ऑल इंडिया रेडियो "आकाशवाणी " का सर्व प्रथम गीत भारत सरकार की रेडियो प्रसारण सेवा के लिए बजाया गया उसे ' प्रसार गीत ' कहा गया !
डा. केसकर जी मँत्री थे सूचना व प्रसारण के ( Information and
Broadcasting Ministry ) डा. केसकर जी मँत्री थे सूचना व प्रसारण के !उन्हेँ उस समय के हिन्दी सिने सँगीत के गीतोँ से भारतवर्ष की समस्त प्रजा के लिए आरम्भ किये जा रहे रेडियो जैसे नये माध्यम द्वारा आम फ़िल्मी बजाएं जाएं यह मामला कतई पसन्द न था! अब क्या हो ? ऐसा दुविधापूर्ण प्रश्न आयोजकों के समक्ष उपस्थित हो गया। आखिरकार आकाशवाणी रेडियो प्रसारण सेवा के जरिये किस तरह के और कैसे गीत बजाये जायेँ ? ये मुद्दा एक बडा पेचीदा, गँभीर और सँजीदा मसला बन गया ! इस प्रश्न का हल ये निकाला गया कि "शुध्ध ~ साहित्यिक " किस्म के गीतोँ का ही भारतीय सरकार द्वारा प्रेषित रेडियो प्रसारण सेवा के जरिये शुद्ध हिंदीमें साँस्कृतिक पुट लिए हों ऐसे साहित्यिक हिन्दी गीतोँ को ही बजाया जाएगा । तद्पश्चात
ऐसे शुद्ध हिंदी भाषा के गीतकारों का चयन किया गया।
देहली से श्री भगवती चरण वर्मा जी को आमंत्रित किया गया। उनका उपन्यास "चित्रलेखा " हिन्दी साहित्य जगत मेँ धूम मचा कर अपना गौरवमय स्थान हासिल किये हुए था। मायानगरी बँबई से, कवि पँडित नरेब्द्र शर्मा जी को चुना गया। गीतों के संगीत संयोजन के लिए, उन्हें सँगीत बध्ध करने के लिए मशहूर बँगाली सँगीत निर्देशक श्री अनिल बिस्वास जी को चुना गया वे भारतीय सिनेमा सुगम संगीत पितामह कहलाते हैं !
अब पढ़िए रेडियो उद्घोषक यूनुस खान जी का व्यक्ततव्य ~
लावण्या जी आज लाईं हैं रिफत सरोश के संस्मरण ~
लेकिन उनकी पोस्ट को पेश करने से पहले मैं कुछ कहने की गुस्ताख़ी कर रहा हूं । जो लोग रिफत साहब को नहीं जानते ये बातें उनके लिए ।
रिफत सरोश रेडियो की एक जानी मानी हस्ती रहे हैं ।
शायरी और उर्दू ड्रामे में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है । रिफत रेडियो के उन लोगों में से एक रहे हैं जिनमें कार्यक्रमों को लेकर रचनात्मकता और दूरदर्शिता थी । उनकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं । विविध भारती के आरंभिक दिनों में रिफत सरोश ने भी अपना उल्लेखनीय योगदान दिया था । पुराने लोगों से सुन सुनकर जितना जान पाया हूं उसके मुताबिक रिफत साहब उन दिनों आकाशवाणी मुंबई में थे जब विविध भारती को दिल्ली से मुंबई लाया गया था । अब ये नया प्रसंग आ गया ना, जी हां विविध भारती का आरंभ तीन अक्तूबर सं १९५७ को दिल्ली में हुआ । फिर थोड़े दिनों बाद विविध भारती को मुंबई लाया गया फिर दिल्ली और फिर अंतत: मुंबई ले आया गया ।
ख़ैर इस संस्मरण को पढ़कर आप अगले भागों का इंतज़ार ज़रूर करेंगे ।
रेडियो में काम कर रहे मेरे जैसे बहुत बहुत बाद के लोगों के लिए इसमें बसे हैं पुराने लोगों के किस्से जो आज भी स्टूडियो के गलियारों में गूंजते हैं । ----युनुस चलिये अब आगे सुनें ~ जनाब 'रिफअत सरोश " साहब का सँस्मरण
इस आलेख मेँ उन्होंने अनमोल यादेँ साझा कीं हैँ उन से मुखातिब हुआ जाये ...
