हमारे इलाके में , अब बसंत के आगमन की तैयारी है। हवाएं अब भी अंतिम ठण्ड को समेटे, सूर्य के ताप से ,गर्माहट हासिल करने का प्रयत्न कर रहीं हैं। मार्च महीने के अंतिम दिन शेष हैं और बाग़ में घास हरी होने लगी है। बर्फ अब शायद गिरे या ना गिरे। कोइ भरोसा नहीं ।पंछी बागों में नये पत्तों की बाट जोहने लगे हैं। सुना है भारत में भीषण गर्मी पड़ रही है ..हां हां मौसम है !वह तो आये और जाए !
आजकल अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समीति की त्रैमासिक पत्रिका " विश्वा " के आगामी अंक
" कथा - कहानी विशेषांक " का सम्पादन कार्य, सुश्री रेनू राजवंशी के स स्नेह आग्रह करने पर,
मैंने करने का वादा किया और उसी के काम को आज पूरा करने पर हर्ष और उत्सुकता है ..
और आशा कर रही हूँ कि , मेरे प्रयास को पाठक पसंद करेंगें
सम्पादकीय : कथा कहानी विशेषांक " विश्वा " के लिए
शीर्षक : " एक समय की बात है ..."
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ब्रायन बोयड की हार्वड पुस्तक प्रकाशन से छपी पुस्तक में वे कहानी के उद`गम व विकास की व्याख्या करते, ये प्रश्न उभारते हैं के जिस कथा - कहानी का मानव जीवन के विकास या संवर्धन में कोइ खास महत्त्व नहीं रहा , फिर भी, उस प्रक्रिया को, प्राचीन काल से २१ वीं सदी के आरम्भ तक, मानव समाज क्यों अपने साथ लेकर चला ?
कथा - कहानी की गणना कला के क्षेत्र में क्यों कर हुई ?क्यों इसकी गिनती ' कला के क्षेत्र में की जाती रही है ? क्या ऐसा तो नहीं कि , कहानी कहना, गढ़ना और वास्तविक घटना या कल्पित रूपरेखा से बुनी हुई कथा ~ कहानियां, हर युग में , गढ़ना , यह प्रक्रिया मानव सुलभ इस कारण हुई कि , यह हमारे अस्तित्त्व के लिए, सामाजिक
विकास के लिए उपयोगी ही नहीं वरन हमारे मानवीय मूल्यों के विकास
में भी महात्वपूर्ण रूप से , सहायक सिध्ध हुईं हैं ?
कहानी , एक तरीके से देखें तो, हमारे मनुष्यत्व का पर्याय है। कथाएँ हमारे समाज का दर्पण भी हैं !
हमारी शौर्य गाथाएं , नदीयों की तरह , समय की धारा को बांधकर बहती हुईं ,
सदा - अविरल बहती , मानव मंदाकिनी स्वरूप हैं और हमारी आकांक्षाओं की , हमारे
स्वप्नों की और कई बार, स्वप्न भंग होने की भी साक्षी रही है।
वाल्मिकी , व्यास , होमर, कालिदास , भवभूति , तुलसीदास , शेक्सपीयर, दोस्तोवस्की, चेखोव, बर्नार्ड शो परिकथा लेख़क एंडरसन, चार्ल्स दीकंस, ओ हेनरी, मोपांसा , काफ्का, कीप्लिंग , शरत चन्द्र, हों या प्रेमचंद या अमृत लाल नागर , उन जैसे कथाकार , आज भी क्यूं भौगोलिक दूरियों को पाट कर , सर्व जन के सर्व प्रिय हैं ?
मनुष्य की क्रियाशीलता ऊर्जा बुध्धि तथा चिंतन मनन के फलस्वरूप, कथा-कहानियां उभरतीं हैं और कई समाज में धर्म का आधार, सामाजिक व्यवहार का दस्तावेज और हमारे
इतिहास का लेखा जोखा भी समाये हुए ,आधुनिक युग तक चल कर , हमारे साथ ऐसे जुडी हुई हैं। मा
नों वे जीवन का अभिन्न अंग ही क्यों ना हों !
बाईबल ने कहा " सर्व प्रथम शब्द उभरा और वही ईश्वर स्वरूप है !
