ॐ
मेरी अम्मा स्व. श्रीमती सुशीला नरेन्द्र शर्मा व मेरे पापा जी प्रसिध्ध गीतकार नरेंद्र शर्मा जी के गृहस्थ जीवन के सँस्मरण~
नई दुल्हन घर की दहलीज पर आ पहुँची तो सुशीला को कुमकुम से भरे हुए
एक बड़े थाल पर खड़ा किया गया। लाल रंगों के पद चिह्न दहलीज से घर के भीतर तक पड़े और गृह - प्रवेश हुआ।
उस समय सुरैया जी तथा सुब्बुलक्ष्मी जी ने नववधु के स्वागत में मँगल गीत गाये । ऐसी कथा कहानियों सी मेरी अम्मा सुशीला और पूज्य पापा जी के विवाह की बातें हमने अम्मा से सुनीं हैं। जिसे आज साझा कर रही हूँ।
एक बार मैँ, मेरी बचपन की सहेली लता, बडी दीदी वासवी, हम तीनोँ खेल रहे थे। वसँत ऋतु का आगमन हो चुका था। होली के उत्सव की तैयारी जोर शोरोँ से बँबई शहर के गली मोहल्लोँ मेँ, चल रही थीँ। खेल खेल मेँ लता ने मुझ पर एक गिलास पानी फेँक कर मुझे भिगो दिया!
सन १९५५ आते बम्बई के खार उपनगर के १९ वे रास्ते पर उनका नया घर बस गया। न्यू योर्क भारतीय भवन के सँचालक श्रीमान डा . जयरामनजी के शब्दोँ मेँ कहूँ तो " हिँदी साहित्य का तीर्थ - स्थान " बम्बई महानगर मेँ एक शीतल सुखद धाम के रूप मेँ परिवर्तित हो गया।
एक और याद है जब मेरी उम्र होगी कोई ८ या ९ साल की ! पापाजी ने कवि
शिरोमणि कवि कालिदास की कृति ' मेघदूत 'पढने को कहा। सँस्कृत कठिन
थी। पढ़ते समय जहाँ कहीँ मैँ लडखडाती, वे मेरा उच्चारण शुध्ध कर देते।
कितना सुखद संयोग है जो उन जैसे पुण्यवान, सँत प्रकृति के मनस्वी कवि
ह्रदय पापा जी की मैं संतान हूँ और उन के लहू से सिँचित उनके जीवन उपवन
का मैं एक नन्हा सा फूल हूँ।
नई दुल्हन घर की दहलीज पर आ पहुँची तो सुशीला को कुमकुम से भरे हुए
एक बड़े थाल पर खड़ा किया गया। लाल रंगों के पद चिह्न दहलीज से घर के भीतर तक पड़े और गृह - प्रवेश हुआ।
उस समय सुरैया जी तथा सुब्बुलक्ष्मी जी ने नववधु के स्वागत में मँगल गीत गाये । ऐसी कथा कहानियों सी मेरी अम्मा सुशीला और पूज्य पापा जी के विवाह की बातें हमने अम्मा से सुनीं हैं। जिसे आज साझा कर रही हूँ।
सन १९४८ के आते मुझसे बडी बहन वासवी का जन्म हो गया था। मुझे याद पड़ता है कि वासवी और अम्मा को युसूफ खान याने मशहूर स्टार दिलीप कुमार जी उनकी कार में अस्पताल से पापा जी के घर, लाये थे।
उस वक्त पापा जी और अम्मा सुशीला की गृहस्थी माटुँगा नामक उपनगर में तैकलवाडी के २ कमरे के एक फ्लैट मेँ आबाद थी। छायावाद के प्रसिध्ध कवि पंतजी भी उनके संग वहीं पर २ वर्ष रहे।
इस छोटे से घर में, कई विलक्षण साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गोष्ठियां हुआ करतीं थीं जिनमे भारतवर्ष के अनेकों मूर्धन्य साहित्यकार और कलाकार मित्र शामिल हुआ करते।
