Friday, May 27, 2022

महामुनि अगस्त्य जी ~तथा विदर्भ नरेश कन्या 'लोपामुद्रा' ( अमर युगल पात्र से )

 

ॐ 
ऋग्वेद का कथन है कि मित्र तथा वरुण नामक देवताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ।उस कलश के मध्य भाग से, दिव्य तेज:सम्पन्न महर्षि अगस्त्य का प्रादुर्भाव, प्राचीन काल में, काशी  नगरी में हुआ था। 
" सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्। 
  ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥ "
इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है कि,
 ' ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् 
  अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव।
    तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥' 
इस प्रकार कुंभ से अगस्त्य तथा महर्षि वसिष्ठ का प्रादुर्भाव हुआ।
 ( उपरोक्त तथ्य : कृष्ण्कोष से साभार )
        महामुनि अगस्त्य जी ऋषि वसिष्ठ के बड़े भ्राता तथा सप्तर्षियों में से एक हैं। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के १६५  सूक्त से क्रम १९१  तक के सूक्त, ऋषि अगस्त्य द्वारा दृष्ट हैं। अतः अगस्त्य को मन्त्र द्रष्टा ऋषि कहते हैं।
' गया ग्राम के पास ' गयशिर 'नामक पर्वत है। बेंत के वन से घिरी अति मनोहारी महानदी पास ही बहती है। अनेक ऋषि मुनियों से सेवित ' धरणीधर ' पर्वत भी वहीं है। उस पर्वत पर ' ब्रह्मसर'  नामक पवित्र तीर्थ है वह साक्षात धर्मराज तथा श्री महादेव जी का निवास स्थान है। 
         एक समय की  बात है कि ब्रह्मसर तीर्थ पे भगवान अगस्त्य, सूर्यपुत्र यमराज धर्मराज से मिलने पधारे। शास्त्र चर्चा आरम्भ हुई। शमठ नामक संयमी व ब्रह्मचारी साधू ने उपस्थित विद्वान ने, अमृतराया के पुत्र, राजर्षि
' गय ' की कथा सुनाई। गय से ही उस स्थान को ' गया ' नाम मिला है। शमठ ने बतलाया कि, गय ने अनेकानेक यज्ञ ब्रह्मसर के समीप संपन्न किये थे। 
अगस्त्य ऋषि वार्तालाप के पश्चात तीर्थ में भ्रमण करने लगे। एक निर्जन स्थान पर,भूमि में बने एक गढ्ढे में, बहुत से साधू पुरुषों को सर के बल औंधे लटके हुए अगस्त्य को दिखलाई दिए।  समीप जाकर देखा तो वे अगस्त्य के पित्री थे। अगस्त्य को आश्चर्य हुआ तो अपने  पितरों से प्रणाम करते हुए पूछा, ' प्रणाम पितृगण महात्मा ! कृपया बतलाएं, आप इस प्रकार, अपार कष्ट  क्यों कर झेल रहे हैं ? ' वेदवादी पितरों ने उत्तर दिया,' पुत्र, संतान परम्परा के लोप की सम्भावना के कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है। कब तुम्हें संतान प्राप्ति होगी ? तुम कब पितृ तर्पण करोगे न जाने ! अतः हमारी ये दुर्दशा है। तुम्हें एक पुत्र  तो हमें और तुम्हें सद्गति मिल सकती है।" 
अगस्त्य अत्यंत तेजस्वी एवं सत्यनिष्ठ थे। हाथ जोड़ उन्होंने सविनय उत्तर दिया ,
' हे पितृगण मैं, इच्छा पूर्ण करूंगा। आप निश्चिन्त हों। '  
अपने पितरों की यह दुर्दशा देखने के बाद अगस्त्य मुनि ने विवाह करने का निश्चय किया। पुत्रोत्पति की इच्छा से अगस्त्य विदर्भ नगरी में आ पहुंचे जहां विदर्भ नरेश कन्या 'लोपामुद्रा'  अद्वितीय सुन्दरी और परम चरित्रवती के रूप में विकसित हो, राजमहल में सुशोभित थी। 
