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परम पूज्य ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहँस देव ~ माँ शारदामणी ~
' वेदान्त ' भारतीय सनातन धर्म की परम्परा ५,००० वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। उपनिषद् ‘वेद’ के अन्त में आते हैं। ‘ वेद ’ के अंतर्गत प्रथमतः वैदिक संहिताएँ- ऋक्, यजुः, साम तथा अथर्व हैं। तदउपरान्त ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् आते हैं। साहित्य के अन्त में होने के कारण उपनिषद् वेदान्त कहे जाते हैं।वेदान्त की तीन शाखाएँ अधिक प्रसिद्ध हैं :
१) अद्वैत वेदान्त के आदि शंकराचार्य प्रवर्तक हैं।
२) विशिष्ट अद्वैत ~ रामानुज द्वारा प्रतिपादित हुआ तथा
३) द्वैत ~ श्री मध्वाचार्य द्वारा प्रतिपादित हुआ।
प्रथम संहिताओं का अध्ययन होता था। तद्पश्चात गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर
यज्ञादि गृहस्थोचित कर्म हेतु, ब्राह्मण-ग्रन्थों के अनुसार, कर्म काण्ड संपन्न किये जाते थे। वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम में प्रवेश करने पर, आरण्यकों की आवश्यकता होती थी। वन में रहते हुए ज्ञान पिपासु व्यक्ति, जीवन तथा जगत् की अबूझ पहेली को सुलझाने का प्रयत्न करते थे। यही उपनिषद् के अध्ययन तथा मनन की अवस्था थी। वेदान्त को उपनिषद भी कहते हैं। ईश, केन, कठ, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य तथा बृहदारण्यक यह उपनिषद के विभिन्न भाग हैं।
ज्ञानयोग की कुछ अन्य शाखाएँ भी हैं जिन के प्रवर्तक हैं ~ भास्कर, वल्लभ,
चैतन्य, निम्बार्क, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर व विज्ञान भिक्षु ।
आधुनिक काल में ठाकुर रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष,
स्वामी शिवानंद, राजा राममोहन रॉय व रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं।
ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहँस देव ~
जन्म : सं. १८३६, फरवरी १८ : कामारपुकुर ग्राम, बंगाल में
जन्म नाम : गदाधर चट्टोपाध्याय
पिता का नाम ख़ुदीराम चट्टोपाध्याय था तथा माँ का नाम चंद्रमणि देवी था।
भक्तों के अनुसार माता को गर्भ धारण काल अवस्था में अलौकिक अनुभव हुए थे।
एक दिन वे शिव मँदिर में थीं तथा उन्हें अलौकिक प्रकाश पुँज उनके शरीर में
प्रवेश कर रहा हो ऐसा भास् हुआ था। पिता खुदीराम को गदाधारी महाविष्णु ने स्वप्न में आकर कहा कि, ' वे पुत्र रूप में आयेंगें। 'बालक का जन्म हुआ तो
' गदाधर ' नामकरण हुआ। स्नेह से सभी उस मनमोहक मुस्कानवाले बालक को
' गदाई ' बुलाया करते थे।
महाभारत, रामायण, पुराण व भगवद गीता का ज्ञान, शैशव में ही गदाई ने प्राप्त कर लिया था। सात वर्ष के होते, गदाई के सर से पिता का साया उठ गया। बड़े
भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय कोलकत्ता में पाठशाला के संचालक थे। वे गदाई
को अपने संग ले चले। जन्मस्थान कामारपुकुर तथा शैशव का आवास छूट चला।
चित्र : कामारपुकुर का घर
कोलकत्ता नगर में रानी रासमणि देवी अत्यंत धनाढ्य ज़मींदार परिवार से थीं।
