कुँती या पृथा की व्यथा कथा : पारस ~ स्पर्श : लेख मालिका
दीन दवालु बिरदु सँभारी
हरहु नाथ मम सँकट भारी ,
मँगल भवन अमँगलहारी,
उमा सहित जेहि जपत पुरारि
द्रवहु सो दसरथ, अजिर विहारी !
बोलो,राम कृष्ण राम कृष्ण हरि हरि ,
राम कृष्ण राम कृष्ण हरि हरि
यदुवँश के शूरसेन राजा के वासुदेव नामक पुत्र व पृथा नाम की कन्या सँतान थीँ।
शूरसेन की बहन, कुँतीभोज नामक राजा से ब्याही गईँ थीँ। कुँतीभोज स्वयम नि: सँतान थे सो, पृथा कुँतीभोज को सौँप दी गई। उस घटना के बाद सभी पृथा को " कुँती " कहकर पुकारने लगे। बडे लाड प्यार से कुँती , कुँतीभोज के महल मेँ बडी होने लगीँ।
कुन्ती पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है। कुन्ती वसुदेव जी की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थी।
एक दिवस की बात है , महाक्रोधी, ऋषि दुर्वासा कुँतीभोज के महलोँ मेँ पधारे। कुँवारी कन्या कुँती ने बडे मनोयोग से दुर्वासा की सेवा की। ऋषि सेवा से प्रसन्न हुए और बोले,
दुर्वासा : कुँती बेटी ! मैँ स्नान करके आता हूँ। तुम मेरे भोजन की व्यस्थथा कर लो !"
कुँती : " जो आज्ञा ऋषिवर ! "
कुछ देर बाद दुर्वासा लौटे। भोजन तैयार था परँतु कुछ ज्यादा गर्म था। दुर्वासा ऋषि क्षण मात्र में क्रोधित हो जाते हैं सो उन्होंने भोजन का गर्म थाल, कुँती की पीठ पर रख दिया !
कुँती अपने आँसू पीकर, उस थाल की उष्णता सहन कर गईँ। परन्तु और कोइ बात न कही। कुंती की सहनशीलता देख कर, प्रसन्न हुए दुर्वासा ने, कुँती को, देवोँ को बुलाकर, उन्हेँ वश मेँ करने का एक गुप्त मँत्र दे दिया और सावधान भी कर दिया कि, ' बेटी इस मँत्र को यूँ ही व्यर्थ मेँ ना उपयोग किया जाये उस का ध्यान रखना ' ।
कुछ माह व्यतीत हुए। एक दिन कौतुहलवश कुँती ने सोचा, ' देखूं तो ऋषिवर के प्रसाद स्वरूप प्रदान किये इस गुप्त मन्त्र की शक्ति कैसी है ! ' कुंती ने आगे विचार किया कि ,
" मैँ इस मँत्र की शक्ति को परखना चाहती हूँ "
दृष्टि आकाश की ओर उठ गयी तो देखा सूर्य देव अपनी पूर्ण आभा से विराजमान हैं। वे प्रखर तेज व प्रचण्ड ज्योति सहित चमक रहे थे। पृथ्वी लोक उनसे प्रकाशित था। सो, कुँती ने वह गुप्त मँत्र पढा और सूर्य देव को बुलावा भेजा ! ऋषि का वरदान अमोघ होता है सो फलीभूत हो गया ! अचानक, सूर्य देव, कुँती के समक्ष साक्षात देह धारण कर , उपस्थित हो गए! सूर्य देव ने सहमी हुई कुंती से कहा " अब मैं आ पहुंचा हूँ तो तुम्हें वर दिए बिना नहीं जाऊंगा ! " अब क्या हो ! कुंती धर्मसंकट में दुविधाग्रस्त हो गई ! उन्हें ऐसी घटना होगी इस का कोइ विचार भी न आया था।
प्रसाद स्वरुप, सूर्य देव पिता बने और बिन ब्याही कुँती एक दिव्य बालक की माता बन गई !
प्रसाद या आशीर्वाद भी मनुष्य को, सोच समझकर उपयोग मेँ लेना चाहिये।अन्यथा नहीँ।
अब कुँती क्या करती ? रोते रोते, कुँती ने, लोक लाज के भय से, मानहानि की आशँका से, उस दिव्य बालक को, एक पिटारे मेँ रखकर, नदी मेँ बहा दिया !
यही बालक आगे जा कर, महारथी कर्ण बना !
कुँती का विवाह पाँडु से हुआ जिन्हे, पीलिया या पाँडु रोग था और स्त्री समागम से उनको मृत्यु का भय था उन्होँने अपनी पत्नी कुँती से कहा कि, " हे महारानी कुँती ! स्त्री समागम से मेरी मृत्यु निस्स:देह होनी है। वँश आगे न बढने से मुझे बडी ग्लानि हो रही है ! "
तब, कुँती ने उन्हेँ " दैवीवशीकरण मन्त्र " की बात बतलाई ! पाँडु की आज्ञा से कुँती ने, धर्मराज से - > युधिष्ठिर, वायु देव से - भीम, इन्द्र से -> अर्जुन, जैसे पुत्र रत्न प्राप्त किये !
युधिष्ठिर, पाँडु के बडे भ्राता, धृतराष्ट्र के ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन से पहले जन्मे थे और कुरुवँश की राजगद्दी के असली वारिस थे।
कुरुक्षेत्र युध्ध की करुण समाप्ति के बाद, माता कुँती ने युधिष्ठिर से कर्ण का श्राध्ध करने को कहा ये रहस्य भी बतलाया कि, "कर्ण पाँडु भाइयोँ मेँ सबसे बडे, सहोदर पुत्र थे " जिसे सुनकर युधिष्ठिर को बहोत पीडा व ग्लानि हुई।उन्होँने अपनी माता को श्राप दिया कि,
" इस घटना के पश्चात किसी स्त्री के मन मेँ कोई गुप्त बात कभी न रह पायेगी " अत्यँत दुखसे आक्रँद करतीँ अपनी बुआ कुँती के शीश पर श्री कृष्ण ने अपना वरद्` हस्त रखा और उन्हेँ साँत्वना दी।
यदुवँश के शूरसेन राजा के वासुदेव नामक पुत्र व पृथा नाम की कन्या सँतान थीँ।
शूरसेन की बहन, कुँतीभोज नामक राजा से ब्याही गईँ थीँ। कुँतीभोज स्वयम नि: सँतान थे सो, पृथा कुँतीभोज को सौँप दी गई। उस घटना के बाद सभी पृथा को " कुँती " कहकर पुकारने लगे। बडे लाड प्यार से कुँती , कुँतीभोज के महल मेँ बडी होने लगीँ।
कुन्ती पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है। कुन्ती वसुदेव जी की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थी।
एक दिवस की बात है , महाक्रोधी, ऋषि दुर्वासा कुँतीभोज के महलोँ मेँ पधारे। कुँवारी कन्या कुँती ने बडे मनोयोग से दुर्वासा की सेवा की। ऋषि सेवा से प्रसन्न हुए और बोले,
दुर्वासा : कुँती बेटी ! मैँ स्नान करके आता हूँ। तुम मेरे भोजन की व्यस्थथा कर लो !"
कुँती : " जो आज्ञा ऋषिवर ! "
प्रसाद स्वरुप, सूर्य देव पिता बने और बिन ब्याही कुँती एक दिव्य बालक की माता बन गई !
2 comments:
बहुत सुंदर आख्यान, शुभकामनाएं.
रामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (13-07-2017) को "पाप पुराने धोता चल" (चर्चा अंक-2665) (चर्चा अंक-2664) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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