' गय ' की कथा सुनाई। गय से ही उस स्थान को ' गया ' नाम मिला है। शमठ ने बतलाया कि, गय ने अनेकानेक यज्ञ ब्रह्मसर के समीप संपन्न किये थे।
छन्द :- त्रिष्टुप्
स्वर :- धैवतः
लिपि-शुद्ध संस्कृत
न॒दस्य॑ मा रुध॒तः काम॒ आग॑न्नि॒त आजा॑तो अ॒मुत॒: कुत॑श्चित् ।
लोपा॑मुद्रा॒ वृष॑णं॒ नी रि॑णाति॒ धीर॒मधी॑रा धयति श्व॒सन्त॑म् ॥
ऋग्वेद के मंडल १ के सूक्त १७९ मंत्र ००४
(नदस्य)
अव्यक्तशब्दं कुर्वतो वृषभादेः (मा) माम् (रुधतः) रेतो निरोद्धुः (कामः)
(आगन्) आगच्छति प्राप्नोति (इतः) अस्मात् (आजातः) सर्वतः प्रसिद्धः (अमुतः)
अमुष्मात् (कुतः) कस्मात् (चित्) अपि (लोपामुद्रा) लोपएव आमुद्रा समन्तात्
प्रत्ययकारिणी यस्याः सा (वृषणम्) वीर्यवन्तम् (निः) नितराम् (रिणाति)
(धीरम्) धैर्ययुक्तम् (अधीरा) धैर्यरहिता (धयति) आधरति (श्वसन्तम्)
प्राणयन्तम् ॥४॥
हिंदी अनुवाद ~ (इतः) इधर से वा (अमुतः) उधर से वा (कुतश्चित्) कहीं से (आजातः) सब ओर से प्रसिद्ध (रुधतः) वीर्य रोकने वा (नदस्य) अव्यक्त शब्द करनेवालें वृषभ आदि का (कामः) काम (मा) मुझे (आगन्) प्राप्त हो। अर्थात् उनके सदृश कामदेव उत्पन्न हो।
(अधीरा) धीरज से रहित वा (लोपामुद्रा) लोप होजाना लुक जाना ही प्रतीत का चिह्न है। जिसका सो यह स्त्री (वृषणम्) वीर्यवान् (धीरम्) धीरजयुक्त (श्वसन्तम्) श्वासें लेते हुए अर्थात् शयनादि दशा में निमग्न पुरुष को (नीरिणति) निरन्तर प्राप्त हो। (धयति) उससे गमन भी करती है ॥४॥
लोपामुद्रा के गर्भाधान पश्चात ऋषि अगस्त्य तपस्या करने चले गए। सात वर्ष गर्भ पेट में पल कर बढ़ता रहा। सातवां वर्ष समाप्त होते दृढस्यु नामक बुद्धिमान, तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। दृढस्यु का दुसरा नाम इध्मवाहा भी है। दृढस्यु वेदों का सांगोपांग विद्वान एवं उपनिषदों का पाठ करनेवाला तेजस्वी ऋषिपुत्र था। ऐसे गुणवान पुत्र की प्राप्ति से अगस्त्य ऋषि के पितृगण तृप्त हुए। सभी पित्री सद्गति प्राप्त कर वे इच्छनीय ऊर्ध्व लोक को प्राप्त हुए।
' अगस्त्याश्रम ' ~
एक बार नारद जी विध्याचल पर्वत से महामेरू परबत का महिमा मंडान करते गुणगान करने लगे। विंध्य पर्वत ने सोचा, ' क्यों न मैं मेरू के समान बढ़ूँ ! ' वह बढ़ने लगा। देवतागण भागे हुए अगस्त्य ऋषि के समीप आये। प्रार्थना कर कहने लगे ' हे ऋषिवर ! आप कृपा कर विंध्याचल परबत को स्तम्भित करें। '
अगस्त्य ऋषि अपनी धर्मपत्नी लोपामुद्रा सहित विंध्याचल को पार करने आये। पर्वतराज विंध्य ने सविनय ऋषिवर को प्रणाम किया। अगस्त्य ऋषि ने विंध्य को आदेश दिया, ' हे पर्वत राज मुझे प्रणाम करते हो,मेरा आदर करते हो तो मेरी बात सुनो। जब लौट कर नहीं आता, तुम बढ़ना नहीं। इसी अवस्था में स्तम्भित, अचल रहना। ' विंध्याचल पर्वत ने ऋषि आज्ञा का पालन किया। अगस्त्य ऋषि उत्तर भारत से दक्षिण भारत में आकर बस गए।
