ॐ
बचपन के दिन भी क्या दिन थेः लावण्या शाह
बचपन के दिन भी क्या दिन थे! जी हाँ, बचपन ! इंसान के जीवन का सबसे सुकोमल हिस्सा ! आहा शैशव का वह निर्दोष आनंद भूलाये नहीं भूलता !
मेरी जीवन यात्रा के ऐसे पड़ाव हैं कि जिन्हेँ, मैं, दशकों में बँटा देखती हूँ।
आज उन स्मृतियों का स्मरण करते हुए ऐसा महसूस हो रहा है कि मेरे बचपन की स्मृतियाँ अत्यंत पवित्र और सुकोमल हैं। मानो, मंद्र मंद्र जलता, मंदिर का दीपक हो ! आज यह मेरा चित्र (तीन वर्ष की आयु में लिया हुआ) साझा करते हुए आश्चर्य मिश्रित हर्ष मन में उमड़ घुमड़ रहा है। चित्र अवश्य ही मेरी अम्माँ सुशीला जी ने बड़े प्यार से खिंचवाया होगा। सिल्क टॉफेटा के कपड़े की सिली फ्रॉक पे अम्माँ की सुँदर कसीदाकारी है। मेरे गले में असली मूँगे के मोतियों की माला सजी हुई है। मेरे केश सेटीन की रीबन से बंधे हुए हैं। हाथ में जो घड़ी उठाये हुए हूँ उस की सुईयां ३ के अंक पर स्थित हैं और मेरी तीन नन्ही उँगलियाँ भी उठी हुई हैं। यह मेरी कलाकार अम्माँ के निर्देशन में, सदा के लिए इस सीपिया रँग की आभा लिए चित्र में कैद हो गया है। चित्र मेरे मधुर बचपन को उजागर कर रहा है।
मेरा जन्म हुआ था भारत के पश्चिम छोर पर अरब समुद्र की उत्ताल तरंगों से सदा वेष्टित रहते महानगर बम्बई शहर में ! पहले बंबई के नाम से मशहूर इस शहर को उपनगरों में विभाजित किया गया है। शिवाजी पार्क, ‘ माटुँगा उपनगर’ में स्थित सार्वजनिक उद्यान ‘ शिवाजी पार्क ‘ इलाके से बस ७ मिनट के फासले पर एक पहले मंजिल पे आये फ़्लैट में, मेरे पापाजी, पण्डित नरेंद्र शर्मा , सुविख्यात कवि, गीतकार, अपनी धर्मपत्नी सुशीला जी के संग रहते थे। शर्मा दम्पति का विवाह सं. १९४७ में हुआ था। विवाहोपरांत उन के संग, हिंदी साहित्य के जगमगाते नक्षत्र, श्रद्धेय सुमित्रानंदन पंत जी भी कई वर्ष इलाहाबाद से बंबई आकर उसी फ़्लैट में रहे थे।
बंबई के उपनगर माटुंगा के तैकलवाड़ी इलाके से आगे चलो तो अगला उपनगर आता है ‘ दादर ‘ ! इस दादर के दिवाकर अस्पताल मेँ मेरा जन्म सं. १९५० में हुआ। मुझसे बड़ी वासवी का जन्म सं. १९४८ में तब तक हो चुका था । हम दोनों बहनों को पास ही के एक ‘ शिशुविहार ‘ किण्डरगार्डन स्कूल में भेजा गया। मेरी उम्र ४, ५ वर्ष की हुई होगी तब तक मुझसे छोटी बाँधवी का जन्मसं. १९५३ में हुआ। सं. १९५५ में हमारा भाई परितोष भी आ गया तो परिवार मानों संतोष से भर गया। तब तक पापाजी अम्माँ ने अपने निजी आवास में बसने के इरादे से मुम्बई के एक ' खार' नामक उपनगर में हमारे अपने बंगलो में स्थानांतरण किया ।
मेरे पूज्य पिता जी हिन्दी के प्रसिद्ध गीतकार आकाशवाणी के प्रोड्यूसर-डायरेक्टर पण्डित नरेन्द्र शर्मा थे और अम्माँ गुजरात प्रांत की सुशील कन्या सुशीला ! वे चित्रकार थीं। उनकी शीतल, सुखद छाया मेँ बचपन मानों तितलियों से बातें करते हुए, फूलों के सँग सँग खेलते हुए, सुमधुर स्वप्न सा बीता। आज पुराने दिनों को याद करते हुए, सुदर्शन फ़ाकिर की ग़ज़ल
"वो काग़ज़ की क़श्ती, वो बारिश का पानी " को बहुत याद कर रही हूं।
हमारे परिवार के “ज्योति -कलश” हैं मेरे पापा और फिल्म “भाभी की चूडीयाँ” फिल्म के गीत मेँ, “ज्योति कलश छलके” शब्द भी उन्हीँ के लिखे हुए हैँ। स्वर साम्राज्ञी लता दीदी ने भूपाली राग मेँ इस अमर गीत को अपना सुमधुर स्वर दे कर फिल्म ~ सँगीत मेँ, शुध्ध हिंदी शब्दों का सौंदर्य समाहित किये हुए, इस गीत को गा कर स्वर्णिम साहित्य का चमकीला पृष्ठ ही मानों हिंदी सिनेमा जगत के इतिहास में जोड दिया है !
