पापाजी और मेरी अम्मा
और मेरी बड़ी बहन
स्व. वासवी
पंडित नरेंद्र शर्मा का विवाह कुमारी सुशीला गुलाबदास गोदीवाला , गुजराती कन्या के संग, बंबई , महाराष्ट्र प्रान्त , भारत में , सन १९४७ में हुआ
१९४८ की ३ अप्रेल को प्रणय के प्रतीक स्वरूप सुन्दर कन्या रत्न को पाकर दंपत्ति निहाल हो गए ..अस्पताल से वासवी , दिलीप कुमार जी की गाडी में घर आयी !
पापाजी बोम्बे टाकीज फिल्म निर्माण संस्था में
गीत
व पट कथा लेखन का कार्य तो करते ही थे साथ साथ कवितायेँ भी लिख रहे थे ...आज प्रस्तुत हैं ये सुन्दर मधुर
भावाभिव्यक्ति...............................................................
चलो हम दोनों चलें वहां
भरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।
जहां दिन भर महुआ पर झूल,
रात को चू पड़ते हैं फूल,
बांस के झुरमुट में चुपचाप,
जहां सोये नदियों के कूल;
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।
विहंग मृग का ही जहां निवास,
जहां अपने धरती आकाश,
प्रकृति का हो हर कोई दास,
न हो पर इसका कुछ आभास,
खरे जंगल के के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।
.
आषाढ़ :
रचनाकार:
पंडित नरेंद्र शर्मा
पकी जामुन के रँग की पाग
बाँधता आया लो आषाढ़!
अधखुली उसकी आँखों में
झूमता सुधि मद का संसार,
शिथिल-कर सकते नहीं संभाल
खुले लम्बे साफे का भार,
कभी बँधती, खुल पड़ती पाग,
झूमता डगमग पग आषाढ़
सिन्धु शैय्या पर सोई बाल
जिसे आया वह सोती छोड़,
आह, प्रति पग 'अब उसकी याद
खींचती पीछे को, जी तोड़
लगी उड़ने आँधी में पाग
झूमता ड़गमग पग आषाढ़!
हर्ष विस्मय से आँखें फाड़
देखती कृषक सुतायें जाग,
नाचने लगे रोर सुन मोर
लगी भुझने जंगल की आग
हाँथ से छुट खुल पड़ती पाग,
झूमता डगमग पग आषाढ़!
ज़री का पल्ला उड़ उड़ आज
कभी हिल झिलमिल नभ केबीच,
बन गया विद्युत द्युति, आलोक
सूर्य शशि उडु के उर से खींच!
कौंध नभ का उर उड़ती पाग,
झूमता डगमग पग आषाढ़!
उड़ गयी सहसा सिर से पाग-
छा गये नभ में घन घनघोर!
छुट गई सहसा कर से पाग-
बढा आँधी पानी का जोर!
लिपट लो गई मुझी से पाग,
झूमता डगमग पग आषाढ़!
15 comments:
कैसा आश्चर्य है कि आज की हर याद कल एक जीता-जागता प्रेमभरा क्षण थी। चित्र, जानकारी और रचनाओं के लिये आभार! ये चित्र और रचनायें इतिहास के दस्तावेज हैं।
प्रकृति का इतना सुंदर चित्रण पढ़कर वह कौन है जिसका मन हिर्षित न हो...!
..आभार।
बहुत ही सुंदर दीदी...! बहुत ही सुंदर...!
प्रकृति का मर्म छूती कविता।
कव्ता और पोस्ट पढ़वाने के लिए आपका आभार!
चित्र कविता और विवरण बहुत अच्छे लगे।कितनी सुनहरी यादें आपके दिल मे आज भी ताज़ा है। ह्मे उनमे शामिल करने के लिये धन्यवाद।
इतनी सुन्दर कविता बाँटने के लिए धन्यवाद।
बहुत सुंदर लगी रचनाएं .. लाजवाब होती हैं आपकी पोस्टें .. आज की प्रस्तुति भी बेजोड है !!
कितनी अच्छी यादें, चलों हम दोनों चले वहाँ, और कैसे आषाढ़ जामुनी रंग की पगड़ी बाध कर आया है। यही कवि बड़ा और खास हो जाता हैं। नरेद्र जी को सपरिवार देख बहुत अच्छा लगा। आभार। अपना चित्र भी कभी नरेद्र जी के साथ लगाएँ।
ओह...मन आह्लादित हो गया इन अद्वितीय रचनाओं को पढ़कर !!!
सच कहा है अनुराग जी ने....ये चित्र और रचनाएँ ऐतिहासिक दस्तावेज हैं,जिन्हें सहेजकर रखने की आवश्यकता है...
कोटिशः आभार आपका इसे हमारे संग बांटने के लिए...
इन अप्रतिम रचनाओं को हम तक पहुंचाने के लिए आपका कोटिश धन्यवाद...पंडित जी कि रचनाएँ पढ़ कर हम धन्य हो जाते हैं...वाह...प्रशंशा के लिए उपयुक्त शब्द ही नहीं मिलते...
नीरज
बहुत ही सुंदर
Lavanya Di
I was delighted to see the pic of Papaji.He is looking 'Handsome'in the pic.
Poems are v good.
I remember reading this article somewhere sometime but can not recollect which mag, Janmabhoomi, JB Pravasi, Chitralekha or Mumbai Samachar.
Thanx and reg.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
यह चित्र और ये कविताएं, आपने हमें पढ़वायी, इसके लिए आभार। हमें ऐसे ही स्नेह से भिगोती रहें।
भरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।
और...
पकी जामुन के रँग की पागबाँधता आया लो आषाढ़!
अधखुली उसकी आँखों मेंझूमता सुधि मद का संसार,शिथिल-कर सकते नहीं संभालखुले लम्बे साफे का भार...
पंडित नरेंद्र शर्मा जी ये बेशक़ीमती रचनाएं प्रस्तुत करने के लिए आभार.
Post a Comment