     अगस्त्य ऋषि ने लोपामुद्रा से विवाह प्रस्ताव रखा तो विदर्भ नरेश घबड़ा गए। ऋषि को आदर सत्कार सहित ठहराया। स्वयं अपनी पत्नी के पास आकर बोले, ' हे महारानी, यदि मैं ना करता हूँ  ~ तो महर्षि रुष्ट होंगे। यदि हाँ कह दूँ तब मेरी पुत्री को तपस्वीनी बन कर जीवन जीने के लिए बाध्य करता हूँ ! मैं करूं तो क्या करूँ ? उहापोह से मन विचलित है। ' महारानी धीरज बँधाने लगीं।  उस समय लोपामुद्रा  ने अन्तः पुर में अपनी सखियों व दासियों के मुख से ऋषि अगस्त्य के इस प्रस्ताव की बात सुनी। वह तुरंत अपने माता, पिता के समीप आयी। आदर सहित प्रणाम किये। तथा वे बोली, ' आप को प्रणाम ! परम ज्ञानी ऋषि अगस्त्य, जैसे महापुरुष अकारण कुछ नहीं करते। सदैव तापस शिरोमणि शिवशंकर से ब्याह रचाकर, गिरिवरनन्दिनी माता पार्वती, जगज्जननी कहलाईं। हैं सो ऐसे  तेजस्वी ऋषि अगत्स्य ने वृथा ऐसा  भेजा। होगा हमारे वंश को कीर्ति प्रदान  करने हेतु ही ऋषिवर पधारे हैं। हे माता हे पूज्य पिता , आप व्यर्थ में शोक न करें। इसी क्षण से मैं, महामना अगस्त्यजी का पति रूप में वरण करती हूँ' अपनी पुत्री की बोधयुक्त वाणी सुनकर विदर्भ नरेश व् महारानी अति प्रसन्न हुए। 
शास्त्रोक्त विधिपूर्वक ऋषि अगस्त्य से लोपामुद्रा का पाणिग्रहण संस्कार संपन्न हुआ। पत्नी सहित अगस्त्य जी अगस्त्याश्रम आये। पत्नी से कहा ,' देवि लोपामुद्रा इन बहुमूल्य आभूषणों तथा रेशमी वस्त्रों का आश्रम में क्या उपयोग है अतः इन्हें त्याग दो। ' राजकुमारी लोपामुद्रा ने पति के आदेश मानकर, सुँदर महीन वस्त्र उतार कर  वल्कल, चर्म व छाल से तन सजाया तथा आभूषण के स्थान पर रुद्राक्ष धारण किये। 
         तदन्तर अगस्त्य ऋषि हरिद्वार में आश्रम बनाकर रहने लगे। पतिपरायणा लोपामुद्रा बड़ी तत्परता से ऋषिवर की सेवा करने लगीं। अगस्त्य ऋषि अपनी भार्या से, बड़े प्रेम से मधुर बर्ताव करते।  
            एक दिन ऋतुस्नान के पश्चात, तप से बड़ी हुई कांतिवाली  लोपामुद्रा को ऋषिवर ने देखा।अपनी पत्नी की सेवा, पवित्रता, संयम, कांति व रूप माधुरी ने उन्हें मुग्ध किया।समागम हेतु अगस्त्य ने कल्याणी का आह्वान किया। लोपामुद्रा ने सकुचाते हुए कहा, ' मुनिवर निस्संदेह पति पत्नी संतान प्राप्ति हेतु संसार बंधन में बांधते हैं। मेरी व आपकी प्रीती सार्थक हो। परन्तु हे ऋषिश्रेष्ठ, इन काषाय वस्त्रों में, तपस्विनी वेशभूषा में, मैं, आपके पास नहीं आऊंगी।कृपया मेरी इच्छानुसार मेरे लिए, वैसे ही वस्त्राभूषण जुटायें, जैसे अपने पिता के यहां धारण किया करती थी। '  अगस्त्य जी ने कहा, मेरे पास ऐसा धन ऐश्वर्य कहाँ ?~ 'लोपामुद्रा ने संयत किन्तु दृढ स्वर में कहा, ' स्वामी, आपके तपोबल के समक्ष कुबेर की संपत्ति वैभव नगण्य है। आप इच्छा करें तो समस्त संपत्ति क्षणमात्र में उपस्थित हो जाए ! ' 
अगस्त्य जी बोले , ' सत्य है।  मुझ में यह सामर्थ्य है, किन्तु देवी, मेरा  सँचित तपोबल ऐसा करने से क्षीण हो जाएगा। हाँ एक उपाय है, किसी सामर्थ्यवान राजवी  से दान दक्षिणा मांग लाता हूँ। '
      प्रथम वे राजा श्रुतर्वा  के राजमहल में आये।राजा ने श्रद्धा तथा आदर से सत्कार करते हुए ऋषि की माँग के अनुसार, अपना पूरा लेखा - जोखा उनके समक्ष रख दिया। आय - व्यय बराबर था।
अतः अगस्त्य ऋषि ने उससे  लेना अनुचित समझ कर वहां से प्रस्थान कर लिया। 