हमारे परिवार के सूर्य हैं मेरे पापाजी ! पूज्य पापाजी के उज्जवल व्यक्तित्व से हमेँ, ज्ञान, भारतीय वाँग्मय, साहित्य, कला, सँगीत, कविता तथा शिष्टाचार के साथ, इन्सानियत का बोध पाठ भी सहजता से मिलता गया । यह उन के व्यक्तित्त्व का प्रचण्ड सूर्य ही है जिस के प्रभामँडल से विकीर्ण हुईं ओजस्वी किरणों से “ज्योति कलश” की भाँति, उर्जा स्त्रोत, हमेँ सदैव सीँचता रहा है ।
मेरे पापा जी उत्तर भारत, खुर्जा, जिल्ला बुलँद शहर के जहाँगीरपुर गाँव के पटवारी घराने मेँ जन्मे थे। उनकी प्राँरभिक शिक्षा खुर्जा मेँ हुई। ईल्हाबाद विश्वविध्यालय से अँग्रेजी साहित्य मेँ एम. ए. कर, वे विविध प्रकार की साहित्यिक गतिविधियोँ से जुडे रहे। आनंद भवन इलाहाबाद में कोँग्रेस के हिंदी अधिकारी के पद पर कार्य किया। साथ साथ कांग्रेस अध्यक्ष, पँडित जवाहरलाल नेहरु के कार्यालय में, उनके निजी सचिव के पद पर भी कार्य करते रहे।
जैसा यहाँ सुप्रसिध्ध लेखक मेरे चाचा जी श्री अमृत लाल नागर जी लिखते हैँ,"अपने छात्र जीवन मेँ ही कुछ पैसे कमाने के लिये नरेन्द्र जी कुछ दिनोँ तक "भारत" के सँपादीय विभाग मेँ काम करते थे। शायद "अभ्युदय" के सँपादीकय विभाग मेँ भी उन्होने काम किया था। M.A पास कर चुकने के बाद
वह अकेले भारतीय काँग्रेस कमिटी के दफ्तर मेँ भी हिन्दी अधिकारी के रुप मेँ काम करने लगे। उस समय जनता राज मेँ राज्यपाल रह चुकनेवाले श्री सादिक अली जी का संस्मरण : लिंक : http://antarman-antarman.blogspot.com/2006/12/some-flash-back.html
भारत के दूसरे या तीसरे सूचना मँत्री के रुप मेँ काम कर चुकनेवाले
स्व. बालकृष्ण केसकर भी उनके साथ काम करते थे। एक बार मैँने उन दिनोँ का एक फोटोग्राफ भी बँधु के यहाँ देखा था।
वहीँ से २ साल के लिये, वाइसरॉय के डिरेक्ट ऑर्डिनेंस के तहत, बिना मुकदमे या किसी प्रकार की अपील को निषेध करते हुए, युवक नरेंद्र शर्मा को, स्वतंत्रता सेनानी होने की सज़ा देते हुए ब्रिटिश हुकूमत द्वारा कारावास में कैद कर लिया गया।
राजस्थान एवं देवली डिटेंशन कैंप की ब्रिटिश जेलों मेँ नरेंद्र शर्मा कैद रहे। वहाँ इसी बीच स्वतंत्रता सेनानी नरेंद्र शर्मा ने भूख हडताल करने का निश्चय किया । १४ दिनो तक नरेंद्र शर्मा ने आमरण अनशन किया था।
उनके अँगरेज़ अफसरों ने सोचा कि, ” एक और देशप्रेमी कहीं उनकी जेल में शहीद न हो जाए ” अतः उन्हें पकड़ कर, जबरदस्ती सूप पिलाकर, १४ दिन पश्चात ज़िंदा रखा गया। फिऱ एक माह पहले उन्हें नजरबँद करते हुए, रिहा कर दिया गया।
छूट कर जब बाहर आये तो अत्याधिक कमज़ोरी की वजह से वे बीमार हो गए। रिहा किए गए थे अतः अपने घर, गाँव जहाँगीरपुर, मेरी दादीजी पूज्य गँगादेवी जी से मिलने चले गए। बँदनवारोँ को सजा कर,गाँव भर के लोगों ने देशभक्त कवि नरेन्द्र का हर्षोल्ल्लास सहित स्वागत किया। गाँव जहांगीरपुर पहुँचने पर उन्हें यह बतलाया गया कि, ' आपके अनशन की चिठ्ठी एक सप्ताह के बाद अम्माँजी को पहुँची थी तब से आपकी अम्माँ जी गँगादेवी जी ने भी एक सप्ताह पर्यन्त अन्न त्याग किया था।'
अम्माँ जी अपने साहसी, देशभक्त पुत्र नरेन को गले लगा कर रोईं तो गँगा जल समान पवित्र अश्रुकणों ने यातनाभरे ब्रिटिश जेल का सारा अवसाद धो कर स्वच्छ कर दिया। अचानक हिंदी साहित्य जगत के एक बँधु,
श्री भगवती चरण वर्मा जी, उपन्यास “चित्रलेखा” के सुप्रसिद्ध लेखक - गीतकार नरेंद्र शर्मा को तलाशते हुए वहाँ आ पहुंचे। भगवती बाबू ने बतलाया कि बॉम्बे टॉकीज़ फिल्म निर्माण संस्था की मालकिन अभिनेत्री, निर्देशिका, निर्मात्री देविका रानी ने आग्रह किया है कि, ” भगवती बाबू अपने संग गीतकार नरेंद्र शर्मा को बंबई ले आएं।” चित्र : भारत सरकार द्वारा अभिनेत्री सुश्री देविका रानी जी की छवि लिए डाक टिकट~
भगवती बाबू का प्रस्ताव सुनकर, नरेंद्र शर्मा को बड़ा आश्चर्य हुआ।
बंबई जाने का निमंत्रण सामने से आया था हिंदी फिल्म चित्रपट के लिए गीत लेखन का बुलावा आया था परन्तु मन में संकोच था।
चित्र : श्री भगवती चरण वर्माजी गीतकार नरेंद्र शर्मा के साथ ~
