Friday, December 2, 2011

टैगोर की 150 वीं जयंती : गीतांजली के अमर गायक को स्नेहपूर्ण स्मरणांजलि

टैगोर की १५o  वीं जयंती : गीतांजली के अमर गायक को स्नेहपूर्ण स्मरणांजलि



‘एकला चलो रे … तोमार हाक सुने कोयी ना आबे तो तुमी एकला चालो रे – ‘ एकाकी स्वर की करुण पुकार और दृढ निश्चय भरा यह दिव्य स्वर कविवर रविन्द्र नाथ टैगौर की काव्य रचना की इस पंक्ति से उभरा और दिग्दिगंत तक व्याप्त हो गया और कविवर की कीर्ति पताका उनके जन्म स्थान बंगाल तक सीमित न रहकर, विश्व के कोने कोने तक फ़ैल गयी । बंगाल की शस्य श्यामला भूमि पर साहित्य के लिए आगे चलकर सन १९१३ में नोबल पुरस्कार विजेता होने का गौरव प्राप्त करनेवाले भारतीय साहित्यकार, उच्च कोटि के कवि, दार्शनिक, रंगमंच के लिए संगीतबद्ध नाटिकाएं, नृत्य कथाएँ रचनेवाले विलक्षण प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ टैगौर के लेखन से उभरे २ गीत , २ देशों के राष्ट्र गान बन कर देश प्रेम की उद्दात भावना उभारते जन मन में अतीव लोकप्रियता प्राप्त करने में सफल हुए हैं । आज हम ऐसे अलौकिक रचनाकार को विनम्र , स्नेहपूर्ण स्मरणांजलि दे रहे हैं और उनके विलक्षण प्रतिभावान जीवन का विहंगावलोकन करते श्रद्धा सुमन निछावर करते हैं।

रवि बाबू का श्वेत श्याम छाया चित्र - यहां वे अपनी डेस्क पर लिखते हुए दिखायी दे रहे हैं
भारतीय राष्ट्र गान, ” जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता ‘ और बांग्ला देश का राष्ट्र गान ” आमार सोनार बांग्ला देश ” रवीन्द्रनाथ की देन है । गांधीजी के लिए ‘ महात्मा ‘ का विशेषण भी गुरुदेव ने ही सबसे पहले उपयोग में लिया था जो आगे चलकर गांधी बापू का पर्याय बना ।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेन्द्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के सन्तान के रूप में ७ मई, १८६१ को कोलकाता के जोरासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। वे ब्राह्मो समाज के अग्रणी परिवार में पल कर बड़े हुए । छोटी उम्र में उन्होंने ‘ अभिलाषा ‘ नामक काव्य लिखा । १३ वर्ष की उम्र होते उनकी माता जी चल बसीं और बड़े भाई ज्योतिन्द्र्नाथ व भाभी कादम्बरी का साथ और प्रोत्साहन मिलता रहा और ‘ कबी कहनी ‘ १८७८ तक छप गयी ।
उनकी स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की चाहत में १८७८ में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया लेकिन १८८० में बिना डिग्री हासिल किए ही स्वदेश वापस आ गए। सन् १८८३ में मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह हुआ। वाल्मीकि प्रतिभा और काल मृगया , सांध्य संगीत ,निर्झ्रेर स्वप्नभंगे, कोरी ओ कमाल , राजा ओ रानी , मायार खेला, विसर्जन , चित्रांगदा , सोनार तरी , इत्यादी उसी काल की कृतियाँ हैं ।