 महाराज बृहदश्व के राज दरबार से भी ऋषि निराश लौटे। आय - व्यय उसका भी समान था। सो ऋषि ने सोचा, ' यदि मैं इस का धन लेता हूँ, तो राज्य के अन्य प्राणी अपार कष्ट भोगेंगे ! ' तब उसका धन लेनेका संकल्प त्याग कर वे तीनों, पुरुकुत्स राजा ने महान पुत्र ,ईष्वाकुभूषण त्रसदस्यु के पास गए। उत्साह से त्रसदस्यु ने स्वागत किया किन्तु उसके पास भी अतिरिक्त धन का अभाव था। अब श्रुतर्वा, बृहदश्व तथा त्रसदस्यु - आपस में मंत्रणा कर, इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि,  संसार में असुर राज ' इल्वल ' ही धनी है। अतः वे सभी इल्वल के पास गए। 
अगस्त्य जी बोले ,' हे असुर राज इल्वल हम सभी आपको सामर्थ्यवान व धनकुबेर समझते हैं। अतः आप मेरी सहायता कीजिए। मैं थोड़ा धन  चाहता हूँ।   '
इल्वल, आदर सहित प्रणाम कर बोला, ' दे तो दूँ , पर मेरी आसुरी वृत्ति आपसे एक प्रश्न पूछना चाहती है। क्या आप ये बतला सकते हैं कि, मैं आपको कितना धन देना  चाहता हूँ ?  यदि आप मेरे गुप्त मनोभाव बतला सकें तो मैं, सहर्ष आपको धन दूंगा। ' 
             अगस्त्य ऋषि ने एक लम्बे निः श्वास लेकर सोचा ' यह कैसी अप्रिय प्रदर्शन ~ क्रीड़ा है ! ' ज्ञान के महासमुद्र सामान संसार के विलक्षण ज्ञानी अगस्त्य ऋषि के मन को यह सुझाव न भाया। तथापि वे बोले, ' हे असुरराज ! मेरे संग तुम्हारे राजप्रसाद में पधारे प्रत्येक राजन को तुम दस सहस्त्र गौएँ तथा दस सहस्त्र स्वर्णमुद्राएँ देना चाहते हो। मुझे उनसे दुगुनी गौएँ तथा स्वर्णमुद्राएँ देना चाहते हो। स्वर्ण निर्मित रथ जिसमें जिस में मन की गति से दो वेगवान अश्व विराव तथा सुराव जुते होंगें जो, धन राशि को उठाने कर मेरे आश्रम तक पहुंचा दें तुम यही समस्त मुझे देना चाहते हो। '
          ऋषि अगस्त्य की वाणी सुनकर सभी अचंभित हुए। इल्वल प्रसन्न हुआ। ऋषि को सहर्ष दान देकर, असुरराज पुण्यवान हुआ। राजाओं से विदा लेकर अगस्त्य लोपामुद्रा के पास लौटे। 
अपनी प्रिय पत्नी लोपामुद्रा की समस्त मनोकामनाएँ ऋषि अगस्त्य ने पूर्ण कीं।
 लोपामुद्रा हर्षित होकर बोलीं,' आपने मेरे समस्त मनोरथों को पूर्ण किया है। यह श्रृंगार अपने पति  प्रसन्नता हेतु धारण किये मैं आपके समक्ष उपस्थित हूँ। हे परम् तेजस्वी ऋषिवर कृपा कर एक ऐसा पुत्र मुजगे दें जो बुद्धिमान हो, बलशाली हो तथा पराक्रमी बने। '  
अगस्त्य जी बोले, ' हे परम सुंदरी ! तुम्हारी यह प्रसन्न छवि विलोक, मैं संतुष्ट हूँ। संतति के विषय में मेरे विचार सुनो। तुम एक सहस्त्र पुत्रों  बनने की इच्छा रखती हो या सौ पुत्रों की या तुम एक पुत्र ऐसा  चाहती हो जो सहस्त्रों के समकक्ष हो ? ' 
लोपामुद्रा बोलीं ' हे तपोधन ! मैं सहस्त्रों की तुलना में श्रेष्ठ हो ऐसा एक पुत्र चाहती हूँ। क्योंकि सहस्त्र अयोग्य पुरुषों में, एक योग्य एवं विद्वान पुरुष ही श्रेष्ठ ठहरता है। ' लोपामुद्रा का निर्णय सुन अगस्त्य ऋषि ने ' तथास्तु ' कहा।
 लोपामुद्रा को शैशव से माँ भुवनेश्वरी का श्री सिद्धिदात्री यंत्र एवं उपासना पद्धति की दीक्षा की प्राप्ति हुई थी। 
 लोपामुद्रा उवाच अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं। अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि |
 ऋग्वेद से ~ 
ऋषि :- लोपमुद्राऽगस्त्यौ
देवता :- दम्पती - युगल 