शहर की उत्तर दिशा में, हुगली नदी किनारे, देवी रासमणि द्वारा निर्मित
माँ भवतारिणी, माँ काली का, भव्य दक्षिणेश्वर काली मँदिर था।
देवी रासमणि ने सुवर्णरेखा नदी से जगन्नाथ पुरी तक सड़क का निर्माण करवाया था।कलकत्ता निवासियों के लिए, गङ्गास्नान की सुविधा हेतु, उन्होंने, केन्द्रीय व उत्तर कलकत्ता में हुगली के किनारे बाबुघट, अहेरिटोला घाट व नीमताल घाट का निर्माण करवाया। लोककथनुसार, देवी काली ने ' भवतारिणी ' स्वरूप में स्वप्न दर्शन दिए तब उन्होंने, देवी आद्यशक्ति भवतारिणी महामाया का यह भव्य मंदिर बनवाया था। सं १८४७ में भारतवर्ष पर ब्रिटिश राज की हुकूमत बदस्तूर जारी थी। उस समय यह मँदिर, ५८ एकड़ भूमि पर निर्मित हुआ।
रामकुमार चट्टोपाध्याय को इस मन्दिर के प्रधान पुरोहित पद पर नियुक्त किया गया। छोटे भाई रामेश्वर भी काली मँदिर में पूजा किया करते थे। कलकत्ता आने के पश्चात एक वर्ष के भीतर, बड़े भाई रामकुमार का देहांत हुआ। तब गदाई ने पुरोहित पद सम्हाला। गदाई के साथ,' ह्रदय ' श्री रामकृष्ण की बहन का बेटा, उन का भतीजा भी साथ आया था।
वर्ष सं १८५७ -६८ तक, युवा गदाधर, जिसे समस्त विश्व, ठाकुर स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पवित्र नाम से पुकारने लगा, वे, इस मंदिर के प्रधान पुरोहित पद पर रहे। वहीं रहते हुए, श्री रामकृष्ण ने अपनी दिव्य साधना को प्रखर किया।
श्री रामकृष्ण को काली माता के दर्शन, ब्रम्हांड की माता के रूप में हुए थे।
ठाकुर श्री रामकृष्ण ने अपने दिव्य अनुभव का वर्णन इन शब्दों में किया है,
" घर ,द्वार ,मंदिर व सब कुछ अदृश्य हो गया, जैसे कहीं कुछ भी नहीं था!
मैंने एक अनंत तीर विहीन आलोक का सागर देखा, जो चेतना का सागर था।
जिस दिशा में भी मैंने दूर दूर तक जहाँ भी देखा, बस उज्जवल लहरें दिख रहीं थीं, जो एक के बाद एक, मेरी ओर आ रहीं थीं। "
दक्षिणेश्वर माँ काली का मुख्य मंदिर है। भक्त स्वभाव के नवीन पाल काली प्रतिमा के शिल्पकार थे। दिन में मात्र एक बार भोजन ग्रहण करते हुए अत्यंत भक्तिभाव से उस शिल्पी ने, इस भव्य माँ काली प्रतिमा का निर्माण किया था। मँदिर के भीतरी भाग में चाँदी से बनाए गए कमल के फूल पर कि जिसकी हजार पंखुड़ियाँ हैं, माँ काली, अपने शस्त्र धारण किये, भगवान शिव पर विराजित हैं।
आदिशक्ति, आदि पराशक्ति, काल की नियामक, माँ, तांत्रिक, ज्ञानी, भक्त तथा गृहस्थ, इस समस्त सँसार की,भवतारिणी हैं। प्रणम्य हैं ! माँ स्वरूप हैं।
' काली काली महाकाली कालिके परमेश्वरी।
सर्वानन्दकरी देवी नारायणि नमोऽस्तुते ।। '
" अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकरा प्राण वल्ल्भे ज्ञान वैराग्य सिद्धयर्थं भिक्षाम देहि च पार्वती "
रामकृष्ण
की उग्र तपस्या व साधना से ग्राम कामारपुकुर में उनकी माताज़ी चिंतित
रहतीं थीं। वे अपने पुत्र का विवाह करवा देना चाहतीं थीं। श्री रामकृष्ण ने
स्वतः अपनी माँ को बतलाया कि, ग्राम जयरामबाटी में उन की वधु हैं। उनसे जाकर आप मिलिए '