" इप्टा = माने इन्डियन पीपल्स थियेटर के पहले का स्वरुप क्या था ? जी हाँ इसका पूर्वरुप था " कल्चरल स्क्वाड " जो वह " बाँये बाजू " का कलचरल विँग था! यानी नृत्य,सँगीत, और नाटकोँ के जरीये साम्राज्यित पर चोट की जाती थी ! कुचली हुई जनता को सिर उठाने, अपना हक मनवाने और आज़ादी की जँग मेँ आगे बढने के लिये उसी से तैयार किया जाता था।
" एक ज़माने तक, नाच - गानोँ के प्रोग्रामोँ मेँ हिस्सा लेना तो दरकिनार , मेरे नज़दीक ऐसे प्रोग्राम देखना भी एक तरह से ऐब था। लेकिन १९४५ ई. मेँ, बम्बई पहुँच कर मेरी अखलाकियात ( नैतिकता ) की रस्सी कुछ ढीली हो गई थी और मैँ इस तरह के प्रोग्राम कि, जिसमे अश्लील्ता न हो उनसे जुड़ने लगा !
उन दिनोँ की बात है, कि बँबई के कावसजी जहाँगीर होल मेँ "कलचरल स्क्वाड " का एक प्रोग्राम हुआ। जिसकी सूचना मुझे, अपने एक दोस्त प्रेमधवन से मिली जो शायर तो हैँ ही, डाँसर भी हैँ।
हाल खचाखच भरा हुआ था। परदे के पीछे से एनाउन्सर की आवाज़ और वाक्योँ मेँ साहित्यिक पुट तथा बात से असर पैदा करने का सलीका था। सुननेवालोँ के दिलों पर पकड़ लिए हुए वह आवाज़ मानो प्रोग्राम की बागडोर उस आवाज़ से बँधी थी ! मालूम हुआ कि ऐसे प्रोग्राम का सँचालन कर रहे थे नरेन्द्र जी अपने विशेष रोचक अन्दाज मेँ !
जब "कल्चरल स्क्वाड " पर उस समय की सरकार ने पाबँदी ला दी थी तो उसकी जगह इप्टा ने ले ली ! इप्टा और उसकी सरगर्मियोँ और कामयाबियोँ से थियेटर की दुनिया खूब वाकिफ थी।
बँबई मेँ इस के पौधे को अपनी कला से सीँचनेवाले थे नरेन्द्र जी जिन के कई अन्य साथी थे ~ जिनमेँ प्रमुख हैँ ~ बलराज साहनी, प्रेम धवन और उनके बाद शैलेन्द्र, हबीब तनवरी, मनी रबाडी, और शौकत व कैफी आज़मी, ख्वाजा अहमद अब्बास ( जिन्होँने सुपर स्टार अमिताभ को अपनी फिल्म ~ "सात हिन्दुस्तानी " मे पहली बार फिल्म मेँ काम करने का मौका दिया था )
( यह टिप्पणी - लावण्या की है )
अवामी ज़िन्दगी से नरेन्द्र जी की कुर्बत देखकर मेरे दिल मेँ उनकी इज्जत पहले ही दिन से पैदा हो गयी थी। फिर कुछ दिन बाद जब मैँ आल इन्डिया रेडियो मेँ मुलाजिम हुआ तो मालूम हुआ कि किसी मतभेद की वजह से हिन्दी के लेखक और कवि आल इन्डिया रेडियो के कार्यक्रमोँ मेँ भाग ही न लेते थे~ ले दे कर एक गोपाल सिँह नेपाली थे, जो कभी कभी कविता पाठ करने आ जाते थे कोई और प्रसिध्ध साहित्यकार इधर का रुख न करता था ! हाँ डा. मोतीचन्द्र जी वे, प्रिन्स ओफ वेल्स म्युझियम के प्रमुख, कर्ता धर्ता थे और रणछोड लाल ज्ञानी जरुर आते थे। और फिर देश स्वतँत्र हुआ।भाषा सम्बधी आकाशवाणी की नीति मेँ परिवर्तन आया।
अब हम रेडियोवाले, हिन्दी लेखकोँ और कवियोँ की खोज करने लगे।
नीलकँठ तिवारी, रतन लाल जोशी, सरस्वती कुमार दीपक, सत्यकाम विध्यालँकार, वीरेन्द्र कुमार जैन, किशोरी रमण टँडन, डा. सशि शेखर नैथानी, सी. एल्. प्रभात, के. सी. शर्मा भिक्खु, भीष्म साहनी,
हिन्दी के अच्छे खासे लोग रेडियो के प्रोग्रामोँ मे हिस्सा लेने लगे।
उन्हीँ दिनोँ हम लोगोँ ने पँ. नरेद्र शर्मा को भी आमादा किया कि वे हमारे प्रोग्रामोँ मेँ रुचि लेँ - वे फिल्मोँ के लिये लिखते थे।
एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया, "कवि और कलाकार" - उसमेँ सँगीत निर्देशक अनिल बिस्वास, अस. डी. बर्मन, नौशाद और सैलेश मुखर्जी ने गीतोँ और गज़लोँ की धुनेँ बनाईँ ~ शकील, साहिर और शायर डाक्टर सफ्दर "आह" सीतापुरी के अलावा नरेन्द्र जी के एक अनूठे गीत की धुन अनिल बिस्वास ने बनाई थी, जिसे लता मँगेशकर ने गाया था ~
