आम्रपाली
दोहा: " मोरे तुम प्रभु गुरु पितु माता जाऊँ कहाँ तजि पद जल जाता
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहु सो तेहि मिलत न कछु सन्देहू "
आज आम्रपाली का मन उद्विग्न है, विकल है। लिच्छवी नगर की सुप्रसिध्ध सौँदर्य सामाज्ञी, नगर वधू आम्रपाली अधीर हो रही है। उसे अपने पैरोँ पे बँधे घुँघरू, विषैले बिच्छू की भाँती दृष्टिगोचर हो रहे हैँ। आम्रपाली के रक्त रंजीत कोमल पांवों पर दंश देने मानोँ उतावले हुए हैँ। आम्रपाली के घने काले केशोँ मेँ बँधी वेणी के फूल, गुलाब व मोगरे, इस क्षण उसे मानों फ़ूंफकारते हुए नागों का आभास दे रहे हैँ। आम्रपाली, झुंझला कर, स्वयं पर क्रोधित हो , स्वयं के केशों में बंधी वेणी को बलात उतार फेँकती है। आम्रपाली की विशाल , निद्रा से शिथिल हुये नयनों मेँ सजा कपूर मिश्रित काजल सूख चला है। आज अपने ही पैरों पे बंधे चिरपरिचित कँकणों की ध्वनि से आम्रपाली के कान असहय वेदना का अनुभव कर रहे हैँ। नर्तकी की लम्बी छरहरी उँगलियोँ मेँ फँसा , गले का रत्नजटित कँठहार , वह बार बार मध्यमा पर लपेट कर अन्यमस्क सी होकर बारम्बार आवेष्टित कर रही है। इस उद्विग्नता से दोहराये क्रिया कलाप से आखिरकार कंठहार की मणियोँ टूट जातीं है। अब हार थक कर वह चँदन की पीठिका पर बैठ जाती है। मन ही मन बुदबुदाते हुए कहे जा रही है
आम्रपाली : " मैँ, लिच्छवी साम्राज्य की कुलवधू, आम्रपाली !
" मैँ, अजात शत्रु की प्रेमिका आम्रपाली !"
" मैँ, स्वर्ण व रजत से तौली जानेवाली आम्रपाली !
मैँ, जीवन को भरे हुए, मादक प्याले की तरह पीनेवाली, आम्रपाली ! आज, यह क्या मनोमंथन मेरे मन की शान्ति को भांग किये हुए है ? मैँ, आम्रपाली, इतनी उग्विग्न क्यों हूँ ? क्या है जीवन ?
क्योँ है है ये जीवन ? मेरा अस्तित्त्व क्या है ? ' आम्रपाली ' कौन है ? एक रुपजीविका ? रुप, मोह, प्रेम, लालसा, वासना, सुख और दु:ख , क्या है ? यह भावनाएँ क्यूँ उभरतीं हैँ जीवन मेँ ?
मैँ आज इनका उत्तर चाहती हूँ। "
तभी एक चेरी ( दासी ) आकर प्रणाम करती है।
मँजरी : " देवी की जय हो ! नगर के बाहर, आम्रवन मेँ तथागत का आगमन हुआ है। " चेरी सविनय प्रश्न करती है , " क्या मेरी देवी को प्रभु दर्शन की इच्छा है ? "
आम्रपाली: " कौन ? गौतम बुध्ध पधारे हैं ? ओह ! तथागत के आगमन से वैशाली ग्राम धन्य हुआ ! मेरे अहोभाग्य जो प्रभु पधारे ! "
स्वत: ' क्या मैँ अज्ञात सँकेत की प्रतीक्षा मे थी ? '
स्वत: ' क्या मैँ अज्ञात सँकेत की प्रतीक्षा मे थी ? '
अपनी दासी की ओर आमुख हो आम्रपाली ने अपना मन खोला और कहा ,
' इतने वर्ष व्यतीत हुए। इस राज नर्तकी आम्रपाली ने सुनो मँजरी, कई राज पुरुषोँ को देखा है।
किन्तु किसी वीर पुरुष में मैंने , सत्व को उजागर होते इस क्षण पर्यन्त नहीं देखा। "
फिर आगे कुछ याद करते हुए कहा '
फिर आगे कुछ याद करते हुए कहा '
" लोग कहते है ' प्रभु बुद्ध ' अवर्णनीय आलोक से व्याप्त हैं। चलो मंजरी, दिव्यत्मा, तथागत के दर्शन अवश्य करना चाहूँगी ! चल मँजरी, इसी क्षण चल ! "
आम्रपाली एवं मंजरी दोनोँ उसी दिशा मेँ चल पडे जहाँ एक पेड के नीचे, नेत्र मूँदे, भगवान बुध्ध समाधिस्थ हैँ। आम्रपाली ने समीप जाकर भगवान के चरण छूए। भगवान के दर्शन करते ही असीम शान्ति का प्रसार आम्रपाली के मुरझाये तन पर हुआ और अनिमेष नयन से आम्रपाली ' बुद्ध भगवान ' को एकटक देखती रही। उसे भान भी न रहा कि कब उसके नयनों से अश्रुधारा झरने लगी ! अरे क्या वह रो रही है ?