तब नरेंद्र शर्मा ने भगवती बाबू से कहा, ’ भगवती बाबू आप मुझे लिवाने आये हैं आपका स्वागत है किन्तु मुझे फिल्मों के लिए गीत लेखन का अभ्यास नहीं ! मैं भला यह काम कैसे कर पाऊंगा ? ‘
मित्र ने आश्वासन देते हुए कहा,’ बँधुवर मुझे पूरा विशवास है तुम यह काम आसानी से कर लोगे अब तुम हमारे संग बंबई चलो ! ”
तब नरेंद्र शर्मा के जीवन में एक नया मोड़ आया। गँगा – यमुना के दोहरे जल से सेवित, उत्तर प्रदेश से युवा कवि, अब खारे जल से सिंचित अरब सागर के किनारे बसी महानगरी बंबई के लिए रवाना हुआ। उत्तर भारत से रेलगाड़ी पश्चिम दिशा में चलने लगी। उस छुक छुक चलती रेलवे के संग कवि मन में एक गीत उभरा ~ ‘ अय बादे सबा इठलाती न आ मेरा गुंचा ए दिल तो सूख गया ‘मेरे प्यासे लबों को छूए बिना पैमाना खुशी का टूट गया ” ~~
सं १९४३ में फिल्म 'हमारी बात' में, अनिल बिस्वास के संगीत निर्देशन में उनकी बहन पारुल घोष ने, नरेंद्र शर्मा रचित इस गीत को तैयार किया।
लिंक : https://www.youtube.com/watch?v=qg6SyIIIDbI
नरेंद्र शर्मा के बंबई आगमन पर ” बॉम्बे टाकीज़ फिल्म निर्माण संस्था ” ने गीतकार के रूप में उन्हें अनुबंधित किया। उसके बाद कई फिल्मों में वे, लगातार गीतलेखन करते रहे और एक सफल गीतकार के रुप मेँ, नरेंद्र शर्मा को अच्छी ख्याति मिली। उससे भी अधिक ज्योतीषी के रुप मेँ भी उन्होँने वहाँ बंबई में खूब प्रतिष्ठा पायी।
चित्र : बॉम्बे टॉकीज़ संस्था में नरेंद्र शर्मा:
उस वक्त की बंबई कहलानेवाली महानगरी में भारतीय सेन्ट्रल रेलवे विभाग में, चीफ़ वैगन एन्ड कैरेज इन्स्पेक्टर के ओहदे पर, ब्रिटिश राज के समय से कार्यरत, उच्च अधिकारी, मेरे नानाजी श्री गुलाबदास गोदीवाला जी थे। उनका भरापूरा परिवार था जो भारत के विभिन्न नगरों में रहने के बाद अब बंबई में स्थायी रूप से रहने लगा था।
गोदीवाला परिवार में ३ पुत्र व ३ पुत्रियां थीं। नानी जी ' कपिला बा ' थीं। गोदीवाला दंपत्ति, अंग्रेज़ों के संग कार्य करते रहे थे और गुलाबदास जी अंग्रेज़ी वेशभूषा पहनते थे किन्तु नानीजी कपिला जी, लड्द्दू गोपाल और महात्मा गाँधी बापू की परम भक्त थीं अतः उन्होंने अपने पतिदेव को भी अपने समान खादीधारी एवं शुद्ध स्वदेशी बनने पर मज़बूर कर दिया था।
श्रीमती कपिला गुलाबदास गोदीवाला मेरी नानी जी पूज्य ‘ बा ‘ महिला कोंगेस कमिटी सभा में अपनी बात कहते हुए --
वह नानी का घर ~
जहां सुख की छैंया थी
दुबले पतले पेड़ खड़े
जिनसे चुन कर कुछ फूल
नानी पूजा करतीं थीं !
कुमारी सुशीला जी का नरेंद्र शर्मा के जीवन में आगमन ~
एक दिन, किसी कवि सम्मलेन सुनने पधारे, श्री गुलाबदास जी से अचानक उदयमान गीतकार नरेंद्र शर्माजी की मुलाकात हो गयी। गुलाबदास जी के आग्रह पर, नरेंद्र शर्मा उनके घर आये।
सुप्रसिद्ध कथाशिल्पी श्री अमृतलाल नागरजी चाचाजी के शब्दों में अब आगे का वृन्तान्त सुनिए ~ ” मैं, भारत कोकिला श्रीमती सुब्बुलक्ष्मी जी की एक फिल्म “मीरा” हिन्दी मेँ डब कर रहा था और इस निमित्त से वह और उनके पति श्रीमान्` सदाशिवम्`जी बँबई ही रह रहे थे। बँधुवर नरेन्द्रजी ने उक्त फिल्म के कुछ तमिल गीतोँ को हिन्दी में इस तरह रुपान्तरित कर दिया कि वे मेरी डबिँग मेँ जुड सकेँ। सदाशिवंम जी और उनकी स्वनामधन्य पत्नी कोकिलकंठी श्रीमती सुब्बुलक्ष्मी जी तथा बेटी राधा, हम लोगोँ के साथ व्यावसायिक नहीँ किन्तु पारिवारिक प्रेम व्यवहार करने लगे थे। उन्होने एक नई शेवरलेट गाड़ी खरीद ली थी।वह जोश मेँ आकर बोले,”इस गाडी मेँ पहले हमारा यह वर ही यात्रा करेगा!” गाडी फूलोँ से खूब सजाई गई। उसमेँ वर के साथ माननीय सुब्बुलक्ष्मी जी व प्रतिभा बैठीँ। समधी का कार्य आदरणीय श्री सुमित्रनँदन पँत जी ने किया।
जैसी नरेंद्र शर्माजी की शानदार विवाह की बारात थी उसी प्रकार बम्बई के उपनगर खार मेँ, १९ वे रास्ते पर स्थित उनका आवास भी, विवाह के चार,पाँच वर्षों में बस गया।
न्यू योर्क स्थित भारतीय भवन के सँचालक श्रीमान डॉ. जयरामनजी के शब्दोँ मेँ कहूँ तो “हिँदी साहित्य का तीर्थ -स्थान” बम्बई जैसे गहमागहमी से भरे महानगर मेँ, एक शीतल सुखद धाम मेँ परिवर्तित हो गया !
