ॐ
दशरथ राजा ने पुत्र प्राप्ति हेतु ' पुत्र कामेष्टी यज्ञ ऋष्यश्रृंग ऋषि से अयोध्या नगरी में करवाया था। उस यज्ञ में सिद्ध किये चरू का आधा भाग पटरानी कौसल्या ने भक्षण किया। एक साल पश्चात राम दाशरथि का जन्म हुआ। चैत्र शुक्ल नवमी, दोपहर के १२ बजे पांच गृह उच्च स्थिति में थे उस समय पुनर्वसु नक्षत्र , कर्क लग्न में गुरु चन्द्र योग था।
राम का नामकरण दशरथ राजा के कुल गुरु वसिष्ठ द्वारा हुआ। ' रामस्य लोक रामस्य ' इस श्लोक से राम और लघु भ्राता ' लक्षमण ' का नाम रखा गया। वसिष्ठ ऋषि ने दशरथ पुत्रों को शास्त्रों की विधिवत शिक्षा दी। यजुर्वेद का सम्पूर्ण ज्ञान , राम को प्राप्त हुआ। सोलह वर्ष के राम शिक्षा समाप्त कर तीर्थयात्रा भर्मण को निकले। तदुपरांत राम के मन में वैराग्य [ विरक्ति भाव ] भाव उत्पन्न हुआ। धन, राज्य, माता इत्यादी का त्याग कर, प्राण त्याग करने के विचार १६ वर्षीय राम के मन में आने लगे।
' किं धनेन किंम्बाभिहि: किं राज्येन किमीह्या।
आ निसचयापन्नः प्रान्त्यागपर : स्थित।।'
राम की यह विलक्षण वैराग्यवृत्ति देखकर वसिष्ठ ने उन्हें ज्ञान कर्म समुच्चयात्मक उपदेश प्रदान किया। यही संवाद ' योग वसिष्ठ ' ग्रन्थ में समाहित है।
वसिष्ठ ने राम से कहा , ' आत्मज्ञान एवं मोक्षप्राप्ति के लिए अपना दैनंदिन व्यवहार एवं कर्तव्य छोड़ने की आवश्यकता नहीं है । जीवन सफल बनाने के लिए कर्तव्य निभाना उतना ही आवश्यक है जितना आत्मज्ञान !
' उभाभ्यामेव पक्षाभ्याम् यथा कहे पक्षिणाम गति :
तथैव ज्ञानकर्मभ्याम् जायते परमं पदम।
केवलात्कर्मणो ज्ञानानन्ही मोक्षोभिजायते।
किन्तुभाभ्याम् भवेन्मोक्ष : साधनम् तुभयम विदुः।
योगवासिष्ठ
अर्थात - आकाश में घूमनेवाला पंछी जिस तरह अपने दो पंखों पर तैरता है , उसी भांति ज्ञान और कर्म के समुच्चय से मनुष्य जीवन को परमपद प्राप्ति होती है। केवल ज्ञान, या केवल कर्म की उपासना करने से मोक्ष प्राप्ति असंभव है। इस कारण दोनों प्रवृत्ति का समन्वय कर ही मोक्ष प्राप्ति संभव है। '
महारामायण में योग वसिष्ठ या वसिष्ठ रामायण ग्रन्थकर्ता वसिष्ठ ऋषि का उल्लेख है। ८ वीं और ११ वीं शताब्दी तक इसे संगृहीत किया गया।
श्लोक संख्या ३२ हज़ार हैं जिनमे अध्यात्म का विस्तृत एवं प्रासादिक विवेचन प्राप्त है।
योगवासिष्ठ संस्कृत सहित्य में अद्वैत वेदान्त का अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें ऋषि वसिष्ठ भगवान राम को निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान देते हैं।
आदिकवि वाल्मीकि परम्परानुसार योगवासिष्ठ के रचयिता माने जाते हैं।
महाभारत के बाद संस्कृत का यह दूसरा सबसे बड़ा ग्रन्थ है। यह योग का भी महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। 'महारामायण', 'योगवासिष्ठ-रामायण', 'आर्ष रामायण', 'वासिष्ठ-रामायण' तथा 'ज्ञानवासिष्ठ' आदि नामों से भी इसे जाना जाता है।