देवी शारदा मुखोपाध्याय का जन्म सं. १८५३ में २२ दिसम्बर, ग्राम जयरामबाटी में एक गरीब ब्राह्मण परिवार जो बंगाल प्रांत में निवास करता था उनके घर हुआ। उनके पिता का नाम श्री रामचन्द्र मुखोपाध्याय तथा माता का नाम श्यामासुन्दरी देवी थीं। दम्पति कठोर परिश्रमी, सत्यनिष्ठ एवं भगवद् परायण थे तथा खेती व धार्मिक अनुष्ठानों को संपन्न करवा कर अपना निर्वाह किया करते थे।
चित्र ~ जयरामबाटी में माँ शारदा देवी का निवास माँ शारदामणी, खेमङ्करि, ठाकुरमणी मुखोपाध्याय इन पवित्र नामोँ से, माँ शारदा की पूजा की जाती है। शारदामणी के जन्म के बाद, कादम्बिनी, प्रसन्न कुमार, उमेशचंद्र, काली कुमार, वरदा प्रसाद व अभयचरण यह उन के भाई बहन का जन्म हुआ था।
सं. १८५९ में शारदामणी, ५ वर्ष की थीं तब श्री रामकृष्ण २३ वर्ष के थे। उसी अवस्था में उन दोनों का विवाह सम्बन्ध तै हुआ।
अपने शैशव में, नदी पर स्नान के लिए जाने के लिए, शारदामणी घर के पिछवाड़े, खड़ी खड़ीं किसी के संग - साथ की प्रतीक्षा किया करतीं थी। ठीक उस समय न जाने कहाँ से, आठ कन्याएं, आ जातीं थीं। चार आगे और चार पीछे चलतीं हुईं, वे , शारदामणी को स्नान करवा लातीं। बहुत वर्षों बाद पता चला कि, वे कन्याएं उस गाँव की थीं ही नहीं। परन्तु वे देवियाँ थीं ! अष्टनायिकाएँ थीं ! ऐसे दिव्य अनुभव शारदामणी के जीवन में हुए। अब शारदामणी १४ वर्ष की हुईं तब अपनी ससुराल, कामारपुकुर ३ माह के लिए आईं।
श्री रामकृष्ण ने उन्हें वहाँ ध्यान व आध्यात्म का उपदेश दिया।सं. १८७२ में माँ शारदा १८ वर्ष की हुईं तब दक्षिणेश्वर पधारीं। ' नाहबत ' संगीत घर मकान के नीचले तले पर, एक छोटे कक्ष में, माँ शारदा आकर रहीं।
सं १८८५ पर्यन्त माँ शारदा वहीं रहीं। जयरामबाटी की यात्राएं भी वे करतीं रहीं।
श्रीरामकृष्ण ने विधिवत संन्यास ग्रहण कर लिया था।
षोडशी
पूजा कर श्रीरामकृष्ण ने माता त्रिपुरसुन्दरी का ध्यान करते हुए, अपनी
पत्नी माँ शारदा की पूजा की। श्रीरामकृष्ण उन्हें ' श्री माँ ' पुकारते
थे।
माँ शारदा, ठाकुर श्री रामकृष्ण जी को ' गुरुदेब ' कहतीं थीं।
प्रातः ३ बजे उठकर श्री माँ भागीरथी हुगली में स्नान करतीं। फिर सूर्य आगमन पर्यन्त, वे जप ध्यान करतीं। श्रीरामकृष्ण ने उन्हें मन्त्र दीक्षा दी थी। दिन में वे श्रीरामकृष्ण की रसोई देखतीं। घरेलू बातों का ध्यान, ईश्वर भक्ति,अतिथि सेवा, वस्तुओं को सम्हालना, छोटों से स्नेह भरा बर्ताव करना, कर्तव्य परायणता का पालन करना, देश काल व पात्र के अनुसार आचरण करना, इन बातों की शिक्षा, ठाकुर श्रीरामकृष्ण जी से माँ शारदामणी ने सीखीं थीं।
श्रीरामकृष्ण की साधना प्रखरतम हो रही थी।देवी रासमणी के दामाद
मथुरनाथ बिस्वास बाबू ने गहने बनवाये थे उन गहनों को, श्रीरामकृष्ण ने,
माँ शारदा को पहना दिए। आजीवन वे माँ के शरीर पर रहे। उग्र तपस्या से, ठाकुर के शरीर में, अग्नि दाह उत्पन्न हुआ था।
श्रीरामकृष्ण के शरीर में अग्नि दाह उठ कर उन्हें व्यथित कर रहा था। उसी समय वहाँ भैरवी ब्राह्मणी पधारीं। उन्होंने आदेश दिया, ' इन्हें पुष्पमालाएं पहना कर, शरीर पर चन्दन का लेप करो ' आध्यात्म मार्ग पर ईश्वर साक्षात्कार की प्रबल आकांक्षा से, उनकी यह स्थिति हो रही थी।
भैरवी, श्री रामकृष्ण के शरीर में, रघुवीर का आविर्भाव देख रहीं थीं।
