ॐ
चंद्रवंशी राजा पुरुरवा के पुत्र हुए आयु। आयु के पुत्र हुए नहुष। नहुष से ययाति जन्मे।ययाति की २ पत्नियां थीं नाम थे, देवयानी तथा शर्मिष्ठा। पुरंदर या देवराज इंद्र स्वर्ग के अधिपति की एक कन्या का नाम जयंती थीं। जयंती देवाधिपति दानवों के कुलगुरु शुक्राचार्य के आश्रम में १० वर्ष रहीं।
देव कन्या जयंती ने ऋषिवर की अत्याधिक सेवा की। दानवों के गुरुवर ऋषि शुक्राचार्य के आश्रम में जयंती से देवयानी का जन्म हुआ। किन्ही पुराणों में प्रियव्रत राजा की पुत्री ऊर्जस्वती को देवयानी की माता कहा गया है। परन्तु पुराण कथाओं में ' देवयानी ' सदैव ऋषि शुक्राचार्य की पुत्री कहलातीं रहीं हैं।
उस
काल में देव व दानवों में त्रिलोकी के अधिकार व साम्राज्य के लिए युद्ध हो
रहा था। देवताओं ने अंगिरस माने गुरु बृहस्पति को विजय प्राप्ति के लिए
अपना गुरु बनाया था। दानवों ने शुक्राचार्य को अपना पुरोहित चयनित किया था क्योंकि गुरु शुक्राचार्य के पास एक अलौकिक विद्या ' मृत संजीवनी विद्या ' थी।ऋषि गौतम से शिवजी के परम मन्त्र महामृत्युंजय मन्त्र की सिद्धि से जो असुर मृत हो जाता उसे, इस विद्या के तेजोबल से गुरु शुक्राचार्य जीवित कर देते।इस कारण असुर देवताओं से युद्ध में विजय प्राप्त कर रहे थे। देवताओं के गुरु बृहस्पति के पास यह विद्या न थी।तब देवताओं ने घबड़ाकर बृहस्पति के ज्येष्ठ पुत्र कच की शरण ली। कच से अनुरोध कर कहा कि,' हे परम् तेजस्वी कच ! कृपया आप गुरु शुक्राचार्य जी के पास जाएं। किसी प्रकार उनसे यह गुप्त ' संजीवनी विद्या ' प्राप्त कर लें। ' कच सहमत हुए। वे शुक्राचार्य के आश्रम की ओर चल पड़े।
भृगु
ऋषि के पुत्र गुरु शुक्राचार्य, परम शिव भक्त थे। हिरण्यकश्यपु की पुत्री
दिव्या के पुत्र उशना को कालान्तर में शुक्राचार्य नाम मिला। इस रिश्ते से
शुक्राचार्य प्रह्लाद के भांजे थे।
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ:॥
शुक्राचार्य : (शुक्र नीति)
शुक्राचार्य : (शुक्र नीति)
अर्थात : कोई अक्षर ऐसा नहीं है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरू होता हो। कोई ऐसा मूल (जड़) नहीं है जिससे कोई औषधि न बनती हो। कोई व्यक्ति अयोग्य नहीं होता, व्यक्ति द्वारा काम लेने वाले गुणी संयोजक ही दुर्लभ हैं।
शुक्र नीति, नीति ग्रन्थ है। जिसमें ज्ञान की चार शाखाएँ हैं।
१)
आन्वीक्षिकी, २) त्रयी, ३) वार्ता एवं ४) दण्डनीति को स्वीकार किया
गया है।प्राचीन भारतीय चिंतन में राज्य को सप्तांग राज्य के रूप में
परिभाषित किया गया है। राज्य सात अंगो से बना सावयवी है। वे चार अंग हैं ~ १) स्वामी, २ ) अमात्य, ३ ) मित्र, ४ ) कोश, ५ ) राष्ट्र, ६ ) दुर्ग, ७ ) सेना से बना है।
