Friday, February 26, 2010

आ प सभी को " हो ली की भी , बहुत बहुत शुभ कामनाएं "

आज होली के पर्व पर कुछ बातें , समाज से जुडी ,
मनोमंथन - सी , मेरे मन में , उभरीं हैं
और सोचा, आप सब के संग साझा करूं .


एक ग़ज़ल : " सुफेद रंगों में रंग भरना , कोई तो सीखे "


बचपन के दिन , वो घर , वे लोग , वो प्यार और अपनापन । वे त्यौहार वे हंसी के पल , यादों में आबाद तो हैं , पर अब वो भारत वाली , अपनी सी बात , अब नहीं है !

जब् हम छोटे थे, तब अकसर, हम से बड़ों के पैरों के पास, अदब से बैठा करते थे ।

उन बातों के बीते हुए एक ज़माना बीत गया है । वर्तमान ने , ईश्वर के प्रसाद रूपी
फल भी कृपा कर , मेरी झोली में डाल दिया है । जिसे सहेजे सहेजे, यादों में , अपने शैशव के दिनों में , जम कर खेली " होली " की यादें , साकार किये , भारत भूमि को याद कर रही हूँ

Do See this Link :

और मेरे हिन्दी जगत में फैले अनगिनत हमसफ़र परिवारों को

मेरी शुभकामनाएं " प्रेषित कर रही हूँ।

" होली आयी रे कन्हाई , रंग छलके सुनादे जरा बांसुरी " --
" मधर इंडीया" फिल्म के पुराने गीत से चल कर , आज के दौर के गीत
" होली के दिन दिल खिल जाते हैं , रंगों में रंग मिल जाते हैं "
शोले फिल्म का गीत
और" लेट्स प्ले होली " , " वक्त " फिल्म का गीत - तक
संगीत , नाच और मन की मौज , गुलाल और गुझीये ,मूंग दाल के गरमागरम पकौड़े के साथ होली की याद ,भारत को साकार करती आ खडी हुई है.