हमारा घर :
हमारे घर पर, पापा जी से हिन्दी भाषा में और हमारी प्यारी अम्माँ से हम बच्चे, गुजराती भाषा में बोला करते थे। हमने स्थानीय भाषा ‘मराठी’
( मुम्बई महानगर की मुख्य भाषा है ) भी सीख ली थी यह स्वाभाविक सी बात थी।
मेरी स्मृतियों में उपस्थित हो रहा है पूज्य अम्माँ व पापाजी का वह सुन्दर एकमंजिला घर, जो सदा पवित्र और सुगंधित फूलों से मानों घिरा हुआ रहता था। घर को घेरे हुए, बाग़ की बागबानी, मेरी अम्मा सुशीला ही रोज सवेरे उठकर, बडे जतन से किया करतीं थीं।
मेरी कवितांजलि : यादें
घर से जितनी दूरी तन की,
उतना समीप रहा मेरा मन,
धूप-छाँव का खेल जिँदगी
क्या वसँत, क्या सावन!
नेत्र मूँद कर कभी दिख जाते,
वही मिट्टी के घर आँगन,
वही पिता की पुण्य-छवि,
सजल नयन पढ्ते रामायण!
अम्मा के लिपटे हाथ आटे से,
फिर सोँधी रोटी की खुशबु,
बहनोँ का वह निश्छल हँसना
साथ साथ, रातोँ को जगना!
वे शैशव के दिन थे न्यारे,
आसमान पर कितने तारे!
कितनी परियाँ रोज उतरतीं,
मेरे सपनोँ मेँ आ आ कर मिलतीं.
“क्या भूलूँ, क्या याद करूँ?”
मेरे घर को या अपने बचपन को?
कितनी दूर घर का अब रस्ता,
कौन वहाँ, मेरा अब रस्ता तकता?
अपने अनुभव की इस पुड़िया को,
रक्खा है सहेज, सुन ओ मेरी, गुड़िया!
हम तीन बहनें थीं, सबसे बड़ी वासवी, फिर मैं, लावण्या और मेरे बाद बाँधवी अंत में हम सबसे छोटा परितोष ! हाँ, हमारे ताऊजी की बिटिया, गायत्री दीदी भी सबसे बड़ी दीदी थीं जो हमारे साथ-साथ अम्मा और पापाजी की छत्रछाया में पलकर बड़ी हुईं।
क्या इंसान अपने पुराने समय को कभी भूल पाया है? यादें हमेशा साथ चलती हैं, ज़िंदा रहती हैं, चाहे हम कितने भी दूर क्यों न चले जाएँ !
कौन रहा अछूता जग में,
सुख दुःख की छैंया से ?
धूप छाँह का खेल जिन्दगी,
ये सच है जाना पहचाना !
सभी हमारे हैं, सब, अपने,
कौन इस जग में पराया ?
जीवन धारा एक सत्य है
हर साँस ने जिसे संवारा ~
इस छोर खड़े जो,
उस छोर चलेंगे ~
रह जायेंगे, कुछ सपने!
है मौजों के पार किनारा
कहती, बहती है धारा !
अगम अगोचार, सत्य,
ना जाना, पर, जाना है पार ~
नैन जोत के ये उजियारे
मिल जायेंगे उस में,
जो है बृहत प्रकाश !
* काव्यमय बानी *
मैँ जब छोटी बच्ची थी, तब अम्मा व पापा जी का कहना है कि, अक्सर काव्यमय वाणी मेँ ही अपने विचार प्रकट किया करती थी!
अम्माँ कभी कभी कहती कि,”सुना था कि मयुर पक्षी के अँडे, रँगोँ के मोहताज नहीँ होते! उसी तरह मेरे बच्चे पिता की काव्य सम्पत्ति, विरासत मेँ साथ लेकर आये हैँ!” यह एक माँ का गर्व था जो छिपा न रह पाया होगा या, उनकी ममता का अधिकार उन्हेँ मुखर कर गया था शायद ! कौन जाने ?