शुक्रनीति
में कहा गया है, ‘‘राज्य के इन सात निर्माणक तत्वों में स्वामी सिर,
अमात्य नेत्र, मित्र कर्ण, कोश मुख, सेना मन, दुर्ग भुजाऐं एवं राष्ट्र पैर
हैं।’’
एक
अन्य प्रसंग में राज्य की तुलना वृक्ष से करते हुऐ राजा को इस वृक्ष का
मूल, मंत्रियों को स्कन्ध, सेनापति को शाखा, सेना को पल्लव, प्रजा को धूल,
भूमि से प्राप्त होने वाले कारकों को फल एवं राज्य की भूमि को बीज कहा गया है।
शुक्र ने राजाओं की वार्षिक आय के आधार पर आठ प्रकार के राजाओं का उल्लेख किया है। १) सामन्त २) माण्डलिक ३) राजा ४) महाराजा ६) सम्राट७) विराट ८ ) सार्वभौम।
मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य का वर्ण श्वेत है। शुक्राचार्य को एकाक्ष नाम भी मिला हुआ है। इनका वाहन रथ है। रथ में अग्नि के समान आठ घोड़े जुते रहते हैं एवं रथ पर ध्वजाएं फहराती रहती हैं।इनका आयुध दण्ड है। शुक्र वृष और तुला राशि के स्वामी हैं। शुक्र की महादशा २० वर्ष की होती है।
गुरु शुक्राचार्य की पुत्री का नाम देवयानी था, पुत्र का नाम शंद और अमर्क था।
इनके पुत्र शंद और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहां नीतिशास्त्र का अध्यापन करते थे।
ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है।
जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है।
गुरु शुक्राचार्य के आश्रम आ कर कच ने सविनय निवेदन किया। ' हे परम् ज्ञानी गुरुवर, मैं, ऋषि अंगिरा पौत्र , बृहस्पति पुत्र कच, आपको प्रणाम करता हूँ।
कृपया आप मुझे अपने शिष्य रूप में स्वीकार करें तो मैं कृतार्थ हो जाऊंगा।
मैं वचन देता हूँ कि मैं ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, आपके आश्रम में रहूँगा। '
गुरु शुक्राचार्य ने कहा,' पुत्र, कच, स्वागत है। तुम्हारा सत्कार, बृहस्पति का सत्कार होगा।तुम सानंद मेरे पास रहो। ' अब कच गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में रहने लगे। वहाँ के काम में हाथ बंटाने लगे अपने गुरु शुक्र की गौओं को वे वन में चराने ले जाने लगे। दानव नहीं चाहते थे कि, देवलोक के गुरु बृहस्पति, जिन के प्रति दानवों को, अत्याधित द्वेष - भाव था, उन्हीं का पुत्र, यह कच - गुरु शुक्राचार्य के पास शिष्य बनकर रह रहा है। कच उन से संजीवनी विद्या न सीख ले। इस आशंका से का असुरों के मन में अत्याधिक भय उत्पन्न हुआ था। संजीवनी की गुप्त विद्या की सुरक्षा हेतु, दानवों ने कच की दो बार ह्त्या की थी।
एक दिन संध्या काल होते, गौएँ, अपने रक्षक ग्वाले की बिना आश्रम में लौटीं।
तब चिंतित गुरु कन्या देवयानी ने अपने पिता शुक्राचार्य से कहा, ' पिताजी कच गौओं के साथ लौटे नहीं। या तो अवश्य कुछ अप्रिय घटना हुई है। या किसी ने कच की ह्त्या की हो मुझे ऐसा जान पड़ता है।' इतना कह, आगे देवयानी रोने लगी।