" युग की सँध्या कृषक वधु सी, किस का पँथ निहार रही "
पहले यह गीत कवि ने स्वयम्` पढ़ा, फिर उसे गायिका ने गाया।
उन दिनोँ आम चलते हुए गीतोँ का रिवाज़ हो गया था और गज़ल के चमकते -दमकते लफ्ज़ोँ को गीतोँ मेँ पिरो कर अनगिनत फिल्मी गीत लिखे जा रहे थे। ऐसे माहौल मेँ नरेन्द्र जी का ये गीत सभी को अच्छा लगा, जिसमेँ, साहित्य के रँग के साथ, भारत भूमि की सुगँध भी बसी हुई थी और फिर हमारे हिन्दी विभाग के कार्यक्रमोँ मेँ नरेन्द्र जी स्वेच्छा से, आने जाने लगे।
एक बार नरेन्द्र जी ने, एक रुपक लिखा - " चाँद मेरा साथी " ~~
चाँद के बारे मेँ अपनी कई कवितायेँ, जो वभिन्न मूड की थीँ, को रुपक की लडी मेँ इस प्रकार पिरोई थी कि मनिष्य की मनोस्थिति सामने आ जाती थी। वह सूत्र रुपक की जान था ! मुझे रुपक रचने का यह विचित्र ढँग बहुत पसँद आया और आगे भी इस का प्रयोग किया गया। मैँ, बम्बई रेडियो पर हिन्दी विभाग मेँ स्टाफ आर्टिस्ट था अब्दुल गनी फारुकी प्रोग्राम असिस्टेँट ! "
चित्र : स्वर साम्राज्ञी सुश्री लता मंगेशकर दीदी जी पं. नरेंद्र शर्मा
षष्ठिपूर्ति पर माल्यार्पण व कविवर को स्नेह ~ अभिनन्दन देते हुए ~
"युग की सँध्या " गीत के बारे में एक दुखद घटना जुडी है ~
"युग की सँध्या " गीत, इस प्रथम प्रसारण के बाद, न जाने कैसे, मिट गया ! इसलिए, उस गीत की रेकोर्डीँग ~ अब कहीं भी उपलब्ध नहीँ है !
भारत कोकिला, स्वर साम्राज्ञी श्री लता मँगेशकर यदि उसे अगर गा देँ ,
पूरा गीत नहीँ तो बस, कुछ पँक्तियाँ ही गए दें तो सारे भारत के तथा सम्पूर्ण विश्व के साहित्य रसिक व संगीत प्रेमी लोग, एक बार पुनः इस गीत का
आनँद ले पायेगेँ ! आज उस गीत को सुमधुर सँगीत से सजानेवाले अनिल दा जीवित नहीँ हैँ और ना ही गीत के शब्द लिखने वाले कवि पँडितनरेन्द्र शर्मा ( मेरे पापा ) भी हमारे बीच उपस्थित नहीँ हैँ ! हाँ, मेरी आदरणीया लता दीदी हैँ और उनकी साल गिरह २८ सितम्बर के दिन मैँ प्रत्येक वर्ष उनके दीर्घायु होने की कामना करती हूँ !
" शतम्` जीवेन्` शरद: " की परम कृपालु ईश्वर से , विनम्र प्रार्थना करती
हूँ और ३ अक्तूबर को "विविध भारती " के जन्म दीवस पर अपार खुशी और सँतोष का अनुभव करते हुए, निरँतर यशस्वी, भविष्य के स स्नेह आशिष भेज रही हूँ ...आशा करती हूँ कि " रेडियो" से निकली आवाज़, हर भारतीय श्रोता के मन की आवाज़ हो, सुनहरे और उज्वल भविष्य के सपने सच मेँ बदल देनेवाली ताकत हो जो रेडियो की स्वर ~ लहरी ही नहीँ किँतु, "विश्व व्यापी आनँद की लहर " बन कर मनुष्य को मनुष्य से जोडे रखे और भाएचारे और अमन का पैगाम फैला दे, जिस से हरेक रुह को सुकुन मिले।
पंडित नरेंद्र शर्मा ने विविध भारती के बचपन को ऐसा संवारा की दिन ब दिन उसकी निखार बढती चली गयी। आज पृथ्वी पर विविध भारती , सबसे बड़ा रेडियो नेटवर्क है जिसके करीब ३५ करोड़ श्रोता हैं। अवकाश प्राप्ति तक पं नरेन्द्र शर्मा, विविध भारती के संरक्षक बने रहे।
युग की सँध्या
-----------------------------------------------------------------------------------
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही ...
युग की सँध्या कृषक वधू सी ....
