ॐ
अम्मा को पहली २ कन्या संतान की प्राप्ति पर, पापा ने उन्हें माणिक और पन्ने के आभूषण , उपहार में दिए। तीसरी कन्या [ बांधवी ] के जन्म पर अम्मा उदास होकर कहने लगीं ' नरेन जी लड़का कब होगा कहिये न ! आपकी ज्योतिष विद्या किस काम की ? मुझे न चाहिए ये सब ! ' पापा ने कहा ,
आदरणीय उपस्थित गणमान्य अतिथि गण ,
साहित्य अकादमी नई दिल्ली,
अध्यक्ष भाई श्री तिवारी जी तथा
मुम्बई विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग ,
डॉ करुणाशंकर जी तथा अन्य सभी ,
आप सभी को ' पापाजी पंडित नरेंद्र शर्मा और मेरी अम्मा सुशीला की मंझली पुत्री लावण्या का सादर ,
स स्नेह अभिवादन ! स्वीकार करें !
स स्नेह अभिवादन ! स्वीकार करें !
उत्तर अमरीका के सिनसिनाटी नगर कि जो ओहायो प्रांत में है वहां से मुम्बई तक की लम्बी यात्रा करते हुए ,पूज्य पापाजी के ' शताब्दी समारोह ' में उपस्थित होना, मेरे लिए अत्याधिक हर्ष का क्षण है।
अद्भुत, अविस्मरणीय और दुर्लभ ! इस क्षण को, कि जब हम सब यहां इकत्रित हैं, मैं अपने अंतिम दिनों तक याद रखूंगी।
मेरे शहर सिनसिनाटी में दिसंबर माह से बर्फ गिरने लगती है। झर झर झर झर श्वेत कणों को, आकाश से अवतरित होता देखते हुए, यही सोचती रही कि ' बस अब मैं भारत की पुण्यभूमि पर ना जाने कब पाँव रख पाऊँगी ! यह स्वप्न नहीं सत्य होगा। पूज्य पापाजी के घर , १९ वाँ रास्ता , खार , जब हम रहने आये थे तब मेरा अनुज परितोष, वर्ष भर का था। मैं पांच वर्ष की थी। उस घर से पहले, हम माटुंगा उपनगर के शिवाजी पार्क इलाके में रहे।
मेरे शैशव की स्मृतियों के साथ अब आगे ले चलूँ।
मैं तीन वर्ष की थी तब पू पापाजी ने सफेद चोक से काली स्लेट पर ' मछली ' बनाकर मुझे सिखलाया और कहा ' तुम भी बनाओ '
मैं तीन वर्ष की थी तब पू पापाजी ने सफेद चोक से काली स्लेट पर ' मछली ' बनाकर मुझे सिखलाया और कहा ' तुम भी बनाओ '
मछली से एक वाक्या याद आया। हम बच्चे खेल रहे थे और मेरी सहेली लता गोयल ने मुझ पर पानी फेंक कर मुझे भिगो दिया।
मैं दौड़ी पापा , अम्मा के पास और कहा ' पापा , लता ने मुझे ऐसे भिगो दिया है कि जैसे मछली पानी में हो !' मेरी बात सुन पापा खूब हँसे और पूछा
' तो क्या मछली ऐसे ही पानी में भीगी रहती है ? '
मेरा उत्तर था ' हाँ पापा , हम गए थे न एक्वेरियम , मैंने वहां देखा है। ' पापाजी ने अम्मा से कहा ' सुशीला, हमारी लावणी बिटिया कविता में बातें करती है ! '
एक दिन अम्मा हमे भोजन करा रहीं थीं। हम खा नहीं रहे थे और उस रोज अम्मा अस्वस्थ भी थीं तो नाराज़ हो गईं। नतीजन , हमे डांटने लगी। तभी पापा जी वहां आ गए और अम्मा से कहा ' सुशीला खाते समय बच्चों को इस तरह डाँटो नहीं।'
अम्मा ने जैसे तैसे हमे भोजन करवाया और एक कोने में खड़ी होकर वे चुपचाप रोने लगीं। मैंने देखा और अम्मा का आँचल खींच कर कहा ,' अम्मा रोना नही। जब हम zoo [ प्राणीघर ] जायेंगें तब मैं ,पापा को शेर के पिंजड़े में रख दूंगीं। '
इतना सुनते ही अम्मा की हंसी छूटी और कहा ' सुनिए , आपकी लावणी आपको शेर के पिजड़े में रखने को कह रही है ! ' पापा और अम्मा खूब हँसे। तो मैं, पापा की ऐसी बहादुर बेटी हूँ !