गुरू शुक्राचार्य, देवयानी को साथ लिए वहीं पहुंचे जहां कच मृत पड़ा हुआ था।
अब बिलखती हुई देवयानी ने कहा, ' हा पिता ! यह कैसा अप्रिय काण्ड हुआ ! मैं कच से, मौन भाव से, प्रेम करने लगी हूँ। उनके बिना अब मैं जीवित न रहूंगी। मैं सत्य कह रही हूँ ! आपकी सौगंध ! ' अपनी पुत्री के अश्रु देखकर शुक्राचार्य स्नेह विगलित हो गए। कहा,' अरे बिटिया तू इतना घबड़ाती क्यूँ है ! ले मैं अभी इसे जीवित कर देता हूँ।' इस प्रकार कच को गुरु शुक्राचार्य की संजीवनी विद्या से जीवन दान मिला। कुछ समय शान्ति से बीता। किन्तु एक संध्या कच आश्रम में पुनः लौट कर न आया। इस बार दुष्ट असुरों ने कच की ह्त्या कर के कच का शरीर भेड़ियों को खिला दिया था। गुरु शुक्राचार्य ने संजीवनी मन्त्र पढ़कर अपने कमण्डलु से अभिषिक्त जल के छींटे छिड़कते हुए उच्च स्वर से पुकारा, ' आओ बेटा कच ! ' तत्क्षण भेड़िये के अंग प्रत्यंग को भेद कर, कच के अंग, एकदूसरे से जुड़ते हुए,गुरु सेवा में उपस्थित हो गए। देवयानी ने कच से पूछा कि,
' तुम्हारे साथ किस निर्मम ने ऐसा किया ? बताओ ये कैसे हुआ ? ' तब कच ने सारा वृतांत देवयानी को कह सुनाया। कुछ समय शाँति से बीता। परन्तु दुबारा कच के साथ पुनः वैसा ही हुआ। गुरु शुक्राचार्य ने पुनः कच को जीवनदान दिया।
अब असुर एकत्रित हुए। कुटिल परामर्श व मंत्रणा करने के पश्चात असुरों ने एक युक्ति की। इस बार कच की ह्त्या कर उसे जलाकर भस्म कर दिया। उस भस्म को शुक्राचार्य की वारूणी पात्र में उंडेल कर, सेवा - भक्ति का स्वांग रचकर,
गुरु के समीप गए। गुरु शुक्राचार्य के हाथों में भस्म मिश्रित सुरापात्र धमा दिया।
गुरु शुक्राचार्य सुरा को पी गए। देवयानी उसी समय दौड़ी हुई आयी और कहा,
' पिता जी कच अब तक लौटा नहीं। प्रातः काल पूजा के पुष्प लेने गया था। अब तो रात्रि हो चली है। अवश्य भारी विपत्ति आन पडी है। ' उसी समय कच ने गुरु के शरीर के भीतर से पुकारा, ' हे परम् कृपालु गुरुवर ! आपका यह शिष्य आपके शरीर के भीतर से बोल रहा है ! आप ही मेरे परम् दयालु प्राण रक्षक प्राण दाता हैं। मुझ परकृपा करें गुरुदेव ! ' शुक्राचार्य ने कहा,' अरे यह तो बड़ा कठिन काण्ड घटित हुआ है।मैं तुम्हें संजीवनी विद्या सिखलाता हूँ। मेरा पेट फाड़ कर तुम बाहर आ जाओ। सुयोग्य पुत्र की भाँति तुम, मुझे जीवित कर देना। '
गुरू शुक्राचार्य के शरीर से कच जीवित बाहर आये। तद्पश्चात कच ने गुरू आज्ञा का पालन करते हुए संजीवनी विद्या से गुरु शुक्र को जीवित कर अपना प्रण निभाया । शुक्राचार्य को साष्टांग दंडवत कर बोले,' आज पश्चात आप ही मेरे माता, पिता, गुरु, भाई बँधु - बांधव सभी कुछ आप ही हैं। मैं
