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प्रश्न - १ : भाषा का विकास और उनकी क्रमबद्ध उन्नति ~
उत्तर - १ भाषा का विकास और उनकी क्रमबद्ध उन्नति सभ्यता या
अंग्रेज़ी में कहें तो सिविलाइज़ेशन विश्व के विभिन्न भौगोलिक
अंग्रेज़ी में कहें तो सिविलाइज़ेशन विश्व के विभिन्न भौगोलिक
स्थानों पर ख़ास कर नदी किनारों पर जीवन जीने की सुविधा के कारण पनपे
और अबाध्य क्रम से विकसीं और आज मानव जाती, सभ्यता ~ २१ वीं सदी के आरंभिक काल तक आ पहुँची है।
भारत भूमि पर प्राचीन सभ्यता के भग्न अवशेष सिंधु नदी के पास
मोहनजोदाड़ो व हड़प्पा तथा कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा
और राखीगढ़ी इसके प्रमुख केन्द्र थे। इसे हम सिंधु घाटी सभ्यता के नाम से पहचानते हैं। पूर्व हड़प्पा काल :३,३००मान्यता है कि इन विश्व के प्रथम नगर ग्राम में
आबाद सभ्यता, आठ हज़ार वर्ष पुरानी है।
भारत की उत्तर पश्चिम दिशा में कालान्तर में,
कई सदियों पश्चात, जिसे हम आज ' हिंदी भाषा ' कहते हैं तथा जो
हमारी आज की बोलचाल की हिंदी भाषा है इसका उद्भव व चलन
पश्चिम में राजस्थान से पूर्व में वैधनाथ व झारखंड तक हुआ है।
उत्तर में, हिम खंड से सातपुडा तक हिंदी भाषा का प्रसार कई जनपदों
एवं नगरों में जैसे प्रयाग, काशी, अयोध्या, मथुरा, वृंदावन, हरिद्वार,
बद्रीनाथ, उज्जैन इत्यादि हैं ।
हमारी आज की बोलचाल की हिंदी भाषा है इसका उद्भव व चलन
पश्चिम में राजस्थान से पूर्व में वैधनाथ व झारखंड तक हुआ है।
उत्तर में, हिम खंड से सातपुडा तक हिंदी भाषा का प्रसार कई जनपदों
एवं नगरों में जैसे प्रयाग, काशी, अयोध्या, मथुरा, वृंदावन, हरिद्वार,
बद्रीनाथ, उज्जैन इत्यादि हैं ।
भारतवर्ष की प्राचीनतम भाषा देववाणी संस्कृत है तथा संस्कृत से प्राकृत तथा
अपभ्रंश भाषाएं निकलीं प्राकृत की अंतिम अवस्था ' अवहट्ट ' से खड़ी बोली निकली।
जिसे चंद्रधर शर्मा ' गुलेरी जी ने ' पुरानी हिंदी ' कहा।
बौद्ध धर्म ग्रन्थ बहुधा पाली भाषा हैं तो जैन आगम अर्ध - मागधी भाषा में हैं !