वह एकटक बुध्ध भगवान की शाँत सौम्य, सरल मूर्ति को देखती रही। चरण वंदना कर आम्रपाली ने अनुनय भरे स्निग्ध स्वरों से कहा ,
आम्रपाली: " प्रभु ! प्रभु ! नेत्र खोलिये - प्रभु ! "
बुध्ध : ( आँखेँ खोलते हैँ - मुस्कुराते हैँ ) " देवी ! स्वस्थ हो ! "
आम्रपाली : " प्रभु, आपकी वाणी का सम्मोहन असँख्य राग रागिनियोँ से अधिक मधुर है। आपका आर्जव, नेत्रोँ की करुणा, तथा उन्नत ललाट का तेज अपार है! मैँ आम्रपाली, आज पाप की नगरी को छोडती हूँ, मैं आपकी शरण हूँ "
बुध्ध: " देवी ! प्रथम अपने मन का समाधान करो ! " इतना कहते हुए बुध्ध ने समक्ष झुके हुए आम्रपाली के मस्तक को सहलाया। मानों माता अपने शिशु को सांत्वना दे रही हो ऐसे भाव उठे।
आम्रपाली उस पल , फुट फुट कर क्रंदन करने लगी।
आम्रपाली : " हे थथागत ! अपके नयनोँ की कोर मेँ, वात्स्लय के अश्रु कैद हैँ ! हे दीव्यात्मा ! आपकी अथाह करुणा ने मेरे मन के मैल को धो दीया "
बुध्ध: " जीवन भटकाव का नाम नहीँ है देवी , जीवन ठहराव है ! उसी से परम शाँति की उत्पत्ति होती है। उस परम शान्ति का उपाय करो। सारे संताप पिघल जायेंगें। "
बुध्ध के भिक्खु बोलते हैँ। आम्रपाली बौद्ध भिख्खू के संग चैत विहार की ओर चल देती है।
" बुध्धँ शरणँ गच्छामि, धम्मम शरणँ गच्छामि, सँघम शरणँ गच्छामि, " की ध्वनि से संध्या का केसरिया गगन गूंजायमान हो उठता है। आम्रपाली हाथ जोड कर, झुक कर दुहराती है।
" बुध्धँ शरणँ गच्छामि, धम्मम शरणँ गच्छामि, सँघम शरणँ गच्छामि, "
प्रभु ने पतिता को उबार लिया उसे धर्म से नाता जोडना सीखालाया। पारस स्पर्श होने से लोहा, लोहा नहीँ रहता, खरा सोना बन जाता है। तभी बाबा तुलसी दास जी ने राम चरित मानस के अँत मेँ ये गाया है कि,
" मैँ जानौउँ निज नाथ सुभाऊ, अपराधिहे पर कोह न काऊ
अब प्रभे परम अनुग्रह मोरे, सहित कोटि कुल मँगल मोरे,
दैहिक दैविक भौतिक तापा , राम राज नहिँ काहुकि ब्यापा
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती, जासु कृपा नहिँ कृपा अघाती
जिन्ह कर नाम लेत जग माँही, सकल अमँगल मूल नसाँही !
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" पारस - स्पर्श " : लेख मालिका :
रचना : - लावण्या दीपक शाह