कृतज्ञ हूँ।आपने संजीवनी विद्या रूपी अमृत का मेरे इन कर्ण में, कर्णामृत
समान प्रवेश करवाया है।आप धन्य हैं गुरुदेव ! मैं आपका सदैव आदर करूंगा। जो व्यक्ति गुरु का आदर नहीं करते, वे संसार में सर्वथा कलंकित होते रहते हैं।'
चित्र : शुक्राचार्य और कच ~~ इस
घटना पश्चात शुक्राचार्य को बड़ी ग्लानि हुई। सुरापान से विवेकहीन होना
उन्हें आत्मग्लानि से भर गया। गुरु शुक्राचार्य ने श्राप देते हुए कहा,' मैं समस्त ब्राह्मणों को श्राप देता हूँ कि जो ब्राह्मण सुरापान करेगा वह धर्मभ्रष्ट कहलाएगा। '
कच का विद्या अध्ययन सम्पूर्ण हुआ। गुरु शुक्राचार्य ने कच की स्वर्ग लौटने की आज्ञा दी कच अमरावती अपने धाम लौटने को उद्यत हुआ। देवयानी उस क्षण कच के समीप आयी।मधुर, विनीत स्वर से बोली, ' कच , तुम कुलीन, सदाचारी, जितेंद्रीय, तापस स्वभाववाले हो। अब तुम स्नातक हुए। मैं तुम से प्रेम करती हूँ।अतः मुझ सेविका का स्वीकार करो। ' कच ने हाथ जोड़कर सविनय प्रतिकार करते हुए कहा,' एक पिता के शरीर से तुम व मैं दोनों प्रकट हुए। इस संसार में आये।अतः तुम मेरी बहन हुईं। तुम्हारे आश्रम में आपके परिवार की स्नेह छैंया में, मैं सुखपूर्वक रहा। देवी, अब कृपया घर लौटने की अनुमति प्रदान करें तथा मुझे आशीर्वाद दें। तथा यदाकदा मुझे स्नेह भाव से स्मरण कर लीजिएगा जैसे मैं करता रहूंगा। '
कच के प्रेम प्रस्ताव ठुकराने से आहात हुई देवयानी अब कुपित हो गयी। सरोष बोली, ' मैं, गुरु शुक्राचार्य कन्या देवयानी, तुम्हें श्राप देती हूँ तुम्हारी संजीवनी विद्या, कभी सफल ना हो ! '
कच ने विनम्रता से उत्तर दिया ' जो कुछ हो वही सही। मैं इस विद्या को अन्य को सीखलाऊँगा। मैं शाप का अधिकारी न था। देवी प्रणाम ' इतना कहकर कच, अमरावती लौट गए। स्वर्ग
में देवतागण कच को लौट आया देख कर अति प्रसन्न हुए व उसका अभिनन्दन किया
गया व कच को यज्ञ का भागी बनाया गया।संजीवनी विद्या प्राप्ति का उद्देश्य,
देवों का मनोरथ कच द्वारा इस प्रकार सिद्ध हुआ।
कुछ काल बीता। वृषपर्वा असुरों का राजा था। उसकी पुत्री रूपवती शर्मिष्ठा थी। वह देवयानी की शिष्या भी थी। एक दिवस कुछ कन्याओं सहित वह जल क्रीड़ा कर रही थी। देवराज इंद्र मरुत वरुण इत्यादि देवताओं के संग इसे निरख कर आनंद ले रहे थे। मरूत से इंद्र के कहने पर वायु के झोंकों से स्त्रियों के वस्त्र भिगो दिए गए। तब
शर्मिष्ठा ने भूल से अपनी गुरु देवयानी के वस्त्र धारण किये। जिसे देखते
ही देवयानी अत्यंत कुपित हुई ! कहा,