अब तक ना ही अगस्त्य ऋषि लौटे हैं ना ही विंध्य पर्वत बढ़ा ! ना ही पर्वतराज विंध्याचल अपने वचन को भूले हैं।दक्षिण भारत में मलयाचल पर्वत पर अगस्त्य ऋषि ने अगस्त्याश्रम की स्थापना की तथा दक्षिण भारतीय वांग्मय के वे पितृ पुरुष कहलाये। मान्यता है दक्षिण भारत में अगस्त्यकूट पर्वत पर वे तपस्या रत हैं। दक्षिण भारत की अति प्राचीन ' तमिळ ' भाषा के तीन संघों मे से प्रथम दो संघों में अगस्त्य ऋषि का योगदान है। अगस्त्य नाटे कद के थे सो उन्हें ' कुरुमुनि ' भी कहते हैं। तमिळ भाषा का व्याकरण,संगीत शास्त्र, साहित्य व नाट्य शास्त्र के दाता अगस्त्य ऋषि हैं। अगस्त्य ऋषि के शिष्य ' टॉकपयार ' ने ' टोकपायम ' व्याकरण शास्त्र ग्रन्थ लिखा। तमिलभाषी विद्वान श्रीमान विलुपुत्तरान का कहना है कि, ' अमृतवाणी तमिळ भाषा, भारतभूमि को अगस्त्य ऋषि द्वारा प्रदत्त दिव्य - प्रसाद है।
अगस्त्य ऋषि द्वारा रचित सुप्रसिद्ध साहित्य :
ऋग्वेद में अगस्त्य ~ लोपामुद्रा संवाद है।
१ ) अगस्त्य ~ गीता २) अगस्त्य ~ संहिता ग्रन्थ में विद्युत ( बिजली ) उत्पादन से जुड़े सूत्र हैं।
उदाहरणार्थ :
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्।
छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्॥
-अगस्त्य संहिता
अर्थात :एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं।
ऊपर पारा (mercury) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें। फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।
३ ) शिव ~ संहिता ४) द्वैध निर्णय तंत्र
वर्तमान काल भारतवर्ष में, राजगृह के निकट बिहार प्रांत में, उत्तर भारत का अगस्त्याश्रम स्थित
है। प्राचीनकाल में पाण्डव भी अगस्त्याश्रम यात्रा करते हुए पहुंचे थे।
इसे भृगु तीर्थ भी कहते हैं। यहां स्नान करनेसे प्राणी तेजस्वी हो जाता है
ऐसी लोक मान्यता है। श्रीरामचन्द्र जी ने परशुरामजी के तेज को किन्ठित कर
दिया था तद्पश्चात भृगु तीर्थ में स्नान व पूजन कर उन्हें तेज की पुनः प्राप्ति हुई थी। ज्येष्ठ पाण्डु पुत्र युद्धिष्ठिर के तेज को कौरव पुत्र पापात्मा दुर्योधन के हर लेने पर भृगुतीर्थ में स्नान पूजन कर, युद्धिष्ठिर को अपना खोया हुआ तेज पुनः प्राप्त हुआ था।
अगस्त्य ऋषि से जुड़े अन्य रोचक प्रसंग ~
एक समय की बात है, देवल ऋषि के आश्रम के समीप ' हु हु ' नामक गन्धर्व अपनी पत्नियों समेत जलक्रीड़ा करने आया था। नग्नावस्था में कोलाहल करते हुए ' हु हु ' को ऋषिने श्राप दिया ' जा तू व्याघ्र ( मगरमच्छ ) बन जा !