विद्वत्जनों का मत है कि सुख और दुख, जरा और मृत्यु, जीवन और जगत, जड़ और चेतन, लोक और परलोक, बंधन और मोक्ष, ब्रह्म और जीव, आत्मा और परमात्मा, आत्मज्ञान और अज्ञान, सत् और असत्, मन और इंद्रियाँ, धारणा और वासना आदि विषयों पर कदाचित् ही कोई ग्रंथ हो जिसमें ‘योग वासिष्ठ’ की अपेक्षा अधिक गंभीर चिंतन तथा सूक्ष्म विश्लेषण हुआ हो। अनेक ऋषि-मुनियों के अनुभवों के साथ साथ अनगिनत मनोहारी कथाओं के संयोजन से इस ग्रंथ का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। मोक्ष प्राप्त करने का एक ही मार्ग है आत्मानुसंधान। आत्मानुसंधान में लगे अनेक संतों तथा महापुरुषों के क्रियाकलापों का विलक्षण वर्णन इस ग्रंथ में दिया गया हैं। योगवासिष्ठ में जग की असत्ता और परमात्मसत्ता का विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से प्रतिपादन है। पुरुषार्थ एवं तत्त्व-ज्ञान के निरूपण के साथ-साथ इसमें शास्त्रोक्त सदाचार, त्याग-वैराग्ययुक्त सत्कर्म और आदर्श व्यवहार आदि पर भी सूक्ष्म विवेचन है।
इसमें बौद्धों के विज्ञानवादी, शून्यवादी, माध्यमिक इत्यादि मतों का तथा काश्मीरी शैव, त्रिक प्रत्यभिज्ञा तथा स्पन्द इत्यादि तत्वज्ञानों का निर्देश होने के कारण इसके रचयिता उसी (वाल्मीकि) नाम के अन्य कवि माने जाते हैं। अतः इस ग्रन्थ के वास्तविक रचियता के संबंध में मतभेद है। यह ग्रन्थ आर्षरामायण, महारामायण, वसिष्ठरामायण, ज्ञानवासिष्ठ और केवल वासिष्ठ के अभियान से भी प्रसिद्ध है। योगवासिष्ठ की श्लोक संख्या ३२ हजार है। विद्वानों के मतानुसार महाभारत के समान इसका भी तीन अवस्थाओं में विकास हुआ।
- वसिष्ठकवच
- मोक्षोपाय (अथवा वसिष्ठ-रामसंवाद)
- वसिष्ठरामायण (या बृहद्योगवासिष्ठ)
- योगवासिष्ठ ग्रन्थ छः प्रकरणों (४५८ सर्गों) में पूर्ण है।
- वैराग्यप्रकरण (३३ सर्ग),
- मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण (२० सर्ग),
- उत्पत्ति प्रकरण (१२२ सर्ग),
- स्थिति प्रकरण (६२ सर्ग),
- उपशम प्रकरण (९३ सर्ग), तथा
- निर्वाण प्रकरण (पूर्वार्ध १२८ सर्ग और उत्तरार्ध २१६ सर्ग)।
इसमें श्लोकों की कुल संख्या २७६८७ है। वाल्मीकि रामायण से लगभग चार हजार अधिक श्लोक होने के कारण इसका 'महारामायण' अभिधान सर्वथा सार्थक है। इसमें रामचन्द्रजी की जीवनी न होकर महर्षि वसिष्ठ द्वारा दिए गए आध्यात्मिक उपदेश हैं।