चौसंठ तंत्रो की साधना, भैरवी ब्राह्मणी ने श्रीरामकृष्ण से संपन्न करवाई।
तद्पश्चात कुछ समय पर्यन्त मधुर भाव से श्रीराधे रानी सा भेस धारण कर श्रीरामकृष्ण ने श्रीकृष्ण की आराधना संपन्न की।
माँ काली की आज्ञा से, ठाकुर ने स्वामी तोतापुरी से, तद्पश्चात वेदांत साधना ग्रहण की।उन्होंने इस्लाम धर्म के अनुसार भी साधना की। ठाकुर के स्वभाव में सहज विनोद प्रियता तथा कौतुकप्रियता भी थी। उनके ह्रदय में आनंद का पूर्ण घट स्थापित हो चुका था अतः सदा मन उल्लसित रहता। वे
अपना दैनिक भोजन, चाव से , रस ले कर खाते। यह एक मात्र वासना, अपने शरीर
को, इस धरती से जोड़े रखने के हेतु से ही ठाकुर ने अपने में बचा रखी थी। आगे चलकर ठाकुर श्रीरामकृष्ण जी की तपस्विनी भार्या उनके मठ के सन्यासियों की
' माँ शारदा माता ' बन कर सुशोभित हुईं । ठाकुर की उच्च आद्यात्मिक अवस्था के लिए यह उदाहरण सही है कि जिस तरह रस से भरा हुआ सुँदर पुष्प, जब पूर्ण रूप से खिल जाता है तब उस पुष्प पर असंख्य भँवरे मंडराने लगते हैं। ठीक उसी तरह, ठाकुर श्रीरामकृष्ण की कठोर आध्यात्मिक साधना व उनकी सिद्धियों की चर्चा से, उन की चहुंओर फ़ैली प्रसिद्धि से, दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान, शीघ्र ही, भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान बन गया था ।
कुछ बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव एवं तांत्रिक साधक जैसे- पं॰ नारायण शास्त्री, पं॰
पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण, गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक
प्रेरणा ग्रहण करने हेतु, ठाकुर के पास, खींचे हुए चले आते थे।
ठाकुर सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में भी आए। बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे इन में केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिस के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, दुर्गाचरण नाग इत्यादि हैं। महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) जिन्होंने ठाकुर रामकृष्ण के जीवन से अमृत बिंदु ग्रहण कर समाज को ' कथामृत ' पुस्तक के रूप में देकर बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।महेन्द्रनाथ गुप्त बीसवीं सदी के भारतीय संत परमहंस योगानंद के गुरु भी थे। चित्र : योगी श्री महेन्द्रनाथ गुप्त ~
सच ही कहा है, सत्संग
से श्रद्धा, रति ( ईश्वर प्रेम) व भक्ति विकसित होती है। रात्रि के
अन्धकार में लिपटे आकाश में फैले, टिमटिमाते तारागण व नक्षत्र मंडल, अपने पथ पर अग्रसर होते हुए, हमें उस एक अनदेखे व अनचिन्हे ईश्वर की ओर ले जाने का संकेत करते रहते हैं। उसी काल में महान साधक, तोतापुरी का काली मँदिर मे आगमन हुआ। वे ११ महीने वहीं रहे। उनके समक्ष श्रीरामकृष्ण ' निर्विकल्प समाधि' अवस्था में समाधिष्ठ हो गए थे। ठाकुर कहते, ' मेरी माँ काली, स्वयं सच्चिदानंद हैं ! '
सं. १८६३ में श्रीरामकृष्ण ने वैध्यनाथ, काशी व प्रयाग की यात्राएँ की।
सं.१८६८
में दुसरी बार काशी, प्रयाग व वृन्दावन की यात्राएँ कीं। मोक्षदायिनी