ईश्वर प्रसाद रूपी फल : मेरा ग्रेंड सन नोआ



किसी भी समाज में मनाये जानेवाले उत्सव और त्यौहार , जन मानस को जोड़ने का , हमारी परम्पराओं को एक पीढी से दूसरी तलक ले जाने की महत्त्वपूर्ण कड़ी का काम करते हैं ।
भारत के अपने त्यौहार हैं और परम्पराएं हैं। भारतीय मूल के लोग जहां कहीं भी बसे , इन्हें , जीवित रखने का कार्य किया है । पर वो भारतवाली बात नहीं रहती, ये भी सच है ।
पश्चिमी मुल्कों की अपनी विशिष्ट परम्पराएं हैं । एक अलग जीवन शैली है जिसे जब् भी लोग मिलते जुलते हैं तब अकसर आदान प्रदान होने से उन्हें भी अपना लिया जाता है ।
जैसे इस चित्र में देखिये - चाचा नेहरु , अँगरेज़ महिला लेडी माऊंट बटन के संग , हवाई यात्रा के दौरान धूम्रपान का आनंद ले रहे हैं ! ये , यहां के वातावरण में बहुत सहज , सामान्य द्रश्य ही समझा जाएगा ।
परंतु भारत के लिए अजीब सा लगेगा।
जब् नोआ के स्कूल में पेरेंट्स डे था और मैं भी अभिभावक के रूप में , वहां गयी तो आश्चर्य हुआ । जब् देखा के नोआ की सहपाठिका एक नन्ही बची ' सवेना ' के पिता, ( जो पुलिस हैं, ) पिस्तोल , कमर में लटकाए आये थे और बच्चे सहजता से उनसे लिपटकर बातें कर रहे थे ।
जिसे देख , सोचने लगी के ये भारत में रहते हुए शायद कम ही मौक़ा पड़ता के ऐसे किसी को आसानी से पिस्तोल लटकाए देख पाते , जिसे ३ , ४ साल के बच्चे यहां अमरीका में , एक आम घटना की तरह, रोज ही देखते हैं । फर्क है और कई तरह के फर्क हैं ये भी एक बहुत बड़ा , सच है ।
तो सो टके की बात यही के ' हर मुल्क की अपनी अलग तहजीब और एक अलग - सा माहौल होता है। '
आज होली के त्यौहार को याद करते हुए समाज और उनमे फ़ैली सामाजिक विषमताओं , कुछ लोगों के जीवन में , आयी विषम परिस्थितीयों पर ध्यान केन्द्रीत हो गया है ।
अमरीकी मीडीया में , कोइ न कोइ समाचार खूब सुर्ख़ियों में उभरता है और दिनभर उसी पर , कई तरह की बातों को दोहराया जाता है। जैसे पिछले दिनों ,गोल्फ के सबसे बेहतरीन खिलाड़ी टाईगर वूड्ज़ के बारे में , मामला सामने आया। उनकी अनगिनत प्रेमिकाएं , उनसे जुड़े किस्से दिनभर केंद्र में रहे ....
अब वे मानसिक चिकित्सा के लिए " रीहेब " ( Rehabitilation )
माने = आदत सुधारने में मदद करनेवाली, उपचार करनेवाली संस्था में ,
अपने आप को दर्ज करवा के चिकित्सा ले रहे हैं । कोइ शराब के लिए तो कोइ ड्रग्स के लिए भी ऐसे रीहेब की शरण में चले जाते हैं। पश्चिमी सभ्यता की असर भारत के महानगरों में फैलती हुई अब छोटे शहरों से होती हुई तेजी से फ़ैल रही है। शराब पीकर , अपना जीवन व्यर्थ में गंवाना ये कोई WESTERN CULTURE की exclusive देन नहीं है।
ये भारत में पहले भी होता था परंतु ड्रग्स , समलैंगिकता का खुला प्रदर्शन ,
खुला प्रेम प्रदर्शन - Modern Pub culture & open life style
इत्यादी ये अब पश्चिम की नक़ल के रूप में , ज्यादा खुलकर , सामने आने लगा है ।
शायद , मुझे ज्यादा पता नहीं परंतु सुनने में यही आ रहा है। कई कलाकार ऐसे कई अलंकरणों से , इनामों से और एवार्ड से नवाजे जाते हैं।जैसा इस नीचे के चित्र में स्वर साम्राग्नी लता जी का अभिनन्दन किया जा रहा है। तो कई कलाकार गुमनान अभिशप्त ज़िन्दगी जी कर बदनामी और बदकिस्मती के अंधेरों में खो जाते हैं। ऐसा भी होता है 
तब यही भास् होता है के सारा नियति और माया के हाथों, कठपुतली का रचाया खेल ही खेल रहे हैं
" सबहीं नचावत राम गुंसाई " श्री राम भी मनुज तन धर कर अपने पात्र के अनुरूप बिलखे और सती सीता की खोज में बन प्रांतर में भटके हैं।क्या अजीब है मानव जीवन का खेल और हम सब की जीवन लीला !
सागर नाहर भाइस'सा , अकसर संगीत से जुडी बढ़िया प्रविष्टी लेकर उनके जालघर पर प्रस्तुत करते हैं ।
आप एक सच्चे संगीत रसिक और संगीत की देवी के पुजारी हैं ..
आज उनके जालघर पर एक पोस्ट पढी : http://mahaphil.blogspot.com/