अक्सर पापाजी यात्रा पर देहली जाते तब अवश्य पूछते ' बताओ तुम्हारे लिए क्या लाऊँ ? ' एक बार मैंने कहा ' नमकीन ' ! पापा मेरे लिए देहली से लौटे तो दालमोठ ले आये। उसे देख मैं बहुत रोई और कहा ' मुझे नमकीन चाहिए '
अक्सर पापाजी यात्रा पर देहली जाते तब अवश्य पूछते ' बताओ तुम्हारे लिए क्या लाऊँ ? ' एक बार मैंने कहा ' नमकीन ' ! पापा मेरे लिए देहली से लौटे तो दालमोठ ले आये। उसे देख मैं बहुत रोई और कहा ' मुझे नमकीन चाहिए '
पापाने प्यार से समझाते हुए कहा ' बेटा यही तो नमकीन है ' अम्मा ने उन से कहा ' इसे बस ' नमकीन ' शब्द पसंद है पर ये उसका मतलब समझ नहीं रही। '
हमारे घर आनेवाले अतिथि हमेशा कहा करते कि आपके घर ' स्वीच ओन और ऑफ़ ' हो इतनी तेजी से आपके घर गुजराती से हिन्दी और हिन्दी से गुजराती में बदल बदल कर बातें सुनाई देतीं हैं।
पापाजी का कहना था ' बच्चे पहले अपनी मातृभाषा सीख ले तब विश्व की कोई भाषा सीखना कठिन नहीं।
पापाजी का कहना था ' बच्चे पहले अपनी मातृभाषा सीख ले तब विश्व की कोई भाषा सीखना कठिन नहीं।
हम तीनों बहनें , बड़ी स्व वासवी, मैं लावण्या, मुझ से छोटी बांधवी हम तीनों गुजराती माध्यम से पढ़े पाठ्यक्रम में संत नरसिंह मेहता की प्रभाती ' जाग ने जादवा कृष्ण गोवाळीया '
और ' जळ कमळ दळ छांडी जा ने बाळा स्वामी अमारो जागशे ' -
यह कालिया मर्दन की कविता उन्हें बहुत पसंद थी और कहते ' सस्वर पाठ करो। '
यह कालिया मर्दन की कविता उन्हें बहुत पसंद थी और कहते ' सस्वर पाठ करो। '
हमारे खार के घर हम लोग आये तब याद है पापा अपनी स्व रचित कविता तल्लीन होकर गाते और हम बच्चे नृत्य करते। वे अपनी नरम हथेलियों से ताली बजाते हुए गाते
' राधा नाचैं , कृष्ण नाचैं , नाचैं गोपी जन ,
मन मेरा बन गया सखी री सुन्दर वृन्दावन ,
कान्हा की नन्ही ऊँगली पर नाचे गोवर्धन ! '
हमे बस इतना ही मालूम था कि ' हमारे हैं पापा ! '
वे एक असाधारण प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपने कीर्तिमान स्वयं रचे, यह तो अब कुछ समझ में आ रहा है।
विषम या सहज परिस्थिती में स्वाभिमान के साथ आगे बढ़ना, उन्हीं के सम्पूर्ण जीवन से हमने पहचाना।
नानाविध विषयों पर उनके वार्तालाप, जो हमारे घर पर आये कई विशिष्ट क्षेत्र के सफल व्यक्तियों के संग जब वे चर्चा करते , उसके कुछ अंश सुनाई पड़ते रहते।
आज , उनकी कही हर बात, मेरे जीवन की अंधियारी पगडंडियों पर रखे हुए झगमगाते दीपकों की भाँति जान पड़ते हैं और वे मेरा मार्ग प्रशस्त करते हैं।
पूज्य पापाजी से जुडी हर छोटी सी घटना भी आज मुझे एक अलग रंग की आभा लिए याद आती है।
मैं जब आठवीं कक्षा में थी तब कवि शिरोमणि कालिदास की ' मेघदूत ' से एक अंश; पापा जी ने मुझसे पढ़ने को कहा। जहां कहीं मैं लडखडाती , पापा मेरा उच्चारण शुद्ध कर देते।आज मन्त्र और श्लोक पढ़ते समय , पूज्य पापाजी का स्वर कानों में गूंजता है। यादें , ईश्वर के समक्ष रखे दीप के संग , जीवन में उजाला भर देतीं हैं।उच्चारण शुद्धि के लिये यह भी पापा जी ने यह हमे सिखलाया था
' गिल गिट गिल गिट गिलगिटा , गज लचंक लंक पर चिरचिटा ' !
