दद्दा का घर -- देल्ही १९६२ "
``सखि वे मुझसे कह कर जाते,
तो क्या वे मुझको अपनी पथ बाधा ही पाते।नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहतेपर इनसे जो आँसू बहतेसदय हृदय वे कैसे सहते?जायँ सिद्धि पावें वे सुख सेदुखी न हों इस जन के दु:ख सेउपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?आज अधिक वे भाते।''--श्री मैथिली शरण गुप्तअतित के चल चित्र : दद्दा का घर -- देल्ही १९६२
देल्ही की लू भरी गर्मियों का मौसम था। हम लोग बम्बई से २ महीनो की स्कूल की छुट्टियों के दौरान , पापाजी के पास देहली आये हुए थे [ पापाजी से मेरा आशय है मेरे पिता / स्वर्गीय पं. नरेन्द्र शर्मा ]
पापाजी उस समय AIR के चीफ़ प्रोडूसर / डिरेक्टर के पद पर थे और उनका देल्ही रहना आवश्यक था। भारत सरकार ने उन्हें बम्बई से देल्ही बुलवा लिया था। हम लोग बम्बई में जन्मे, पले , बड़े हुए थे और नयी दिल्ली हमे सदा " पराई नगरी " ही लगती थी। हमारे मन में पापाजी से मिलने का उत्साह तो था पर दिल्ली की गर्मियों के बारे में जितना सुन रखा था उसे अनुभव करने का समय सामने आ पहुंचा था और इस भयानक गर्मियों के मौसम ने हमें मन ही मन परेशान कर रखा था। इसी उहापोह को मन में समाए, हम सब आ ही पहुंचे थे देल्ही !
दद्दा, श्री मैथिलि शरण गुप्त , उस समय राज्य सभा के M.P. थे। ठीक राष्ट्र पति भवन के चौराहे को पार कर, जो पहला मकान पड़ता था, उसकी पहली मंजिल पर, पूज्य दद्दा को एक फ्लैट , भारत सरकार द्वारा, रहने के लिए दिया गया था। दद्दा , गर्मी की छुट्टियों के संसदीय सत्र में, कुछ माह के लिए , अपने मूल वतन , झांसी जा रहे थे। पर जब हम [ मेरी अम्मा , श्रीमती सुशीला नरेन शर्मा और हम ४ भाई , बहेन ] ३ दिनों के लम्बे प्रवास के बाद , देहरादून एक्सप्रेस [ जो हर स्टेशन पर रूक रूक कर , ३ दिनों के बाद बम्बई से देल्ही पहूँचती थी और ' एक्सप्रेस ' कहलाने के बिलकुल लायक नहीं थी ;-)) ] उस से यात्रा पूरी कर के, हम लोग, मतलब, मैं , लावण्या, मुझसे बड़ी बहन वासवी, छोटी बांधवी और भाई - परितोष और हमारी अम्मा, श्रीमती सुशीला नरेन्द्र शर्मा, ये हम सब , दद्दा के घर पहुंचे। वहां दद्दा से मिलते ही, हम सब बच्चों ने, उन्हें पैर छू कर, विधिवत प्रणाम किया। दद्दा ने हमारे झुके हुए सरों पर अपने कांपते हुए हाथ रख कर आशीर्वाद दिए। अम्मा को देख प्रस्सन्न हुए और कहा ,
" अच्छा हुआ बहु तुम आ गयीं ! चौका सम्हालो और देख लो , मैंने अनाज , आटा , दाल, चावल सभी रखवा दिया है। तुम इसे अपना ही घर समझना और आनंद पूर्वक रहना। मैं लौट आऊँगा और तुम लोगों से मिलूंगा। "
उस प्रथम साक्षात्कार के वक्त परम पूज्य दद्दा की निश्छल हंसी आज भी मुझे याद है। मेरी उमर , उस वक़्त, करीब ११ या १२ वर्ष की होगी।
दद्दा , खूब लम्बे थे। दुबले पतले भी थे और गर्मियों में महीन सूती धोतीऔर एक सूती " अंग - वस्त्रम " बिलकुल गांधीजी की तरह लपेटे रहते थे।
पूज्य दद्दा का स्वामीभक्त सेवक था, नाम था गिरधारी !वही उनकी देख भाल किया करता था। बड़े से बड़ी हस्ती आ जाये या कोई सर्वथा अपरिचित या कोई नवागंतुक हो, सब को एक सरीखा नाश्ता वह एक बड़ी सी थाली पर सजा कर दे जाता था। नाश्ते में हमेशा यही परोसा जाता था ...१ छोटा सा लड्डू , पुदीने की एकदम हरी चटनी का छोटा सा एक बिंदु और पाव टुकड़ा [ १ / ४ ] ....मठडी !! :-))