कुछ दिनों पहले मास्साब पंकज सुबीर जी के चिट्ठे पर, महान गायक पं कुमार गन्धर्व के सुपुत्र ,पं. मुकुल शिवपुत्र के बारे में पढ़ा था कि, कुमार गंधर्व के सुपुत्र मुकुल शिवपुत्र, शराब के लिए भोपाल की सड़कों पर दो- दो रुपयों के लिए भीख मांग रहे हैं। :-(((
यह समाचार पढ़ कर मन बहुत आहत हो गया। एक महान कलाकार के सुपुत्र पण्डित मुकुल शिवपुत्र जो स्वयं खयाल गायकी में बहुत जाने माने गायक हैं , कि यह हालत ! खैर, अब पता नहीं मुकुल जी कहां है किस हालत में है?
:-((
गायक श्री मुकुल शिवपुत्र की जीवन गाथा से मिलती जुलती कथा फिल्म " साज " में दीखलाई गयी है । जिसका ये गीत देखिये " साज़ " फिल्म का ये गीत सुनकर मानों मेघ मल्हार अनेकों फुहारों से चहुँ ओर ,

फुहार करने लगे ।

और मन द्रवित हो गया ये सारी कथा पढ़कर :-( फिर हमारे गुणी अनुज पंकज जी के जालघर पर भी कुमार गंधर्व के सुपुत्र मुकुल शिवपुत्र शराब के लिए भोपाल की सड़कों पर दो- दो रुपयों के लिए भीख मांग रहे हैं।
यह समाचार पढ़ कर मन बहुत आहत हो गया ।

माँ भगवती, देवी सरस्वती के साधक के पुत्र की यह दुर्दशा का कारण मदिरा है ! ? !
सुनकर, मन न जाने कैसा हो रहा है। माँ , पूजा स्वीकारें और एक भटके हुए पुत्र को अपनी दया से, पुन: स्वस्थ करें , ये मेरी सच्चे मन से की हुई प्रार्थना है।


याद आ रहा है मेरी कोलिज का सहपाठी दोस्त -- गुलजीत -- जो इसी तरह शराब और ड्रग्स के कारण , ३० वर्ष का होते ही , प्राण गँवा बैठा था ! :-((
कितना कुशाग्र था वह दुनियाभर की हर बातों से वाकिफ , मौजी, हंसमुख , मिलनसार और निर्भीक !
पर , शराब की आदत उसे ले डूबी ! माता , पिता हर प्रयास कर हार गये - रीहेब में भेजा
तो थोड़े दिनों तक सुधार रहा और फिर वही , गाडी, पटरी से उतरी .....और उतरती गयी ...और जान गयी !!
हम लोग सहम जाते थे उसकी बातें सुनकर और अपार दुःख होता था
आज वो नहीं है । परिवार वालों के दिल के टुकड़े हो गये मन तार तार
हो गया पर किसे दिखाई नहीं दिया ! :-((
क्या करना चाहीये ? है कोइ , जो अपने जीवन की व्यस्तताओं के बावजूद , 
समय निकाले, परिश्रम करे और डूबतों को सहारा देकर  हाथ थाम ले ?
शायद मधर टेरेसा इसीलिये महान हैं के अपने खिर्स्ती धर्म का पालन करते हुए,
उन्होंने अनगिनती रोगी और पीड़ित , समाज से तिरस्कृत , एक बहुत विशाल मानव समुदाय को हाथ बढ़ाकर थामा। हम में से कोइ , ( बातों के अलावा ) क्या कोइ ठोस कार्य कर पाता है ?
नहीं जी ये काम बहुत मुश्किल है ।
चलिए आज उत्सव है , रंग बरस रहें हैं । कहाँ ये दुखी करने और होने का राग अलाप रही हूँ !!
दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी। आप सभी को, वर्ष २०१० की होली के आगमन के पूर्व,
( फरवरी माह पूरा होने को है )
आईये स्वागत करें " मार्च " महीने का नये रंगों को लेकर आये , खुशियाँ बिखेरता हुआ आये ये कहते हुए , अभी आज्ञा लेती हूँ।मन का मेल धुल जाए और हर विषाद घुल जाए ये कामना करते हुए,
गुलाल का टीका , सस्नेह, माथे पर लगाए देती हूँ .............