छन्द :- त्रिष्टुप्
स्वर :- धैवतः
लिपि-शुद्ध संस्कृत

न॒दस्य॑ मा रुध॒तः काम॒ आग॑न्नि॒त आजा॑तो अ॒मुत॒: कुत॑श्चित् । 

लोपा॑मुद्रा॒ वृष॑णं॒ नी रि॑णाति॒ धीर॒मधी॑रा धयति श्व॒सन्त॑म् ॥

ऋग्वेद के मंडल १ के सूक्त १७९ मंत्र ००४
(नदस्य) अव्यक्तशब्दं कुर्वतो वृषभादेः (मा) माम् (रुधतः) रेतो निरोद्धुः (कामः) (आगन्) आगच्छति प्राप्नोति (इतः) अस्मात् (आजातः) सर्वतः प्रसिद्धः (अमुतः) अमुष्मात् (कुतः) कस्मात् (चित्) अपि (लोपामुद्रा) लोपएव आमुद्रा समन्तात् प्रत्ययकारिणी यस्याः सा (वृषणम्) वीर्यवन्तम् (निः) नितराम् (रिणाति) (धीरम्) धैर्ययुक्तम् (अधीरा) धैर्यरहिता (धयति) आधरति (श्वसन्तम्) प्राणयन्तम् ॥४॥

हिंदी अनुवाद ~ (इतः) इधर से वा (अमुतः) उधर से वा (कुतश्चित्) कहीं से (आजातः) सब ओर से प्रसिद्ध (रुधतः) वीर्य रोकने वा (नदस्य) अव्यक्त शब्द करनेवालें वृषभ आदि का (कामः) काम (मा) मुझे  (आगन्) प्राप्त हो। अर्थात् उनके सदृश कामदेव उत्पन्न हो। 

