Sunday, August 22, 2010

अमर युगल पात्र : प्रस्तुत है ......... ऋषि वसिष्‍ठव ऋषि पत्नी देवी अरूंधती की उज्जवल जीवन गाथा


" अमर युगल पात्र " भारत के दम्पतियों पर आधारित श्रृंखला है
कुछ पूर्व परिचित या सर्वथा नवीन ,
स्त्री व पुरुष - द्वय के जीवन से
आप परिचित होंगें --
उत्तर अमरीका से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका " विश्वा में ,
" अमर युगल पात्र "श्रृंखला
" स्थायी स्तम्भ के अंतर्गत

आज " लावण्यम - अंतर्मन " ब्लॉग पर मिलिए प्रथम युगल
" गुरु वशिष्ठ व अरूंधती देवी के यशस्वी जीवन कर्म से : ~~
प्रस्तुत है .........

http://www.evishwa.com/


अमर युगल पात्र :
वसिष्‍ठ-अरुंधती
श्रीमती लावण्य शाह
सिनसिनाटी, ओहायो, अमेरिका
श्रीमती लावण्या शाह प्रसिद्ध कवि
और गीतकार
पं. नरेन्द्र शर्मा की पुत्री है।
आप मुंबई में पली व बढी।
पिछले १५ वर्षों से अधिक से
लावण्या जी अपने परिवार के साथ सिन्सिनाटी, ओहायो में रहती हैं। लावण्या जी का प्रथम काव्य संग्रह ``फिर गा उठा प्रवासी'' हाल ही में प्रकाशित हुआ है।
वसिष्‍ठ ऋषि ब्राह्मण वंश के मूलपुरुष कहलाते हैं। सप्‍तर्षियों में इनका तथा उनकी पत्‍नी अरुंधती का नाम है। अरुंधती ने अपने नाम की व्‍याख्‍या इस प्रकार की है—‘‘यह अपने पति वसिष्‍ठ को छोड़कर अन्‍य कहीं भी नहीं रहतीं तथा कभी अपने पति का विरोध नहीं करती।’’
वसिष्‍ठ स्‍वायंभुव मन्‍वंतर में उत्‍पन्‍न हुए ब्रह्मा के दस मानसपुत्रों में से एक हैं। कहते हैं कि वसिष्‍ठ का जन्‍म ब्रह्माजी के प्राणवायु (समान) से हुआ था। ‌वसिष्‍ठ ऋषि का ब्राह्मण वंश सदियों तक अयोध्‍या के सूर्यवंशी राजाओं का पुरोहित पद सँभाले रहा। इनकी दो प‌‌त्नियाँ बताई गई हैं। एक तो दक्ष प्रजापति की कन्‍या ‘उर्जा’ और दूसरी ‘अरुंधती’। अरुंधती कर्दम प्रजापति की नौ कन्‍याओं में से आठवीं गिनी जाती हैं। दक्ष प्रजापति की कन्‍या ‘सती’ से शिव ब्‍याहे थे। इस नाते से वसिष्‍ठ शिव के साढ़ू हुए। दक्ष प्रजापति के यज्ञ के ध्‍वंस के समय शिव ने वसिष्‍ठ का वध किया था। अरुंधती के अलावा ‘शतरूपा’ भी वसिष्‍ठ की पत्‍नी मानी गई हैं। (वे अयोनिसंभवा थीं।)

वसिष्‍ठ-अरुंधती का नाम सदा आदर से लिया जाता है। अरुंधती पतिव्रता सन्‍नारियों में उज्‍ज्‍वल स्‍थान प्राप्‍त किए हुए हैं। सप्‍तर्षि तारामंडल में अन्‍य ऋषियों के साथ अरुंधती को एकमात्र स्‍त्री और पत्‍नी, जो पति के सदैव साथ रहती हैं, होने का गौरव प्राप्‍त है। पाश्‍चात्‍य वैज्ञानिकों ने ध्रुव से कुछ नीचे, उत्तर दिशा को प्रज्‍वलित करते हुए इस तारामंडल का नाम The Great Bear रखा है और सर्वोच्‍च स्‍थान पर स्‍थित ‘ध्रुव तारे’ को ‘पोलार बेर’ कहा जाता है। पुराणों में वर्णित है कि वसिष्‍ठ पत्‍नी ‘शतरूपा’ के ‘वीर’ नामक पुत्र को कर्दम प्रजापति की पुत्री ‘काम्‍या’ से विवाह होने के पश्‍चात् ‘प्रियव्रत’ तथा उत्तानपाद दो पुत्र हुए। उत्तानपाद को अत्रि ऋषि ने गोद लिया और उन्‍हीं के ‘ध्रुव’ नामक पुत्र हुआ।
अरुंधती कर्दम प्रजापति तथा माता देवहूति की कन्‍या थीं। कश्‍यप की कन्‍या अरुंधती का उल्‍लेख वायु पुराण, लिंग पुराण, कूर्म पुराण वगैरह में प्राप्‍त है। उनका विवाह वसिष्‍ठ से हुआ यह ज्ञात होता है। वसिष्‍ठ की प्राप्‍ति के लिए देवी अरुंधती ने सीता तथा रुक्‍मिणी की भाँति ‘गौरी-व्रत’ पूजन किया था। इसी कारण इन्‍हें विवाह सुख प्राप्‍त हुआ।