प्रथम वैराग्य प्रकरण में उपनयन संस्कार के बाद प्रभु रामचन्द्र अपने भाइयों के साथ गुरुकुल में अध्ययनार्थ गए। अध्ययन समाप्ति के बाद तीर्थयात्रा से वापस लौटने पर रामचन्द्रजी विरक्त हुए। महाराज दशरथ की सभा में वे कहते हैं कि वैभव, राज्य, देह और आकांक्षा का क्या उपयोग है। कुछ ही दिनों में काल इन सब का नाश करने वाला है। अपनी मनोव्यथा का निरावण करने की प्रार्थना उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठ और विश्वामित्र से की। दूसरे मुमुक्षुव्यवहार प्रकरण में विश्वामित्र की सूचना के अनुसार वशिष्ठ ऋषि ने उपदेश दिया है। ३-४ और ५ वें प्रकरणों में संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय की उत्पत्ति वार्णित है। इन प्रकारणों में अनेक दृष्टान्तात्मक आख्यान और उपाख्यान निवेदन किये गए हैं। छठे प्रकरण का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विभाजन किया गया है। इसमें संसारचक्र में फँसे हुए जीवात्मा को निर्वाण अर्थात निरतिशय आनन्द की प्राप्ति का उपाय प्रतिपादित किया गया है। इस महान ग्रन्थ में विषयों एवं विचारों की पुनरुक्ति के कारण रोचकता कम हुई है। परन्तु अध्यात्मज्ञान सुबोध तथा काव्यात्मक शैली में सर्वत्र प्रतिपादन किया है। - स्वयं योगवासिष्ठकार ने इस ग्रथ की उपर्युक्त विशेषता का कथन किया है । वे कहते हैं कि- शास्त्रं सुबोधमेवेदं सालंकारविभूषितम् ।अर्थात् यह शास्त्र सुबोध है, अच्छी प्रकार से समझ में आने योग्य है, अलंकारों से विभूषित है, रसों से युक्त सुन्दर काव्य है । इसके सिद्धान्त दृष्टान्तों द्वारा प्रतिपादित हैं ।दृष्टान्तों और कथा-कहानियों का प्रयोग विषय-बोध को सरल बनाता है । हमारे देश में कथा-कहानियाँ, आख्यान-उपाख्यान शताब्दियों से ज्ञान-प्रवाह के साधन रहे हैं । यही कारण है कि श्रुति परम्परा का अवलम्बन लेकर पुष्पित-पल्लवित-प्रवाहित हमारी संस्कृति इसके ज्ञान-सम्पदा से आप्लावित रही है। यहाँ साधारण जन से लेकर राजप्रासादों तक ज्ञानियों का अभाव कभी नहीं रहा ।योगवासिष्ठकार स्वयं कठिन एवं दुरूह भाषा के सन्दर्भ में अपनी अरुचि को व्यक्त करते हुये कहते हैं कि कठिन और रसहीन भाषा श्रोता के हृदय में न प्रवेश कर पाती है न ही उसे आह्लादित कर पाने की क्षमता उसमें होती है । इस सन्दर्भ में योगवासिष्ठकार कहते हैं-यत्कथ्यते हि हृदयंगमयोपमान-युक्त्या गिरा मधुरयुक्तपदार्थया च ।श्रोतुस्तदंग हृदयं परितो विसारिव्याप्नोति तैलमिव वारिणि वार्य शंकाम् ॥, योगवासिष्ठ, ३ .८४ .४५अर्थात् जो कुछ ज्ञान ऐसी भाषा में कहा जाता है जो मधुर शब्दों से युक्त है एवं जिसमें समझ में आने वाली उपमाओं, दृष्टान्तों एवं युक्तियों का प्रयोग किया गया है, वह भाषा सुनने वाले के हृदय-प्रदेश में प्रवेश करके वहाँ पर इस प्रकार फैल जाती है जैसे तेल की बूँद जल के ऊपर फैल जाती है । जल पर तेल के समान फैलकर मधुर दृष्टान्तों से युक्त भाषा श्रोताओं के हृदय को प्रकाशित करती है एवं उनकी शंकाओं का समाधान करती है । योगवासिष्ठकार ने कठिन, शुष्क एवं दुरूह भाषा को राख में पड़े हुये घी के समान बताया है-त्यक्तोपमानममनोग्यपदं दुरापंक्षुब्धं धराविधुरितं विनिगीर्णवर्णम् ।