" ऋग्वेद ने कहा, " सृष्टी के पहले सत नहीं था असत भी नहीं था "
" ऊं " के मंगलकारी , प्रणव नाद से ही सृष्टी प्रतिपादित हुई .........
माली , आफ्रीका के मान्दिनका लोग " मंगला " नामक एक सर्वशक्तिशाली पुरुष से कथा आरम्भ करते हैं। तो सईबीरीया के " मानसी " लोग पृथ्वी माता के आरम्भ की गाथा सुनाते हैं। मांगोल प्रजा " उदान " नामक लामा से सृष्टि के आरम्भ को जोड़ते हैं। कई कथाओं का आरंभ इनहीं शब्दों में हुआ है" एक समय की बात है ..."
दादी नानी की गोद में सोते हुए, चंद्रमा की शीतल छैंया से स्वप्निल होते वातावरण में , अन्धकार से ग्रसित होते आकाश में, दूर टिमटिमाते तारकों के साथ सुनी सुनाई कहानियां
हर शिशु मन में,सदा के लिए घरौंदा बना लेतीं हैं। ऐसे नीड़ बन जाते हैं जहां जीवन के हर
कालखंड में, मन पाखी सी चिडीया ,नित नये दाने जमा करती है।
ये हमारे अस्तित्त्व का दुर्लभ धन है।
जिसे आज पाश्चात्य देशों में , टीवी के पात्र " डोरा " मीकी " सुपर मेन " जैसे काल्पनिक पात्र बने
पूरा कर रहे हैं।सच कहूं तो , भारत की " अमर चित्र कथाएँ " " चन्दा मामा " और ' पराग, नंदन '
को सच बताईये, आज तक, कौन भूल पाया है ?
एक कविता पढी थी उसका अनुवाद प्रस्तुत है : ~~
" मैं नहीं जानती के इंसान के शब्द आकाश तक पहुँचते हैं या नहीं
मैं ये भी नहीं जानती के ईश्वर मेरे शब्द सुन रहे हैं या नहीं ,
मैं ये भी नहीं जानती कि मेरी मनोकामनाएं , पूरी होंगीं या नहीं
मैं ये भी नहीं जानती भविष्य में क्या क्या संभव होगा
सिर्फ इतना कहती हूँ , मेरे बच्चों, के जो भी होगा,
वह, तुम्हारे लिए, खुशियों की सौगातें लेकर आयेगा '
कितनी प्यारी बात कही है किसी अनाम माँ ने ............
यही कथा का विस्तार है और उद गम और प्रस्थान बिन्दु भी ..........
आज " विश्वा " का कथा कहानी विशेषांक आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए ,
यही प्रार्थना मेरे मन में गूँज रही है और आपके लिए कुछ कहानियां तथा कविताओं को
प्रस्तुत कर रही हूँ।
सौ. रेणु राजवंशी " गुप्ता के स्नेहभरे आग्रह को मान देते हुए मैंने, ये जिम्मेदारी सम्हाली है
वर्तनी की त्रुटियां या अशुध्धियाँ रह गयीं हों तब कृपया माफ़ करें।
और उत्तर अमरीका में रचनाशील , सहित्य जगत के साथी , मित्रों की रचनाओं का खुले मन से स्वागत करें ये मेरी, आप सभी से , विनम्र प्रार्थना है।
आगामी अंकों में , हम कई कवि व लेखकों की कृतियाँ आप के समक्ष प्रस्तुत करेंगें ...
इस अंक से हम स्थायी स्तम्भ " अमर युगल पात्र " [ लेखिका : लावण्या शाह द्वारा ]
आरम्भ कर रहे हैं।
ऋषि वसिष्ठ तथा अरूंधती की कथा के साथ ...
आशा है आप को ये प्रयास पसंद आयेगा।
इस अंक में जिन साहित्यकारों की कृतियाँ शामिल हैं उनका धन्यवाद
आप सभी का सहयोग व साथ , भविष्य में यूं ही बना रहेगा ये आशा है
तथा आप के परिजनों के लिए व आपके लिए
मंगल कामना सहित अब आज्ञा लेती हूँ .