त्रिकूट पर्वत के पास एक सरोवर में, पूर्व जन्म में राजा इन्द्रद्युम्न का हाथी के रूप में पुनर्जन्म हुआ था। पांड्य देश के राजा इन्द्रद्युम्न एक बार पूजा कर। अगस्त्य ऋषि वहां पधारे। किन्तु पूजा में लीं इन्द्रद्युम्न को सुध ना रही। इस के कारण क्रुद्ध हुए अगस्त्य ऋषि ने श्राप दिया,' ऋषियों का अनादर करनेवाले जा तू हाथी की योनि में जन्म ले ! '
अब हाथी का जन्म लिए इन्द्रद्युम्न जल में प्रविष्ट हुए। ' हु हु ' जो व्याघ्र बना था उसने हाथी का पैर अपने बलिष्ट दांतों में जकड लिया। पूर्व जन्म के पुण्य कर्मों के प्रताप से हाथी बने इन्द्रद्युम्न महाविष्णु की स्तुति करने लगे। महाविष्णु गरूड़जी ने पर सवार होकर, आकाश मार्ग से अवतरित हो, हु हु - व्याघ्र का सर काट कर हाथी की प्राण रक्षा की तदनन्तर दोनों को मुक्ति मिली। यही पुराण प्रसिद्ध ' गजेंद्र ~ मोक्ष कथा ' है।
श्रीरामचन्द्र जी ने श्री सीता स्वयंवर से पूर्व राक्षसी ताड़का का वध किया था। ताड़का सुकेतु यक्ष की पुत्री थी। ताड़का का विवाह ' इहराजा ' या ' सुन्द ' से हुआ था उसीका पुत्र ' मरीची ' था। पति सुन्द की मृत्यु के पश्चात तोड़ फोड़ करती, दौड़ती - भागती, ताड़का अगस्त्य ऋषि के आश्रम में उत्पात करने लगी। अगस्त्य ऋषि के श्राप से ताड़का राक्षसी बन गयी तथा ताड़का पुत्र मरीचि कुरूप हो गया। ताड़का अगस्त्याश्रम से निकल कर वन , वन भटकने लगी।
श्रीरामचन्द्र जी अगस्त्य ऋषि तथा लोपामुद्रा से वनवास में मिले थे। श्रीरामचन्द्र जी को दैत्यराज रावण के संग युद्ध करने से पूर्व अगस्त्य ऋषि ने सूर्य देवता का पवित्र मंत्र ' आदित्य ह्रदय स्रोत महामंत्र ' प्रदान किया था जिसके पाठ से श्रीराम विजयी हुए। अगस्त्य ऋषि ने श्रीरामचन्द्र जी को अमोघ बाण, धनुष, अक्षय तूणीर तथा खड्ग दिए थे।
नहुष के स्वर्ग से पतन का श्राप भी ऋषि अगस्त्य ने दिया था।
कालकेय राक्षस समुद्र में जा कर छिप जाते थे। दिनभर वे छिपे रहते तथा रात्रि में बाहर निकलकर ब्राह्मणों व ऋषियों का वध कर देते थे। सभी देवतागण एकत्रित होकर शेषशायी महानारायण के वैकुण्ठ धाम पहुंचे। महानारायण ने उनसे कहा,
' पृथ्वी पर अगस्त्य ऋषि हैं आप उनसे विनती करें मुझे पूर्ण विशवास है कि वे इस समस्या का समाधान अवश्य करेंगें। देवतागण अगस्त्याश्रम आये।
ऋषि से अंजलिबद्ध विनती कर बोले, ' हे कृपालु ऋषिवर आप से पुण्यश्लोक धर्मात्मा पृथ्वी का कष्ट हरने में समर्थ हैं।कृपया कालकेय राक्षसों के उत्पात से विप्र - ऋषि जन को रक्षा प्रदान करें '
ऋषि अगस्त्य ने देवताओं से कहा ' आप निश्चिंत हों। मैं, कालकेयों का सँहार करूंगा। ' देवताओं लेकर अगस्त्य घरहराते गर्जन टार्जन करते सागर तट पर आ पहुंचे। अपनी अंजलि में सागर के जल को भर भर के वे समुद्र जल का आचमन करने लगे। कुछ क्षणों में सागर सूख गया। कालकेय राक्षस जो छिपे थे , प्रकट हो गए तब देवताओं ने उन का सँहार किया। यह सूखा समुद्र देख सभी ग्लानि से भर गए। महाविष्णु ने प्रकट होकर कहा, ' ऋषि अगस्त्य ने समुद्र सोख लिया। भगीरथ प्रयास से पृथ्वी पर जिस समय गँगा अवतरण संभव होगा, यह समुद्र भी उस समय लहराएगा। पौराणिक साहित्य के अनुसार अगस्त्य-ऋषि ने भारत की आर्य-सभ्यता का सुदूर दक्षिण तथा समुद्र पार के देशों तक प्रचार किया था।
- तत: सम्प्रस्थितो राजा कौंतेयो भूरिदक्षिण:
- अगस्त्याश्रममासाद्य दुर्जयायामुवा
- अमर युगल पात्र : ऋषि अगस्त्य व उनकी पत्नी लोपामुद्रा को शत शत प्रणाम।
- ~~ इति ~ ~
No comments:
Post a Comment