(अधीरा) धीरज से रहित वा (लोपामुद्रा) लोप होजाना लुक जाना ही प्रतीत का चिह्न है। जिसका सो यह स्त्री (वृषणम्) वीर्यवान् (धीरम्) धीरजयुक्त (श्वसन्तम्) श्वासें लेते हुए अर्थात् शयनादि दशा में निमग्न पुरुष को (नीरिणति) निरन्तर प्राप्त हो। (धयति) उससे गमन भी करती है ॥४॥

लोपामुद्रा के गर्भाधान पश्चात ऋषि अगस्त्य तपस्या करने चले गए। सात वर्ष गर्भ पेट में पल कर बढ़ता रहा। सातवां वर्ष समाप्त होते दृढस्यु नामक बुद्धिमान, तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। दृढस्यु का दुसरा नाम इध्मवाहा भी है। दृढस्यु वेदों का सांगोपांग विद्वान एवं उपनिषदों का पाठ करनेवाला तेजस्वी ऋषिपुत्र था। ऐसे गुणवान पुत्र की प्राप्ति से अगस्त्य ऋषि के पितृगण तृप्त हुए। सभी पित्री सद्गति प्राप्त कर वे इच्छनीय ऊर्ध्व लोक को प्राप्त हुए। 

' अगस्त्याश्रम ' ~ 

एक बार नारद जी विध्याचल पर्वत से महामेरू परबत का महिमा मंडान करते गुणगान  करने लगे। विंध्य पर्वत ने सोचा, ' क्यों न मैं  मेरू के समान बढ़ूँ ! ' वह बढ़ने लगा। देवतागण भागे हुए अगस्त्य ऋषि के समीप आये।  प्रार्थना कर  कहने लगे ' हे ऋषिवर ! आप कृपा कर विंध्याचल परबत को स्तम्भित करें। ' 

अगस्त्य ऋषि अपनी धर्मपत्नी लोपामुद्रा सहित विंध्याचल को पार करने आये। पर्वतराज विंध्य ने सविनय ऋषिवर को प्रणाम किया। अगस्त्य ऋषि ने विंध्य को आदेश दिया, ' हे पर्वत राज मुझे प्रणाम करते हो,मेरा आदर करते हो तो मेरी बात सुनो। जब  लौट कर नहीं आता, तुम बढ़ना नहीं। इसी अवस्था में स्तम्भित, अचल रहना। ' विंध्याचल पर्वत ने ऋषि आज्ञा का पालन किया। अगस्त्य  ऋषि उत्तर भारत से दक्षिण भारत में आकर बस गए। 

             अब तक ना ही अगस्त्य ऋषि लौटे हैं ना ही विंध्य पर्वत बढ़ा ! ना ही पर्वतराज विंध्याचल अपने वचन को भूले हैं।दक्षिण भारत में मलयाचल पर्वत पर अगस्त्य ऋषि ने अगस्त्याश्रम की स्थापना की तथा दक्षिण भारतीय वांग्मय के वे पितृ पुरुष कहलाये। मान्यता है दक्षिण भारत में अगस्त्यकूट पर्वत पर वे  तपस्या रत हैं। दक्षिण भारत की अति प्राचीन ' तमिळ ' भाषा के तीन संघों मे से प्रथम दो संघों में अगस्त्य ऋषि का योगदान है। अगस्त्य नाटे कद के थे सो उन्हें ' कुरुमुनि ' भी कहते हैं।  तमिळ भाषा का व्याकरण,संगीत शास्त्र, साहित्य व नाट्य शास्त्र के दाता अगस्त्य ऋषि हैं। अगस्त्य ऋषि के शिष्य ' टॉकपयार ' ने ' टोकपायम ' व्याकरण शास्त्र ग्रन्थ लिखा। तमिलभाषी विद्वान श्रीमान विलुपुत्तरान का कहना है कि, ' अमृतवाणी तमिळ भाषा, भारतभूमि को अगस्त्य ऋषि द्वारा प्रदत्त दिव्य - प्रसाद है। 