-- लावण्या

Thursday, February 18, 2010

वसंत समये प्राप्ते , काक काक पिक: पिक :

हे ब्लॉग जगत के साथी , मित्रों ,
आप पर सदा विद्यादायिनी माँ सरस्वती देवी की कृपा रहे ।
बासंती ऋतु , यहां तो फिलहाल आ नहीं पायी
परंतु , बासंती मन , श्वेत्वस्रावृता सरस्वती देवी को प्रणाम कर , शीघ्र बसंत आगमन की प्रार्थना तो कर ही सकता है ...
हे माँ, आपके श्वेत धवल वस्त्रों की आभा , गगन से उतर कर , चतुर्दिक ,
परदेस की धरा पर , हिमपात के रूप में बिखर , मेरे मन में ,
आशा का संचार कर रहीं हैं ।
ऋग्वेद में आप ही पध्य रूपा हैं, यजुर्वेद में आप ही गध्य स्वरूपा हैं
और सामवेद में आप संगीत लहरी बन अवतरित हैं ।
बसंत पंचमी के आह्लादकारी सुखद दिवस में , आप पीले फूलों की पुष्प माल से शोभित हो , अपने मंगलकारी स्वरूप में दीखलाई देती हैं ।
मैं , आपकी कृपाकांक्षिणी ,
आपको बारम्बार प्रणाम करती हूँ
काक कृष्ण पिक: कृष्ण को भेद पिक काकयो
वसंत समये प्राप्ते , काक काक पिक: पिक :
( पूजा थाली और जी हां , ये नोट डॉलर का है ! :)
सुनिए ,
http://www.youtube.com/watch?v=j5t8kzbJVf4&NR=1&feature=fvwp
ॐ भूर्भुवः स्वः।
तत्सवितुर्वरेण्यम्, भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥
ऋग्‍वेद ३ .६ .२ .१० ; यजुर्वेद ३ .३५ , २२ .९ , ३ 0.२ , ३ ६ .३ ; सामवेद १३ .४ .३
भावार्थ: उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे ।
"May we attain that excellent glory of Savitar the god:
So may he stimulate our prayers।"
—The Hymns of the Rigveda (१८९६ ), Ralph T.H. Griffith
संस्कृत:
या कुंदेंदु तुषारहार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता
या वीणावर दण्डमंडितकरा, या श्वेतपद्मासना
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभ्रृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेष जाड्यापहा
हिंदी अनुवाद:
जो कुंद फूल, चंद्रमा और वर्फ के हार के समान श्वेत हैं,
जो शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं
जिनके हाथ, श्रेष्ठ वीणा से सुशोभित हैं,
जो श्वेत कमल पर आसन ग्रहण करती हैं
ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदिदेव, जिनकी सदैव स्तुति करते हैं
हे माँ भगवती सरस्वती, आप मेरी सारी (मानसिक) जड़ता को हरें
या देवी सर्वभूतेशु विद्यारूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
*******************************************
मेरी अन्तरंग मित्र , परम विदुषी डाक्टर मृदुल कीर्ति जी ने यह सुन्दर कविता से वास्तव में बसंत का स्वागत गान लिख दिया है
आप भी पढ़ें ...
स स्नेह,
- लावण्या
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हे ऋतु राज! स्वागतम गान,
षड ऋतुओं का ओढ़ ओढना
प्रकृति देती है कुछ ज्ञान
काल पतझरी, आज बसन्ती
सृष्टि क्रम यूं ही गतिमान
हे ऋतुराज ! स्वागतम गान.
धरनी की बासंती चूनर,
रवि किरणों की गोट लगी,
झरनें झांझरिया झनकाते ,
प्रकृति अब सौंदर्य पगी.
ले अनंत का शुभ संदेशा ,
उदित प्रफुल्लित है दिनमान .
हे ऋतुराज! स्वागतम गान.