श्रोतुर्न याति हृदयं प्रविनाशमेतिवाक्यं किलाज्यमिव भस्मानि हूयमान् ॥, योगवासिष्ठ, ३ .८४ .४६अर्थात् जो भाषा कठिन, कठोर एवं कठिनाई से उच्चारण किये जाने वाले शब्दों से युक्त एवं दृष्टान्तों से रहित है, वह श्रोता के हृदय में प्रवेश नही कर सकती और वैसे ही नष्ट हो जाती है जैसे राख में पड़ा हुआ घृत ।योगवासिष्ठकार का विचार था की भाषा की दुरूहता ज्ञानप्राप्ति में बाधक नहीं बननी चाहिये । सरल भाषा एवं सम्यक् दृष्टान्तों के प्रयोग द्वारा सामान्यजनों को भी ज्ञानियों के समान ज्ञान प्रदान किया जा सकता है । इसके लिये उन्होंने मञ्जुल भाषा, दृष्टान्तों, उपमाओं एवं सूक्तियों का प्रचुर प्रयोग करके दार्शनिक ज्ञानराशि को सर्वजनबोधगम्य बनाने का प्रयास किया । दार्शनिक ज्ञान को सरलतम माध्यम से सर्वजनग्राह्य बनाने के अपने इस विचार का उन्होंने इस ग्रन्थ में कथन एवं समर्थन भी किया –आख्यानकानि भुवि यानि कथाश्च या यायद्यत्प्रमेयमुचितं परिपेलवं वा ।दृष्टान्तदृष्टिकथनेन तदेति साधोप्रकाश्यमाशु भुवनं सितरश्मिनेव ॥, योगवासिष्ठ, 3.84.47अर्थात् इस संसार में जितनी भी कथायें और आख्यान हैं और जितने भी उचित और गूढ़ विषय हैं, वे सब दृष्टान्तों के माध्यम से कहने से वैसे ही प्रकाशित होते हैं जैसे कि यह संसार सूर्य की किरणों द्वारा प्रकाशित होता है ।
- काव्यं रसमयं चारु दृष्टान्तैः प्रतिपादितम् ॥योगवासिष्ठ, २. १८ .३३
- कथा शैली की इसी ऋजुता को देखते हुये योगवासिष्ठकार ने ब्रह्मविद्या को काव्यमयी मधुरता के साथ संसार के समक्ष रखा । वैराग्य से निर्वाण तक की यात्रा करने वाला, पथ-प्रदर्शन करने वाला यह ग्रन्थ समान रूप से साहित्यप्रेमियों के मध्य समादृत है । डॉ. आत्रेय ने इस अनुपम ग्रन्थ के महात्म्य को रेखांकित करते हुये लिखा है कि यह ग्रन्थ “काव्य, दर्शन एवं आख्यायिका का सुन्दर संगम-त्रिवेणी के समान महत्व वाला है। तीर्थराज जिस प्रकार पापों का विनाश करता है उसी प्रकार योगवासिष्ठ भी अविद्या का विनाश करता है । इसका पाठ करने वाला यह अनुभव करता है कि वह किसी जीते जागते आत्मानुभव वाले महान् व्यक्ति के स्पर्श में आ गया है, और उसके मन में उठने वाली सभी शंकाओं का उत्तर बालोचित सुबोध, सुन्दर और सरस भाषा में मिलता जा रहा है, दृष्टान्तों द्वारा कठिन से कठिन विचारों और सिद्धान्तों का मन में प्रवेश होता जा रहा है, और कहानियों द्वारा यह दृढ़ निश्चय होता जा रहा है कि वे सिद्धान्त, जिनका प्रतिपादन किया गया है, केवल सिद्धान्त मात्र और कल्पना मात्र ही नहीं हैं बल्कि जगत् और जीवन में अनुभूत होने वाली सच्ची घटनायें हैं ।” योगवासिष्ठ को योगवासिष्ठ महारामायण, महारामायण, आर्षरामायण, वासिष्ठरामायण, ज्ञानवासिष्ठ, वासिष्ठ एवं मोक्षोपाय आदि विभिन्न नामों से भी जाना जाता है । ग्रन्थ के महात्म्य का प्रतिपादन करते हुये स्वयं योगवासिष्ठकार कहते हैं कि,
