संस्कृत भाषा के महाकवि कहलानेवाले सुविख्यात कवि कालिदास का जन्म उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग जिले के कविल्ठा गांव में हुआ था। कविल्ठा चारधाम यात्रा मार्ग में गुप्तकाशी में स्थित है। गुप्तकाशी से कालीमठ सिद्धपीठ वाले रास्ते में कालीमठ मंदिर से चार किलोमीटर आगे कविल्ठा गांव है। बिहार के मधुबनी जिला के उच्चैठ ग्राम में कहा जाता है विद्योतमा (कालिदास की पत्नी) से
शास्त्रार्थ में पराजय के बाद कालिदास वहीं गुरुकुल में रुके थे । कालिदास को यहीं उच्चैठ की देवी भगवती से ज्ञान का वरदान प्राप्त हुआ था ऐसी कथा सुविख्यात है यहां आज भी कालिदास स्मृति में बसा डीह है। यहाँ की मिट्टी से बच्चों के प्रथम अक्षर लिखने की परंपरा आज भी यहाँ प्रचलित है।
कालिदास का उत्कर्ष अग्निमित्र के बाद १५० ई॰ पू॰ - ६३४ ई॰ पूर्व का रहा है। जो कि प्रसिद्ध ऐहौले के शिलालेख की तिथि है, इस में कालिदास का महान कवि के रूप में उल्लेख हुआ है। कथाओं व किंवदंतियों के अनुसार कालिदास शारीरिक रूप से बहुत सुंदर थे। किन्तु कहा जाता है कि प्रारंभिक जीवन में कालिदास अनपढ़ व महामूर्ख थे।
प्रश्न : एक साधारण व्यक्ति से कालिदास, महाकवि किस प्रकार बने ? इस से तथ्य से अति रोचक कथाएँ जुडी हुईं हैं। आज भी कालिदास की प्रेरक जीवनी जन मन को प्रेरणा देने में सक्षम है। भाषा सौंदर्य सशक्त साहित्यकार के मस्तिष्क से निसृत जन मानस के लिए दिया दैवी प्रसाद होता है।
उसे शास्त्रार्थ में पराजित करने में सक्षम होगा, वह उसी के साथ विवाह करेगी। जब विद्योत्तमा ने शास्त्रार्थ में कई विद्वानों को पराजित किया तो वे अपनी पराजय से मन ही मन कुपित हुए। अपमान हुआ है ऐसे विचार से कर कुछ विद्वानों ने बदला लेने के लिए विद्योत्तमा का विवाह, महामूर्ख व्यक्ति के साथ कराने का निश्चय किया। वे किसी मुर्ख पुरुष की शोध में नगर भ्रमण करते हुए मार्ग में चलते चलते दूर आये। मार्ग में उन्हें एक वृक्ष दिखाई दिया जिस पर एक व्यक्ति वह जिस डाल पर बैठा था, उसी को काट रहा था। इस दृश्य को देख कर सभासदों ने सोचा कि " अरे यह युवक महा - मूरख लगता है ! इससे बड़ा मूर्ख तो कोई होगा ही नहीं ! "उन्होंने उसे राजकुमारी से विवाह का प्रलोभन देकर नीचे उतारा तथा समझा बुझा कर कहा- " ए युवक तुम मौन धारण कर लो किन्तु जो हम कहें वैसे ही करना "। धूर्त सभासदों ने स्वांग भेष बना कर उस युवक को राजकुमारी विद्योत्तमा के समक्ष प्रस्तुत किया।
सभासदों का यह परिचय कथन कि " हमारे गुरु, आप से शास्त्रार्थ करने के लिए आए है, परंतु अभी मौनव्रती हैं, इसलिए वे, हाथों के संकेत से उत्तर देंगे। इनके संकेतों को समझ कर, हम वाणी में आपको उसका उत्तर देंगे।" विद्योत्तमा को अपने ज्ञान पर पूर्ण भरोसा था उसे दृढ विश्वास था कि वह इस युवक को परास्त कर देगी। अतः वह राजी हो गयी। शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ।
राजकुमारी विद्योत्तमा मौन शब्दावली में गूढ़ प्रश्न पूछने लगी। कालिदास अपनी बुद्धि से, मौन संकेतों से ही जवाब देने लगे। प्रथम प्रश्न के रूप में विद्योत्तमा ने संकेत से एक उंगली दिखलाई --> आशय था कि- " ब्रह्म एक है।"
परन्तु कालिदास ने समझा कि, ये राजकुमारी मेरी एक आंख फोड़ना चाहती है !