अखिल भारतीय चेतना हिंदी के मूल में है।
भाषा शास्त्र और व्याकरण की दृष्टि से आज की हिंदी खड़ी बोली से निकली है।
उत्तर भारत के जनपदों की १६ सोलह भाषाएं हैं जैसे, १) मैथिली, २) मगही
३) भोजपुरी ४) अवधी ५) कनौजी ६) छत्तीसग़ढी ७) बघेलखंडी ८) बुंदेलखंडी
९)ब्रज १०) कुमायूनी ११) गढ़वाली १२) मालवी १३) नेमाडी १४) बागड़ी
१५) मेवाड़ी १६) कौरवी ~ खड़ी बोली का कौरवी दुसरा नाम है। कुछ मतभेद भी हैं
किन्तु आज की हिंदी बोली का उद्गम ख़ड़ी बोली से है यह सर्व मान्य है।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र खड़ी बोली को ' नई बोली ' कहते हैं। भारतेन्दु जी ने कहा ~
" निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिनु निज भाषा - ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल "
अपभ्रंश को शौरसेनी,
कौरवी या नई बोली कहते हैं जिस में पहले, गद्य या अंग्रेज़ी में जिसे '
प्रोज़ ' कहेंगे उस में प्रयुक्त हुई। बाद में पद्य या काव्य की भाषा
बनी। ऐसा
नहीं कि इस नई बोली का विरोध न हुआ ! ब्रज भाषा तथा खड़ी बोली के बीच
तकरार रही ~ मैथिली की उत्पत्ति मागधी प्राकृत से हुई है मैथिली का प्रथम
प्रमाण रामायण में मिलता है। यह त्रेता युग में मिथिला नरेश राजा जनक की
राजभाषा थी। इस प्रकार यह इतिहास की प्राचीनतम भाषाओं में से एक मानी जाती है। विद्यापति की सरस पदावली या गीतिकाव्य गीत गोविन्द के रचयिता जयदेव ने मैथिली भाषा को प्रतिष्ठित किया।
प्रश्न : २ हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के लिए क्या कदम उठाए गए ? उत्तर - २ हिंदी
को आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा कब और कैसे मिला इस का उत्तर दें तो यह मुद्दा
भारतवर्ष की आज़ादी से जुड़ा हुआ है। भारत स्वतंत्र हुआ और संविधान सभा
द्वारा बनाया गया भारत का संविधान 26 नवम्बर 1949 को पारित व 25 जनवरी
1950 से यह प्रभावी हुआ। भारतीय संविधान में ' राष्ट्रभाषा ' का उल्लेख
नहीं है। भीमराव रामजी आंबेडकर , डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर वे स्वतंत्र भारत के
प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री, भारतीय संविधान के जनक एवं भारत गणराज्य के
निर्माताओं में से एक थे उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया। अछूतों (दलितों) से सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध अभियान चलाया था। श्रमिकों, किसानों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन भी किया था। भारत सरकार द्वारा वर्तमान में भारत की 22 भाषाओं को आधिकारिक
भाषा का दर्जा प्राप्त है। यह २२ भाषाएं हैं ~~ असमी, उर्दू, कन्नड़,
कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी,
संस्कृत, संथाली , सिंधी, तमिल, तेलुगु, बोड़ो, डोगरी, बंगाली और गुजराती
है।
2010 में गुजरात उच्च न्यायालय
ने भी सभी भाषाओं को समान अधिकार के साथ रखने की बात की थी, हालांकि
न्यायालयों और कई स्थानों में केवल अंग्रेजी भाषा चलती है। संविधान सभा ने लम्बी चर्चा के बाद १४ सितम्बर सन् १९४९ से हिन्दी को भारत की राजभाषा स्वीकारा गया। इसके बाद संविधान
में अनुच्छेद ३४३ से ३५१ तक राजभाषा के सम्बन्ध में व्यवस्था की गयी। इसकी
स्मृति को ताजा रखने के लिये १४ सितम्बर का दिन, प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। |
१९ वीं सदी से बीसवीं सदी तक हिंदी साहित्य विश्व ने अनेक अनेक जगमगाते
बुद्धिजीवी देदीप्यमान नक्षत्रों को उभारा। १९ वीं सदी काल से भारतीयों
का यूरोपीय संस्कृति से संपर्क हुआ। ब्रिटिश राज्य ने भारत को नई
परिस्थितियों में धकेला। नए
युग में संघर्ष और सामंजस्य के नए आयाम सामने आए और इस नयी युग चेतना के