मृदुल



मृदुल कीर्ति
www.kavitakosh.org/mridul



उनकी अप्रतिम रचनाएं माँ सरस्वती का प्रसाद सम हैं जिन्हें वे असीम परोपकार कर , सर्वजनहिताय बाँट देतीं हैं
रेखांकित रचना: श्रीमदभगवदगीता का ब्रजभाषा में मृदुल कीर्ति द्वारा काव्यानुवाद


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प्रस्तुत हैं , कुछ अमूल्य साहित्यिक कृतियों से , शब्द -भाव रुपी , लघु-चित्र
श्री कृष्ण उवाच : भगवद` गीता से
[ १ ]
पवन की गति में,
गन्ने की मिठास में,
धृत, ज्यूं दुग्ध में,
रस ज्यों फलों में
सुगंध ज्यों पुष्प में,
मैं, समाया, हर जीव में !

सूफी नज़्म : रूमी की
[ 2 ]
वो लहर जो अनाम सी
या, खुदा ए पाक सी
तोड़ कर जो बह चली
जिस्म के मर्तबान सी ,
टूट बिखरी हर कीरच में,
नूरे रोशनी , उस एक की ,
रवानी बहते दरिया की
डूबता , जा कर , सब , उसी में -


ऋग्वेद ऋचा: 'उषा'
[ ३ ]
स्वर्णिम रंग रक्तिम झीने
उषा के अरुणिम भाल पे
आभा आलोक का पटल
देवदूती , अप्सरा चित्र सम
खचित , दीव्य ग्रन्थ माला
हैं , द्रष्ट , दीशा आकाश में !

क्षुद्रक रचित "मृच्छकटिकम से"
[ ४ ]
कदम्ब पुष्प, मेघ जल से स्नात
स्खलित जिससे एक जल कण,
बह चला नर्म ग्रीवा मार्ग से,
सर्र ...सर्र ...सर र र ...
सुन्दरी के गुंथे केश पाश से,
अभिषेक है क्या किसी ऐसे
कुंवर का, उत्तराधिकारी जो
किसी महान राजवंश का?
*********************************

स्वर्ण ~ मृग मरीचिका
देख लिया मृग नयनी ने मृग
सफल हुई, माया मारीच की
स्वर्ण मृग भागे, पंचवटी के आगे,
राघव, लघु भ्राता, चकित, निहारें !
कहे जानकी, "आर्य ! मृग , स्वर्णिम ,
स्वामिन` करें आखेट , इस मृग का !"
बोले तब राम, "सुनो जानकी, यह माया
खेल रही बन मृगया , यह् भ्रम है !"
धनुष डोर कस, खड़े हैं , लक्ष्मण,
" आज्ञा प्रभू ! दे दूं क्या मुक्ति ?"
देख रहे अनुज को राघव,
स्नेहिल नयन से , मृदु बोले,
" जानकी , का आग्रह है,
मुझको ही जाना है भाई ,
तुम्हे सौप सुरक्षा, हूँ निश्चिंत !"
"जो आज्ञा .." कर बध्ध झुकाते शीश
लक्ष्मण को छोड़, चले राम रघुराई ..
आगे आगे, माया मृग भागे,
पीछे पीछे, मायापति, हैं जाते,
विधि विडंबना, विचित्र घटी ,
जीव के पीछे ईश्वर हैं जाते ...
शर संधान, छूटा ज्यों तीर ,
गूँज उठी कपटी पुकार वन में,
" लक्ष्मण ! हत हुआ मैं ! " ये कैसा स्वर ?
श्री राम का स्वर मृग दोहराता ..
लक्ष्मण चकित, जानकी सभीत ,
"देवरजी, दौडो , वे घायल हुए क्या?"
कह माँ जानकी , उठ खडी हुईं उद्विग्न
"माता ! यह् संभव नहीं हैं वे अजेय !"
प्रणाम करते लखन लाल हुए सम्मुख
"जाओ...लालजी , ना देर करो -
नाथ पुकारते, न अब देर करो"
कहें जानकी बारम्बार, चिंतित हो
लेकर ठंडी सांस, सौंप सब अब
विधि के रे हाथ, चल पड़े लखन,
खींची 'लक्ष्मण-रेखा' कुटी के द्वार
"माँ यह् सीमा सुरक्षित क्षेत्र की !
ना करना पार , चाहे कुछ भी हो जाए"
कह, चल पड़े लखन लाल जी उदास ,
"ठीक है, शीघ्र जाओ , वहीं जहां से
मेरे स्वामी का स्वर है आया"
सुन सीता की आर्त पुकार, चले
लक्ष्मण, लिए संग धनुष बाण
राक्षस मारीच मुक्ति पा रहा,
प्रभू दर्शन का सुफल जय गा रहा,
क्षमा प्रभू ! धन्य हुआ ..मैं नराधम
स्वयं ईश्वर शर से मेरा अंत हुआ !"
प्रभू राम हँसे, थी यह् लीला भी उनकी ही
प्रभू अयन, रामायण का यह् भी द्रश्य था
दिखे तभी लघु भ्राता आते हुए मार्ग पे ,
जान गए जानकी नाथ, आगे क्या होगा ,
नहीं रहेंगी जानकी, पंचवटी में , जब् ,
लौट कर जाऊंगा, दारुण व्यथा सभर,
रावण-वध के महा यग्न की प्रथम
आहूति , सीता मिलेंगी अग्नि कुंड से ..
- - लावण्या
http://words.sushilkumar.net/2009/09/blog-post_06.html