अरुंधती अत्‍यंत तपस्‍विनी तथा पति-सेवापरायण थीं। ऋषियों के पूछने पर उन्‍होंने सविस्‍तार धर्म-रहस्‍य, श्रद्धा, आतिथ्‍य-सत्‍कार, गौ सेवा, ग्राहस्‍थ्‍य धर्म तथा गोशृंग स्‍नान माहात्‍म्‍य की चर्चा की थी।
अग्‍निदेव की पत्‍नी ‘स्‍वाहा’ को एक बार अपने पतिदेव को रिझाने की इच्‍छा हुई। अग्‍नि ने कहा कि ‘मैं सप्‍तर्षियों की पत्‍नियों से बहुत प्रभावित हूँ। जब-जब ऋषिगण यज्ञ करते हैं तब मैं उनकी पवित्रता तथा धर्म की आभा देखता ही रहता हूँ।’ तब स्‍वाहा ने पति अग्‍नि देव को प्रसन्‍न करने की चेष्‍टा से छह ऋषियों की पत्‍नी का रूप धरा। हर बार वे अग्‍निदेव को लुभाने में तथा भ्रमित करने में सफल हुईं। अंतिम बार वे वसिष्‍ठ पत्‍नी अरुंधती का रूप धरने लगीं। जब-जब उन्‍होंने कोशिश की तब-तब उन्‍हें असफल ही होना पड़ा। अरुंधती देवी सी पतिव्रता के तेज के आगे छल-कपट व मायावी शक्‍तियाँ व्‍यर्थ हो गईं। तब संपूर्ण विश्‍व ने जाना की अरुंधती धर्म में कितनी अटल थीं।

एक बार सप्‍तर्षिगण बदरपाचनतीर्थ हिमालय में फल-मूल लाने गए थे। तब बारह वर्षों तक वर्षा बंद हो गई थी। अतः सप्‍तर्षि हिमालय पर ही रुक गए। शंकर भगवान अरुंधती की परीक्षा लेने हेतु दरिद्र ब्राह्मण का रूप धरकर वसिष्‍ठ के आश्रम पर पधारे। अरुंधती के पास कुछ न था। सो उन्‍होंने (लोहे के) बेर शंकर को दिए। शंकर ने कहा, ‘‘देवी, मैं निर्धन हूँ। कहाँ पकाता फिरूँगा? आप ही पका दीजिए।’’ अरुंधती ने अग्‍नि पर बेरों को पकने रखा और समय व्‍यतीत होवे, इस आशय से अनेक धर्म, ज्ञान के विषयों पर ब्राह्मण से चर्चा आरंभ की। चर्चा में लीन अरुंधती को पता भी न चला कि बारह वर्ष व्‍यतीत हो गए। सप्‍तर्षिगण फल-मूल लेकर लौटे। तब भगवान शंकर अपने असली स्‍वरूप में प्रगट हुए, उन्‍होंने अरुंधती की कड़ी तपस्‍या की भूरि-भूरि प्रशंसा की। और तभी से वह आश्रम पवित्र तीर्थस्‍थल बन गया।

अरुंधती और वसिष्‍ठ के पुत्र का नाम ‘शक्‍ति’ था। अन्‍य अरुंधती नामक कन्‍या ‘मेधातिथि’ मुनि की कन्‍या थी। वे ब्रह्मदेव की संध्‍या नामक मानस कन्‍या थी। चंद्रभागा नदी किनारे मेघातिथि मुनि के यज्ञकुंड से वह कन्‍यारूप में प्रगट हुईं। वे जब पाँच वर्ष की थीं ब्रह्मा ने उन्‍हें आकाश में विमान में बैठकर जा रहे थे तब देखा। उन्‍होंने मेधातिथि को आदेश दिया कि इसे साध्‍वी स्त्रियों के संपर्क में रखा जाए। तब मुनि मेधातिथि सावित्री देवी के पास गए तथा हाथ जोड़कर कहा कि–‘‘माँ, मेरी इस पुत्री को उत्तम शिक्षा दीजिए।’’ सावित्री देवी ने सहर्ष अरुंधती का स्‍वागत किया और सात वर्ष बीत गए।