भारतीय फिल्म संगीत के भीष्म पितामह श्री अनिल बिस्वास जी, चेतन आनंद जी , शायर जनाब सफदर आह सीतापुरी जी,सुप्रसिध्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर जी, कविवर श्री सुमित्रानंदन पन्त जी जैसे दिग्गज व्यक्ति इस मित्र मंडली में थे। फिर, पन्त जी इलाहाबाद चले गये और नरेंद्र शर्मा एवं सुशीलजी की जीवन धारा ने अगला मोड़ लिया। प्रथम संतान वासवी तथा उसके २ वर्ष बाद, मैं लावण्या का जन्म हुआ। चित्र : दांएं ५ वर्षीय वासवी और मैं लावण्या ३ वर्ष
भारतीय फिल्म संगीत के भीष्म पितामह श्री अनिल बिस्वास जी, चेतन आनंद जी , शायर जनाब सफदर आह सीतापुरी जी,सुप्रसिध्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर जी, कविवर श्री सुमित्रानंदन पन्त जी जैसे दिग्गज व्यक्ति इस मित्र मंडली में थे। फिर, पन्त जी इलाहाबाद चले गये और नरेंद्र शर्मा एवं सुशीलजी की जीवन धारा ने अगला मोड़ लिया। प्रथम संतान वासवी तथा उसके २ वर्ष बाद, मैं लावण्या का जन्म हुआ। चित्र : दांएं ५ वर्षीय वासवी और मैं लावण्या ३ वर्ष
एक दिन की बात है, पापाजी और अम्मा बाज़ार से सौदा लिये किराये की घोडागाडी से घर लौट रहे थे। अम्मा ने बडे चाव से एक बहुत महँगा छाता खरीदा था। जो नन्ही वासवी और साग सब्जी उतारने मेँ अम्मा वहीँ घोडागाडी में भूल गईँ ! ज्यों ही घोडागाडी आँखों से ओझल हुई कि, छाता याद आ गया! अम्मा ने बड़े दुखी स्वर में कहा ' नरेन जी , मेरा छाता उसी में रह गया ! '
पापा जी ने समझाते हुए कहा , ' सुशीला, तुम वासवी को लेकर घर के भीतर चली जाओ। घोडागाडी दूर नहीं गयी होगी । मैँ अभी तुम्हारा छाता लेकर लौटता हूँ !'
अम्मा ने पापा जी की बात मान ली। कुछ समय के बाद पापा जी छाता लिये आ पहुँचे। जिसे देख अम्मा अपना सारा दुःख भूल गयी।
ये बात भी वे भूल ही जातीं किन्तु कई बरसोँ बाद अम्मा पर यह रहस्य प्रकट हुआ कि पापा जी दादर के उसी छातेवाले की दुकान से हुबहु वैसा ही एक और नया छाता खरीद कर ले आये थे ! चूंकि जिस घोडागाडी में अम्मा का छाता छूट गया था वह घोडागाडी तो बहुत दूर जा चुकी थी।
अपनी पत्नी का मन इस घटना से दुखी ना हो इसलिए पतिदेव नरेंद्र शर्मा नया छाता ले आये थे ! ऐसे थे पापा !
बेहद सँवेदनाशील, संकोची परन्तु दूसरोँ की भावनाओँ की कद्र करनेवाले इंसान थे मेरे पापा ! अपनी पत्नी के मन को और भावनाओं को समझनेवाले भावुक कवि ह्र्दय को अपनी पत्नी का दुखी होना भला कैसे सुहाता ?
सच्चे और खरे इन्सान थे मेरे पापा जी!
बेहद सँवेदनाशील, संकोची परन्तु दूसरोँ की भावनाओँ की कद्र करनेवाले इंसान थे मेरे पापा ! अपनी पत्नी के मन को और भावनाओं को समझनेवाले भावुक कवि ह्र्दय को अपनी पत्नी का दुखी होना भला कैसे सुहाता ?
सच्चे और खरे इन्सान थे मेरे पापा जी!