Wednesday, February 10, 2010

पापाजी , आपकी बिटिया , आपको सादर प्रणाम करती है और आपकी पुण्य तिथि पर : ११ फरवरी -

स्वर कोकिला सुश्री लता मंगेशकर
पँडित नरेन्द्र शर्मा की " षष्ठिपूर्ति " के अवसर पर , माल्यार्पण करते हुए
लता जी ने ये गीत पहली बार सार्क के स्था पना के अवसर पर गाया था । इसे लिखा था पंडित नरेंद्र शर्मा जी ने । ये गीत बाद में टी सीरीज के प्रेम भक्ति मुक्ति में शामिल किया गया था। दक्षेस की स्थापना के समय एक कार्यक्रम होता था दूरदर्शन पर जिसमें हर माह एक देश का कार्यक्रम होता था । ये गीत जब लता जी ने गाया था तो पाकिस्तामन के उनके लाखों प्रशंसकों को लगा था कि लता जी ने ये उनके लिये ही गाया है । पंडित नरेंद्र शर्मा जी द्वारा लिखे गये उस अमर गीत को पढ़ें ।

मैं केवल तुम्हारे लिये गा रही हूं
क्षितिज पार की नील झंकार बन कर
मैं सतरंग सरगम लिये आ रही हूं
मैं केवल तुम्हारे लिये गा रही हूं

सुनो मीत मेरे के मैं गीत ज्वाला
तुम्हारे लिये हूं मैं स्वर का उजाला
मैं लौ बन के जल जल जिये जा रही हूं
मैं केवल तुम्हारे लिये गा रही हूं

मैं ऊषा के मन की मधुर साध पहली
मैं संध्या के नैनों में सुधि हूं सुनहली
सुगम कर अगम को मैं दोहरा रही हूं
मैं केवल तुम्हारे लिये गा रही हूं

मैं स्वर ताल लय की हूं लवलीन सरिता
मैं अनचीन्हे् अन्जाने कवि की हूं कविता
जो तुम हो वो मैं हूं ये बतला रही हूं
मैं केवल तुम्हारे लिये गा रही हूं