हमें देहली की गर्मी को दूर भगाने के लिए सीलींग पर लटका पंखा दिखा और हम बच्चों ने जैसे ही पंखे के स्वीच को ओन किया तो पूजनीय दद्दा , कहने लगे कि ' हमारी भारत सरकार बिजली का बिल चुकाती है और हमे बिजली का सही इस्तेमाल करना चाहिए ! दुरूपयोग नहीं करना चाहिए ...और वे , १ नंबर पर ही पंखा / फेन .... चलते थे और पूरे पसीने से भीग जाते थे !! :-))
यह उनका बड़प्पन भी था और बच्चों सी निश्छल मासूमियत भी थी शायद जो उन्हें ऐसे नियम और सिद्धांत पर अटल रखे हुए थी। उनके व्यक्त्तित्व में और उनकी सादगी में जो भोलापन था उसके आगे हम में से कोई उनकी कही बात का प्रतिकार नहीं कर पाया !
हाँ उनके झाँसी के लिए प्रस्थान होने के बाद , फेन / पंखा खूब तेजी से चलता रहा पर हम लोग समझ गए कि देल्ही की गर्मी के सामने वो बेचारे की भी कोइ बिसात न थी !!
दद्दा ने वासवी की हस्ताक्षर इकट्ठा करनेवाली एक कॉपी में यह पंक्तियाँ लिख कर वासवी को दीं थीं - यह पंक्तियाँ उसी समय दद्दा ने हस्ताक्षर करते हुए हमारे समक्ष रचीं थीं और यह पंक्तियाँ उनकी किसी अन्य रचना में नहीं हैं और अप्रकशित हैं । वासवी जितने भी रचनाकारों से, कवियों से मिलती तब हर कवि से आग्रह किया करती थी की ' कृपया ,बिलकुल नयी रचना को ही आप मेरी इस हस्ताक्षर एकत्रित करनेवाली पुस्तक में लिख दीजिए !जो पंक्तियाँ परम् पूज्य ददद्दा ने लिखीं वे भी सुन लीजिए ," अपना जितना काम आप ही जो कोई कर लेगा ,पा कर उतनी मुक्ति आप वह औरों को भी देगा ! "[ और नीचे हस्ताक्षर किये , " -- मैथिलिशरण गुप्त " ]दद्दा के फ्लैट के पडौस में एक अशोक भाई रहते थे। वे राष्ट्र पति भवन के चीफ़ पेस्ट्री ' शेफ (' पाक शास्त्री ' ) थे !! उनके हाथों से तैयार किये गये , बहुत बढ़िया पुद्दिंग्स , कस्टर्ड , जेल्लो , आईस क्रीम और केक खाने का अवसर भी उसी दौरान हमे मिला था। आज वे, स्मृतियाँ मधुर याद बन कर मन में रस घोल रहीं हैं !- लावण्या
5 comments:
मैंने इस संस्मरण को पहले भी पढा था। आश्चर्य है कोई टिप्पणी क्यों नही है यहां। सचमुच एक युग पुरुष थे दद्दा।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 15 अगस्त 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "१४ अगस्त और खुफिया कांग्रेस रेडियो “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुन्दर हलचल प्रस्तुति ....स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!
स्कूल में मास्टर जी बहुत रटवाते थे कई कवितायेँ , जो आज भी पुरी नहीं तो कुछ-कुछ याद जरूर हैं ,,उनमें से गुप्त जी की यह कविता 'नर हो न निराश करो मन को" आज भी पढ़ती हूँ तो कई यादें ताज़ी हो जाती हैं ...तब उनका शाब्दिक अर्थ भर ही थोड़ा बहुत समझ पाते थे, पढ़ना भर था लेकिन आज उसका जीवन में बहुत बड़ा अर्थ समझ आता है ..
याद दिलाने के लिए आभार
वाह अद्भुत स्मृतियाँ, नमन आपकी लेखनी को जो इतना सजीव चित्रण किया, जैसे चलचित्र ही देख रहे। नमस्कार
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