धूलि धूसरित, अस्त ~ व्यस्त वस्त्रोँ की,
शोभा मन मोहे, माथे पर रक्ताभ चँद्रमा की सुहाग बिँदिया सोहे,
उचक उचक, ऊँची कोटी का नया सिँगार उतार रही
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
रँभा रहा है बछडा, बाहर के आँगन मेँ,
गूँज रही अनुगूँज, दुख की, युग की सँध्या के मन मेँ,
जँगल से आती, सुमँगला धेनू, सुर पुकार रही ..
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
जाने कब आयेगा मालिक, मनोभूमि का हलवाहा ?
कब आयेगा युग प्रभात ? जिसको सँध्या ने चाहा ?
सूनी छाया, पथ पर सँध्या, लोचन तारक बाल रही ...
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
मेरी विनम्र अँजलि स्वीकारेँ ........शुभँ भवति ...
सादर ~ स
-लावण्या शाह
डा. केसकर जी मँत्री थे सूचना व प्रसारण के ( Information and
Broadcasting Ministry ) डा. केसकर जी मँत्री थे सूचना व प्रसारण के !उन्हेँ उस समय के हिन्दी सिने सँगीत के गीतोँ से भारतवर्ष की समस्त प्रजा के लिए आरम्भ किये जा रहे रेडियो जैसे नये माध्यम द्वारा आम फ़िल्मी बजाएं जाएं यह मामला कतई पसन्द न था! अब क्या हो ? ऐसा दुविधापूर्ण प्रश्न आयोजकों के समक्ष उपस्थित हो गया। आखिरकार आकाशवाणी रेडियो प्रसारण सेवा के जरिये किस तरह के और कैसे गीत बजाये जायेँ ? ये मुद्दा एक बडा पेचीदा, गँभीर और सँजीदा मसला बन गया ! इस प्रश्न का हल ये निकाला गया कि "शुध्ध ~ साहित्यिक " किस्म के गीतोँ का ही भारतीय सरकार द्वारा प्रेषित रेडियो प्रसारण सेवा के जरिये शुद्ध हिंदीमें साँस्कृतिक पुट लिए हों ऐसे साहित्यिक हिन्दी गीतोँ को ही बजाया जाएगा । तद्पश्चात
ऐसे शुद्ध हिंदी भाषा के गीतकारों का चयन किया गया।
देहली से श्री भगवती चरण वर्मा जी को आमंत्रित किया गया। उनका उपन्यास "चित्रलेखा " हिन्दी साहित्य जगत मेँ धूम मचा कर अपना गौरवमय स्थान हासिल किये हुए था। मायानगरी बँबई से, कवि पँडित नरेब्द्र शर्मा जी को चुना गया। गीतों के संगीत संयोजन के लिए, उन्हें सँगीत बध्ध करने के लिए मशहूर बँगाली सँगीत निर्देशक श्री अनिल बिस्वास जी को चुना गया वे भारतीय सिनेमा सुगम संगीत पितामह कहलाते हैं !
अब पढ़िए रेडियो उद्घोषक यूनुस खान जी का व्यक्ततव्य ~
लावण्या जी आज लाईं हैं रिफत सरोश के संस्मरण ~
लेकिन उनकी पोस्ट को पेश करने से पहले मैं कुछ कहने की गुस्ताख़ी कर रहा हूं । जो लोग रिफत साहब को नहीं जानते ये बातें उनके लिए ।
रिफत सरोश रेडियो की एक जानी मानी हस्ती रहे हैं ।
शायरी और उर्दू ड्रामे में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है । रिफत रेडियो के उन लोगों में से एक रहे हैं जिनमें कार्यक्रमों को लेकर रचनात्मकता और दूरदर्शिता थी । उनकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं । विविध भारती के आरंभिक दिनों में रिफत सरोश ने भी अपना उल्लेखनीय योगदान दिया था । पुराने लोगों से सुन सुनकर जितना जान पाया हूं उसके मुताबिक रिफत साहब उन दिनों आकाशवाणी मुंबई में थे जब विविध भारती को दिल्ली से मुंबई लाया गया था । अब ये नया प्रसंग आ गया ना, जी हां विविध भारती का आरंभ तीन अक्तूबर सं १९५७ को दिल्ली में हुआ । फिर थोड़े दिनों बाद विविध भारती को मुंबई लाया गया फिर दिल्ली और फिर अंतत: मुंबई ले आया गया ।
ख़ैर इस संस्मरण को पढ़कर आप अगले भागों का इंतज़ार ज़रूर करेंगे ।
रेडियो में काम कर रहे मेरे जैसे बहुत बहुत बाद के लोगों के लिए इसमें बसे हैं पुराने लोगों के किस्से जो आज भी स्टूडियो के गलियारों में गूंजते हैं । ----युनुस चलिये अब आगे सुनें ~ जनाब 'रिफअत सरोश " साहब का सँस्मरण
इस आलेख मेँ उन्होंने अनमोल यादेँ साझा कीं हैँ उन से मुखातिब हुआ जाये ...