अरुंधती अब बारह वर्ष की हुई। महासती बेहुला तथा सावित्री देवी के संग वे एक बार मानस पर्वत के उद्यान में गईं। वहीं अरुंधती ने तपस्‍या करते हुए वसिष्‍ठ ऋषि को देखा। दृष्‍टि मिलन होते ही दोनों एक-दूसरे पर आकर्षित हुए। जब सावित्री देवी को ज्ञात हुआ तब उन्‍होंने वसिष्‍ठ-अरुंधती का ब्‍याह रचाया। इस तरह जितने भी उदाहरण हैं पुराणों में, वहाँ वसिष्‍ठ और ‘अरुंधती’ पति-पत्‍नी के रूप में हम देखते हैं।
वसिष्‍ठ ऋषि की विश्‍वामित्र ऋषि के साथ दुश्‍मनी थी। वह ज्‍यादातर विश्‍वामित्र के अहंकार व क्रोध के ही कारण थी। वसिष्‍ठ ब्रह्मर्षि थे। उन्‍होंने इंद्रियों को जीत लिया था।

काम, क्रोध, मद, मोह, बंधन सभी से वे परे हो गए थे। विश्‍वामित्र ने ‘नंदिनी’ नामक कामधेनु का वसिष्‍ठ आश्रम से हठपूर्वक अपहरण करना चाहा। किंतु वे असफल रहे। विश्‍वामित्र ऋषि गायत्री मंत्र सिद्ध कर पाए परंतु अपने दर्प को न जीत पाए। वसिष्‍ठ की शांति व संयम को भंग करने के लिए तब उन्‍होंने वसिष्‍ठ-पुत्र ‘शक्‍ति’ की हत्‍या कर दी। माता अरुंधती पुत्र-वियोग में रो पड़ी। परंतु धीर-संयमी जितेंद्रिय वसिष्‍ठ ने अँधेरी रात्रि में अरुंधती को ढाढ़स बँधाया।

वसिष्‍ठ ने कहा,
‘‘हे माता! मैं तुम्‍हारे शोक को समझ पाता हूँ। तुम्‍हारे अश्रु को छू सकता हूँ।
तुम्‍हारी ‘मनोवेदना’ को अनुभव कर पाता हूँ।
परंतु इस क्षण मेरा मन विश्‍वामित्र के लिए रो रहा है। मुझे उस पर दया आ रही है।’’


तब अरुंधती ने रुँधे कंठ से पूछा,
‘‘क्‍यों नाथ? आपको विश्‍वामित्र के प्रति इस भयानक क्षण में क्‍यों सहानुभूति हो रही है?’’
वसिष्‍ठ ने उत्तर दिया,

‘‘मुझ पर क्रोध करके विश्‍वामित्र अपने तप की, बल की, वीर्य की, अपने मन की शांति का नाश कर रहे हैं। शक्‍ति हमारा पुत्र था। उसका वध करके विश्‍वामित्र को कुछ प्राप्‍त न हुआ।
मुझे दुःख है कि गायत्री मंत्र का द्रष्‍टा, गंभीर तपस्‍वी पता नहीं क्‍यों मुझ पर अपना वर्चस्‍व स्‍थापित करना चाहता है। वह जीते अपने आपको। कुमार्ग पर चलनेवाले ज्ञानी व तपस्‍वी के प्रति दयाभाव से मैं विगलित हो रहा हूँ।
काश! परम कृपालु परमात्‍मा उन्‍हें सन्‍मति दें और सच्‍ची राह सुझा दे।’’


वसिष्‍ठ का मन से निकला आशीर्वाद सुनकर विश्‍वामित्र (जो छुपकर सारी बातें सुन रहे थे)
ब्रह्मर्षि के चरणों में गिर पड़े। वे फूट-फूटकर रोने लगे।

वसिष्‍ठ ने बड़ी कोमलता से उन्‍हें उठाया। बड़ी स्‍निग्‍धता व सौजन्‍य से बिठाया। प्रेमपूरित हाथों से अश्रु पोंछे। माता अरुंधती ने पुत्र के हत्‍यारे का अतिथि-सत्‍कार किया। उसी क्षण से विश्‍वामित्र तपस्‍या की उच्‍चतम श्रेणी में प्रविष्‍ट हुए।