परँतु आज जो मेरी अम्मा ने मुझे बतलाया था वही साझा कर रही हूँ ~
एक बार मैँ, मेरी बचपन की सहेली लता, बडी दीदी वासवी, हम तीनोँ खेल रहे थे। वसँत ऋतु का आगमन हो चुका था और होली के उत्सव की तैयारी बँबई शहर के गली मोहोल्लोँ मेँ, जोर शोरोँ से चल रही थीँ। खेल खेल मेँ लता ने, मुझ पर एक गिलास पानी फेँक कर मुझे भीगो दीया! मैँ भागे भागे अम्मा पापाजी के पास दौड कर पहुँची और अपनी गीली फ्रोक को शरीर से दूर खेँचते हुए बोली, “पापाजी, अम्मा! देखिये ना! मुझे लताने ऐसे गिला कर दीया है जैसे मछली पानी मेँ होती है !” इतना सुनते ही, अम्मा ने मुझे वैसे, गिले कपडोँ समेत खीँचकर प्यार से गले लगा लिया!
बच्चोँ की तुतली भाषा, सदैव बडोँ का मन मोह लेती है। माता, पिता को अपने शिशुओँ के प्रति ऐसी उत्कट ममता रहती है कि, उन्हेँ हर छोटी सी बात, विद्वत्तापूर्ण और अचरजभरी लगती है। मानोँ सिर्फ उन्ही के सँतान इस तरह बोलते हैँ , चलते हैँ, दौडते हैँ !
पापा जी भी प्रेमवश, मुस्कुरा कर पूछने लगे, “अच्छा तो बेटा, मछली ऐसे ही गिली रहती है पानी मेँ? तुम्हेँ ये पता है? ”
“हाँ पापा, एक्वेरीयम (मछलीघर ) मेँ देखा था ना हमने!” मेरा जवाब था !
हम बच्चे, सब से बडी वासवी, मैँ मँझली लावण्या, छोटी बाँधवी व भाई परितोष, अम्माँ पापा जी की सुखी, गृहस्थी के छोटे, छोटे स्तँभ थे! उनकी प्रेम से सीँची फुलवारी के हम, महकते हुए फूल थे!
एक दिन पापाजी और अम्मा बाज़ार से सौदा लिये
किराये की घोडागाडी से घर लौट रहे थे -
अम्मा ने बडे चाव से एक बहुत महँगा छाता भी खरीदा था -
जो नन्ही वासवी (मेरी बडी बहन) और साग सब्जी उतारने मेँ
अम्मा वहीँ भूल गईँ - जैसे ही घोडागाडी ओझल हुई कि वह छाता याद आ गया! पापा जी बोले, "सुशीला, तुम वासवी को लेकर घर जाओ,
वह दूर नहीँ गया होगा मैँ अभी तुम्हारा छाता लेकर आता हूँ !"
अम्मा ने बात मान ली और कुछ समय बाद पापा जी छाता लिये आ पहुँचे!
कई बरसोँ बाद अम्मा को यह रहस्य जानने को मिला कि पापा जी दादर के उसी छातेवाले की दुकान से हुबहु वैसा ही एक और नया छाता खरीद कर ले आये थे ताकि अम्मा को दुख ना हो!
इतने सँवेदनाशील और दूसरोँ की भावनाओँ का आदर करनेवाले, उन्हेँ समझनेवाले भावुक कवि ह्र्दय के इन्सान थे मेरे पापा जी! पूज्य पापाजी की कविता ~ " रख दिया नभ शून्य में किसने तुम्हें मेरे ह्रदय ?
इन्दु कहलाते, सुधा से विश्व नहलाते
फिर भी न जग ने न जाना तुम्हें मेरे ह्रदय ! "
आज जब ये याद कर रही हूँ तब प्रिय वासवी और मुझ से छोटी बाँधवी, दोनोँ , हमारे साथ स -शरीर नहीँ हैँ ! मुझे अपने परिवार के बिछुड़े सदस्य बहुत याद आते हैं। उनकी अनमोल स्मृतियोँ की महक, फिर भी मेरे जीवन बगिया को महकाये हुए है।
हमारे घर पर रसोई में रखी, वो दिल्ली की सुराही ! वो मिट्टी के घड़े का पानी याद आ रहा है। ~
हमारे घर हमेशा मिट्टी के घड़े पानी के लिए रखे जाते थे तो सुराही जो पापा जी देहली से लाये थे, उस का जल भी कमाल का शीतल हुआ करता था। वो आज तक मुझे याद है। बम्बई शहर में पुराने बस गए लोगों को बंबई के पास आये सरोवरों से, बरखा का सिंचित जल का पानी, नगर निगम पालिका के वितरण द्वारा प्राप्त होता है। बंबई महानगरी में आजकल बडी-बडी सोसायटी बनीं हैं और वहाँ पम्प लगाकर पानी ऊपर चढाया जाता है।
जब मेरा शैशव बीत रहा था उस वक्त और आज की बम्बई में विस्मयकारी परिवर्तन आ ग़ये हैं ! जैसा कि हर चीज़ में होता है कुछ भी तो स्थायी नही रहता – जीवन का प्रमुख गुण उसका अस्थायी होना होना ही है।
हमारे पड़ौसी थे सिने कलाकार श्री जयराज जी ! जो तेलगु भाषी थे तथा दक्षिण भारत के आन्ध्र प्रदेश प्रांत से वे फ़िल्म में नायक का काम किया करते थे वे भी बंबई आ बसे थे। उनकी पत्नी सावित्री आंटी, पंजाबी थीं। उनके घर फ्रीज था सो जब भी कोई मेहमान आता, हम बरफ मांग लाते ! शरबत बनाने से पहले ये काम आवश्यक था। हम ये काम खुशी-खुशी किया करते थे। पर जयराज जी की एक बिटिया को हमारा इस तरह बर्फ मांगने आना पसंद नही था। एकाध बार उसने ऐसा भी कहा था ~~ “आ गए भिखारी बर्फ मांगने!” जिसे हमने, अनसुना कर दिया।आख़िर हमारे मेहमान का हमें उस वक्त ज्यादा ख़याल था …ना कि ऐसी बातों का !!