अगस्त्य ऋषि द्वारा रचित सुप्रसिद्ध साहित्य :
ऋग्वेद में अगस्त्य ~ लोपामुद्रा संवाद है।  
 
 १ ) अगस्त्य ~ गीता २) अगस्त्य ~ संहिता ग्रन्थ में विद्युत ( बिजली ) उत्पादन से जुड़े सूत्र हैं। 

उदाहरणार्थ : 

संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌। 

छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥ 

दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:। 

संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥ 

-अगस्त्य संहिता

अर्थात :एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं। 

 ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें। फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।

३ ) शिव ~ संहिता ४) द्वैध निर्णय तंत्र 

             वर्तमान काल भारतवर्ष में, राजगृह के निकट बिहार प्रांत में, उत्तर भारत का अगस्त्याश्रम स्थित है। प्राचीनकाल में पाण्डव भी अगस्त्याश्रम यात्रा करते हुए पहुंचे थे। इसे भृगु तीर्थ भी कहते हैं। यहां स्नान करनेसे प्राणी तेजस्वी हो जाता है ऐसी लोक मान्यता है। श्रीरामचन्द्र जी ने परशुरामजी के तेज को किन्ठित कर दिया था तद्पश्चात भृगु तीर्थ में स्नान व पूजन कर उन्हें तेज की पुनः प्राप्ति हुई थी। ज्येष्ठ पाण्डु पुत्र युद्धिष्ठिर के तेज को  कौरव पुत्र पापात्मा दुर्योधन के हर लेने पर भृगुतीर्थ में स्नान पूजन कर, युद्धिष्ठिर को अपना खोया हुआ तेज पुनः प्राप्त हुआ था। 

 अगस्त्य ऋषि से जुड़े अन्य रोचक प्रसंग ~ 

एक समय की बात है,  देवल ऋषि के आश्रम के समीप ' हु हु ' नामक गन्धर्व अपनी पत्नियों समेत जलक्रीड़ा करने आया था। नग्नावस्था में कोलाहल करते हुए  ' हु हु ' को ऋषिने श्राप दिया  ' जा तू व्याघ्र ( मगरमच्छ )  बन जा ! 

        त्रिकूट पर्वत के पास एक सरोवर में, पूर्व जन्म में राजा इन्द्रद्युम्न का हाथी के रूप में पुनर्जन्म हुआ था। पांड्य देश के राजा इन्द्रद्युम्न एक बार पूजा कर।  अगस्त्य ऋषि वहां पधारे। किन्तु पूजा में लीं इन्द्रद्युम्न को सुध ना रही। इस के कारण क्रुद्ध हुए अगस्त्य ऋषि ने  श्राप दिया,' ऋषियों का अनादर करनेवाले जा तू हाथी की योनि में जन्म ले ! ' 

      अब हाथी का जन्म लिए इन्द्रद्युम्न जल में प्रविष्ट हुए। ' हु हु ' जो व्याघ्र बना था उसने हाथी का पैर अपने बलिष्ट दांतों में जकड लिया। पूर्व जन्म के पुण्य कर्मों के प्रताप से हाथी बने इन्द्रद्युम्न महाविष्णु की स्तुति करने लगे। महाविष्णु गरूड़जी ने  पर सवार होकर, आकाश मार्ग से अवतरित हो, हु हु - व्याघ्र का सर काट कर हाथी की प्राण रक्षा की तदनन्तर दोनों को मुक्ति मिली। यही  पुराण प्रसिद्ध ' गजेंद्र ~ मोक्ष कथा '  है। 