मैं केवल तुम्हांरे लिये गा रही हूं
क्षितिज पार की नील झंकार बन कर
मैं सतरंग सरगम लिये आ रही हूं
मैं केवल तुम्हांरे लिये गा रही हूं
[मेरे गुणी , अति विनम्र भाई पंकज जी ने लता दीदी का गाया गीत
" मैं केवल तुम्हारे लिए गा रही हूँ " लिख कर भेजा है
उसे भी यहाँ स्थान दे रही हूँ ..
छोटे भाई को धन्यवाद क्या कहूं ?
आप भी पापा जी के, एक बेटे ही हो ..
उन्हें और उनके गीत को याद किया , वही सच्चा प्रेम है ]

पूज्य पापाजी की लिखी एक कविता " पल्लव दल सुकुमार "
[ हस्तलेखन मेरा है ]

श्री रूप सिघ चंदेल जी के कहने पर ये कविता भी यहां टाइप कर के रख रही हूँ

Roop Singh Chandel

Said :

लावण्या जी
पुत्री का अपने पिता का इससे अच्छा पुण्य स्मरण और क्या हो सकता है. आप द्वारा हस्तलिखित कविता और प्रस्तावना पढ़ना कठिन रहा. यदि उन्हें टाइप करके भी लगा देतीं तो अच्छा हुआ होता.
चले गये आत्मीयों की अक्ष्क्षुण स्मृतियां ही परिजनों का संबल होती हैं. टिप्पणी छोंड़ने का प्रयास किया लेकिन वह हो नहीं पाया.
सादर
चन्देल

पल्लव दल सुकुमार
लिपट गये तरु शाखाओं से पल्लव दल सुकुमार
इन्हें देख कर नई हो गयी मन में फिर मनुहार !

नई नहीं वह दबी कामना उभरी है जो आज ,
सुनो कुहुक में कोकिल की जो कहते हैं ऋतुराज
त्यागो पतित पीत पत्रों से विगत विवेक विचार !

वन विहारियों के पांवों में चुरमुर सूखे पात !
ललछौंही तरु छायाओं में गुपचुप मीठी बात !
पुष्पित है तन, प्राण पवन में मंद मदिर संचार !

अतल स्त्रोत प्रति रोम , स्नेह से प्राण मन सींच
मौन मुग्ध होगा वितर्क अब सुख से आँखें मींच !
छिड़ी कहीं आनंद भैरवी जाग्रत मनोविकार !

असमंजस तन दिया बंद कालिका ने , खोली आँख !
बरबस मन की कह देने को अधर बनी हर पाँख !
नभ में उड़ जाने को उत्सुक , आँखें पाँख पसार !

मुखरित हुई मेदनी , पाया फूलों में आभास
सौरभ के मिस गया संदेसा , गगन पिया के पास !
करती है अभिसार मृत्तिका , फूलों का श्रृंगार !
रचना : स्व. पंडित नरेंद्र शर्मा
पुस्तक : प्यासा निर्झर से


पूज्य पापाजी की लिखी प्रस्तावना
[ हस्तलेखन मेरा है ]
छायावादी कवियों के सिरमौर
श्री सुमित्रानन्दन पंत जी
पँडित नरेन्द्र शर्मा ,डा. हरिवँश राय बच्चन

" ही इझ नो मोर ! ११ फरवरी पापा की पुण्य तिथि -- "
एक पुरानी प्रविष्टी

[ ये चित्रोँ का कोलाज
लतादीदी ने अपने खुद खींचे चित्रोँ को सहेज कर बनाया और मुझे भेजा है
दीदी आपका बहुत बहुत धन्यवाद ]
..

हिंद के युवा हिमाद्री श्रृंग सिन्धु तीर के !
एक हैं अनेक भूमिपुत्र हिंद वीर के !
वनस्थली मरुस्थली गिरी नहीं पठार ,
सम असंम प्रदेश , सम समाज की पुकार !
भूमि पुराचीन , नित - नवीन है निखार ,
दृष्टि में भविष्य , मुक्त अन्तरिक्ष द्वार !
हिंद के युवा हिमाद्री श्रृंग सिन्धु तीर के !
एक हैं अनेक भूमिपुत्र हिंद वीर के !

