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मेरी, आपकी, अन्य की बात
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इंसान अपनी जड़ों से जुडा रहता है । दरख्तों की तरह। कभी पुश्तैनी घरौंदे उजाड़ दिए जाते हैं तो कभी ज़िंदगी के कारवाँ में चलते हुए पुरानी बस्ती को छोड़ लोग नये ठिकाने तलाशते हुए, आगे बढ़ लेते हैं नतीज़न , कोई दूसरा ठिकाना आबाद होता है और नई माटी में फिर कोई अंकुर धरती की पनाह में पनपने लगता है ।
यह सृष्टि का क्रम है और ये अबाध गति से चलता आ रहा है। बंजारे आज भी इसी तरह जीते हैं पर सभ्य मनुष्य स्थायी होने की क़शमक़श में अपनी तमाम ज़िंदगी गुज़ार देते हैं । कुछ सफल होते हैं कुछ असफल !
हम अकसर देखते हैं कि इंसानी कौम का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने पुराने ठिकानों को छोड़ कर कहीं दूर बस गया है । शायद आपके पुरखे भी किसी दूर के प्रांत से चलकर कहीं और आबाद हुए होंगें और यह सिलसिला, पीढी दर पीढी कहानी में नये सोपान जोड़ता चला आ रहा है । चला जा रहा है । फिर, हम ये पूछें - अपने आप से कि हर मुल्क, हर कौम, या हर इंसान किस ज़मीन के टुकड़े को अपना कहे ? क्या जहाँ हमने जनम लिया वही हमारा घर, हमारा मुल्क, हमारा प्रांत या हमारा देश, सदा सदा के लिए हमारा स्थायी ठिकाना कहलायेगा ?
उन लोगों का क्या, जिनके मुकद्दर में देस परदेस बन जाता है और अपनी मिटटी से दूर, वतन से दूर,अपनी भाषा और संस्कृति से दूर कहीं परदेस में जाकर उन्हें अपना घर, बसाना पड़ता है ?
स्थानान्तरण के कई कारण होते हैं । आर्थिक, पारिवारिक , मानसिक या कुछ और ये सारे संजोग बनते हैं। कोई व्यक्ति, कोई क्षण, निमित्त बन जाता है जब इंसान एक जगह से दूसरे की ओर चल देता है और जीवन नए सिरे से आरम्भ करता है । ऐसा सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं हुआ है । यह क़िस्सा कईयों के साथ हुआ है और आगे भी होता रहेगा । तब हम सोचें कि सबसे पहले भारत में रहनेवाले, भारत को अपना कहनेवाले, विशुध्ध भारतीय कौन थे ? वे आर्य थे या द्रविड़ थे ?
हम ये भी सोचें कि आज के महाराष्ट्र प्रांत में बसे मराठी भाषी ही क्या महाराष्ट्र की मधुरम धरा के एकमात्र दावेदार हैं ? क्या किसी अन्य प्रांत से आये मेहनतक़श इंसानों का कोई हक़ नहीं महाराष्ट्र में बसने का ? यहाँ काम करने का ? या आजीविका प्राप्त करने का ? सोचिये, राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी दादा बाळ ठाकरे व उनके अनुयायी गण, बिहार प्रांत से महाराष्ट्र आये, बिहारी प्रजा के लोगों से क्यों इतना बैर रखते हैं ?
भारत भूमि के नागरिक, बिहारी भाई मुम्बई की जगमगाहट व कामधंधे की बहुलता की आकर्षक बातों को सुनकर मुम्बई नगरी में अपनी क़िस्मत आजमाने के लिए, खींचे चले आये हैं । क्या उन्हें कोई हक़ नहीं मुम्बई में अपना ठौर ठिकाना ढूँढने का ?
समाचार पत्रों में, दूरदर्शन के फलक पर व मीड़िया में हम अक्सर देखते हैं - हिंसा, आगजनी, मारपीट और हाथापाई के भयानक दृश्य सताये गये भारतीय, एक प्रांत के दूजे प्रांत के गुस्साये लोगों से प्रताड़ित होते बेबस बिहारी और उन पर हाथ उठाते, वार करते मराठी माणूस के बीच घटित हुए द्रश्य देख देख कर मन में विषाद और कडुवाहट घुल जाती है ।
यह बात साफ़ हो जाती है जब हम ऐसे दृश्य देखते हैं कि इंसानियत मर चुकी है । पशुता जीत गयी है । इंसान की जंग में, एकमात्र दुर्गुणों की विजय हुई है। बदचलनी और मक्कारी की जय हुई है ! जय हो ! जय हो !!