- अस्मिंन्श्रुते मते ज्ञाते तपोध्यानजपादिकम् ।
- मोक्षप्राप्तौ नरस्येह न किंचिदुपयुज्यते ॥, योगवासिष्ठ, 2.18.34सर्वदुःखक्षयकरं परमाश्वासनं धियः ।सर्वदुःखक्षयकरं महानन्दैककारणम् ॥, योगवासिष्ठ, 2.10.9, 2.10.7य इदं शृणुयान्नित्यं तस्योदारचमत्कृतेः ।बोधस्यापि परं बोधं बुद्धिरेति न संशयः ॥ , योगवासिष्ठ, 3.8.13अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के लिये इस ग्रन्थ का श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन कर लेने पर तप, ध्यान और जप आदि किसी साधन की आवश्यकता नहीं रहती । यह ग्रन्थ सब दुःखों का क्षरण करने वाला, बुद्धि को अत्यन्त आश्वस्त करने वाला, विश्वास प्रदान करने वाला और परमानन्द की प्राप्ति का एकमात्र साधन है । जो इसका नित्य श्रवण करता है उस प्रकाशमयी बुद्धि वाले को बोध से भी परे का बोध हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है । योगवासिष्ठ के इसी महत्त्व के विषय में लाला बैजनाथ जी ने योगवासिष्ठ भाषानुवाद के भूमिका में लिखा है , जिसे डॉ. आत्रेय ने अपनी पुस्तक में उद्धृत किया है “वेदान्त में कोई ग्रन्थ ऐसा विस्तृत और अद्वैत सिद्धान्त को इतने आख्यानों और दृष्टान्तों और युक्तियों से ऐसा दृढ़ प्रतिपादन करने वाला आज तक नहीं लिखा गया, इस विषय से सभी सहमत हैं कि इस ग्रन्थ के विचार से ही कैसा ही विषयासक्त और संसार में मग्न पुरुष हो वह भी वैराग्य-सम्पन्न होकर क्रमशः आत्मपथ में विश्रान्ति पाता है । यह बात प्रत्यक्ष देखने में आयी है कि इस ग्रन्थ का सम्यक् विचार करने वाला यथेच्छाचारी होने के स्थान में अपने कार्य को लोकोपकारार्थ, उसी दृष्टि से कि जिस दृष्टि से श्रीरामचन्द्र जी करते थे, करते हुये उनकी नाईं स्व-स्वरूप में जागते हैं ।”बत्तीस हजार श्लोकों वाला यह ग्रन्थ जो अपने कलेवर में रामायण से भी बड़ा है, अपने अन्दर पचपन आख्यानों-उपाख्यानों को समाहित किये हुये है । इनमें से दो दीर्घ उपाख्यान लीलोपाख्यान और चूडालोपाख्यान बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं, एक ओर जहाँ ये गूढ़ दार्शनिक ज्ञान प्रदान करते हैं दूसरी ओर ये स्त्री-सशक्तिकरण का एक मानदण्ड भी प्रस्तुत करते हैं । डॉ. आत्रेय ने इन दोनों उपाख्यानों को ’योगवासिष्ठ के हृदय’ कहा है ।
- डॉ. आत्रेय ने पं. भगवान दास जी की पुस्तक ’Mystic Experiences’ से उद्धृत करते हुये लिखा है कि “वेदान्तियों में तो यह उक्ति प्रचलित है कि यह ग्रन्थ सिद्धावस्था में अध्ययन करने के योग्य है और दूसरे ग्रन्थ भगवद्गीता, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र साधनावस्था में अध्ययन किये जाने योग्य हैं ।”
संकलन
- लावण्या