिनता, वासना जनित कल्मषता का तत्क्षण त्याग किया। इस रोमांचकारी परिवर्तन के पावन अवसर पर, तुलसी दास जी अपनी पत्नी रत्नावली के चरणों पे गिर पड़े ! बोले ' हे रत्ना ! तुम मेरे मानस का दीप, प्रकाशित करनेवालीं मात्र मेरे गृह की दिप शिखा ही नहीं - तुम मेरे अन्तर की महाज्योति हो। तुमने मेरी सुषुप्त चेतना को झकझोर कर जगा दिया। आज से तुम मेरी ' गुरु ' हुईं ! रामनाम महामंत्र की उपदेशिका को मैं नत मस्तक प्रणाम करता हूँ। इसी क्षण से प्रभु श्री रामजी की पावन भक्ति में लीन होने का प्रण करता हूँ।मुझे विशवास है मेरे प्रभु श्रीराम मुझे अवश्य मिलेंगें। हे साध्वी सती रत्नावली ! तुम्हें किस प्रकार धन्यवाद दूँ ? ' दृढ़ता से तुलसी ने बिरनयात्मक उद्घोष किया ~ ' आज से मैं, इस आसार सँसार का त्याग करता हूँ। '
पत्नी
रत्नावली के सदुपदेश से उसी घटना के बाद तुलसीदास के माटी का तन के स्वर्ण
कँचन होने का अध्याय आरम्भ हुआ। प्रभु श्रीराम के दर्शन को तुलसीदास
कटिबद्ध हुए। साधना के सोपान नित नई ऊंचाईयां छूने लगे।
पवित्र तीन नदियों ने संगम तीर्थ राज प्रयागराज, जगत के नाथ की पावन जगन्नाथ पुरी, भारत के दक्षिण छोर पर बसी पवित्र रामेश्वरम धाम की
धरा, पश्चिम में श्रीकृष्ण की पवित्र नगरी द्वारिका, उत्तर दिशा का ऋषिगणों
से सेवित बद्रीनाथ धाम इत्यादि अनेकों तीर्थों में, अगले कुछ वर्षों
में तुलसीदास जी ने तीर्थ यात्रा करते हुए भ्रमण किया। बाबा विश्वनाथ की पवित्र नगरी काशी में भी वे कई वर्षों पर्यन्त रहे। घर छोड़कर प्रभु श्रीराम की खोज में अनेकानेक तीर्थ स्थानों पर, भगवद भक्ति प्राप्ति हेतु तुलसीदास जी भ्रमण करने लगे। एक दिन चित्रकूट में उनको भगवान के दर्शन हुए। तुलसीदास जी ने इस प्रकार लिखा ~~
सुरतिय नरतिय नागतिय, सब चाहत अस होय।
गोद लिए हुलसी फिरैं, तुलसी सों सुत होय ।।
मातु पिता जग जाय तज्यो विधि हू न लिखी कछु भाल भलाई ।
नीच निरादर भाजन कादर कूकर टूकनि लागि ललाई ।
राम सुभाउ सुन्यो तुलसी प्रभु, सो कह्यो बारक पेट खलाई ।
स्वारथ को परमारथ को रघुनाथ सो साहब खोरि न लाई ।।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनूरूप।।
जथा अनेक वेष धरि नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव दिखावअइ आपनु होइ नसोइ ।।
हनुमान घाट तथा गोपाल मंदिर के पास स्थित एक कोठरी आज के आधुनिक काल में भी तुलसीदास जी की इस धरा पर रही अलौकिक उपस्थिति से हमें अवगत कराती है।
संवत् १६२८ में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े।
उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये।
पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ।भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी जन भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद उचट गयी। वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव शंकर भोलेनाथ तथा माँ पार्वती देवी उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा, " तुम अयोध्या में रहो। लोकवाणी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी।" इतना कहकर गौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। तुलसीदास जी प्रभु शिवशंकर जी की आज्ञा शिरोधार्य कर ली व वे काशी से सीधे अयोध्या चले गये।
श्रीराम
जी की अपनी नगरी अयोध्या पुरी में मधुमास की नवमी तिथि - भौमवार के
श्रीराम के जन्मदिन के परम मंगलकारी दिवस पर अपने परम आराध्य श्रीराम के चरणों में शीश नवाँ कर तुलसीदास जी ने अपना अमर ग्रन्थ ' राम चरित मानस ' लेखन आरम्भ किया था।
श्रीरामचन्द्र जी के जन्म के समय भी यही तिथि थी। यही अयोध्यापुरी थी, नवमी तिथि थी तथा भौमवार भी था। जिस प्रकार श्रीरामचन्द्र जी का प्राकट्य पुरातन काल में हुआ था ठीक उसी प्रकार भारतवर्ष के मध्ययुग काल में अपने शब्दों का दिव्य - प्रसाद देते हुए तुलसीदास जी ने ' राम चरित मानस ' अमर ग्रन्थ के द्वारा श्रीरामचन्द्र भगवान् को पुनः प्रकट किया।
सम्वत १६३१ में ' मानस ' की रचना हुई तथा पावन ' रामचरित मानस ' के आरम्भ में शिव पार्वती की वंदना करते हुए तुलसीदास जी ने यह लिखा ....