काशी नगरी में समाधी लगते ही, साक्षात् विश्वनाथ शिवशंकर को मणिकर्णिका
घाट पर विचरण कर, मृतकों के कान में तारक मन्त्र फुसफुसाते ठाकुर ने देखा व सुना। मौनव्रतधारी त्रैलंग स्वामी से वहीं ठाकुर की भेंट वार्ता हुई। मथुरा के ध्रुव घाट पर श्रीकृष्ण को वासुदेव की गोद में साक्षात् विराजित हुए देखा।
वृन्दावन में जमुना पार, गोधूलि बेला में, श्रीकृष्ण को गैयाओं के संग लौटते हुए देखा। निधिवन में गँगा मैया को सशरीर, राधेरानी की आराधना करते हुए दर्शन किये। कभी जड़ समाधि तो कभी भाव समाधी अवस्था में, ठाकुर बच्चों से प्रसन्न रहते।वैषणव,
शाक्त, शैव, सीखों के १० धर्म गुरु का खालसा पंथ, राजा राम मोहन रॉय
द्वारा स्थापित ब्रह्मो समाज, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम या ठाकुर की अपनी आराध्या माँ जगधात्री काली, सभी धर्म पंथों को वे, ' यह सभी एक ईश्वर तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग हैं ' ऐसा कहते। ईश्वर एक हैं यह परम् सत्य, ठाकुर जान गए थे। पंचवटी के पाँच वृक्ष, बट पीपल, नीम, आम्लकी व बेल , ठाकुर रामकृष्ण जी ने अपने हाथों से रोपे थे व उस पंचवटी में, वे अपनी प्रखर साधना संपन्न किया करते थे।
सं. १८८१ नवम्बर माह में दक्षिणेश्वर में नरेंद्रनाथ दत्त नामक एक नव युवक का श्रीरामकृष्ण परमहंस जी के आश्रम में आगमन हुआ। युवक नरेन्द्रनाथ, लॉ कॉलेज में पढ़ते थे। अंग्रेजी कविता के क्लास में प्राध्यापक अंग्रेज प्रोफ़ेसर विलियम हेस्टी थे। उन्होंने एक कविता में ' ट्रांस ' शब्द का उपयोग हुआ था उसकी विस्तृत चर्चा करते हुए , ट्रांस - या ध्यान शब्द की व्याख्या करते हुए अपने छात्रों से कहा,' यदि trance क्या है यह तुम अपनी आँखों से देखना चाहते हो तो
दक्षिणेश्वर के काली मंदिर के सन्यासी रामकृष्ण ठाकुर को जाकर देख आओ '
अपने अँगरेज़ प्राध्यापक के इस हिन्दू योगी के बारे में बतलाने से, युवा नरेन्द्रनाथ, ठाकुर रामकृष्ण के दर्शन करने, दक्षिणेश्वर आये हुए थे। इस नवयुवक को देखते ही ठाकुर प्रसन्न हो गए। ठाकुर के नेत्रों से, हर्ष के अश्रु बहने लगे। वे बोले, ' पुत्र तुम आ गये ! मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था ! ' यह सुनकर, नरेन्द्रनाथ को बहुत अचरज हुआ। कुछ अकड़कर युवक नरेन्द्रनाथ ने प्रश्न किया,
' क्या आपने ईश्वर को देखा है ? '
ठाकुर
से उत्तर मिला,' हाँ। जैसे तुम्हें देख रहा हूँ उससे अधिक प्रखरता से
ईश्वर को देखता हूँ ' नरेन्द्रनाथ के जीवन के यह प्रथम व्यक्ति थे जिसने
सहजता से, ठोस हामी भरते हुए ' ईश्वर दर्शन ' जैसे अबूझ विषय को स्वीकार किया था।
सं १८६३ के वर्ष में १२ जनवरी के दिन जन्मे नरेन्द्रनाथ एक सभ्रांत बंगाली परिवार से थे। वकालत में उनकी रूचि थी। नरेन्द्रनाथ के पिता थे विश्वनाथ दत्त तथा माता
का नाम भुवनेश्वरी देवी था। कई लोग उनका नाम ज्ञानदासुँदरी भी कहते हैं।
शारीरिक सौष्ठव, नियमित व्यायाम, संगीत, पढ़ाई सभी विषयों में नरेन्द्रनाथ
बहुत अच्छे थे। पाश्चात्य इतिहास, सनातन धर्म से जुड़े योग - ध्यान जैसे विषयों में भी उनकी गहन रूचि थी।
सं.