ऐसे कैसे हो गये हैं हम लोग जो अपनी सीमा में किसी आगंतुक के लिए कोई भी जगह नहीं दे पाते ? हर इंसान के भीतर महाभारत' का दुर्योधन नायक बना हुआ है जो वनवासी पांडवों को सूई की नोक पर टिक जाए उतनी सी भी जगह देने से साफ़ इनकार कर देता है ! ध्रृतराष्ट्र के नयन ऐसा अनाचार देखते ही नहीं ! हमारे मन में कहीं छिपे भीष्म पितामह सा विवेक गर्दन नीचे लटकाए मौन श्वेत वस्त्रों से अपना मुख ढाँप कर विवश रेशमी गाव-तकिये का सहारा लिए । मौन है तो आचार्य द्रोण सा साहस, मूक होकर परिस्थिति से विवश होकर संधि प्रस्ताव की आस में, अश्वत्थामा से लोभ के पुत्र मोह में निमग्न है !
जिस तरह एक ट्रेन के डिब्बे में पहले से सवार यात्री नये आनेवाले यात्री को स्थान नहीं देते - फिर वह नव आगंतुक येन केन प्रकारेण, अगर अपनी जगह मुक़र्रर करने में कामयाब हो गया तब वह भी पहले से सवार यात्रियों की टोली का सभ्य बन जाता है । और फिर उसके बाद आनेवालों से वही इंसान ऐसे पेश आता है कि नये आनेवालों को वह भी जगह नहीं देता।
यह पशुता का भाव, अक्सर जंगल में शेर बाघ जैसे हिंस्र पशु भी करते हैं । शेर और बाघ अपनी सीमा रेखा के भीतर दूसरे शेर या बाघों को घुसने नहीं देते और हमला कर के नवागंतुक को खदेड़ देते हैं । हम भी प्राणी जगत के अंश हैं उन्हीं की तरह हमारे भी नियम क़ानून और मनोवृतियाँ हैं । जिस के कारण समाज में रहते हुए हम अक्सर अपनी समा अपनी कौम, अपने मुल्क से लगाव रखते हुए अपने स्वार्थों को अक्षुण्ण रखते हैं।
भारतीय वांग्मय ने "वसुधैव कुटुम्बकम`" का उद्घोष सदियों पूर्व अवश्य किया था परंतु दैनिक व्यवहार और पुस्तकिया ज्ञान में सदा फ़र्क रहा है । ऐसे बुद्ध-प्रबुद्ध करोड़ों में बिरले ही हुए ! कोई परम योगी सा ही संसार के इस लोभ, मद, मोह, मत्सर के जाल से विरक्त हो पाया है -- अन्यथा हम मनुष्य स्वार्थरत ही रहे ।
हम भारतीय परदेस जाकर लाखों की संख्या में आबाद हुए हैं । विश्व के हर कोने में आपको कहीं ना कहीं एकाध भारतीय अवश्य ही मिल ही जाएगा । गिरमीटिया मज़दूर होकर भारत से यात्री सूरीनाम, मारीशस, बाली द्वीप, जावा, सुमात्रा, वेस्ट इंडीज़, फिजी जैसे कई मुल्क़ों में अपना 'मृण्मय तन, कंचन सा मन' लिए पहुँचे थे । कई भारतीय ओस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इंग्लैण्ड, रशिया, अमरीका, यूरोपीय देशों में भी गये । विश्व के हर कोने में जा-जा कर भारतीय मूल के लोग बसे हैं और उन्हें अप्रवासी भारतीय कहा गया । आज ऐसी स्थिति है कि उत्तर अमरीका के न्यूजर्सी प्रांत के एडीसन शहर में वहाँ रहनेवाले इटालियन, जर्मन, डच या फ्रांसीसी या अँगरेज़ या कहें कि, यूरोपीय मूल के लोगों की बनिस्बत भारतीय प्रजा की बहुलता हो गयी है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी !
उत्तर अमरीका से प्रकाशित टाइम नामक पत्रिका (मैग्ज़ीन ) सुप्रसिद्ध है और विश्व स्तर पर बिकती है । उसकी पाठक संख्या भी करोड़ों की तादाद में है । उसी के एक पत्रकार जोईल स्टाइन ने, जो मूल इटालियन या इतालवी है; अपने एक आलेख में बदले हुए एडीसन शहर और वहाँ बढ़ती हुई भारतीय साग सब्जी की मंडी, रेस्तोरां, मंदिर, गुरूद्वारे, भारतीय परिधान व आभूषण बेचतीं दुकानों और वहाँ निर्विघ्न घुमते सैलानियों को देखकर दुःख और नोस्तेल्जीया प्रकट किया है - नोस्तेल्जीया माने ,परापूर्व स्थिति के प्रति अदम्य आकर्षण व उसे पुनः स्थापित करने की ललक !
देखें यह कड़ी लिंक : http://www.time.com/time/
यहाँ चित्र में, भारतीय लिपि से अँगरेज़ी अक्षरों में लिखा है - "वेलकम टू एडिसन न्यू जर्सी " ।
पूरे आलेख में भारतीयों के बढ़ते हुए प्रभाव से त्रस्त व आक्रांत होकर कुछ परेशान, कुछ झुंझलाकर क्लांत भाव है । यहाँ लिखा गया है और भारतीय प्रजा के आने से पहले जो व्याप्त था ऐसे इतालवी कल्चर की प्रभुता के दिनों की याद और फिर उन पुराने दिनों के लौट आने की कामना, माने इटालियन या यूरोपीयन कल्चर के प्रति भरपूर नोस्तेल्जीया की भावना इस लेख में साफ़ झलकती है । पत्रकार महोदय का नाम है जोईल स्टाइन ।
(आप भी ऊपर दी हुई लिंक पर जाकर, क्लिक कर , जोईल स्टाइन के आलेख को अवश्य पढ़ें)
अब भारतीय मीडिया भी कहाँ चुप रहनेवाला था ! आजकल के ग्लोबल गाँव में कोई समाचार छिपा नहीं रह पाता । वर्ल्ड वाईड वेब से जुड़े संसार में, ख़बर आनन-फानन में फ़ैल गयी । ख़बर पहुँच गयी भारत में और पूरे विश्व में । भारत से प्रकाशित हिन्दू समाचार पत्र ने इस आलेख की भर्त्सना करते हुए अपने जवाबी आलेख जवाबी में लिखा - अजी यही तो होना था ना अब मीडिया ग्लोबल जो हो गया । टाइम मेगेज़ीन ने जोईल स्टाइन के आलेख के कहा कि भारतीय प्रजा के मन को दुखी करने वाले आलेख के लिए हम माफ़ी चाहते हैं । यहाँ प्रश्न उभारा गया कि क्या भारतीय मूल की प्रजा को अमरीका में रहते हुए भविष्य में विक्षोभ उठाना पडेगा ?
१ ) http://www.thehindu.com/
आँकड़े और सर्वे इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि महज विगत 1 वर्ष में 94,563 भारतीय मूल के विद्यार्थी समुदाय के अमरीका आगमन से डालर $ 2.39 विलियन धन राशि अमरीकी इकोनोमी में जुडी है । भारतीय मूल के अमरीका में बसे नागरिक अमरीकी अर्थ व्यवस्था में मिलियनों डालरों के हिसाब से योगदान श्रमदान करते हैं । भारतीय मूल की प्रजा भले ही अप्रवासी कहलाती हो, परंतु जहाँ भी भारतीय बसे हैं उन्होंने उस देश को समृद्ध किया है । यही नहीं कई प्रमुख व्यवसाय जैसे चिकित्सा, इंजीनियरिंग, आईटी और अन्य तरह के व्यापार उद्योग के क्षेत्रों में इन नये नागरिकों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । हर मुल्क से आकर उत्तर अमेरीकी धरा पर बसे दूसरी कौम के लोगों के मध्य जीते हुए रहते हुए भी सदा भारतीयों ने अपनाए हुए देश के नियम व क़ानून का विधिवत तथा व्यवस्थित रूप से पालन भी किया है और भारतीय संस्कार भी संजोए रखा है । हाँ, कुछ अपवाद हर बात में देखे जाते हैं सो ऐसा भी नहीं की हर भारतीय बस श्री रामचंद्र का अवतार-सा श्रेष्ठ मानुष ही बना रहा है । अच्छे और बुरे इंसान हर तबक़े और हर कौम में, हर मुल्क में होते हैं और हम भारतीय भी इस मामले में सब के जैसे हैं । हम कोई अपवाद नहीं हैं ! हम भी महज इंसान ही तो हैं !