वर्तमान वैवस्‍वत मन्‍वंतर के मैत्रावरुणी वसिष्‍ठ व अरुंधती के अन्‍य पुत्र हैं–पराशर, कृष्‍ण द्वैपायन, शुक्र भूरिश्रवस, प्रभुशंभु और कृष्‍ण गौर। शक्‍ति, सुद्यम्‍नु, कुंडिन, वृहस्‍पति, भरद्वसु, भरद्वाज।
वसिष्‍ठ अयोध्‍या के राजा दशरथ के राजपुरोहित के रूप में बड़े प्रसिद्ध हुए। वे एक नीति विशारद मंत्री, पुरोधा तो थे ही–सर्वश्रेष्‍ठ ब्रह्मज्ञानी, तपस्‍वियों में श्रेष्‍ठ, क्षमाशील, अत्‍यधिक शांतिप्रिय व सहिष्‍णु थे। पुत्रकामेष्‍टि यज्ञ के समय वही दशरथ यज्ञ के ऋत्‍विज बने।

‘राम’ नामकरण भी इन्‍होंने किया। युवराज पदाभिषेक इन्‍हीं ने किया। ‘योगवसिष्‍ठ’ नामक ग्रंथ इन्‍होंने ही भारत को दिया है। धर्मशास्‍त्रकार वसिष्‍ठ रचित ‘वसिष्‍ठस्‍मृति’ नामक स्‍मृति ग्रंथ है। इसमें आचार, संस्‍कार, प्रायश्‍चित्त, रजस्‍वला, संन्‍यासी, आत‌तायी आदि के लिए नियम दिए गए हैं। ‘मनुस्‍मृति’ तथा ‘याज्ञवल्‍क्‍य स्‍मृति’ में भी इसका उल्‍लेख है। अन्‍य ग्रंथ– वसिष्‍ठ-कल्‍प, वसिष्‍ठ-तंत्र, वसिष्‍ठ-पुराण वसिष्‍ठ-शिक्षा, वसिष्‍ठ-संहिता, वसिष्‍ठ-श्रद्धाकल्‍प इत्‍यादि हैं।


वसिष्‍ठ ऋषि का आश्रम विपाशा नदी के किनारे ‘वसिष्‍ठशिला’ नाम से था। एक अन्‍य स्‍थान ‘कृष्‍ण शिला’ उनकी तपस्‍या भूमि थी। इसी कड़ी तपस्‍या के कारण उन्‍हें समस्‍त पृथ्‍वी का पुरोहित पद मिला।
ऋग्‍वेद में वसिष्‍ठ को मैत्रावरुण व उर्वशी अप्‍सरा का पुत्र कहा गया है। इस नाते हम कह सकते हैं कि वसिष्‍ठ वंश अति प्राचीन वंशों में गिना जा सकता है। ऋग्‍वेद के अनुसार वसिष्‍ठ का पुत्र शक्‍ति था तथा पौत्र का नाम ‘पाराशर’ शाक्‍त्‍य था। पाराशर के पुत्र हुए श्री कृष्‍ण द्वैपायन व्‍यास, जिन्‍होंने महाभारत ग्रंथ की रचना की।

वसिष्‍ठ सुवर्चस सँवरण राजा के पुरोहित थे। अतः वसिष्‍ठ नाम के कई ऋषिगण हैं तथा उनके वंश में अनेक महान् व्‍यक्‍ति आते हैं। उनमें से प्रमुख हैं :
1. वसिष्‍ठ देवराज—अयोध्‍या के त्रय्यरुण, त्रिशंकु एवं हरिश्‍चंद्र के काल में।
2. वसिष्‍ठ आपव—हैहयराज कार्तवीर्य अर्जुन के समकक्ष।
3. वसिष्‍ठ अथर्वनिधि—अयोध्‍या के बाहुराजा का समकालीन।
4. वसिष्‍ठ श्रेष्‍ठभाज—अयोध्‍या के मित्रसह कल्‍माषपाद सौदाह राजा के काल के।
5. वसिष्‍ठ अथर्वनिधि (द्वितीय)—अयोध्‍या के दिलीप खट्वांग के समकालीन।
6. वसिष्‍ठ दाशरथि—दशरथ व राम के अयोध्‍या के राजपुरोहित।
7. वसिष्‍ठ मैत्रावरुण—उत्तर पांचाल के पैजवन सुदास राजा के काल के।
8. वसिष्‍ठ शक्‍ति—वसिष्‍ठ मैत्रावरुण का पुत्र (वसिष्‍ठ शक्‍ति)।
9. वसिष्‍ठ सुवर्चस्—हस्‍तिनापुर के संवरण राजा के समकालीन।
10. वसिष्‍ठ—अयोध्‍या के मुचकुंद राजा का समकालीन।
11. वसिष्‍ठ—हस्‍तिनापुर के ‘हस्‍तिन्’ राजा के समकालीन।
12. वसिष्‍ठ धर्मशास्‍त्रकार—वसिष्‍ठस्‍मृति के रचियता।