पापा जी से जुडी हुईं कई सारी ऐसी ही बातें हैं जो उनके प्रेम भरे ह्रदय की साक्षी हैं। आज वे बातें भूलाये नहीं भूलतीं।
मैँ जब छोटी बच्ची थी, तब अम्मा व पापा जी का कहना है कि, अक्सर काव्यमय वाणी मेँ माने कविता की भाषा में बोला करती!
अम्मा कभी कभी कहती कि,
' सुना है , मयूर पक्षी के अँडे, रँगोँ के मोहताज नहीँ होते!
उसी तरह मेरे बच्चे भी पिता की काव्य सम्पत्ति विरासत मेँ लाये हैँ!"
' सुना है , मयूर पक्षी के अँडे, रँगोँ के मोहताज नहीँ होते!
उसी तरह मेरे बच्चे भी पिता की काव्य सम्पत्ति विरासत मेँ लाये हैँ!"
यह एक माँ का गर्व था जो छिपा न रह पाया होगा। या, उनकी ममता का अधिकार, उन्हेँ मुखर कर गया हो कौन जाने ?
यह स्मृतियाँ मेरी अम्मा ने हम लोगों के संग साझा कीं थीं सो, आज उसे
दोहरा रही हूँ।
यह स्मृतियाँ मेरी अम्मा ने हम लोगों के संग साझा कीं थीं सो, आज उसे
दोहरा रही हूँ।
एक बार मैँ, मेरी बचपन की सहेली लता, बडी दीदी वासवी, हम तीनोँ खेल रहे थे। वसँत ऋतु का आगमन हो चुका था। होली के उत्सव की तैयारी जोर शोरोँ से बँबई शहर के गली मोहल्लोँ मेँ, चल रही थीँ। खेल खेल मेँ लता ने मुझ पर एक गिलास पानी फेँक कर मुझे भिगो दिया!
मैँ भागे भागे अम्मा पापाजी के पास पहुँची और अपनी गीली फ्रोक को शरीर से दूर खींच बोली,' पापाजी, अम्मा! देखिये ना! मुझे लता ने ऐसे गिला कर दिया है जैसे मछली पानी मेँ होती है !'
सुनते ही, अम्मा ने मुझे वैसे ही गिले कपडोँ समेत खीँचकर प्यार से गले लगा लिया। बच्चोँ की तुतली भाषा, सदैव बडोँ का मन मोह लेती है। माता, पिता के मन में अपने बच्चों के लिए गहरी ममता भरी रहती है। उन्हेँ अपने बच्चों की हर छोटी बात विद्वत्तापूर्ण और अचरज से भरी लगती है। मानोँ सिर्फ उन की सँतान ही इस तरह बोलती हो !
पापा भी प्रेमवश, मुस्कुरा कर पूछने लगे, ' अच्छा तो बेटा, पानी मेँ मछली ऐसे ही गिली रहती है ? क्या तुम जानती हो ?'
मेरा उत्तर था , ' हाँ पापा, एक्वेरीयम (मछलीघर ) मेँ देखा था ना हमने!'
सन १९५५ आते बम्बई के खार उपनगर के १९ वे रास्ते पर उनका नया घर बस गया। न्यू योर्क भारतीय भवन के सँचालक श्रीमान डा . जयरामनजी के शब्दोँ मेँ कहूँ तो " हिँदी साहित्य का तीर्थ - स्थान " बम्बई महानगर मेँ एक शीतल सुखद धाम के रूप मेँ परिवर्तित हो गया।
कुछ सालों के बाद :
एक गर्मी की दुपहरी याद आ रही है। हम बच्चे जब सारे बडे सो रहे थे, खेल रहे थे। हमारे पडौसी माणिक दादा के घर के बाग़ में आम का पेड़ था। हमने कुछ कच्चे पक्के आम वहां से तोड लिए !
हमारी इस बहादुरी पर हम खुशी से किलकारीयाँ भर रहे थे कि, अचानक पापाजी वहाँ आ पहुँचे। गरज कर कहा, 'अरे ! यह आम पूछे बिना क्योँ तोडे ? जाओ, जाकर माफी माँगो और फल लौटा दो ' उनका आदेश हुआ। हम भीगी बिल्ली बने आमों को लिए चले माफी मांगने ! एक तो चोरी करते पकडे गए और उपर से माफी माँगने जाना पड़ा !