॥श्री गणेशाय नमः॥
श्रीजानकीवल्लभो विजयते -- माता जानकी के प्राण वल्लभ श्रीराम की सर्वदा विजय हो
श्री रामचरित मानस - शीर्षक
प्रथम सोपान - पहला अध्याय -
(बालकाण्ड) - सर्ग का शीर्षक ' बालकाण्ड '
श्लोक-
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥१॥
अर्थात ~ अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करनेवाली
सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥२॥
अर्थात ~~ भवानी मैया तथा शिव शंकर बाबा जो श्रद्धा एवं विशवास स्वरूप हैं उन
दोनों की स्तुति करते हुए आरम्भ करता हूँ जिन की कृपा के बिना अपने
आत्माराम रूपी हँस में प्रतिष्ठित ईश्वर दर्शन सुलभ नहीं।
ऐसा कहा जाता है के एक बार एक प्रेत के माध्यम से तुलसीदास जी को श्री हनुमान जी के दर्शन हुए। तुलसीदास जी ने हनुमान जी से श्री राम के दर्शन पाने की अभिलाषा जतलाई थी। चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। तुलसीदास जी ने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार हो, धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देख आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान्जी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान्जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।
संवत् १६०७ की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके समक्ष भगवान श्रीराम भगवान श्री राम जी पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा," बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?" हनुमान जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, सो हनुमान जी ने एक तोते का रूप धारण कर के यह दोहा लिखा ~ चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥
इस प्रकार हनुमान जी की प्रेरणा व कृपा से तुलसीदास को चित्रकूट में श्री राम जी के साक्षात्कार हुए। श्री राम ने तुलसीदास को दो बार दर्शन दिये थे।
दैवयोग
से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म
के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना
प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ
सम्पन्न हुआ। संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन
सातों काण्ड पूर्ण हो गये।
इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान् विश्वनाथ तथा माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया " सत्यं शिवं सुन्दरम् " जिसके नीचे भगवान् शंकर की सही (पुष्टि) थी। कहते हैं कि उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने " सत्यं शिवं सुन्दरम् " ध्वनि सुनी।
तुलसीदास पर भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट
काशी
के पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में अत्यंत ईर्ष्या उत्पन्न
हुई। वे दल बाँधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उन की लिखी पुस्तक
को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे। इसी प्रयोजन से उन्होंने पुस्तक
चुराने के लिये दो चोर भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के
आसपास दो वीर युवक धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं तथा वे बड़े ही सुन्दर श्याम
और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने
उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने मन ही मन जान लिया कि हो न हो यह दो वीर राजकुमार श्री रामचंद्र जी एवं श्री लक्षण जी ही हैं। जो अपने भक्त की रक्षा कर रहे थे। अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया। पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी।उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं।पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा। इधर पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को जो प्रकांड पंडित थे। उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा दी। श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने पुस्तक देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। उस पर यह सम्मति विशुद्ध संस्कृत में लिख दी ~
आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥
बाबा तुलसीदास जी ने ही सर्व प्रथम ' रामलीला ' का आयोजन भी किया था । परम पावन ग्रन्थ रामचरितमानस की रचना गोस्वामी जी ने एक विशाल फलक के रूप में की थी। आरम्भ वे स्वान्तः सुखाय की दृष्टि लेकर करतें हैं।
नाना पुराण निगमागम, सम्मतं यद्रामायणे निगदितं
क्वचिदन्योपि स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा
भाषा निबद्ध मति मंजुलमातनोति।
रामचरितमानस के निम्न सात काण्ड हैं जिन्हें सप्त - सोपान कहते हैं।
सुंदर
- काण्ड मानस का पांचवा काण्ड है ! किंतु लोकप्रियता की दृष्टि से इसे
सदा से सर्वप्रथम स्थान प्राप्त है ! जैसा की इस काण्ड के नाम से प्रकट है
यह अत्यंत सुन्दर, सरस अध्याय है। मानस का यह अंश रामकथा प्रेमियौं को
सर्वाधिक सुंदर लगता रहा है ! संसारी भक्त और सद्ग्रुहस्थ, संकट से
छुटकारा पाने के लिये , " सुंदर -काण्ड " का पाठ करते रहे हैं और करते
रहेंगे !