सप्‍तर्षियों में स्‍थान प्राप्‍त किए हुए, आकाश में स्‍थित, पवित्र तारामंडल में अपना अडिग पद सँभाले हुए, अमर युगल पात्र ‘वसिष्‍ठ-अरुंधती’ को भारतवर्ष प्रणाम करता है।

कहते हैं, जब भी तपस्‍या सफल होने की सीमा में प्रवेश करती है

तब ईश्‍वर के आशीर्वाद की बधाई देते हुए प्रथम सप्‍तर्षियों का आगमन व दर्शन होता है।

रामचंद्र के गुरु वसिष्‍ठ व गुरुपत्‍नी अरुंधती को हम

पवित्रता से अंजलि बाँधे नमन करते हैं और विदा लेते हैं।

सप्‍तर्षि
1. अंगिरस् भृगु
2. अ‌त्रि
3. क्रतु
4. पुलत्‍स्‍य
5. पुलह
6. मरीचि
7. वसिष्‍ठ

खगोल शास्त्र में

इस सप्तर्षि तारा मंडल को " बीग डीपर " कहते हैं -
और स्वच्छ आकाश में ,सप्तर्षि , उरसा मेजर
निहारिका में , साफ़ दीखलाई पड़ते हैं

File:Ursa Major constellation detail map.PNG

10 comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

पढ़ कर आह्लादित हुआ। बहुत सी नई बातें पता चलीं। मिथकों के सन्दर्भ जाने कितने गूढ़ सन्देश छिपाए हुए हैं। कभी समय मिला तो लिखूँगा।
प्रिंट ले रहा हूँ। पिताजी को पढ़ाना है।
इस शृंखला के लिए मैं आप का कृतज्ञ रहूँगा।

रंजना said...

आपका कोटिशः आभार...
इस विस्तार में समस्त तथ्य ज्ञात न था,सो ह्रदय आह्लाद से भर गया......
कृपया इस श्रंखला को अबाधित रखें...

प्रवीण पाण्डेय said...

बचपन में छत से बैठकर घंटों सप्तर्षि देखते थे। पहले भी पढ़ा है पर आज पढ़कर पुनः आनन्द आ गया।

Laxmi said...

अति उत्तम। बहुत सारी नई जानकारी हुई। इन पौराणिक कथाओं में गहरे सत्य छिपे हैं; किन्तु वे सत्य क्या हैं यह बताना बड़ा कटिन है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

भाई-बहिन के पावन पर्व रक्षा बन्धन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
--
आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/08/255.html

P.N. Subramanian said...

हमारे लिए यह तो बहुत ही ज्ञान वर्धक रहा. वसिष्‍ठ-अरुंधती की कथा से हम अनभिग्य थे. बहुत बहुत आभार.

Asha Joglekar said...

Bahut dino bad aapke blog par aaee aur dnyan ka khajana mila. Itani saree jankaree ko sametane ke liye kaee bar aakar padhna hoga. Peeche jakar dekhoongi ki aur kaun kauns Rishiyon ke bare men aapne hume bataya hai. Shiv ji Wasishth jee ke sadhu the. yah to naee jankaree mili hai.
Bachpan me hum marathi me ek sans me sat bar bolane kee cheshta kiya karte the " Sat saptrishi aathwi Arundhati jo satda mhanel to punyarthi" uski yad aa gaee.

Harshad Jangla said...

Lavanya Di

Enjoyed your article.

Great info.

-Harshad Jangla
Atlanta, USA

Harshad Jangla said...

Lavanya Di

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Great info.

-Harshad Jangla
Atlanta, USA

Smart Indian said...

लावण्या जी,
अत्यधिक जानकारी पूर्ण आलेख, विशेषकर वसिष्ठ वध के बारे में तो मुझे कुछ भी मालूम नहीं था.