' हे असुर कन्या , तेरी यह धृष्टता ! मेरे वस्त्र क्यों धारण किये ? ' शर्मिष्ठा गर्व सहित बोली ' रहने दो जीजी, क्यों अकारण क्रोध कर रही हो ! भूल से तुम्हारे वस्त्र धारण कर लिए हैं। आप जानती हैं, मैं असुर नृपति वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा हूँ। वैसे, ध्यान रहे कि, आपके पिता, मेरे पिता के समक्ष, हाथ बांधे, उपस्थित रहते हैं। '
' हे असुर कन्या , तेरी यह धृष्टता ! मेरे वस्त्र क्यों धारण किये ? ' शर्मिष्ठा गर्व सहित बोली ' रहने दो जीजी, क्यों अकारण क्रोध कर रही हो ! भूल से तुम्हारे वस्त्र धारण कर लिए हैं। आप जानती हैं, मैं असुर नृपति वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा हूँ। वैसे, ध्यान रहे कि, आपके पिता, मेरे पिता के समक्ष, हाथ बांधे, उपस्थित रहते हैं। '
शर्मिष्ठा की ऐसी मन को चुभा देनेवाली वाणी से, देवयानी के क्रोध भरे ह्रदय में, जलते में मानों घी पड़ा ! दोनों क्रोधित थीं। सहसा शर्मिष्ठा, ने देवयानी के समीप आ कर देवयानी को खदेड़ कर, एक कुंए में धकेल कर शर्मिष्ठा, अपनी दासीयों सहित प्रस्थान कर गयी।
शोकमग्न देवयानी उस अन्धकार भरी रात्रि में कुंएं में रहीं। बाहर न निकल पाईं।
संयोगवश कुछ समय पश्चात नहुष पुत्र ययाति वहां से जा रहे थे। एक स्त्री के रुदन का स्वर सुन वे कुंएं के समीप आये।ययाति ने स्त्री की बाँह पकड़ कर उसे बाहर निकाला
तदुपरांत अपना परिचय देते हुए पूछा, ' देवी , आप कौन हैं ? इस विपत्ति में कैसे घिरीं ? कृपया बतलाएं।' देवयानी ने सविस्तार अपनी व्यथा - कथा कह सुनाई।
तब ययाति, देवयानी को ससम्मान गुरु शुक्राचार्य के आश्रम ले गए।
देवयानी ने अपने पिता से क्रंदन करते हुए अपना सारा वृतान्त कह सुनाया।
तब सक्रोध बोली, ' हे पिता, अब हम यहाँ कदापि न रहेंगें। चलिए हम कहीं अन्य स्थान को चलें ' इतने में असुरगण भी वहाँ आकर पिता पुत्री से प्रार्थना करने लगे
' हे गुरु पुत्री, कृपा कर आप शाँत हो जाएं । ' पिताने अपनी पुत्री को सांत्वना देते हुए कहा, ' पुत्री, क्रोध त्याग दो।शाँत चित्त से, विचार कर मुझे बतलाओ कि तुम, किस तरह, यहां रहने के लिए सहमत होगी ? मैं वचन देता हूँ, हम वही उपाय करेंगें।तुम बतलाओ तो सही, तुम किस प्रकार प्रसन्न रहोगी ? '
कुछ समय विचार कर देवयानी बोली, '
हे परम् ज्ञानी पिता! आप सर्व समर्थ हैं।आप, उस अहंकारी असुर नरेश से कहें
कि, राजपुत्री शर्मिष्ठा, अपनी एक सहस्त्र दासियों सहित, मेरी सेवा में,
उपस्थित हो।'
असुर
नरेश तथा असुर समुदाय को गुरु शुक्राचार्य के आदेश का पालन करना ही था।
ताकि, संजीवनी विद्याधारी परम सशक्त गुरू शुक्राचार्य, वहीं उन लोगों के
साथ बने रहें। अतः देवयानी के प्रस्ताव को सर्वमान्य करते हुए इसे स्वीकारना पड़ा।
कुछ
काल बीतने पर एक दिवस ययाति पुनः शुक्राचार्य आश्रम में पधारे। देवयानी,