क्रोध में उन्होंने दो अंगुलियों का संकेत इस भाव से किया कि," तू मेरी एक आंख फोड़ेगी तो मैं - तेरी दोनों आंखें फोड़ दूंगा। " लेकिन सभासद जो कपटी थे वहीं उपस्थित थे। उन्होंने कालिदास के संकेत को कुछ इस तरह समझाया ~ कहा कि,
" राजकुमारी जी आप कह रही हैं कि ब्रह्म एक है लेकिन हमारे गुरु कहना चाह रहे हैं कि,"उस एक ब्रह्म को सिद्ध करने के लिए दूसरे (जगत्) की सहायता लेनी होती है। अकेला ब्रह्म स्वयं को सिद्ध नहीं कर सकता। " राज कुमारी ने दूसरे प्रश्न के रूप में खुला हाथ दिखाया ! आशय था कि," तत्व पांच है। " उसे देख कर कालिदास को लगा कि, 'यह कन्या थप्पड़ मारने की धमकी दे रही है !' उसके जवाब में कालिदास ने घूंसा दिखलाया कि," तू यदि मुझे गाल पर थप्पड़ मारेगी,
मैं घूंसा मार कर तेरा चेहरा बिगाड़ दूंगा। " सभासद मण्डली उन कपटियों की टोली ने समझाया कि, " राजकुमारी जी गुरु कहना चाह रहे हैं कि, भले ही आप कह रही हो कि पांच तत्व अलग-अलग हैं पृथ्वी, जल, आकाश, वायु एवं अग्नि।
परंतु यह तत्व प्रथक्-प्रथक् रूप में कोई विशिष्ट कार्य संपन्न नहीं कर सकते।
अपितु आपस में मिलकर एक होकर- उत्तम मनुष्य शरीर का रूप ले लेते है जो कि ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है।" इस प्रकार प्रश्नोत्तर से अंत में, विद्योत्तमा ने अपनी हार स्वीकार कर ली । शर्त के अनुसार कालिदास के संग राजकुमारी विद्योत्तमा का विवाह हुआ।
विवाह पश्चात कालिदास विद्योत्तमा को लेकर अपनी कुटिया में आये।
प्रथम रात्रि को दोनों संग थे तो उसी समय रात्रि की नीरवता भंग करता हुआ ऊंट का स्वर सुनाई दिया । विद्योत्तमा ने संस्कृत में प्रश्न किया "किमेतत्" ? अर्थ : यह कौन प्राणी है ? "परंतु कालिदास के लिए तो संस्कृत भाषा काला अक्षर भैंस बराबर थी ! कालिदास ने सोचा ' शायद मेरी नवोढ़ा पत्नी भयभीत हो रही है ! "
अतः झट से उनके मुंह से निकल गया "ऊट्र" ऊट्र " ~~ कालिदास के स्वर से यह सुनते ही विदुषी विद्योत्तमा को पता हो गया कि, कालिदास निपट अनपढ़ हैं। क्षण मात्र में चतुर राजकुँवरी ने सभासदों की क्रूर मंत्रणा तथा उसे अपमानित करने की इस कुटिल चाल को भाँप लिया। वह क्रोध अतिरेक से अत्यंत कुपित हो, थर थर कांपने लगी ! पलट कर विद्योत्तमा ने कालिदास को धिक्कारा ! गृह से निष्काषित करते हुए आदेश दिया कि, " सच्चे विद्वान् बने बिना लौटना नहीं । "