१८८४ में पिता विश्वनाथ दत्त के देहांत के बाद नरेन्द्रनाथ के परिवार पर
विपत्तियों के पहाड़ टूट पड़े। हार थक कर नरेन्द्रनाथ रामकृष्ण के आश्रय में
जा पहुंचे। सविनय ठाकुर से कहा, ' आप अपनी माँ से कहिए, मेरे दुःख दूर कर दें। मेरी माता वृद्ध हैं, बहन का विवाह करना है, मेरे पास नौकरी नहीं है। पिता का कर्ज चुकाना है इत्यादि '
ठाकुर ने मंद ~ मृदु मुस्कान सहित नरेन को सुझाव दिया,
' पुत्र तुम स्वयं जा कर यह सब माँ से क्यों नहीं मांग लेते '
नरेन्द्रनाथ राजी हुए ! वे तीन बार माँ काली के समक्ष अपने दुःख व याचना लेकर गए। परन्तु प्रत्येक बार, पूर्ण ज्ञान व भक्ति का प्रसाद दक्षिणेश्वरी माँ काली से मांग कर, अपने दुःख की कथा कहना भूल कर, लौट आये।
नरेन्द्रनाथ की आत्मा को एक सच्चे गुरु, ठाकुर श्रीरामकृष्ण ने छु कर, आत्मा की
कई जन्मों से सुषुप्त चेतना को जागृत कर दिया था। सं १८८६ में नरेन्द्रनाथ ने
संन्यास लिया। सं. १८९० में माँ शारदा
से आशिष लेकर वे भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े। भारत के दरिद्रों को, पिछड़े
जन को देख कर उनका ह्रदय विदीर्ण हो उठा। अजित सिंह खेत्री ने विवेक व
आनंद के गुणसमूह से युक्त सन्यासी नरेन्द्रनाथ को स्वामी विवेकानंद नाम
सुझाया। आगामी वर्षों में यही नाम भारत के कोने कोने में सुप्रसिद्ध हुआ।
विश्व में गूंजा।
सं.१८८६ ई.
१६ अगस्त सवेरा होने से पहले आनन्दघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को
त्याग कर महासमाधि ले स्व-स्वरुप में लीन हो गये। उनके शिष्यों के भग्न व
विषाद संतप्त ह्रदयों को स्वामी विवेकानंद ने सम्हाला।
श्रीरामकृष्ण
परमहंस लघु कथाओं से बोधपरक उपदेश देकर बुद्धिजीवी तथा साधारण जन के मन
को, सही दिशा में जीवन यात्रा ले चलने के लिए प्रेरित किया करते थे। उनसे
मिले आध्यात्म प्रसाद से जनसाधारण में देशभक्ति की भावना भी मुखरित हुई
थी ।
सं.
१८८६ ई. में ठाकुर श्री रामकृष्ण के देहान्त के बाद, माँ
शारदा तीर्थयात्रा पर चली गयीं। वहाँ से लौटने के बाद वे कामारपुकुर में
रहने आयीं। वहाँ उनकी उचित व्यवस्था न हो पाने के कारण, भक्तों के अत्यन्त
आग्रह पर, वे कामारपुकुर छोड़कर पुनः कलकत्ता आ गयीं। कलकत्ता आने के बाद
सभी भक्तों के मध्य संघ की माता के रूप में प्रतिष्ठित होकर उन्ह़ोने
सभी को माँ रूप में संरक्षण एवं अभय प्रदान किया। अनेक भक्तों को दीक्षा
देकर उन्हें आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की दीक्षा दे कर मार्ग प्रशस्त किया।
प्रारंभिक वर्षों में स्वामी योगानन्द ने उनकी सेवा का दायित्व
लिया। स्वामी सारदानन्द ने उनके रहने के लिए कलकत्ता में उद्भोदन भवन का
निर्माण करवाया।
सं १८९७, मई की १ तारीख को जन जागरण तथा करोड़ों की सेवा व उत्थान के लिए स्वामी विवेकानंद ने, बेलूर मठ में, अद्वैत वेदांत, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य तथा राज योग पर आधारित रामकृष्ण मिशन की स्थापना की ।
अद्वैत वेदांत ' अहं ब्रह्मास्मि ' शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या दर्शन की विचारधाराओँ में से एक है।
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स्वामी विवेकानंद जी ने दूर अमरीका के शिकागो शहर में विश्व धर्म बैठक के बारे में सुना। सं.