रवि बाबू का हस्ताक्षर
कविवर की पुत्रियाँ माधुरी लता, रेणुका व मीरा के जन्म के संग संग पारिवारिक जीवन भी गतिशील था और उनकी अनेक साहित्यिक रचनाएं भी उभरतीं रहीं । पुत्र समीन्द्र का जन्म सन १८९४ में हुआ । सन १९०१ में ‘ बंग दर्शन ‘ पत्रिका का कार्य आरम्भ किया और शांति निकेतन में बोलपुर ब्रह्मचर्याश्रम की स्थापना की । सन १९०२ में पत्नी मृणालिनी का देहांत हो गया और ‘ स्मरण ‘ नामक कृति रविन्द्रनाथ जी ने पत्नी मृणालिनी की स्मृति में लिखी और आगे के वर्षों में , पुत्री रेणुका का और १९०५ तक पिता देबेन्द्रनाथ टैगौर का भी निधन हो गया । कोमल कवि ह्रदय पर आघात लगे और गहराए जब पुत्र समीन्द्र के अचानक निधन ने कवि के कोमल ह्रदय को विक्षप्त कर दिया ।
सन १९०९ से अमर काव्य कृति ‘ गीतांजली ‘ की रचना आरम्भ हो गयी थी जिसे उनके यूरोपीयन मित्र विलियम रोथेन्स्ताईन ने रविन्द्रनाथ टैगौर द्वारा अनुदित रचनाएं , ब्रिटेन के कवि येअट्स को सुनवाईं और येअट्स ने टैगौर की अंग्रेज़ी अनुवादित कवितायेँ एजरा पौंड , मय सिंक्लैर , एर्नेस्त रहय को पढ़ सुनाईं तब तक टैगौर अमरीका यात्रा करते हुए आ पहुंचे थे । १०३ कविताओं का संग्रह ‘ गीतांजली ‘ इंडिया सोसायटी ऑफ़ लंदन ने छापीं और यूरोप में इन कविताओं ने धूम मचा दी ! सन १९१३ की १३ नवम्बर को भारत में समाचार बिजली की तरह फ़ैल गये कि रवीन्द्रनाथ टैगौर को साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ है । तब कोलकता विद्यालय ने डी. लिट. की उपाधि से उन्हें नवाजा और ब्रिटिश राज्य सता ने नाईटहूड प्रदान किया जिसे सन १९२० में जलियांवाला हत्याकांड से दुखी होकर कविवर ने लौटा दिया ।
अमरीका के असंख्य शहरों में जैसे सान फ्रांसिस्को, शिकागो, आईयोवा , बोस्टन , फीलाडेल्फीया इत्यादी तथा दक्षिण भारत के शहर जैसे कोईम्ब्तूर, तान्जोर, मद्रास, त्रिची , पालघाट, मैसूर इत्यादी तथा पंजाब , गुजरात में , गांधी जी के आश्रम साबरमती , अहमदाबाद , सुरत पूर्व एशिया के देशों में जैसे रंगून, सिंगापुर , होन्ग कोंग,में टैगौर को लोग सुनने के लिए भारी संख्याओं में उमड़ कर आये और उनके सुलझे और उदात विचारों को सुनकर धन्य हुए । सन १९२० में दुबारा यूरोप के अलग देशों में जैसे ब्रसेल्स , इंग्लैंड , पेरिस , जीनीवा , झुरीख , कोपंन हेगन, वियेना, बर्लिन , स्टोक होम, प्राग इत्यादी में साहित्यिक गतिविधियों में व्यस्त रहे ।