उस घटना में पापा जी की एक जबरदस्त डांट के मारे हम दूसरों की संपति को अनाधिकार छीन लेना गलत बात है ये बखूबी समझ गये। उन की डांट ने अपने और पराये के बीच का भेद साफ़ कर दिया।
जिसे हम कभी भूल नही पाए !
किसी की कोइ चीज हो, उस पर हमारा अधिकार नहीं होता। उसे पूछे बिना लेना गलत बात है। यही उनकी शिक्षा थी। जिसे हम कभी भूल नही पाए !
दूसरों की प्रगति और उन्नति देख , खुश रहना भी उन्होंने हमे सिखलाया।
पापा जी ने आत्म संतोष और स्वाभिमान जैसे सद्गुण हमारे स्वभाव में
कब घोल दिये उसका पता भी न चला। परिवार में उनकी छत्रछाया तले
रहते हुए यह सब हमने उन्हीं से सिखा।
स्वावलंबन और हर तरह का कार्य करने में संकोच न रखना और हर कौम के लोगों से स्नेह करना ये भी हमने उन्हीं से सिखा। कब घोल दिये उसका पता भी न चला। परिवार में उनकी छत्रछाया तले
रहते हुए यह सब हमने उन्हीं से सिखा।
दूसरों की यथा संभव सहायता करना। आत्म निर्भर रहना। स्वयं पर
सामाजिक शिष्टाचार का आदर्श स्थायी रखते हुए संयम पूर्वक जीवन जीना।
स्वयं को अनुशासित रखना और दूसरों के संग उसी तरह बरतना जैसा तुम
उनसे अपेक्षा करते हो। यह भी उन्हीं से सीखा।
सामाजिक शिष्टाचार का आदर्श स्थायी रखते हुए संयम पूर्वक जीवन जीना।
स्वयं को अनुशासित रखना और दूसरों के संग उसी तरह बरतना जैसा तुम
उनसे अपेक्षा करते हो। यह भी उन्हीं से सीखा।
सही रास्ते चलते हुए , जीवन जीना ऐसे कठिन पाठ पापा जी ने हमे कब
सिखला दिए उनके बारे में आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है!
उन्हीं से सीखा है कि किस तरह सदा प्रसन्न रहना चाहीये ! सिखला दिए उनके बारे में आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है!
ऐसा नहीं है कि, जीवन में कोइ विपत्ति या मुश्किलें आयीं नहीं !
परन्तु अपने मन को स्थिर करते हुए, सदैव आशावान बने रहना
यही मनुष्य के जीवन में महत्त्वपूर्ण है यह बड़ा कठिन पाठ भी उन्हीं को देखते
हुए अपने व्यवहार में लाने की कोशिश करती ही हूँ।
ऐसे कई सारे दुर्लभ सदगुण पापा जी के स्वभाव में सदा ही देखती रही।
परन्तु अपने मन को स्थिर करते हुए, सदैव आशावान बने रहना
यही मनुष्य के जीवन में महत्त्वपूर्ण है यह बड़ा कठिन पाठ भी उन्हीं को देखते
हुए अपने व्यवहार में लाने की कोशिश करती ही हूँ।
ऐसे कई सारे दुर्लभ सदगुण पापा जी के स्वभाव में सदा ही देखती रही।
उनकी कविता है ~~
' फिर महान बन मनुष्य फिर महान बन
मन मिला अपार प्रेम से भरा तुझे इसलिए की प्यास जीव मात्र की बुझे
बन ना कृपण मनुज , फिर महान बन मनुष्य फिर महान बन ! '
- नरेंद्र शर्मा
मेरे पापाजी प्रकांड विद्वान होते हुए भी अत्यंत विनम्र एवं मृदु स्वभाव
के थे। मेरे पापा जी और मेरी यथा नाम तथा गुण वाली अम्मा सुशीला ने हमे
उनके स्वयं के आचरण से ही जीवन के कठिनतम स्वाध्यायों को सरलता
से सिखलाया । माता और पिता बच्चों को सही शिक्षा दें, उस से पहले,
उन्हें स्वयं भी उसी सही रास्ते पर चलते हुए बच्चों के सामने सच्चा उदाहरण
रखना भी आवश्यक होता है।
पापा जी और अम्मा ने यही मुश्किल काम किया था।