१८९३, ३१ मई को स्वामीजी ने सुदूर देशों की यात्रा आरम्भ की। जापान व चीन
में प्रवास करते हुए वे केनेडा पहुंचे। उसी वर्ष सं १८९३ की ३० जुलाई को ,
वे शिकागो पहुंचे। सं. १८९३ की ११ सितम्बर के दिवस, श्रीरामकृष्ण परमहंस द्वारा दीक्षित,स्वामी विवेकानंद का उदबोधन सभा में गूँज उठा ' मेरे अमरीकी भाईयों व बहनों ' मानों
सिँह गर्जना हुई। लोगों के ह्रदय में एक सच्चे तप: पूत सन्यासी की वाणी
ने जादू सा असर किया। सभागार में उपस्थित ७,००० लोगों ने,करतल ध्वनि करते
हुए ,पुरे
२ मिनट तक खड़े होकर, स्वामीजी का अभिवादन करते हुए तालियों की गड़गड़ाहट से
वातावरण को गुंजारित कर दिया। स्वामीजी ने अपने सटीक व मृदु भाषण में ' शिव महिमा स्त्रोत ' से समस्त धर्म के एक मूल से निकलने के सत्य को प्रतिपादित किया। सं. १८९७ में स्वामीजी भारत लौटे।
आजीवन
स्वामी विवेकानंद अपने आध्यात्मिक गुरु ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस द्वारा
प्राप्त आध्यात्मिक ज्ञान को तथा माँ शारदा के माधुर्य भाव से उपजे जन जन
के प्रति स्नेह निर्झर को प्रसारित करते रहे।
माँ शारदा के आजीवन किये अत्यंत कठिन परिश्रम एवं बारबार मलेरिया के रोग के संक्रमण से माँ का स्वास्थ्य बिगड़ता गया था।
सं. १९२० की २१ जुलाई को, श्री माँ सारदा देवी ने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया! माँ की पावन स्मृति में, बेलूर मठ में, समाधि स्थल पर एक भव्य मंदिर का निर्माण हुआ है।
भारतवर्ष
महान है। तुर्क, फारस जैसे देशों से आये आक्रमणकारी भारत आये तथा यहीं बस
गए। उनके वंशज मुगलों ने, पीढ़ी दर पीढ़ी भारत पर राज किया।
तब भी तुलसीदास, मीराँ सूरदास, कबीर, नानक, चैतन्य जैसी विभूतियाँ,
भारत की पावन भूमि पर जन्म लेतीं रहीं। धर्म के मार्ग पर अग्रसर होने की सीख, जन साधारण को, अपने पवित्र जीवन आचरण तथा सत्य वाणी तथा मनन से यह विभूतियां प्रेरित करतीं रहीं ज्ञान का प्रकाश उजागर करतीं रहीं ।
मुगल
साम्राज्य का सूर्य, अस्ताचलगामी हुआ तब,अंग्रेज, फ्रेंच, डच व पुर्तगाली
भी भारत भूमि पर आये। अपने लोभ लालच के कारण उन्होंने भारत की समृद्धि व
सम्पदा को लूटा। उनके द्वारा सत्ता हथियाई गयी व भारत की सम्पदा व वैभव का
स्थानांतरण हुआ। तब भी श्रीरामकृष्ण परमहंस तथा माँ शारदामणी जैसी दिव्य आत्माओं ने, भारत
की पावन भूमि पर जन्म लिया तथा नवजागरण के स्वप्न को सत्य दिशा प्रदान की।
अपने पट्ट शिष्य विवेकानंद के कार्य द्वारा, भारत भूमि पर देशप्रेम
देशभक्ति का विकास किया। धन्य है भारतवर्ष तथा धन्य हैं भारत भूमि पर जन्मे
असाधारण युगल दंपत्ति। हम श्रद्धा विगलित होकर माँ शारदामणी व ठाकुर
श्रीरामकृष्ण परमहंस के श्री चरणों में साष्टाँग प्रणाम करते हैं।
~ लावण्या