" इप्टा = माने इन्डियन पीपल्स थियेटर के पहले का स्वरुप क्या था ? जी हाँ इसका पूर्वरुप था " कल्चरल स्क्वाड " जो वह " बाँये बाजू " का कलचरल विँग था! यानी नृत्य,सँगीत, और नाटकोँ के जरीये साम्राज्यित पर चोट की जाती थी ! कुचली हुई जनता को सिर उठाने, अपना हक मनवाने और आज़ादी की जँग मेँ आगे बढने के लिये उसी से तैयार किया जाता था।
" एक ज़माने तक, नाच - गानोँ के प्रोग्रामोँ मेँ हिस्सा लेना तो दरकिनार , मेरे नज़दीक ऐसे प्रोग्राम देखना भी एक तरह से ऐब था। लेकिन १९४५ ई. मेँ, बम्बई पहुँच कर मेरी अखलाकियात ( नैतिकता ) की रस्सी कुछ ढीली हो गई थी और मैँ इस तरह के प्रोग्राम कि, जिसमे अश्लील्ता न हो उनसे जुड़ने लगा !
उन दिनोँ की बात है, कि बँबई के कावसजी जहाँगीर होल मेँ "कलचरल स्क्वाड " का एक प्रोग्राम हुआ। जिसकी सूचना मुझे, अपने एक दोस्त प्रेमधवन से मिली जो शायर तो हैँ ही, डाँसर भी हैँ।
हाल खचाखच भरा हुआ था। परदे के पीछे से एनाउन्सर की आवाज़ और वाक्योँ मेँ साहित्यिक पुट तथा बात से असर पैदा करने का सलीका था। सुननेवालोँ के दिलों पर पकड़ लिए हुए वह आवाज़ मानो प्रोग्राम की बागडोर उस आवाज़ से बँधी थी ! मालूम हुआ कि ऐसे प्रोग्राम का सँचालन कर रहे थे नरेन्द्र जी अपने विशेष रोचक अन्दाज मेँ !
जब "कल्चरल स्क्वाड " पर उस समय की सरकार ने पाबँदी ला दी थी तो उसकी जगह इप्टा ने ले ली ! इप्टा और उसकी सरगर्मियोँ और कामयाबियोँ से थियेटर की दुनिया खूब वाकिफ थी।
बँबई मेँ इस के पौधे को अपनी कला से सीँचनेवाले थे नरेन्द्र जी जिन के कई अन्य साथी थे ~ जिनमेँ प्रमुख हैँ ~ बलराज साहनी, प्रेम धवन और उनके बाद शैलेन्द्र, हबीब तनवरी, मनी रबाडी, और शौकत व कैफी आज़मी, ख्वाजा अहमद अब्बास ( जिन्होँने सुपर स्टार अमिताभ को अपनी फिल्म ~ "सात हिन्दुस्तानी " मे पहली बार फिल्म मेँ काम करने का मौका दिया था )
( यह टिप्पणी - लावण्या की है )
अवामी ज़िन्दगी से नरेन्द्र जी की कुर्बत देखकर मेरे दिल मेँ उनकी इज्जत पहले ही दिन से पैदा हो गयी थी। फिर कुछ दिन बाद जब मैँ आल इन्डिया रेडियो मेँ मुलाजिम हुआ तो मालूम हुआ कि किसी मतभेद की वजह से हिन्दी के लेखक और कवि आल इन्डिया रेडियो के कार्यक्रमोँ मेँ भाग ही न लेते थे~ ले दे कर एक गोपाल सिँह नेपाली थे, जो कभी कभी कविता पाठ करने आ जाते थे कोई और प्रसिध्ध साहित्यकार इधर का रुख न करता था ! हाँ डा. मोतीचन्द्र जी वे, प्रिन्स ओफ वेल्स म्युझियम के प्रमुख, कर्ता धर्ता थे और रणछोड लाल ज्ञानी जरुर आते थे। और फिर देश स्वतँत्र हुआ।भाषा सम्बधी आकाशवाणी की नीति मेँ परिवर्तन आया।
अब हम रेडियोवाले, हिन्दी लेखकोँ और कवियोँ की खोज करने लगे।
नीलकँठ तिवारी, रतन लाल जोशी, सरस्वती कुमार दीपक, सत्यकाम विध्यालँकार, वीरेन्द्र कुमार जैन, किशोरी रमण टँडन, डा. सशि शेखर नैथानी, सी. एल्. प्रभात, के. सी. शर्मा भिक्खु, भीष्म साहनी,
हिन्दी के अच्छे खासे लोग रेडियो के प्रोग्रामोँ मे हिस्सा लेने लगे।
उन्हीँ दिनोँ हम लोगोँ ने पँ. नरेद्र शर्मा को भी आमादा किया कि वे हमारे प्रोग्रामोँ मेँ रुचि लेँ - वे फिल्मोँ के लिये लिखते थे।
एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया, "कवि और कलाकार" - उसमेँ सँगीत निर्देशक अनिल बिस्वास, अस. डी. बर्मन, नौशाद और सैलेश मुखर्जी ने गीतोँ और गज़लोँ की धुनेँ बनाईँ ~ शकील, साहिर और शायर डाक्टर सफ्दर "आह" सीतापुरी के अलावा नरेन्द्र जी के एक अनूठे गीत की धुन अनिल बिस्वास ने बनाई थी, जिसे लता मँगेशकर ने गाया था ~
" युग की सँध्या कृषक वधु सी, किस का पँथ निहार रही "
पहले यह गीत कवि ने स्वयम्` पढ़ा, फिर उसे गायिका ने गाया।
उन दिनोँ आम चलते हुए गीतोँ का रिवाज़ हो गया था और गज़ल के चमकते -दमकते लफ्ज़ोँ को गीतोँ मेँ पिरो कर अनगिनत फिल्मी गीत लिखे जा रहे थे। ऐसे माहौल मेँ नरेन्द्र जी का ये गीत सभी को अच्छा लगा, जिसमेँ, साहित्य के रँग के साथ, भारत भूमि की सुगँध भी बसी हुई थी और फिर हमारे हिन्दी विभाग के कार्यक्रमोँ मेँ नरेन्द्र जी स्वेच्छा से, आने जाने लगे।
एक बार नरेन्द्र जी ने, एक रुपक लिखा - " चाँद मेरा साथी " ~~
चाँद के बारे मेँ अपनी कई कवितायेँ, जो वभिन्न मूड की थीँ, को रुपक की लडी मेँ इस प्रकार पिरोई थी कि मनिष्य की मनोस्थिति सामने आ जाती थी। वह सूत्र रुपक की जान था ! मुझे रुपक रचने का यह विचित्र ढँग बहुत पसँद आया और आगे भी इस का प्रयोग किया गया। मैँ, बम्बई रेडियो पर हिन्दी विभाग मेँ स्टाफ आर्टिस्ट था अब्दुल गनी फारुकी प्रोग्राम असिस्टेँट ! "
उन
दिनों आकशवाणी के कुछ गिने चुने केंद्र ही थे और उन सभी में
शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों की अधिकता थी जिसकी वजह से आम
जनता के रेडियो की सूइयां, रेडियो सीलोन को ही ढूंडा करती थी। आकाशवाणी
के कार्यकर्ताओं को एक विविध रंगी चैनल की ज़रुरत महसूस हुयी
जिसके लिए,पं. नरेन्द्र शर्मा को राजधानी दिल्ली बुलाया गया। कभी वेदव्यास को भी राजधानी बुलाया गया था जिसके बाद रचना हुयी " महाभारत महाकाव्य की ! पं. नरेन्द्र शर्मा ने भी मनोरंजन की ऐसी महाभारत रची की रेडियो जगत में,एक मिसाल बनकर रह गयी ! इस महाभारत का नाम है ~~ " विविध भारती " ~~
"नाच रे मयूरा!
खोल कर सहस्त्र नयन,
देख सघन गगन मगन
देख सरस स्वप्न, जो कि
आज हुआ पूरा !
नाच रे मयूरा !
गूँजे दिशि-दिशि मृदंग,
प्रतिपल नव राग-रंग,
रिमझिम के सरगम पर
छिड़े तानपूरा !
नाच रे मयूरा !
सम पर सम, सा पर सा,
उमड़-घुमड़ घन बरसा,
सागर का सजल गान
क्यों रहे अधूरा ?
नाच रे मयूरा "
सँगीतकार श्री अनिल बिस्वास जी की जीवनी के लेखक श्री शरद दत्त जी ने इस गीत से जुडे कई रोचक तथ्य लिखे हैँ।
जैसे इस गीत की पहली दो पँक्तियाँ फिल्म "सुजाता " मेँ मशहूर सिने कलाकार सुनील दत्त जी गुनगुनाते हैँ ~ फिल्म सुजाता सं.१९५९ नूतन और सुनील दत्त द्वारा अभिनीत, निर्माता, निर्देशक बिमल रोय की मर्मस्पर्शी पेशकश थी। इस घटना का ज़िक्र आप अनिल दा की वेब साइट पर भी पढ सकते हैँ। The Innaugeral Song for Vividh -Bharti
http://anilbiswas.com/ RE : NAACH RE MAYURA
उस ऐतिहासिक प्रथम सँगीत प्रसारण के शुभ अवसर पर नरेन्द्र शर्मा जी ने
अनिल बिस्वास को यह चार गीत दीये और उन गीतों के लिये सुमधुर धुन बनाने का अनुरोध किया था। सभी गीतोँ का स्वर सँयोजन अनिल दा ने किया जिसका प्रसारण देढ घँटे के प्रथम ऐतिहासिक कार्यक्र्म मेँ भारत सरकार ने भारत की जनता को नये माध्यम "रेडिय़ो " प्रसारण के श्री गणेश स्वरुप मेँ, इस अनोखे गीतों के उपहार से किया। संगीतमय "प्रसार ~ गीत " कार्यक्रम से " आकाशवाणी " के विविधभारती कार्यक्रम प्रसारण का जन्म हुआ !!