कालिदास अपनी नव परिणीता पत्नी के क्रोध एवं वाक् बाणों से अत्यंत शोकमग्न हो गए। राजकुमारी के आदेश पर गृहत्याग कर, कालिदास निर्जन वन की दिशा में अश्रु भरे नयनों से चल दिए। नगर की सीमा में स्थित देवी ग्रामदेवी के मंदिर में रात्रि का समय था सो, आश्रय लिया।शोकाकुल कालिदास ने माता भगवती देवी की प्रतिमा को निहारा तथा सच्चे मन से काली
देवी की आराधना करना आरम्भ किया। कहते हैं कि अतीव शोकाकुल अवस्था में कातर स्वर से रुदन करते हुए कालिदास ने मंदिर के गर्भ गृह में रखा देवी माँ का खड़ग उठा लिया तथा अपनी गरदन पर वार करने को उद्यत हुए करूण स्वर से पुकारा ~~
" हे माँ मेरा शीश काट कर तुम्हारे चरणों पे न्योछावर कर रहा हूँ ! माता मेरा जीवन मिथ्या है। अब आप ही मुझे मुक्ति दें " कहते हैं कि, माता भगवती सच्चे मन से की हुई प्रार्थना सुन कर प्रकट हो गईं !
" आँहाँ हाँ पुत्र ! यह क्या कर रहे हो ? माता को अपने पुत्र की जीव ह्त्या अस्वीकार है " तद्पश्चात
माता भगवती शारदा, महाकाली, महालक्ष्मी, महागौरी, देवी सरस्वती बारी बारी
से मंदिर के गर्भगृह में साक्षात प्रगट हुईं तथा भक्त कालिदास को आशीर्वाद
दे कर अंतर्धान हुईं ! साक्षात देवी का कान्तियुक्त स्वरूप जाकर मंदिर की पाषाण प्रतिमा में विलीन हुआ। देवी भगवती कालिका के आशीर्वाद से कालिदास के अन्तर्चक्षुः, ज्ञानेन्द्रियाँ दीप्त हो गईं। देवी कृपा से कालिदास महामूर्ख से परिवर्तित हो कर परंम ज्ञानी बन गए। असीम ज्ञान
प्राप्ति से प्रदीप्त व्यक्तित्त्व लिए कालिदास पुनः स्वगृह लौटे। अपनी पत्नी राजकुँवरी विद्योत्तमा के राज प्रासाद का द्वार खटखटा कर कालिदास ने कहा " कपाटम् उद्घाट्य सुन्दरि! (दरवाजा खोलो, सुन्दरी) " विद्योत्तमा ने चकित होकर कहा --" अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः (कोई विद्वान लगता है )" किम्वदन्ती के अनुसार, कालिदास ने विद्योत्तमा को
अपना पथप्रदर्शक तथा गुरु माना। अपनी पत्नी के कहे इस एक वाक्य को विद्योत्तमा द्वारा उच्चारित ३ शब्दों से, आगे के काल में कालिदास ने तीन महाकाव्य रच डाले ! इस भाँति अपने काव्यों द्वारा अपनी विदुषी पत्नी को कालिदास नेसाहित्यकार के रूप में अपनी श्रद्धा व स्नेह - आदर प्रदान किया।
१ ) कुमारसंभवम् का प्रारंभ होता हैअस्त्युत्तरस्याम् दिशि… से,
२) मेघदूतम् का पहला शब्द है- कश्चित्कांता…३) रघुवंशम् की शुरुआत होती है- वागार्थवि से।
कालिदास ने तीन नाटक (रूपक): अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् तथा मालविकाग्निमित्रम्; दो महाकाव्य: रघुवंशम् व कुमारसंभवम्; तथा दो खण्डकाव्य: मेघदूतम् और ऋतुसंहार की रचना की।