सुंदर
-काण्ड में वर्णित रामकथा से सह -हृदय रामभक्त , भली -भांति परिचित हैं !
उनका कहना है के इस काण्ड में सम्पूर्ण रामकथा अपने सार -स्वरुप में उपलब्ध
हो जाती है ! रामदूत हनुमान , सीताजी को पूर्व कथा सार - रूप में सुनाते हैं ! त्रिजटा के स्वपनानुकथान में, भावी घटनाओ का पूर्वाभास हमें मिल जाता है ! यही नही, लंकिनी के मुख से, रावण की ब्रम्हाजी से वर -प्राप्ति तथा इस -के अंत की बात भी जान लेते हैं !
सुँदर ~ काण्ड का स्वतंत्र रूप से भी पाठ किया जाता है ! १ - बालकाण्ड २ - अयोध्याकाण्ड ३ - अरण्यकाण्ड ४ - किष्किन्धाकाण्ड
५ - सुन्दरकाण्ड ६ - लंकाकाण्ड ७ - उत्तरकाण्ड ।
अपने १२६ वर्ष के दीर्घ जीवन- काल में तुलसीदास जी ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएँ कीं हैं।
- रामललानहछू,
वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, जानकी-मंगल, रामचरितमानस, सतसई,
पार्वती-मंगल, गीतावली, विनय-पत्रिका, कृष्ण-गीतावली, बरवै रामायण, दोहावली
और कवितावली , संकट मोचक हनुमान स्तवन , हनुमान अष्टक, हनुमान चालीसा हैं।
भारतीय भक्तिकाव्य में गोस्वामी तुलसीदासजी का "श्री राम चरित मानस " या तुलसी कृत" राम अयन " कौस्तुभमणि की भांति पूज्य है !
आईये इस संदर्भ में कवि नरेन्द्र के महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी और 'राम चरितमानस' के प्रति भक्तिभाव , व श्रद्धाभाव सहित सुनें :"गोस्वामी
तुलसीदासजी हिन्दी भाषा के तो सर्वश्रेष्ट कवि है ही , संसार भर में वह
सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रतिषिठित माने जाते है ! उनका सबसे महान ग्रंथ 'राम
चरित मानस ' है , जिसकी चौपाई और दोहे शिलालेख और शुभाषित, पुष्प बन गए
हैं ! उन्होंने जनता के मनोराज्य में रामराज्य के आदर्श को सदा के लिए
प्रतिष्टित कर दिया है ! किसान का कच्चा मकान हो या आलिशान राजमहल , गृहस्थ
का घर हो या महात्मा का आश्रम , देश हो , या विदेश , सर्वत्र 'राम चरित्र
मानस ' हिन्दी भाषा का सर्वोत्तम और सर्वमान्य पवित्र -ग्रन्थ माना जाता
रहा है !