निम्न चार गीत तैयार किये गए थे ~~
१) "नाच रे मयूरा, खोल कर सहस्त्र नयन,
देख सघन, गगन मगन,
देख सरस स्वप्न जो कि आज हुआ पूरा,
नाच रे मयूरा ...."
( गायक : श्री मन्ना डे जी )
२ ) चौमुख दीवला बार धरुँगी, चौबारे पे आज,
जाने कौन दिसा से आयेँ, मेरे राजकुमार
( गायिका थीँ श्री मीना कपूर जी )
३ ) 'रख दिया नभ शून्य मेँ किसने तुम्हेँ मेरे ह्र्दय ?
इन्दु कहलाते, सुधा से विश्व नहलाते,
फिर भी न जग ने न जाना तुम्हेँ, मेरे ह्रदय "
( गायिका थीँ श्री मीना कपूर जी )
४ ) "युग की सँध्या कृषक वधु सी,
किसका पँथ निहार रही ?
उलझी हुई, सम्स्याओँ की,
बिखरी लटेँ, सँवार रही "
( गायिका थीँ सुश्री लता मँगेशकर जी )
३ अक्टूबर १९५७ को सुबह १० बजे जन्म हुआ विविध भारती का और पं. नरेन्द्र शर्मा को बनाया गया इसके चीफ प्रोड्यूसर !!
इस तरह आकाशवाणी मेँ "विविधभारती " का एक स्वतँत्र इकाई के स्वरुप मेँ जनम हुआ आखिरकार भारतीय प्रजा के आशा भरे स्वप्नों को वाणी मिली प्रथम प्रसार गीत तैयार हुआ जिसके गीतकार थे कवि पँडित नरेन्द्र शर्मा जी, सँगीत से स्वर बध्ध किया श्री अनिल बिस्वास जी थे और स्वर दिया गायक श्री मन्नाडे जी ने! गीत के बोल हैं ~"नाच रे मयूरा!
खोल कर सहस्त्र नयन,
देख सघन गगन मगन
देख सरस स्वप्न, जो कि
आज हुआ पूरा !
नाच रे मयूरा !
गूँजे दिशि-दिशि मृदंग,
प्रतिपल नव राग-रंग,
रिमझिम के सरगम पर
छिड़े तानपूरा !
नाच रे मयूरा !
सम पर सम, सा पर सा,
उमड़-घुमड़ घन बरसा,
सागर का सजल गान
क्यों रहे अधूरा ?
नाच रे मयूरा "
सँगीतकार श्री अनिल बिस्वास जी की जीवनी के लेखक श्री शरद दत्त जी ने इस गीत से जुडे कई रोचक तथ्य लिखे हैँ।
जैसे इस गीत की पहली दो पँक्तियाँ फिल्म "सुजाता " मेँ मशहूर सिने कलाकार सुनील दत्त जी गुनगुनाते हैँ ~ फिल्म सुजाता सं.१९५९ नूतन और सुनील दत्त द्वारा अभिनीत, निर्माता, निर्देशक बिमल रोय की मर्मस्पर्शी पेशकश थी। इस घटना का ज़िक्र आप अनिल दा की वेब साइट पर भी पढ सकते हैँ। The Innaugeral Song for Vividh -Bharti
http://anilbiswas.com/ RE : NAACH RE MAYURA
उस ऐतिहासिक प्रथम सँगीत प्रसारण के शुभ अवसर पर नरेन्द्र शर्मा जी ने
अनिल बिस्वास को यह चार गीत दीये और उन गीतों के लिये सुमधुर धुन बनाने का अनुरोध किया था। सभी गीतोँ का स्वर सँयोजन अनिल दा ने किया जिसका प्रसारण देढ घँटे के प्रथम ऐतिहासिक कार्यक्र्म मेँ भारत सरकार ने भारत की जनता को नये माध्यम "रेडिय़ो " प्रसारण के श्री गणेश स्वरुप मेँ, इस अनोखे गीतों के उपहार से किया। संगीतमय "प्रसार ~ गीत " कार्यक्रम से " आकाशवाणी " के विविधभारती कार्यक्रम प्रसारण का जन्म हुआ !!