के थे। मेरे पापा जी और मेरी यथा नाम तथा गुण वाली अम्मा सुशीला ने हमे
उनके स्वयं के आचरण से ही जीवन के कठिनतम स्वाध्यायों को सरलता
से सिखलाया । माता और पिता बच्चों को सही शिक्षा दें, उस से पहले,
उन्हें स्वयं भी उसी सही रास्ते पर चलते हुए बच्चों के सामने सच्चा उदाहरण
रखना भी आवश्यक होता है।
पापा जी और अम्मा ने यही मुश्किल काम किया था।
पूज्य पापा जी की १९ कविता पुस्तकें , कहानी , निबन्ध इत्यादी उनके
साहित्य सृजन के अभिनव सोपान नरेंद्र शर्मा ' सम्पूर्ण रचनावली '
में संगृहित हैं। जिन्हें उनके पुत्र परितोष ने मनोयोग एवं अथक परिश्रम से
तैयार किया है। चनावली के लिए आप संपर्क करें ~~
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Narendra Sharma Rachnavali [16 Volumes]
Price Per Volume Rs.1250/- or
for the Entire Set Rs.16000/- in India.
Compiled, Edited by Paritosh Narendra Sharma
Published by Paritosh Prakashan / Paritosh
Holdings Pvt Ltd
Contact: 09029203051 or 022-26050138
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एक और याद है जब मेरी उम्र होगी कोई ८ या ९ साल की ! पापाजी ने कवि
शिरोमणि कवि कालिदास की कृति ' मेघदूत 'पढने को कहा। सँस्कृत कठिन
थी। पढ़ते समय जहाँ कहीँ मैँ लडखडाती, वे मेरा उच्चारण शुध्ध कर देते।
आज, पूजा करते समय हर मन्त्र और श्लोक का पाठ करते हुए वे पल याद
आते हैँ। पापा जी ने ही सिखलाया था , किस शब्द का सही और शुध्ध
उच्चारण क्या होता है। किस शब्द को किस प्रकार कहना है ये उन्हीं ने
सिखलाया। इस प्रकार स्कूल में संस्कृत सीखने के साथ साथ घर पर भी उन्हीं
के द्वारा देवभाषा संस्कृत से मेरा परिचय हुआ।
आते हैँ। पापा जी ने ही सिखलाया था , किस शब्द का सही और शुध्ध
उच्चारण क्या होता है। किस शब्द को किस प्रकार कहना है ये उन्हीं ने
सिखलाया। इस प्रकार स्कूल में संस्कृत सीखने के साथ साथ घर पर भी उन्हीं
के द्वारा देवभाषा संस्कृत से मेरा परिचय हुआ।
साल गुजरते रहे। कोलेज की शिक्षा पूरी हुई। मेरा विवाह हुआ।
सन १९७७ में मेरी बेटी सिँदूर के जन्म के समय मैं अम्मा के घर आराम करने
के लिए रही। जब भी मैं रात को उठती, पापा, भी उठ जाते और पास
आकर मुझे सहारा देते। मेरा सीझेरीयन ओपरेशन हुआ था और मैं बहोत
ज्यादह कमजोर हो गयी थी।
वे मुझसे कहते, ' बेटा, मैँ हूँ, यहाँ ' उन्हें मेरी कितनी फिकर और चिंता थी
यह उनके रात को मेरे संग मेरे हर बार जागने पे +, उन के भी जाग जाने से
और मुझे मेरी कमजोर हालत में सहारा देने से मैं पापा जी का मेरे प्रति
जो अपार प्रेम था उसे समझ रही थी।
के लिए रही। जब भी मैं रात को उठती, पापा, भी उठ जाते और पास
आकर मुझे सहारा देते। मेरा सीझेरीयन ओपरेशन हुआ था और मैं बहोत
ज्यादह कमजोर हो गयी थी।
वे मुझसे कहते, ' बेटा, मैँ हूँ, यहाँ ' उन्हें मेरी कितनी फिकर और चिंता थी
यह उनके रात को मेरे संग मेरे हर बार जागने पे +, उन के भी जाग जाने से
और मुझे मेरी कमजोर हालत में सहारा देने से मैं पापा जी का मेरे प्रति
जो अपार प्रेम था उसे समझ रही थी।
आज मेरी अपनी बिटिया सिंदुर माँ बन चुकी है और मैं नानी !