शर्मिष्ठा तथा असंख्य दसियों को वन में विहार करते देख, ययाति
ने अभिवादन करते हुए प्रश्न किया, '
हे देवियों, दासियों के मध्य, जैसे रात्रि आकाश में, तारिकाओं के मध्य
चन्द्रमा के सदृश्य सुशोभित, आप दो चन्द्रिका सम कौन हैं ? कृपया, परिचय
दें ' ~ देवयानी, मंद स्मित सहित उत्तर देने लगी, ' हे राजन आप इतनी शीघ्र भूल गए ? मैं वही देवयानी हूँ, जिसका आप ने उद्धार किया था। मेरे पीछे खड़ी है, वह मेरी सेविका, असुर नरेश पुत्री शर्मिष्ठा मेरी दासी है। '
तद्पश्चात देवयानी ने ययाति का परिचय, पिता शुक्राचार्य से करवाया। गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में ययाति का भव्य आदर सत्कार हुआ। देवयानी ने उस रात्रि को एकांत में अपने पिता से अपने मन के भाव कह दिए। उसने
कहा कि, ' हे परम दयालु पिता ! मैं अपने मनोभाव आप से छिपाना योग्य नहीं
समझती।आप को ज्ञात है कि, महाराज ययाति ने मेरी प्राण रक्षा कर, मेरा
उद्धार किया। मैं, उन्हीं को अपना जीवन साथी बनाना चाहती हूँ। '
गुरु शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री के वचन सुन, उनके विवाह की सहर्ष स्वीकृति दे दी।
महाराज ययाति से गुरु शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह संपन्न करवाया। गुरु ने बेटी को विदा किया।
देवयानी
का महाराज ययाति के राजमहल में भव्य स्वागत हुआ। अन्तः पुर में देवयानी
महारानी की भाँति प्रतिष्ठित हुईं। शर्मिष्ठा तथा दासियाँ के रहने का
प्रबंध देवयानी के राजमहल के समीप जो अशोक वाटिका में करवाया गया।
कालांतर
में ययाति के देवयानी से दो पुत्र हुए। यदु व तुर्वसु। अन्तःपुर में,
विलासिता के मध्य अपने दिन रैन व्यतीत कर रही देवयानी को इस बात का आभास भी
न हुआ कि, ययाति ने शर्मिष्ठा से गन्धर्व विवाह कर लिया था !शर्मिष्ठा से ययाति को तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई।जिनके नाम थे, द्रह्यु , अनु व पुरू !
एक दिवस देवयानी के संग ययाति राजमहल के उद्यान में टहल रहे थे।
अचानक तीन सुँदर बालक आकर महाराज के चरणों से लिपट गए। देवयानी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कुतूहलवश पूछा, ' बालकों तुम कौन हो ? ' भोले शिशुओँ ने महाराज ययाति की ओर ऊँगली उठाकर उन्हें ' पिताजी ' कहकर सम्बोधित किया तब देवयानी अत्यंत विस्मित हुई। उसने बालकों से पूछा ," कहो तुम्हारी माता कहाँ हैं ? मुझे इसी क्षण उन के पास ले चलो। ' तीनों पुत्र दौड़कर, उसी उद्यान की एक शिला पर बैठीं, अपनी माँ शर्मिष्ठा के पास पहुंचे।
देवयानी ने शर्मिष्ठा को देखते ही क्रोधित स्वर से प्रश्न किया,
' हे शर्मिष्ठे ! तुमने मेरा अप्रिय क्यों किया ? क्या तुम्हें मेरा भय नहीं ?
