ॐ
सत~ चित्त~ आनंद = सच्चिदानंद
ईश्वर का स्वरूप क्या है ? क्या हो सकता है ? जब ऐसा प्रश्न अंतर्मन में रमण करे तब जानिये कि, आप पर परम कृपालु ईश्वर की महती कृपा है।
ईश्वर क्या है ? इस प्रश्न को हमारे भारत वर्ष के पुरातन युग से आधुनिक युग पर्यन्त, हर सदी में मनीषियों ने, धर्म पिपासु जन ने, धर्म पथ पर चले वाले हर जीव ने, हरेक मुमुक्षु व संत जनों ने, अपनी प्रखर साधना से, अपने ही अंत:करण में देखा ! यह विस्मयकारी सत्य को माना कि, जीव भी परब्रह्म का अंश है !
परंतु जो सर्वत्र व्याप्त है, जो सर्व शक्तिमान है, अनंत है व कल्पनातीत है, हर व्याख्या से परे है जिसे परमात्मा कहते हैं उन्हें हम मनुष्य, साधारण इन्द्रियों द्वारा पूर्णतया जान नहीं पाते ! यह सत्य, ज्ञानी व मुमुक्षु ही जान पाए ! कुछ विरले, परमहंस, स्वानुभूति से उस परम पिता ईश्वर के
' सच्चिदान्द स्वरूप को पहचान पाए और उन्होंने कहा कि,
यही ' ईश्वर ' हैं, परमात्मा हैं - आनंदघन ' हैं !
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय :
सच्चिदानंद रुपाय विश्वोतपत्यादि हेतवे
तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नमः
भावार्थ : वह जो संपूर्ण जगत की उत्पति, पालन एवं प्रलय के हेतु हैं, जो तीनो प्रकार के ताप (भौतिक, दैविक एवं आध्यात्मिक) को मिटाने वाले हैं उन सच्चिदानंद परमात्मा श्री कृष्ण को नमन है|
अत: ईश्वर का सामीप्य व सायुज्य प्राप्त करने के लिए जीव के लिए आवश्यक हो जाता है कि, सदैव सजग रहने के साथ साथ हम तन धारी जीव, मनुष्य,अपनी आत्मा के भले के लिए सदैव उस पूर्ण आनन्दघन स्वरूप
' सच्चिदान्द विग्रह ' परमात्मा को प्राप्त करने की क्रिया में प्रयासरत रहें।
जीवात्मा को ध्यान ये रखना है कि, सच्चा आनंद, विषय सुख या विषय प्राप्ति या विषयों के उपभोग से नहीं किन्तु सद्गुणों के निरंतर विकास से ही संभव है। जितने भी सद्गुण हैं वे परम कृपालु ईश्वर कृपा से संभाव्य हैं।
उन्हीं की कृपा से दीप्त हैं और उन्हीं के अंश से उजागर हैं। अब ये भी जानना आवश्यक है कि, सद्गुण कौन, कौन से हैं ?
तो वह हर जीव को सदैव ' प्रियकर ' लगते हैं वही सद्गुण कहलाते हैं। जो हमें स्वयम के लिए रुचिकर लगता है वही अन्य जीव को भी लगता है। जैसे हर जीवात्मा को मुक्त रहना सहज लगता है। बंधन कदापि सुखद नहीं लगता ! ठीक वैसे ही प्रत्येक जीवांश को मुक्त रहना पसंद है ! अन्य सद्गुण भी हैं जैसे दया, करूणा, ममता, आत्मीयता, मानवता, स्वछता, वात्सल्य, अक्रोध, अशोच्य, सहिष्णुता इत्यादि। सर्व जीवों के प्रति आत्मीय भाव होना, बहुत बड़ा सद्गुण है। यह आत्मीयता का बोध, ईश्वर के अंश से ही दीप्तिमान है। जब उपरोक्त सद्गुण से मनुष्य, या जीवात्मा, प्रत्येक जीव के प्रति आत्मीयता का भाव साध लेता है तब वह परब्रह्म को जानने के दुर्गम मार्ग पर अपने पग बढाने लगा है यह भी प्रकट हो जाता है। इस कारण, त्याज्य दुर्गुणों से सदा सजग रहें जो जीवात्मा के उत्त्थान में बाधक हैं।
जीवात्मा को यथासंभव, आत्मा का जहां निवास है उस शरीर का जतन करते हुए, अर्जुन की तरह लक्ष्य संधान कर, अपना सारा ध्यान परम कृपालु परमात्मा, सच्चिदानंद, परब्रह्म, ईश्वर की ओर सूरजमुखी के पुष्प की भाँति अनिमेष, अहर्निश, द्रष्टि को बांधे हुए, चित्त को एकाग्र भाव से अपने दैनिक कर्म करते रहना चाहीये। तब आप विषयों के प्रति आसक्ति से मुक्त होकर, तटस्थता प्राप्त करने में सफल हो पायेंगें हर जीव के लिए अनेकानेक व्यवधान व बाधाएं उत्पन्न होकर, आत्मा के उत्सर्ग में बाधक बनतीं हैं।उन बाधाओं से आँखें मिलाकर, चुनौती स्वीकार कर, आत्म उत्थान के लिए प्रयत्नशील रहना सच्ची वीरता है।
गुजरात भूमि के संत कवि नरसिंह मेहता ने गाया है,
' हरी नो मारग छे शूरा नो, ( आत्म उन्नति = प्रभु भक्ति, वीरों का मार्ग है )
नहीं कायर नू काम जोने,( यह - कायरों के बस की बात नहीं ! )
परथम पहलु मस्तक मुकी ( ओखली में मस्तक रख दो )
वलती न लेवून नाम जोने "~ उसके पश्चात किसी बात की चिंता न करना अर्थात : हरी का मारग दुर्गम है, जो कायरों के लिए दुष्कर है।
प्रथम अपना मस्तक प्रभु चरणों में रखते हुए, पीछे मुड कर देखना नहीं ।
दृढ प्रतिज्ञ, दृढ निश्चय, कृत संकल्प, जीव को हर पग, आगे बढ़ना है।
अत: मेरी प्रार्थना ना सिर्फ मेरे आत्म हित के लिए है अपितु संसार के हर भूले भटके, जीव को ईश्वर और संत योगी व गुरू कृपा प्राप्त हो।सच्चे गुरुजन की सीख, प्रत्येक जीव को सन्मार्ग पर चलते रहने के लिए प्रेरित करे।
प्राणी आत्म उत्थान के पथ पे अग्रसर हों ये प्रार्थना है।
आप सभी का आभार प्रकट करते हुए, इस महा - यात्रा में, आनंद प्राप्ति का सच्चिदानंद ईश्वर के प्रेम का सायुज्य प्राप्त हो यही शुभकामना शेष है।
ओ मेरे साथी व सहयात्री ...इस सच्ची व मौन प्रार्थना स्वीकार करें !
सविनय,
- लावण्या के नमन