सौ.सिंदुर के बेटे नॉआ के जन्म के समय , जो प्रेम पापा जी से मुझे मिला
बिलकुल वैसा ही प्रेम और वात्सल्य मैं ने भी महसूस किया।
सौ.सिंदुर के बेटे नॉआ के जन्म के समय , जो प्रेम पापा जी से मुझे मिला
बिलकुल वैसा ही प्रेम और वात्सल्य मैं ने भी महसूस किया।
जब जब अपनी बिटिया को आराम देते हुए छूती , तब तब मुझे पापाजी की
निश्छल प्रेम मय वाणी और उनके कोमल स्पर्श का अनुभव हो जाता ।
निश्छल प्रेम मय वाणी और उनके कोमल स्पर्श का अनुभव हो जाता ।
हम बच्चे, सब से बडी वासवी, मैँ मँझली लावण्या, छोटी बाँधवी व भाई
परितोष अम्मा पापा की सुखी, गृहस्थी के छोटे, छोटे स्तँभ थे!
हम उनकी प्रेम से सीँची फुलवारी के महकते हुए फूल थे!
परितोष अम्मा पापा की सुखी, गृहस्थी के छोटे, छोटे स्तँभ थे!
हम उनकी प्रेम से सीँची फुलवारी के महकते हुए फूल थे!
जीवन अतित के गर्भ से उदय हो, भविष्य को सँजोता आगे बढता रहा ।
मेरा परम सौभाग्य है कि मैं पापाजी जैसे महान पुरुष की संतान हूँ।
मैँ, लावण्या सचमुच अत्यंत सौभाग्यशाली हूँ कि ऐसे पापा मुझे मिले।
मुझे बारम्बार यही विचार आता है !
मुझे बारम्बार यही विचार आता है !
कितना सुखद संयोग है जो उन जैसे पुण्यवान, सँत प्रकृति के मनस्वी कवि
ह्रदय पापा जी की मैं संतान हूँ और उन के लहू से सिँचित उनके जीवन उपवन
का मैं एक नन्हा सा फूल हूँ।
उन्हीँ के द्वारा मिली शिक्षा व सौरभ सँस्कार मेरे मनोबलको को आज भी
जीवन की कठिन परीक्षा में दृढता से अडीग रखे हुए हैं । हर अनुकूल या
विपरित परिस्थिती में शायद इसी कारण अपनी जीवन यात्रा के हर पडाव में
मैं, अपने को मजबूत रख पाई हूँ और ईश्वर में अडीग श्रद्धा और मन में अपार
धैर्य सहेजे अपना जीवन जीये जा रही हूँ !
जीवन की कठिन परीक्षा में दृढता से अडीग रखे हुए हैं । हर अनुकूल या
विपरित परिस्थिती में शायद इसी कारण अपनी जीवन यात्रा के हर पडाव में
मैं, अपने को मजबूत रख पाई हूँ और ईश्वर में अडीग श्रद्धा और मन में अपार
धैर्य सहेजे अपना जीवन जीये जा रही हूँ !
पूज्य पापा जी के आचरण से, उनके पवित्र व्यवहार से ही तो ईश्वर तत्व क्या
है उसकी झाँकी हुई ! पापा जी के परम तेजस्वी व्यक्तित्त्व में मुझे ईश्वरीय
दिव्यता के दर्शन हुए हैं । मेरी कविता ने इस ईश्वरीय चैतन्य रूपी आभा से
दीप्त व्यक्तित्व के दर्शन किये। मैं धन्य हुई !