मैं इसी क्षण तुम्हें मृत्यु - दण्ड दे सकती हूँ ! ' शर्मिष्ठा ने गर्व से ग्रीवा उठाकर, संयत स्वर से उत्तर दिया, ' मैंने जो भी किया, न्याय व धर्म सम्मत कार्य ही किया है। तब मैं क्यों भयभीत होऊँ ? ' शर्मिष्ठा
ने, देवयानी द्वारा आरोपित किये हुए अपने दासीत्व बोध के अपमान का शायद इस
प्रकार प्रतिकार किया था। देवयानी ने भले असुर नरेश राज - पुत्री
शर्मिष्ठा को अपनी सेवा में हठ पूर्वक रख कर उसे अपमानित किया किन्तु
शर्मिष्ठा का स्वाभिमान अक्षुण्ण रहा।शर्मिष्ठा ने अपनी मनमानी करते हुए,
देवयानी के पति को स्बयं के पतिरूप में चुनकर, पूर्व पत्नी देवयानी को इस
प्रकार अपमानित किया था।
देवयानी
क्रोधावेश से काँपती हुई, उसी क्षण अपने पिता गुरु शुक्राचार्य के आश्रम
में आयी तथा पिता से, शर्मिष्ठा ययाति के प्रेम - विवाह की घटना सविस्तार कह
सुनाई। महाराज ययाति भी देवयानी के पीछे वहीं आन पहुंचे थे। गुरु शुक्र ने, अपनी लाड़ली पुत्री शोक से व्यथित हो, शाप दिया कहा, ' हे राजन, यौवन व गर्व मद से चूर हो कर तुम निरंकुश व्यवहार करनेवाले धूर्त हो ! जिस यौवन - मद से गर्वित होकर तुमने यह धूर्त व्यवहार किया है, तुम्हारा वही ' यौवन ' जाता रहेगा ! ये मेरा श्राप है ! ' -- गुरु की वाणी अमोघ थी। तत्काल ययाति वृद्धवस्था को प्राप्त हुए। काले भ्रमर से केश, श्वेत कपास से हो गए। शरीर झुक गया। तेजस्वी मुखमण्डल कुम्हला गया।त्वचा झुर्रियां से वृद्ध हुईं । अब ययाति को ग्लानि हुई। वे गुरु शुक्राचार्य के चरणों में झुक कर क्षमा याचना करने लगे। तब गुरु शुक्र का ह्रदय पसीज गया। उन्होंने कहा, ' तुम चाहो तो किसी को भी अपना यह वृद्धत्त्व हो। उन से यौवन माँग कर पुनः युवावस्था भोग सकोगे। ' भारी मन से, वृद्ध तन से, शिथिल चाल से, महाराज ययाति अपने राजप्रासाद में लौटे।
ययाति ने अपने नगरवासियों से , राजमहल में सभी से प्रार्थना की। किन्तु
एक भी व्यक्ति, अपना यौवन महाराज को देकर, बदले में उनसे, महाराज
की वृद्धावस्था लेने के लिए राजी न हुआ। सभी पुत्रों ने अपनी अपनी असमर्थता
प्रकट करते हुई असमर्थता प्रकट की। उस समय ययाति पुत्र पुरु, पिता के समक्ष हाथ जोड़कर उपस्थित हुए। पुरु, पिता से सविनय बोले,'
हे पिता ! मैं शर्मिष्ठा पुत्र पुरु, मेरे पिता महाराज ययाति को अपना यौवन
देता हूँ। आपकी वृद्धावस्था को मैं, स्वीकार करता हूँ। ' पुरु के वचन समाप्त होते ही महाराज ययाति, पूर्ण यौवनावस्था से परिपूर्ण हो गए। सामने हाथ जोड़े उपस्थित पुरु अकाल वृद्धत्त्व को प्राप्त हुआ ! अपने
युवा पुत्र को इस प्रकार अकाल वृद्ध हुआ देखकर महाराज ययाति का ह्रदय
अत्यंत व्यथित हुआ। पिता अपने पुत्र से लिपट गए। त्याग व उदारता की मूर्ति
अपने पुत्र पुरु को महाराज ययाति ने अश्रु अंजलि देते हुए अनेकानेक आशीर्वाद दिए एवं पुरु को वरदान दिए। यौवन
भोगने के पश्चात महाराज ययाति स्वर्ग सिधारे।अपना यौवन पुनः अपने पुत्र
पुरु को लौटा दिया। युवावस्था प्राप्ति पश्चात पुरु का राज्याभिषेक संपन्न
हुआ।
इस प्रकार कालान्तर में पुरुवंश की स्थापना हुई।
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- लावण्या
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