मुझे पापा जी की मुस्कुराती छवि बड़ी भली लगती है। जब कभी वे खिलखिलाकर हँस पड़ते, मुझे बेहद खुशी होती। पापाजी का ह्रदय अत्यंत कोमल था। करूणा और स्नेह से लबालब !
वैषणवजन वही हैं न जो दूसरों की पीड़ा से अवगत हों ? वैसे ही थे पापा ! कभी रात में हमारी तबियत बिगड़ती, हम पापा के पास जा कर धीरे से कहते ' पापा , पापा ' तो वे फ़ौरन पूछते ' क्या बात है बेटा ' और हमे लगता अब सब ठीक है।
' रख दिया नभ शून्य में , किसने तुम्हें मेरे ह्रदय ?
इंदु कहलाते , सुधा से विश्व नहलाते
फिर भी न जग ने जाना तुन्हें , मेरे ह्रदय ! '
और
' अपने सिवा और भी कुछ है, जिस पर मैं निर्भर हूँ
मेरी प्यास हो न हो जग को, मैं , प्यासा निर्झर हूँ '
ऐसे शब्द लिखने वाले कवि के हृदयाकाश में, पृथ्वी के हरेक प्राणी , हर जीव के लिए अपार प्रेम था।
मन में आशा इतनी बलवान कि,
मन में आशा इतनी बलवान कि,
' फिर महान बन मनुष्य , फिर महान बन
मन मिला अपार प्रेम से भरा तुझे
इसलिए की प्यास जीव मात्र की बुझे
अब न बन कृपण मनुष्य फिर महान बन ! '
' सुशीला तीन कन्या रत्नों को पाकर हम धन्य हुए। ईश्वर का प्रसाद हैं ये संतान! वे जो दें सर माथे ! '
आज भारत में अदृश्य हो रही कन्या संख्या एक विषम चुनौती है। काश, पापा जी जैसे पिता, हर लड़की के भाग में हों तब मुझ सी ही हर बिटिया का जीवन धन्य हो जाए !
कभी पापा मस्ती में, बांधवी जिसे हम प्यार से मोँघी बुलाते हैं उसे पकड़ कर कहते ' वाह ये तो मेरा सिल्क का तकिया है ! ' तो वह कहती ' पापा , मैं तो आपकी मोँघी रानी हूँ , सिल्क का तकिया नहीं हूँ ! '
पापा हमे नियम से पोस्ट कार्ड लिखा करते थे। सम्बोधन में लिखते ' परम प्रिय बिटिया लावणी ' या ' मेरी प्यारी बिटिया मोँघी रानी ' ऐसा लिखते, जिसे देख कर, आज भी मैं मुस्कुराने लगती हूँ।
बड़ी वासवी जब १ वर्ष की थी बीमार हो गई तो डाक्टर के पास अम्मा और पापा उसे ले गए। बड़ी भीड़ थी। वासवी रोने लगी। एक सज्जन ने कहा ' कविराज एक गीत सुना कर चुप क्यों नहीं कर देते बिटिया को ! ' पापा हल्के से गुनगुनाने लगे और वासवी सचमुच शांत हो गई।
कुछ अर्से पहले पापाजी की लिखी एक कविता देखी -
' सुन्दर सौभाग्यवती अमिशिखा नारी
प्रियतम की ड्योढ़ी से पितृगृह सिधारी
माता मुख भ्राता की , पितुमुखी भगिनी
शिष्या है माता की , पिता की दुलारी ! '
ऐसे पिता को गुरु रूप में पाकर , उन्हें अपना पथ प्रदर्शक मान कर मेरे लिए, जीवन जीना सरल और संभव हुआ है। मेरी कवितांजलि ने बारम्बार प्रणाम करते हुए कहा है
' जिस क्षण से देखा उजियारा
टूट गए रे तिमिर जाल
तार तार अभिलाषा टूटी
विस्मृत गहन तिमिर अन्धकार
निर्गुण बने, सगुण वे उस क्षण
शब्दों के बने सुगन्धित हार
सुमनहार अर्पित चरणों पर
समर्पित जीवन का तार तार ! '