है उसकी झाँकी हुई ! पापा जी के परम तेजस्वी व्यक्तित्त्व में मुझे ईश्वरीय
दिव्यता के दर्शन हुए हैं । मेरी कविता ने इस ईश्वरीय चैतन्य रूपी आभा से
दीप्त व्यक्तित्व के दर्शन किये। मैं धन्य हुई !
मेरे पापा जी की विलक्षण प्रतिभा और स्मृति को मैंने मेरी कविता द्वारा सादर
नमन अर्पित किया है।
सच कहा है ' -' सत्य निर्गुण है। वह जब अहिंसा, प्रेम, करुणा के रूप में
अवतरित होता है तब सदगुण कहलाता है।'
ऐसे वात्सल्य मूर्ति पिता को, किन शब्दों में, मैं, उनकी बिटिया,
अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूँ ?
कहने को बहुत सा है - परन्तु समयावधि के बंधे हैं न हम !
हमारा मन कुछ मुखर और बहुत सा मौन लेकर ही इस भाव समाधि से,
जो मेरे लिए पवित्रतम तीर्थयात्रा से भी अधिक पावन है, वही महसूस करें।
वीर, निडर , साहसी , देशभक्त , दार्शनिक , कवि और एक संत मेरे पापा की
छवि मेरे लिए एक आदर्श पिता की छवि तो है ही परन्तु उससे अधिक '
महामानव ' की छवि का स्वरूप हैं वे ! पेट के बल लेट कर, सरस्वती देवी के
प्रिय पापा की लेखनी से उभरती, कालजयी कविताएँ मेरे लिए प्रसाद रूप हैं।
' हे पिता , परम योगी अविचल ,
क्यों कर हो गए मौन ?
क्या अंत यही है जग जीवन का
मेरी सुधि लेगा कौन ? '
बारम्बार शत शत प्रणाम !
नमन अर्पित किया है।
' जिस क्षण से देखा उजियारा
टूट गए रे तिमिर जाल
तार तार अभिलाषा टूटी
विस्मृत गहन तिमिर अन्धकार
निर्गुण बने, सगुण वे उस क्षण
शब्दों के बने सुगन्धित हार
सुमनहार अर्पित चरणों पर
समर्पित जीवन का तार तार ! '
~ लावण्या
सच कहा है ' -' सत्य निर्गुण है। वह जब अहिंसा, प्रेम, करुणा के रूप में
अवतरित होता है तब सदगुण कहलाता है।'
पुत्र सोपान के जन्म के समय, पापा जी ने २ हफ्ते तक, मेरे व शिशु की सुरक्षा
के लिए बिना नमक का भोजन खाया था।
के लिए बिना नमक का भोजन खाया था।
ऐसे वात्सल्य मूर्ति पिता को, किन शब्दों में, मैं, उनकी बिटिया,
अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूँ ?
कहने को बहुत सा है - परन्तु समयावधि के बंधे हैं न हम !
हमारा मन कुछ मुखर और बहुत सा मौन लेकर ही इस भाव समाधि से,
जो मेरे लिए पवित्रतम तीर्थयात्रा से भी अधिक पावन है, वही महसूस करें।
वीर, निडर , साहसी , देशभक्त , दार्शनिक , कवि और एक संत मेरे पापा की
छवि मेरे लिए एक आदर्श पिता की छवि तो है ही परन्तु उससे अधिक '
महामानव ' की छवि का स्वरूप हैं वे ! पेट के बल लेट कर, सरस्वती देवी के
प्रिय पापा की लेखनी से उभरती, कालजयी कविताएँ मेरे लिए प्रसाद रूप हैं।
' हे पिता , परम योगी अविचल ,
क्यों कर हो गए मौन ?
क्या अंत यही है जग जीवन का
मेरी सुधि लेगा कौन ? '
बारम्बार शत शत प्रणाम !
~ लावण्या