निष्कर्ष यही कि आज विश्वव्यापी बाज़ारवाद और समाजवाद के २ पहियों के बीच चली मीडिया की गाडी में बैठा आम अदना इंसान अपने आप को कहे भी तो क्या कहे ? क्या समझे या समझाये कि वह कौन है ? प्रवासी है या अप्रवासी है ? भारतीय है या एनआरआई है ? बिहारी है या महाराष्ट्र वासी है ?
कहाँ से चले थे हम और कहाँ पहुँचेंगे ? क्या इंसानियत, मैत्रीभाव, दया करुणा, आपसी भाईचारा, अमन पसंदगी, सुकून की तमन्ना, आनेवाले समय में, ये सारे शब्द सिर्फ़ 'दीवानों की डिक्शनरी' के शब्द मात्र रह जायेंगें ? लोभ, लालच, व्याभिचार, दुश्मनी, बैर, लडाई-झगडा , दंगा-फ़साद, बम के गोले, बारूदों के ढेर, ख़ून ख़राबा, व्याभिचार, अनाचार... क्या बस यही विश्व में हर तरफ़ जारी रहेगा ? मनुष्य कब सभ्य होगा ? कब सुसंस्कृत होगा ? पता नहीं ...ये होगा भी या नहीं...
आख़िर में ये भी देख लीजिये...
युद्ध विनाश के बादल लेकर आते हैं और तबाही की बरसात कर कहर बरपाते हैं .....
मैं तो बस इतना ही कहूँगी –
हम तो कुछ भी नहीं हैं ज़िंदगी के सताये हुए,
सहते हैं हर जुल्म ज़िंदगी के बस मुस्कुराते हुए ।
लावण्यम----अंतर्मनशीर्षक में विषय-वस्तु के बीज समाहित होते हैं.लावण्यम----अंतर्मन इसी बीज का पल्ल्वीकरण है.हृदयेन सत्यम (यजुर्वेद १८-८५) परमात्मा ने ह्रदय से सत्य को जन्म दिया है. यह वही अंतर्मन और वही हृदय हैजो सतहों को पलटता हुआ सत्य की तह तक ले जाता है.लावण्य मयी शैली में विषय-वस्तु का दर्पण
बन जाना और तथ्य को पाठक की हथेली पर देना, यह उनकी लेखन प्रवणता है. सामाजिक, भौगोलिक, सामयिक समस्याओं
के प्रति संवेदन शीलता और समीकरण के प्रति सजग और चिंतित भी है. हर विषय पर गहरी पकड़ है. सचित्र तथ्यों को प्रमाणित करना उनकी शोध वृति का परिचायक है. यात्रा वृतांत तो ऐसे सजीव लिखे है कि हम वहीं की सैर करने लगते हैं.आध्यात्मिक पक्ष, संवेदनात्मक पक्ष के सामायिक समीकरण के समय अंतर्मन से इनके वैचारिक परमाणु अपने पिता पंडित नरेन्द्र शर्मा से जा मिलते हैं,
जो स्वयं काव्य जगत के हस्ताक्षर है.पत्थर के कोहिनूर ने केवल अहंता, द्वेष और विकार दिए हैं, लावण्या के अंतर्मन ने हमें सत्विचारों का नूर दिया है.पारसमणि के आगे कोहिनूर क्या करेगा?- डा. मृदुल कीर्तिAll sublime Art is tinged with unspeakable grief.
All Grief is a reflection of a soul in the mirror of life'SONGS are those ANGEL's sound that Unite US with the Divine.'
About me:
Music and Arts have a tremendous pull for the soul and expressions in poetry and prose reflects from what i percieve around me through them.