सादर, स - स्नेह ,
- लावण्या
विश्वा के एक पुराने अंक से यह संस्मरण मिला है जो आप तक पहुंचा रही हूँ और एक बहुत पुरानी फिल्म से एक ग़ज़ल मिली। आप देखिये दोनों रचनाएं आपको भी अवश्य पसंद आयेंगी।
श्री कृष्ण बिहारी ‘नूर’ संस्मरण | ||||||||||||||||||||||||||||
श्रीकृष्ण बिहारी ‘नूर’ मूलतः लखनऊ के निवासी थे ! गजल, शायरी एवं कविता से संबंध रखनेवाले सभी सहृदयों में नूर की शायरी का विशेष स्थान रहा है। सभी प्रसिद्ध गायकों ने आपकी गजलों को सुरबद्ध किया है। मेरी उनसे भेंट कोलंबस ओहायो में हुई थी ! हमारे मित्र श्री बिपिंद्र जिंदल ने नूर के सम्मान में एक कवि-सम्मेलन का आयोजन किया था। उर्दू बोलनेवालों को हिंदी समझने में और हिंदीवालों को उर्दू समझने में उलझन होती है। हम भी यही उलझन लेकर सौ मील ड्राइव करके गए उर्दू की शायरी हमें कितनी समझ में आएगी। जैसे ही काव्य-संध्या आरंभ हुई, कई शायरों एवं गीतकारों ने काव्य पाठ किया...वातावरण सहज होता गया। श्री कृष्ण बिहारी ‘नूर’ सामने मंच पर बैठे ऐसे लग रहे कि या तो नींद में हैं, या नशे में हैं या कहीं खोए हुए हैं। एक और विकल्प था...मानो नूर ईश्वर-ध्यान में मग्न हों...। हिंदू-दर्शन एवं आध्यात्म का नवीन स्वरूप श्री नूर की शायरी में दिखाई देता है। उन्होंने अद्वैत का इतना सरल एवं सहज रूपांतर अपनी गजलों में कर दिया है कि विश्वास ही नहीं होता है...जैसे... ‘जो मौत से डरा नहीं...मौत उसकी मित्र हो गई।’ अपनी शायरी से पहले उन्होंने दो बातें कीं...प्रथम : हमें नहीं पता है कि हमारी शायरी में कितने हिंदी के शब्द हैं और उर्दू के शब्द हैं। आपके पास पेन-कागज तो होगी ही—श्रोता ही लिखकर मुझे बताएँ कि कितने शब्द उर्दू के हैं और कितने शब्द हिंदी के हैं ! वास्तव में उनकी शायरी जितनी गहरी थी, भाषा उतनी ही सरल थी। द्वितीय : ‘नूर’ ने श्रोताओं से आग्रह किया कि उनकी शायरी सुनते वे सांसारिक संबंधों से ऊपर उठें। नूर ने हँसते हुए कहा कि आप सरला, निर्मला, कमला का ध्यान नहीं करें ! अपनी सोच को आध्यात्म के स्तर पर उठाएँ...! यहाँ हम श्री नूर की आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत प्रभावकारी एवं गूढ़ रचनाएँ दे रहे हैं। आशा है कि पाठक भी उसे उतनी गंभीरता से पढ़ेंगे एवं लाभान्वित होंगे। चार वर्ष पूर्व श्री कृष्ण बिहारी ‘नूर’ की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी।
कविता : जन्म-जन्म का चक्कर एक अजीब चक्कर है; कश्तियाँ हैं ख्वाबों की नींद का समंदर है। बेनियाज1 सुख-दुःख से रह के जी न पाऊँगा; सुख मेरी तमन्ना है, दुःख मेरा मुकद्दर है। कितनी जानलेवा है बे-तअल्लुकी उसकी; आज हाथ में उसके फूल है न पत्थर है। उससे अपना गम कहकर किस कदर हूँ शर्मिंदा; मैं तो एक कतरा हूँ और वह समंदर है। तुझसे मिलने की ख्वाहिश मरने भी नहीं देती; आरजू कोई भी हो रास्ते का पत्थर है। जिंदगी उसे पा ले सोचना है बेमानी; मैं हदों के अंदर हूँ वह हदों से बाहर है। घर की खस्ताहाली को जो छुपा ले दामन में; ‘नूर’ ऐसी तारीकी2 रोशनी से बेहतर है। देना है तो निगाह को ऐसी रसाई3 दे; मैं देखूँ आईना तो मुझे तू दिखाई दे। काश ! ऐसा तालमेल सुकूत-ओ-सदा4 में हो; उसको पुकारूँ मैं तो उसी को सुनाई दे। ऐ काश ! उस मुकाम पे पहुँचा दे उसका प्यार; वो कामयाब होने पे मुझको बधाई दे। मुजरिम है सोच-सोच, गुनहगार साँस-साँस; कोई सफाई दे तो कहाँ तक सफाई दे। हर आने-जानेवाले से बातें तेरी सुनूँ; ये भीख है बहुत मुझे दर की गदाई दे। या ये बता कि क्या है मेरा मकसद-ए-हयात; या जिंदगी की कैद से मुझको रिहाई दे। कुछ एहतराम अपनी अना5 का भी ‘नूर’ कर; यूँ बात-बात पर न किसी की दुहाई दे। उसी की एक अदा छीनकर सताऊँ उसे; उसे मैं देखूँ मगर मैं नजर न आऊँ उसे। जुदाई की हो घड़ी या मिलन की वेला हो; बहाना हाथ लगे तो गले लगाऊँ उसे। यहाँ पे भी तो उसी के करम का हूँ मोहताज; किसी गजल में ढले वो तो गुनगुनाऊँ उसे। अजीब तरह की शर्तें लगाई हैं उसने; मैं अपने आप को छोड़ूँ कहीं तो पाऊँ उसे। इबादत उसकी करूँ और कुछ तलब न करूँ; वो आजमाए मुझे मैं न आजमाऊँ उसे। न आरजू है कोई और न कोई मकसद-ए-जीस्त6; हयात जितनी बची है कहाँ खपाऊँ उसे। कहाँ की हार मुहब्बत में और कैसी जीत; मैं रूठ जाऊँ कभी खुद, कभी मनाऊँ उसे। किसी सवाल का उसके कोई जवाब न दूँ; मिले वो अब के तो उलझन में छोड़ आऊँ उसे। मजा तो जब है कि मेरी कमी उसे भी खले; कभी मैं बिछड़ूँ तो ऐ ‘नूर’ याद आऊँ उसे। आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें; और फिर मानना पड़ता है खुदा है मुझमें। अब तो ले-दे वही शख्स बचा है मुझमें; मुझको मुझसे जो अलग करके छुपा है मुझमें। मेरा ये हाल उधड़ती हुई परतें जैसे; वो बड़ी देर से कुछ ढूँढ़ रहा है मुझमें। जितने मौसम हैं वो सब जैसे कहीं मिल जाएँ; इन दिनों कैसे बताऊँ जो फजा है मुझमें। वो ही महसूस करेगा जो मुखातिब7 होगा; ऐसे अनदेखे उजाले की सदा है मुझमें। नश्शा-ए-मय की तरह समझा था कुरबत उसकी; वो तो मानिंद-ए-लहू दौड़ रहा है मुझमें। आईना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन; आईना इस पे है खामोश कि क्या है मुझमें। टोक देता है कदम जब भी गलत उठता है; ऐसा लगता है कोई मुझसे बड़ा है मुझमें। अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ ‘नूर’; मैं कहाँ तक करूँ साबित कि वफा है मुझमें। 1. निःस्पृह, 2. अंधकार, 3. पहुँच, 4. ध्वनि और आवाज, 5. अहम, 6. जीवन का उद्देश्य, 7. जिससे बात की जाए, 8. आवाज, 9. यह इजाफत गलत है, मगर मुझे ये ऐब अच्छा लगा, जिसकी मुआफी।
एक ग़ज़ल
हौसला आशीक को चाहिए दिल लगाने के लिए
क्यूंकि ये माशूक होते है सतांने के लिए
रहम कर दिल में ज़रा इन्साफ लाने के लिए -२
कोशिशे कराते हो क्यूँ मेरे मिटाने के लिए -2
फिर मिलेगे , फीर मिलेंगे कब तुम्हे ये नाज़ उठाने के लिए
वो उधार खजर -बा -काफ है आज़माने के लिए -२
हम इधर है हम इधर है शौक़ में गरदन कटाने के लिए
कटाने के लिए
हौसला आशिक को चाहिए दिल लगाने के लिए
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