निरक्षर श्रोता हो , या शास्त्री -वक्ता , सामान्य जन हो , या
अति विशिष्ट व्यक्ति , हिन्दी भाषी हो , या अहिन्दी भाषी देशी भाष्यकार हो ,
या विदेशी अनुवादक, 'राम चरित मानस ' सबके मन में भक्ति , ज्ञान और सदा
चार की त्रिवेणी बनी हैं ! गोस्वामी तुलसीदास कृत 'राम -चरित मानस ' जनमानस
में , राम -भक्ति का कमल खिलानेवाले सूर्य के समान प्रकाशित रहा है ! "
रत्नावली भारत वर्ष की एक दिव्य विदुषी एवं सती नारी रत्न थीं। उनका कथन उनके मार्मिक दोहों में परिलक्षित होता है। रत्नावली कहतीं हैं कि,
" कन्यादान, पैतृक संपत्ति में बंटवारा और किसी को वचन का देना , इन तीनों को सज्जन पुरुष एक ही बार करते हैं तथा अपने वचन से वे कभी पलटते नहीं।
जिस प्रकार रहीम के दोहों में नीति की बातें की गई हैं, उसी प्रकार रत्नावली के दोहे नीति वचन लिए हुए हैं। जैसे:
" घर-घर घूमनि नारी सों रत्नावली मित बोल।
इनसे प्रीति न जोरि बहु, जनि गृह भेदनु खोल। "
घर-घर घूमने वाली स्त्रियों से वार्तालाप नहीं करना चाहिए। इनसे न तो प्रेम बढ़ाना चाहिए और न ही अपने घर की ही कोई बात बतानी चाहिए। इन दोहों को पढ़कर लगता है कि रत्नावली एक विद्वान परिवार से आई महिला थीं। उनकी रचनाओं में रत्नावली ने अपने जीवन के अनुभवों को महत्व दिया था तथा
उनके पदों में भाषा की सरलता और भावों की गंभीरता अपने पति से कहीं अधिक थी।रत्नावली के पदों में नारी सुलभ करुणा और पश्चाताप भी अभिव्यक्त हुआ है।
उन्होंने अपने पति से कहे कटु वचन रत्नावली जी को बाद में दुःख देते रहे ।
" पुन्य धरम हित नित पतिहि, रहि बढ़ाय उतसाह।
ताहि पुन्य निज गुनि रतन, पुन्य करत जोनाह। "
उन पदों में मानव मन की व्यथा के कई चित्र उभरते हैं:
" तुम बिनु सब जग मोहिं अंधेरी।
निसि दिन जगत चन्द रवि मन घर-घर दीप उजेरो।
आवत अति सनेह उर लाए, जात न पद परसाए।
आहट लेति बाट नित जोहति, आवन आस तिहारी।
रत्नावली मुखचन्द दिखावहु आय होय उजियारी।।
सती धरम धरि जांचि नित, हरि सों पति कुसलात।
जनम जनम तुव तिय रतन, अचल रहैं अहिवात।
रत्नावली की एक पीड़ा यह भी थी कि तुलसीदास उसे उस समय छोड़कर गए,
जब वह सो रही थी। यह स्थिति ठीक वैसी ही थी जैसे कि तथागत, गौतम बुद्ध
अपनी भार्या यशोधरा को छोड़ कर चले गए थे।
रत्नावली देवी का नाम "बुध्धिमती" था परँतु वे "रत्नावली " के नाम से ही समाज एवं साहित्य मेँ पहचानी जातीँ हैँ। उनके पुत्र का नाम "तारक " था।
महाभारत,
उपनिषद, रामायण, श्रीमद्भागवत और पुराणों में विदुषी महिलाओं की जीवन गाथा
के वर्णन से हमें भारतीय संस्कृति पर गर्व होता है।
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस जैसा प्रतिष्ठित ग्रंथ लिखा और कीर्ति अर्जित की।
लेकिन हिंदी साहित्य के इतिहास या तुलसी संबंधी ग्रंथों में उनकी पत्नी रत्नावली की रचनाशीलता का कहीं उल्लेख नहीं है। रत्नावली की काव्य-प्रतिभा की या तो खोज नहीं की गई या उन्हें यूं ही उपेक्षित छोड़ दिया गया। विदुषी रत्नावली जी के भाग्य की विडंबना यही थी कि मात्र २७ वर्ष की आयु में उनके पति ने उन्हें त्याग दिया !
गोस्वामी तुलसीदास जी ने ने संवत १६०४ में उनका परित्याग किया था। तदुपरांत रत्नावली जी ७४ वर्ष यानी संवत १६५१ तक जीवित रहीं।
अंत
में पूज्य पति परमेश्वर का स्मरण करती हुई सती साध्वी रत्नावली
सम्वत्-
१६५१ विक्रमी में अपनी अलौकिक कान्ति चमकाती हुई सती रत्नावली सत्यलोक
सिधार गईं।
सम्वत १६८० में सावन श्यामा तीज को तुलसीदास जी ने भौतिक देह का देहत्याग किया।
भारतीय पत्नी पति की प्राणवल्ल्भा हैं सहचरी हैं, मित्र हैं, प्रिया
हैं।
" अमर युगल पात्र " गरबत से यह एक सोपान तुलसीदास - रत्नावली आपके समक्ष प्रस्तुत है। रत्नावली अपने पति को ईश्वर भक्ति प्राप्ति के
सन्मार्ग पर ले चलनेवालीं ' धर्म गुरु ' हैं। " अमर युगल पात्र " ग्रन्थ की श्रृंखला का रत्नजड़ित आभूषण हैं बाबा संत शिरोमणि तुलसीदास जी तथा देवी रत्नावली !
आदर एवं श्रद्धधा सहित इस अमर युगल को कोटो कोटि प्रणाम !
- लावण्या
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