महाकाव्य : अभिज्ञान शाकुंतलम के रचियेता की दूर देश में ख्याति एक पुस्तक में
काव्य शीर्षक का अर्थ है ~ शकुंतला से परिचय ~ जर्मनी के साहित्यकार गोथे ने अभिज्ञान शाकुंतलम का पाठ किया था। वे कालिदास रचित काव्य को पढ़ कर आश्चर्य मिश्रित महाआनंद में डूब गए थे ! जनश्रुति है कि शाकुंतलम की पुस्तक को अपने सर पे उठाकर, गोथे आह्लादित होकर नृत्य करने लगे। गोथे ने अभिज्ञान शाकुंतलम के लिए कहा कि, " यह कोइ साधारण ग्रन्थ नहीं है अपितु साहित्य जगत की अप्रतिम एवं शाश्वत एवं अमर कृति है ! "
अभिज्ञान शाकुंतलम " मानव इतिहास की प्रगति एवं विकास को प्रतिबिंबित
करता सा स्वर्णिम पृष्ठ है। यह साहित्य कृति नव पल्ल्वित पुष्प को
रसीले फल में रूपांतरित होने की नैसर्गिक प्रक्रिया का अनुसरण करती हुई सी
प्रतीत होती है। या धरती पर मानवीय जीवन के अनुभवों को स्वर्गिक आनंद
सिंधु में डूबने की आह्लादानुभूति करवाती सी रहस्यमयी प्रक्रिया सी अमर
कृति है। या हम ऐसा भी कहें कि मानवीय शरीर की संरचना जिस प्रकार पांच
महाभूत के शाश्वत तत्त्वों से निर्मित होती है तथा उस भौतिक शरीर के
आत्मिक अनुभव सदृश्य परिवर्तन का अद्भुत इतिहास समेटे हुए है ठीक उसी भाँति
यह अविस्मरणीय साहित्यिक कृति है " अभिज्ञान
शाकुंतलम रूपक काव्य में प्रयुक्त उपमाओं के लिए, संस्कृत-साहित्य के
रचाकारों में महाकवि कालिदास अग्रणी हैं। वे जगत में सुप्रसिद्ध हैं।
शाकुन्तल
में भी उनकी उपयुक्त उपमा चुनने की शक्ति भली-भांति प्रकट हुई है । शकुन्तला के
विषय में एक जगह राजा दुष्यन्त कहते हैं कि ‘वह ( शकुंतला ) ऐसा फूल है, जिसे किसी ने
सूंघा नहीं है; ऐसा नवपल्लव है, जिस पर किसी के नखों की खरोंच नहीं लगी;
ऐसा रत्न है, जिसमें छेद नहीं किया गया तथा ऐसा मधु है, जिसका स्वाद किसी ने
चखा नहीं है।’
शकुंतला
कथानक का आकर्षण ~ सदियाँ व्यतीत हो जाने पर भी अदम्य रहा है। तथा
समयावधि से परे देश विदेश में प्राचीन काल से आधुनिक युगों तक अक्षुण्ण रहा
है। शकुंतला की कालजयी कथा की लौ ~ मानव समुदाय के मध्य निर्धूम सदियों से अपना उजाला बिखेरती रही है।
भारत के बंगाल प्रांत में साहित्यकार ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बांग्ला की प्राचीन साधू भाषा में शाकुंतलम पर आधारित नवलिका लिखी। यह संस्कृत से बंगाली भाषा का सर्व प्रथम अनुवाद है।कुछ समय पश्चात चलित भाषा बांग्ला के उप प्रकार में अबनींद्रनाथ टैगौर ने इस कथा को युवा वर्ग के लिए लिखा।
No comments:
Post a Comment