बंबई की गर्म, तपती हुई जमीन पे नंगे पैर, इस तरह दौड़ कर बर्फ लाते देख लिया था हमें आदरणीया लता मंगेशकर दीदी जी ने ! …..और उनका मन पसीज गया ! जिसका नतीजा ये हुआ के एक दिन मैं कॉलिज से लौट रही थी, बस से उतर कर, चल कर घर आ रही थी तो देखती क्या हूँ कि, हमारे घर के बाहर एक टेंपो खड़ा है जिस पे एक छोटा सा फ्रिज रखा हुआ है ! रस्सियों से बंधा हुआ ! तेज क़दमों से घर पहुँची, वहाँ पापाजी, नाराज, पीठ पर हाथ बांधे खड़े थे। हमारी अम्मा, फिर जयराज जी के घर-दीदी का फोन आया था-वहाँ बात करने आ-जा रहीं थीं ! वैसे फोन हमारे घर पर भी था, पर वो सरकारी था जिसका इस्तेमाल पापा जी सिर्फ़ सरकारी काम के लिए ही किया करते थे और कई दफ़े फोन हमें, जयराज जी के घर रिसीव करने दौड़ कर जाना पड़ता था। पूज्य लता दीदीजी, अम्मा से मिन्नतें कर रहीं थीं, कह रहीं थीं “पापा से कहो ना भाभी, फ्रीज का बुरा ना मानें। मेरे भाई-बहन आस-पड़ौस से बर्फ मांगते हैं ये मुझे अच्छा नहीं लगता- छोटा सा ही है ये फ्रीज ..जैसा केमिस्ट दवाई रखने के लिए रखते हैं …रख लीजिये ”
अम्मा पापा जी को समझा रही थीं। पापा जी को बुरा लगा था। वे मिट्टी के घडों से ही पानी पीने के आदी थे।
ऐसा माहौल था मानो गांधी बापू के आश्रम में फ्रीज पहुँच गया हो!!
पापा भी ऐसे ही थे। उन्हें क्या जरुरत होने लगी भला ऐसे आधुनिक उपकरणों की? वे एक आदर्श गांधीवादी थे। सादा जीवन ऊंचे विचार रख अपना जीवन जीनेवाले ! आडम्बर से सर्वदा दूर रहनेवाले, सीधे सादे, सरल मन के इंसान! खैर! कई अनुनय के बाद अम्मा ने, किसी तरह दीदी की बात रखते हुए फ्रीज को घर में आने दिया और आज भी वह, वहीं पे है ..शायद मरम्मत की ज़रूरत हो ..पर चल रहा है !
हमारी स्कूल : खार उपनगर में स्थित एक हाई स्कूल थी इसी में मशहूर नायिका तथा अब ' टीना अंबानी ' के नाम से प्रसिद्ध कन्या भी सहपाठिका थीं पर वह हमारी जूनियर थी। … हमारी स्कूल जाने की उम्र हुई तो एक गुजराती माध्यम की स्कूल ” प्युपिल्स ओन हाई स्कूल ” मेँ दाखिला दिलाया गया।
श्रीमती इन्दिंरा गाँधी भी यहाँ पढीं थीं ऐसा सुना है। हमारी पाठशाला का घंटा, कवींद्र श्री रवीन्द्र नाथ का उपहार था। एक मोटे लकडी के टुकड़े पर वह घण्ट टाँग दिया गया था। मुझे याद पड़ता है कि हमारी फीस ६ ठी क्लास में ६ रुपए थे और नौ वी में ९ रुपया थी !
पाठशाला में मेरा जो जन्मजात रुझान था, वह पल्लवित हुआ । अनेक विषयों के संग सँस्कृत, गुजराती, हिन्दी, के साथ साथ अँग्रेज़ी ७ वीं कक्षा में आकर सीखना आरम्भ किया था, ऐसा मुझे याद है।
समय चक्र चलता रहा हम अब युवा हुए । पापा आकाशवाणी से सम्बंधित कार्यों के सिलसिले में कुछ वर्ष देहली भी रहे। फिर दुबारा बंबई के अपने घर पर लौट आए जहाँ हम अम्मा के साथ रहते थे, पढाई करते थे।
प्रायमरी स्कूल का सहपाठी ही बना जीवन साथी ~
हमारी स्कूल का माध्यम गुजराती था। हमारी स्कूल के सारे शिक्षक बडे ही समर्पित थे और उन्हीं की शिक्षा के फलस्वरुप मेरा साहित्य के प्रति जो अनुराग है, वह पापाजी पण्डित नरेंद्र शर्मा जी जैसे, उच्च कोटि के कवि, साहित्यकार, गीतकार के घर पर जन्म लेने से ही कुछ सुप्त बीज तो अंतर्मन में मौजूद थे ही वे सही वातावरण पाकर पनपने लगे, फूलने फलने लगे।
उस स्कूल में मेरे भावि पति दीपक जी और मैं कक्षा – १ से ११ वीं तक अलग कक्षाओं में, किँतु साथ-साथ ही पढते हुए युवा हुए । हम दोनों सहपाठी रहे हैं। मगर जब हम छोटी कक्षा में पढ़ा करते थे तब हम में मेल जोल कुछ खास नहीं था। ज्यादा बात-चीत और पहचान, मेरी होनेवाली ननद जी, देवयानी बेन ने करवाई थी। तब मैं ११ वीँ कक्षा में मेट्रिक की परीक्षाएँ दे रही थी ।
उनके शांत और मधुर स्वभाव ने मुझे बहुत प्रभावित किया । दीपक जी कम बोलते हैं तो मैं कुछ ज्यादा ही बोलती हूँ ! सो हमारी मित्रता जल्दी ही अंतरंग और प्रगाढ़ होती गयी। हाँ, हमारा विवाह तो दोनों के आगे, अलग अलग कोलेज से,उच्च शिक्षा में ग्रेज्युएट होने के बाद ही हुई।
बी. ए. पाठ्यक्रम में मेरे विषय थे – मनोविज्ञान व समाजशास्त्र ! इन विषयों से मैंने बी.ए. ऑनर्स के हमारे कॉलेज के विभाग में टॉप किया था और बस्स उम्र के २३ साल पूरे हुए न थे कि हमारा विवाह हो गया !