                     श्रीरामचन्द्र जी ने श्री सीता स्वयंवर से पूर्व राक्षसी ताड़का का वध किया था। ताड़का सुकेतु यक्ष की पुत्री थी। ताड़का का विवाह ' इहराजा ' या ' सुन्द ' से हुआ था उसीका पुत्र ' मरीची ' था। पति सुन्द की मृत्यु के पश्चात तोड़ फोड़ करती, दौड़ती - भागती, ताड़का अगस्त्य ऋषि के आश्रम में  उत्पात करने लगी। अगस्त्य ऋषि के श्राप से ताड़का राक्षसी बन गयी तथा ताड़का पुत्र मरीचि कुरूप हो गया।  ताड़का अगस्त्याश्रम से निकल कर वन , वन भटकने लगी।  

 श्रीरामचन्द्र जी अगस्त्य ऋषि तथा लोपामुद्रा से वनवास में मिले थे। श्रीरामचन्द्र जी को दैत्यराज रावण के संग युद्ध करने से पूर्व अगस्त्य ऋषि ने सूर्य देवता का पवित्र मंत्र आदित्य ह्रदय स्रोत महामंत्र ' प्रदान किया था जिसके पाठ से श्रीराम विजयी हुए। अगस्त्य ऋषि ने श्रीरामचन्द्र जी को  अमोघ बाण, धनुष, अक्षय तूणीर तथा खड्ग दिए थे।
नहुष के स्वर्ग से पतन का श्राप भी ऋषि अगस्त्य ने दिया था। 

कालकेय राक्षस समुद्र में जा कर छिप जाते थे। दिनभर वे छिपे रहते तथा रात्रि में बाहर निकलकर ब्राह्मणों व ऋषियों का वध कर देते थे। सभी देवतागण एकत्रित होकर शेषशायी महानारायण  के वैकुण्ठ धाम पहुंचे। महानारायण ने उनसे कहा,

' पृथ्वी पर अगस्त्य ऋषि हैं आप उनसे विनती करें मुझे पूर्ण विशवास है कि वे इस समस्या का समाधान अवश्य करेंगें। देवतागण अगस्त्याश्रम आये।

ऋषि से अंजलिबद्ध विनती कर बोले, ' हे कृपालु ऋषिवर आप से पुण्यश्लोक धर्मात्मा पृथ्वी का कष्ट हरने में समर्थ हैं।कृपया कालकेय राक्षसों के उत्पात से विप्र - ऋषि जन को रक्षा प्रदान करें '

ऋषि अगस्त्य ने देवताओं से कहा ' आप निश्चिंत हों। मैं, कालकेयों का सँहार करूंगा। ' देवताओं  लेकर अगस्त्य घरहराते गर्जन टार्जन करते सागर तट पर आ पहुंचे। अपनी अंजलि में सागर के जल को भर भर के वे समुद्र जल का आचमन करने लगे। कुछ क्षणों में सागर सूख गया। कालकेय राक्षस जो छिपे थे , प्रकट हो गए तब देवताओं ने उन  का सँहार किया। यह सूखा समुद्र देख सभी ग्लानि से भर गए। महाविष्णु ने प्रकट होकर कहा, ' ऋषि अगस्त्य ने समुद्र सोख लिया। भगीरथ प्रयास से पृथ्वी पर जिस समय गँगा  अवतरण संभव होगा, यह समुद्र भी उस समय लहराएगा। पौराणिक साहित्य के अनुसार अगस्त्य-ऋषि ने भारत की आर्य-सभ्यता का सुदूर दक्षिण तथा समुद्र पार के देशों तक प्रचार किया था।

तत: सम्प्रस्थितो राजा कौंतेयो भूरिदक्षिण: 
  अगस्त्याश्रममासाद्य दुर्जयायामुवा
अमर युगल पात्र : ऋषि अगस्त्य व उनकी पत्नी लोपामुद्रा को शत शत प्रणाम। 
      ~~ इति ~ ~




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