चित्र : फूलों भरी बगिया में कविवर रवीन्द्र नाथ टैगौर
कविवर ने भारलौट कर विश्व भारती की स्थापना की और चीन के आमन्त्रण पर पेकिंग गये और आगे सूदूर जापान भी पहुंचे तद्पश्चात वे दक्षिण अमरीका की यात्रा पे निकले जहां आर्जेन्टीना में उनकी मुलाक़ात , कवियत्री विक्टोरिया ओकाम्पो से, ब्युनोईस एरीस शहर में हुई उन्होंने ‘ विजया के नवीन नामकरण से कवियत्री को पुकारा और ‘ पुरबी ‘ रचना लिखी ।
तद्पश्चात , इटली पहुंचकर , मिलान, वेनिस , फ्लोरेंस शहरों की यात्राएं कीं और यूरोप की अगली यात्रा के दौरान ग्रीस, इजिप्त, रोमानिया , हंगरी , बल्गेरिया, चेकोस्वालोवाकिया, नोर्वे, स्वीडन, डेनमार्क भी गये । मलेशिया, जावा, थाई लैंड, केनेडा, रशिया , ईरान, ईराक, श्री लंका की यात्राएं भी संपन्न कीं । उनकी वर्षगाँठ पर गांधी जी शान्तिनिकेतन पधारे और सन १९४० में विश्व प्रिसिध्ध ऑक्स्फ़र्ड विद्यालय ने उन्हें साहित्य विशारद से विभूषित किया । सन १९४१ की ७ अगस्त के दिन भारत के विश्व प्रसिद्ध साहित्य मनीषी ने नेत्र मूँद लिए परंतु उनकी रचनाएं आज भी जन मन के मानस में अपना अक्षुण स्थान बनाकर , उतनी ही प्रसिद्ध हैं जितनी पिछली शताब्दी में थीं । प्रस्तुत है कविवर रविन्द्रनाथ टैगौर की एक कविता ” जन्म कथा ” का हिन्दी अनुवाद :
मेरा मानना है कि ये कविता , मूल बाँग्ला में शायद इतनी मधुर व सारगर्भित होगी कि इसे हिन्दी अनुवाद में ढालना एक प्रकार की धृष्टता ही कहलायेगी । पर, वही काम आज मैंने किया है ! इस कविता को कई बार पढा है और हमेशा भारतीय मनोविज्ञान तथा दर्शन का पुट लिये, एक अलौकिक दिव्यता लिए , इस कविता की शुचिता तथा माँ के शिशु के प्रति अगाढ ममत्त्व के दर्शन से हमें जोड़ने की क्षमता रखती ये कविता मुझे अभिभूत करती रही है।
जन्मकथा :
” बच्चे ने पूछा माँ से , मैं कहाँ से आया माँ ? “
माँ ने कहा, ” तुम मेरे जीवन के हर पल के संगी साथी हो !”
जब मैं स्वयं शिशु थी, खेलती थी गुडिया के संग , तब भी,
और जब शिवजी की पूजा किया करती थी तब भी,
आंसू और मुस्कान के बीच बालक को ,
कसकर, छाती से लिपटाए हुए , माँ ने कहा ,
” जब मैंने देवता पूजे, उस वेदिका पर तुम्ही आसीन थे ,
मेरे प्रेम , इच्छा और आशाओं में भी तुम्ही तो थे !
और नानी माँ और अम्मा की भावनाओं में भी, तुम्ही थे !
ना जाने कितने समय से तुम छिपे रहे !
हमारी कुलदेवी की पवित्र मूर्ति में ,
हमारे पुरखो की पुरानी हवेली मेँ तुम छिपे रहे !
जब मेरा यौवन पूर्ण पुष्प सा खिल उठा था,
तुम उसकी मदहोश करनेवाली मधु गँध थे !
मेरे हर अंग प्रत्यंग में तुम बसे हुए थे
तुम्ही में हरेक देवता बिराजे हुए थे
तुम, सर्वथा नवीन व प्राचीन हो !
उगते रवि की उम्र है तुम्हारी भी,
आनंद के महासिंधु की लहर पे सवार,
ब्रह्माण्ड के चिरंतन स्वप्न से ,
तुम अवतरित होकर आए थे।
अनिमेष द्रष्टि से देखकर भी
एक अद्भुत रहस्य रहे तुम !
जो मेरे होकर भी समस्त के हो,
एक आलिंगन में बध्ध , सम्बन्ध ,
मेरे अपने शिशु , आए इस जग में,
इसी कारण मैं , व्यग्र हो, रो पड़ती हूँ,
जब, तुम मुझ से, दूर हो जाते हो…
कि कहीँ, जो समष्टि का है
उसे खो ना दूँ कहीँ !
कैसे सहेज बाँध रखूँ उसे ?
किस तिलिस्मी धागे से ?
हिन्दी अनुवाद : – लावण्या दीपक शाह

10 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

शब्दों के चितेरे का प्रभावी परिचय।

अनुपमा पाठक said...

आपके अनुवाद ने अभिभूत किया!

अभय तिवारी said...

अंत वाली कविता तो अद्भुत ही है!

sarita sharma said...

टैगोर के जीवन पर दिलचस्प लेख और सुन्दर कविता.

जीवन -ज्योत्सना said...

अद्भुत ,सुखद अनुवाद हैं |

Satish Saxena said...

गुरुदेव के कार्य को पढवाने के लिए आपका आभार ...वे प्रेरणाश्रोत थे और बने रहेंगे !

Rajput said...

सुखद अनुवाद .सुन्दर लेख

Smart Indian said...

अमृत संस्कृति के वाहक कवीन्द्र रवीन्द्र को नमन और आपका आभार!

manjuthanvi said...

mr shah aap ka prayas sarahneeya hai manju

अशोक कुमार शुक्ला said...

आपकी इस अनुदित रचना को मैने कविताकोश पर साभार संग्रहीत किया है