और छूटी मुंबई, अमरीका प्रस्थान…
शादी के १ माह बाद, विवाहोपरांत हम उत्तर अमरीका के पश्चिम में प्रशांत महासागर किनारे बसे महानगर लॉस ~ एंजिलिस, जो केलिफोर्निया प्रांत में है वहाँ आये। दीपक जी एम.बी.ए. की शिक्षा पूर्ण कर रहे थे।
दीपक जी की पढाई खत्म होने पर हम पुनः बम्बई लौट आये। ३ वर्ष अमरीका रहने के बाद हम, श्वसुर जी श्री कांतिलाल शाह व्यापारी थे उन के आग्रह पर हम दोनों पुनः मुम्बई आए थे । भारत आकर बंबई में विशुद्ध भारतीय संयुक्त कुटुंब में हम रहने लगे।
हमारी पुत्री, प्रथम संतान ' सिंदूर ' का वहीं जन्म हुआ और फ़िर पुत्र सोपान भी आ गया। पापाजी, अम्माँ, सास जी सौ. तारा बेन, दो ननंदे, चारुमतीजी, देवयानीजी, मेरे जेठ जी भरत, मेरी दो बहनें, वासवी व बाँधवी के संयुक्त परिवार, उनके बच्चों के साथ मौज ~ मस्ती तथा हमारे परिवारों के असंख्य सगे – सम्बन्धी व मित्रगण, इन सभी के सानिंध्य में, जीवन भरापूरा रहता। दिन भरपूर खुशियाँ देते थे। अविस्मरणीय हैं उन दिनों की स्मृतियाँ! आज भी ताज़ा हवा के झोंकों सी सुखद!
पापा की ६०वीं साल गिरह ~ आयी। आदरणीया लता मंगेशकर दीदी जी मेरे शैशव से इतनी उम्र पार कर लेने पर भी अक्सर हमारे घर आया करतीं थीं। दीदी को बहुत उत्साह था कहने लगीं, “मैं,एक प्रोग्राम दूंगीं,जो भी पैसा इकट्ठा होगा, पापा को भेंट करूंगी।”
जब पापा को इस बात का पता लगा वे नाराज हो गए, कहा, “मेरी बेटी हो, अगर मेरा जन्मदिन मनाना है, घर पर आओ, साथ भोजन करेंगें, अगर मुझे इस तरह पैसे दिए, मैं तुम सब को छोड़ कर काशी चला जाऊंगा, मत बांधो मुझे माया के फेर में।” उसके बाद, दीदी जी का प्रोग्राम नहीं हुआ परन्तु हम सब ने साथ मिलकर, हमारी प्यारी अम्माँ के हाथ से बना उत्तम भोजन खाया था और उस दिन पापा जी अति प्रसन्न हुए थे यह अब स्मृति पलट पर सदा के लिए अंकित हो गया है।
आज यादों का काफिला चल पड़ा है और आँखें नम हैं ! …पूज्य पापाजी और स्वर साम्राज्ञी आदरणीया लता मंगेशकर दीदीजी जैसे विरल व्यक्तित्व उन लोगों जैसे विलक्षण व्यक्तियों से, जीवन को सहजता से जीने का, उसे सहेज कर, अपने कर्तव्य पालन करते रहने के साथ, इंसानियत न खोने का, दुर्गम व कठिन पाठ सीखा है। उनसे पाई सीख को अपना कर, सहेज कर, मैं, अपने जीवन में कहाँ तक इन उच्च आदर्शों को जी पाई हूँ, इस का मुझे अंदेशा नहीं है। हाँ ये कह सकती हूँ कि, प्रयास जारी है ..
इस लिंक पर आप सुनिए पण्डित नरेंद्र शर्मा जी स्वर साम्राज्ञी आदरणीया सुश्री लता मंगेशकर जी पर क्या कह रहे हैं ~~
https://www.youtube.com/watch?v=BY5v9SIrvQM
पुनः अमरीका आगमन और मन ही मन इंडिया की तलाश…
राही मासूम रज़ा और पंडित नरेंद्र शर्मा बी.आर.चोपड़ा के धारावाहिक ‘महाभारत’ से जुड़े थे। एक ही कमरे में बैठते, चिंतन-मनन-बहस-मुबाहिसे सब होते। एक दिन पंडित जी ने दुनिया को अलविदा कह दिया। पूज्य पापाजी के असमय आकस्मिक निधन पर राही साहब ने अपने इस साथी पर एक मार्मिक कविता रची।
“वह पान भरी मुस्कान”
वह पान भरी मुस्कान न जाने कहां गई?