संवाहक रूप में हिन्दी के खड़ी बोली गद्य का व्यापक प्रसार उन्नीसवीं सदी
से हुआ। आर्य समाज और अन्य सांस्कृतिक आन्दोलनों ने भी आधुनिक हिंदी गद्य को आगे बढ़ाया।
हिंदी भाषा व साहित्य के आरंभिक रचनाकारों का संक्षिप्त परिचय ~
~ १९ वीं सदी
गद्य साहित्य की विकासमान परम्परा के प्रवर्तक आधुनिक युग के प्रवर्तक और पथप्रदर्शक भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र थे। जिन्होंने साहित्य का समकालीन जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध
स्थापित किया। यह संक्रान्ति और नवजागरण का युग था। नवीन रचनाएँ देशभक्ति
और समाज सुधार की भावना से परिपूर्ण हैं। अनेक नई परिस्थितियों की टकराहट
से राजनीतिक और सामाजिक व्यंग्य की प्रवृत्ति भी उद्बुद्ध हुई। इस समय के
गद्य में बोलचाल की सजीवता है। लेखकों के व्यक्तित्व से सम्पृक्त होने के
कारण उसमें पर्याप्त रोचकता आ गई है। सबसे अधिक निबंध
लिखे गए जो व्यक्तिप्रधान और विचार प्रधान तथा वर्णनात्मक भी थे। अनेक
शैलियों में कथा साहित्य लिखा गया, अधिकतर शिक्षाप्रधान। पर यथार्थवादी
दृष्टि और नए शिल्प की विशेषता श्रीनिवास दास के "परीक्षा गुरु' में है।
देवकीनन्दन खत्री का तिलस्मी उपन्यास 'चंद्रकांता' इसी समय प्रकाशित हुआ और बहुत प्रसिद्ध हुआ।
पर्याप्त परिमाण में नाटकों और सामाजिक प्रहसनों की रचना हुई।
प्रतापनारायण मिश्र, श्रीनिवास दास, आदि इस समय के प्रमुख नाटककार हैं।
बीसवीं सदी ~ सबसे महत्वपूर्ण घटनाएँ दो हैं।
एक तो सामान्य काव्यभाषा के रूप में खड़ी
बोली की स्वीकृति और दूसरे हिन्दी गद्य का नियमन और परिमार्जन। इस कार्य
में सर्वाधिक सशक्त योग सरस्वती पत्रिका के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी
जी हैं । इसे द्विवेदी युग भी कहा गया। द्विवेदी जी और उनके सहकर्मियों ने
हिन्दी गद्य की
अभिव्यक्ति क्षमता को विकसित किया। निबन्ध के क्षेत्र में द्विवेदी जी के
अतिरिक्त बालमुकुन्द, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पूर्ण सिंह, पद्मसिंह शर्मा
भी उल्लेखनीय हैं। उस के बाद गुलेरी जी , कौशिक आदि के अतिरिक्त प्रेमचंद
जी और प्रसाद जी की भी आरंभिक कहानियाँ इसी समय प्रकाश में आई।बसे
प्रभावशाली समीक्षक द्विवेदी जी थे जिनकी संशोधनवादी और मर्यादा निष्ठ
आलोचना ने अनेक समकालीन साहित्य को पर्याप्त प्रभावित किया। मिश्रबन्धु,
कृष्णबिहारी मिश्र और पद्मसिंह शर्मा इस समय के अन्य समीक्षक हैं।
सुधारवादी
आदर्शों से प्रेरित अयोध्या सिंह उपाध्याय
ने अपने "प्रिय प्रवास' में राधा का लोकसेविका रूप प्रस्तुत किया और
खड़ी बोली के विभिन्न रूपों के प्रयोग में निपुणता भी प्रदर्शित की।
मैथिलीशरण गुप्त
ने "भारत भारती' में राष्ट्रीयता और समाज सुधार का स्वर ऊँचा किया और
"साकेत' में उर्मिला की प्रतिष्ठा की। इस समय के अन्य कवि द्विवेदी जी,
श्रीधर पाठक, बालमुकुंद गुप्त, नाथूराम शर्मा 'शंकर', गया प्रसाद शुक्ल
'सनेही' आदि
१९२०
से १९ ४० तक आते आते सर्वाधिक लोकप्रियता उपन्यास और कहानी को मिली।
सर्वप्रमुख कथाकार प्रेमचंद हैं। वृन्दावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास
प्रसिद्ध हुए उपन्यास भी उल्लेख है। हिन्दी नाटक इस समय जयशंकर प्रसाद के
नाटकों से नवीन धरातल पर आरोहित हुआ।
हिन्दी
आलोचना के क्षेत्र में रामचन्द्र शुक्ल ने सूर, तुलसी और जायसी की सूक्ष्म
भाव स्थितियों और कलात्मक विशेषताओं का मार्मिक उद्घाटन किया और साहित्य के
सामाजिक मूल्यों पर बल दिया। अन्य आलोचक है श्री नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ.
नगेन्द्र तथा डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी।
~ लावण्या
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