निम्न चार गीत तैयार किये गए थे ~~
१) "नाच रे मयूरा, खोल कर सहस्त्र नयन,
देख सघन, गगन मगन,
देख सरस स्वप्न जो कि आज हुआ पूरा,
नाच रे मयूरा ...."
( गायक : श्री मन्ना डे जी )
२ ) चौमुख दीवला बार धरुँगी, चौबारे पे आज,
जाने कौन दिसा से आयेँ, मेरे राजकुमार
( गायिका थीँ श्री मीना कपूर जी )
३ ) 'रख दिया नभ शून्य मेँ किसने तुम्हेँ मेरे ह्र्दय ?
इन्दु कहलाते, सुधा से विश्व नहलाते,
फिर भी न जग ने न जाना तुम्हेँ, मेरे ह्रदय "
( गायिका थीँ श्री मीना कपूर जी )
४ ) "युग की सँध्या कृषक वधु सी,
किसका पँथ निहार रही ?
उलझी हुई, सम्स्याओँ की,
बिखरी लटेँ, सँवार रही "
( गायिका थीँ सुश्री लता मँगेशकर जी )
षष्ठिपूर्ति पर माल्यार्पण व कविवर को स्नेह ~ अभिनन्दन देते हुए ~
"युग की सँध्या " गीत के बारे में एक दुखद घटना जुडी है ~
"युग की सँध्या " गीत, इस प्रथम प्रसारण के बाद, न जाने कैसे, मिट गया ! इसलिए, उस गीत की रेकोर्डीँग ~ अब कहीं भी उपलब्ध नहीँ है !
भारत कोकिला, स्वर साम्राज्ञी श्री लता मँगेशकर यदि उसे अगर गा देँ ,
पूरा गीत नहीँ तो बस, कुछ पँक्तियाँ ही गए दें तो सारे भारत के तथा सम्पूर्ण विश्व के साहित्य रसिक व संगीत प्रेमी लोग, एक बार पुनः इस गीत का
आनँद ले पायेगेँ ! आज उस गीत को सुमधुर सँगीत से सजानेवाले अनिल दा जीवित नहीँ हैँ और ना ही गीत के शब्द लिखने वाले कवि पँडितनरेन्द्र शर्मा ( मेरे पापा ) भी हमारे बीच उपस्थित नहीँ हैँ ! हाँ, मेरी आदरणीया लता दीदी हैँ और उनकी साल गिरह २८ सितम्बर के दिन मैँ प्रत्येक वर्ष उनके दीर्घायु होने की कामना करती हूँ !
" शतम्` जीवेन्` शरद: " की परम कृपालु ईश्वर से , विनम्र प्रार्थना करती
हूँ और ३ अक्तूबर को "विविध भारती " के जन्म दीवस पर अपार खुशी और सँतोष का अनुभव करते हुए, निरँतर यशस्वी, भविष्य के स स्नेह आशिष भेज रही हूँ ...आशा करती हूँ कि " रेडियो" से निकली आवाज़, हर भारतीय श्रोता के मन की आवाज़ हो, सुनहरे और उज्वल भविष्य के सपने सच मेँ बदल देनेवाली ताकत हो जो रेडियो की स्वर ~ लहरी ही नहीँ किँतु, "विश्व व्यापी आनँद की लहर " बन कर मनुष्य को मनुष्य से जोडे रखे और भाएचारे और अमन का पैगाम फैला दे, जिस से हरेक रुह को सुकुन मिले।
पंडित नरेंद्र शर्मा ने विविध भारती के बचपन को ऐसा संवारा की दिन ब दिन उसकी निखार बढती चली गयी। आज पृथ्वी पर विविध भारती , सबसे बड़ा रेडियो नेटवर्क है जिसके करीब ३५ करोड़ श्रोता हैं। अवकाश प्राप्ति तक पं नरेन्द्र शर्मा, विविध भारती के संरक्षक बने रहे।
युग की सँध्या
-----------------------------------------------------------------------------------
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही ...
युग की सँध्या कृषक वधू सी ....
धूलि धूसरित, अस्त ~ व्यस्त वस्त्रोँ की,
शोभा मन मोहे, माथे पर रक्ताभ चँद्रमा की सुहाग बिँदिया सोहे,
उचक उचक, ऊँची कोटी का नया सिँगार उतार रही
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
रँभा रहा है बछडा, बाहर के आँगन मेँ,
गूँज रही अनुगूँज, दुख की, युग की सँध्या के मन मेँ,
जँगल से आती, सुमँगला धेनू, सुर पुकार रही ..
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
जाने कब आयेगा मालिक, मनोभूमि का हलवाहा ?
कब आयेगा युग प्रभात ? जिसको सँध्या ने चाहा ?
सूनी छाया, पथ पर सँध्या, लोचन तारक बाल रही ...
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
मेरी विनम्र अँजलि स्वीकारेँ ........शुभँ भवति ...
सादर ~ स
-लावण्या शाह