सच कहा है ' -' सत्य निर्गुण है। वह जब अहिंसा, प्रेम, करुणा के रूप में अवतरित होता है तब सदगुण कहलाता है।'
एक और याद साझा करूँ ? हमारे पड़ौस में माणिक दादा के बाग़ से कच्चे पके नीम्बू और आम हम बच्चों ने एक उमस भरी दुपहरी में, जब सारे बड़े सो रहे थे , तोड़ लिए। हम किलकारियाँ भर कर खुश हो रहे थे कि पापा आ गए , गरज कर कहा
' बिना पूछे फल क्यों तोड़े ? जाओ जाकर लौटा आओ और माफी मांगो '
क्या करते ? गए हम, भीगी बिल्ली बने, सर नीचा किये ! पर उस दिन के बाद आज तक , हम अपने और पराये का भेद भूले नहीं। यही उनकी शिक्षा थी।
दूसरों की प्रगति व उन्नति से प्रसन्न रहो। स्वाभिमान और अभिमान के अंतर को पहचानो। समझो। अपना हर कार्य प्रामाणिकता पूर्वक करो। संतोष , जीवन के लिए अति आवश्यक है। ऐसे कई दुर्गम पाठ , पापाजी व अम्मा के आश्रम जैसे पवित्र घर पर पलकर बड़ा होते समय हम ने कब सीख लिए, पता भी न चला।
दूसरों की प्रगति व उन्नति से प्रसन्न रहो। स्वाभिमान और अभिमान के अंतर को पहचानो। समझो। अपना हर कार्य प्रामाणिकता पूर्वक करो। संतोष , जीवन के लिए अति आवश्यक है। ऐसे कई दुर्गम पाठ , पापाजी व अम्मा के आश्रम जैसे पवित्र घर पर पलकर बड़ा होते समय हम ने कब सीख लिए, पता भी न चला।
सन १९७४ में विवाह के पश्चात ३ वर्ष , लोस - एंजिलिस , कैलीफोर्निया रह कर हम, मैं और दीपक जी लौटे। १९७७ में मेरी पुत्री सिंदूर का जन्म हुआ। मैं उस वक्त पापा जी के घर गई थी। मेरा ऑपरेशन हुआ था। भीषण दर्द, यातना भरे वे दिन थे। रात, जब कभी मैं उठती तो फ़ौरन पापा को वहां अपने पास पाती। वे मुझे सहारा देकर कहते ' बेटा , तू चिंता न कर , मैं हूँ यहां ! '
आज सिंदूर के पुत्र जन्म के बाद, वही वात्सल्य उँड़ेलते समय , पापा का वह कोमल स्पर्श और मृदु स्वर कानों में सुनाई पड़ता है और अतीत के गर्भ से भविष्य का उदय होता सा जान पड़ता है। पुत्र सोपान के जन्म के समय , पापा जी ने २ हफ्ते तक, मेरे व शिशु की सुरक्षा के लिए बिना नमक का भोजन खाया था।
ऐसे वात्सल्य मूर्ति पिता को, किन शब्दों में, मैं, उनकी बिटिया, अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूँ ? कहने को बहुत सा है - परन्तु समयावधि के बंधे हैं न हम !
हमारा मन कुछ मुखर और बहुत सा मौन लेकर ही इस भाव समाधि से, जो मेरे लिए पवित्रतम तीर्थयात्रा से भी अधिक पावन है, वही महसूस करें।
वीर, निडर , साहसी , देशभक्त , दार्शनिक , कवि और एक संत मेरे पापा की छवि मेरे लिए एक आदर्श पिता की छवि तो है ही परन्तु उससे अधिक ' महामानव ' की छवि का स्वरूप हैं वे !
पेट के बल लेट कर, सरस्वती देवी के प्रिय पापा की लेखनी से उभरती, कालजयी कविताएँ मेरे लिए प्रसाद रूप हैं।
' हे पिता , परम योगी अविचल ,
क्यों कर हो गए मौन ?
क्या अंत यही है जग जीवन का
मेरी सुधि लेगा कौन ? '
बारम्बार शत शत प्रणाम !
- लावण्या