जो दफ्तर में, इक लाल गदेली कुर्सी पर,
धोती बांधे, इक सभ्य सिल्क के कुर्ते पर,
मर्यादा की बंडी पहने, आराम से बैठा करती थी,
वह पान भरी मुस्कान तो उठकर चली गई!
पर दफ्तर में, वो लाल गदेली कुर्सी अब तक रक्खी है,
जिस पर हर दिन,अब कोई न कोई, आकर बैठ जाता है
खुद मैं भी अक्सर बैठा हूं
कुछ मुझ से बडे भी बैठे हैं,
मुझसे छोटे भी बैठे हैं,
पर मुझको ऐसा लगता है
वह कुरसी लगभग एक बरस से खाली है !
~ शायर रही मासूम रज़ा
सं. १९८९ मेरे पापाजी के असमय निधन के बाद, जिँदगी ने फिर एक करवट बदली और हम फिर अमरीका आ गये। इस बार यहीँ बसने का इरादा करके ! खैर ! सिलसिला शुरु हुआ सँघर्ष का! वही परदेस का अपनेपन से रिक्त, वातावरण!
अब मुझे भारतीय सँस्कृति, परम्पराओं को व एक स्त्री की गरिमा को, हमारी अस्मिता को, न सिर्फ सहेजना था, उसे आगे बढ़ाना भी शेष था। बच्चोँ का उत्तरदायित्व भी था जिसे संयत ढंग से निभाना था। जो हो सका वह सब किया।
मेरी प्रिय कविता व साहित्य को मैं सुदूर परदेश में आकर भी तलाशती रही। जहाँ कही भी भारत या इंडिया का नाम सुनती, मन करता भारत पहुँच जाऊं फिर वही, अपनों के बीच भाग जाने को मन बैचेन हो जाता।
एक स्त्री का जीवन शाँत नदिया की धारा सा बहता रहता है। गृहस्थी, परिवार, सगे ~ सम्बन्धी, परिवार की ज़िम्मेदारियाँ तथा रिश्तों का निभाना और भी बहुत कुछ ! क्या कुछ नहीं करती हरेक स्त्री !
मेरा मानना है कि तुलसी के बिरवे के पास रखा हुआ ‘दिया ‘ ही रूपक है
स्त्री जीवन का !
तुलसी के बिरवे के पास, रखा एक जलता दिया
जल रहा जो अकम्पित, मंद मंद, नित नया
बिरवा जतन से उगा जो तुलसी क्यारे मध्य सजीला
नैवैध्य जल से अभिसिक्त प्रतिदिन, वह मैं हूँ ~
साँध्य छाया में सुरभित, थमी थमी सी बाट
और घर तक आता वह परिचित सा लघु पथ ~
जहां विश्राम लेते सभी परींदे, प्राणी, स्वजन !
गृह में आराम पाते, वह भी तो मैं ही हूँ न !
पदचाप, शांत संयत, निश्वास, गहरा, बिखरा हुआ
कैद रह गया आँगन में जो, सब के चले जाने के बाद
हल्दी, नमक, धान के कण जो सहजता मौन हो कर
जो उलट्त्ता, आंच पर पकाता, रोटियों को, धान को
थपकी दिलाकर जो सुलाता भोले अबोध शिशु को
प्यार से चूमता माथ, हथेली, बारम्बार~ वो मैं हूँ !
रसोई घर दुवारी पास पडौस, नाते रिश्तों का पुलिन्दा
जो बांधती, पोसती, प्रतिदिन वह, बस मैं एक माँ हूँ !
( पति दीपक शाह व बच्चे सिंदूर व सोपान के साथ)
– लावण्या शाह
यु. एस. ए. से
ई मेल : Lavnis@gmail.com
9 comments:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
बस मंत्रमुग्ध सी पढ़ती चली गई शुरू से अंत तक...
सादर प्रणाम।
समृद्ध स्मृतियों का ये खजाना, भारतीय हिंदी साहित्य की धरोहर है लावण्या जी। शेयर करने के लिए धन्यवाद।
मैं भी मंत्रमुग्ध सी पढ़ती चली गई।
आत्म मुग्ध करता यह संस्मरण सहेज कर रखने योग्य।
अप्रतिम धरोहर
मंत्र मुग्ध सी पढ़ती चली गई,मन भीग गया,यादें भी कितनी अजीब होती हैं,कब्ज़ा किए रहती हैं हर वक्त ज़ेहन पर,और बचपन की यादें,वह तो हर उम्र आपके साथ चलती हैं,अच्छी,बुरी, खट्टी मीठी,सब की सब,कभी भूल ही नहीं सकते।
बहुत सुंदर लिखा आपने।आपके संस्मरण के ज़रिए हम भी आपसे और अच्छे से परिचित,क़रीब हो गए।
शुक्रिया लावण्या जी
अनमोल यादें...,उत्कृष्ट संस्मरण ।
Nice to read and see photos and know about your mother,I used to know about your father.
Though I couldn't devote sufficient time to read fully and thoroughly, speedy reading was done,I feel u may consider to write a autography and write a book on your Pujya father late Shri Narendra sharma in hindi language and get it translated in different languages.
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