कोटि कंठ कोटि नयन कोटि बाहू जन -
शांति वन समाधि पर खिले हुए सुमन !
शांत युद्ध, शांत दैन्य - दुःख का रुदन !
विश्वबंधु भाव से भरें भुवन भुवन !
हिंद के युवा हिमाद्री श्रृंग सिन्धु तीर के !
एक हैं अनेक भूमिपुत्र हिंद वीर के !

कोटि चरण , लक्ष्य एक, विश्व शांति है .
कोटि बाहू, लक्ष्य एक विश्व शांति है ,
कोटि कंठ स्वप्न एक विश्व शांति है
कोटि यत्न , मन्त्र एक विश्व शांति है
हिंद के युवा हिमाद्री श्रृंग सिन्धु तीर के !
एक हैं अनेक भूमिपुत्र हिंद वीर के !
रचियता : स्व. पंडित नरेन्द्र शर्मा
[संकलन : लावण्या ]
**************************************************************
आज १० फरवरी है . बाहर शीत का प्रकोप , भारी हिमपात जारी है और मेरा मन आज फिर बाहर
सूखी टहनी पर अटके एक बर्ड फीडर से दाना चुन रहीं , असंख्य चिड़ियों के आस पास उड़ रहा है ..
सोच रही हूँ, " पंख होते तो उड़ जाती रे ..."
प्रश्न : कहाँ उड़ कर पहुँचती ?
उत्तर : अपने शैशव के दरवाज़े पर ...
जहां मेरा बचपन गुजरा था
और उसी घर में अम्मा और पापा जी के साथ
बचपन बीता कर , युवावस्था में कदम रखे थे ....
फिर , विवाह हुआ , पुत्री सौ. सिंदुर व चि. सोपान का आगमन हुआ
पापाजी और अम्मा के रहते , कभी कोइ चिंता जैसे भाव , आया ही नहीं और आये तब
उनसे मन की बातें कह लीं और जी हल्का कर लिया...
यही तो होते हैं माता , पिता -
एक घनी छत्रछाया की तरह
जिनके रहते ना तो घनघोर वर्षा आपको डरा पाती है
न ही चिलचिलाती धूप , आप तक पहुँचने में , समर्थ रहती है -
- कितने सुखी थे हम लोग ऐसे दुर्लभ माता और पिता को पाकर !
ये हम जानते तो थे ही पर इस बात का गहन अहसास उन्हें खो देने के बाद
अधिक तीव्रता से अनुभव किया
आज उनकी यादें, उनकी कही बातें, उन की दी हुई सीख ,
हर छोटी छोटी बात, बार बार याद आतीं हैं और मैं,
मन मसोस कर आंसू पीकर रह जाती हूँ .
कितनी कोशिश करतीं हूँ के अब ये आंसू न बहें .....
पर जब् भी उन्हें याद करतीं हूँ , नयन श्रध्धा से बंद हो जाते हैं और न जाने कैसे
ये आंसू बह निकलते हैं .
आज , मैं स्वयं उमर के एक लम्बे अंतराल को पार कर चुकी हूँ.
जीवन के खट्टे , मीठे अनुभवों को भुगत चुकी हूँ
अरे ! नानी बन कर ये भी जान गयी हूँ के ,
एक शिशु के अस्तित्त्व में, कई पुरखों के आशीर्वाद भी , खेलते हुए देख रही हूँ
फिर भी, पापा जी और अम्मा की याद आते ही, मैं एक अबोध बालिका क्यों बन जाती हूँ ?
बार बार, दृष्टि उन्हीं को ढूँढती है ..
कहाँ गये पापा ? कहाँ हैं अम्मा ?
अभी आवाज़ दे कर मुझे बुलायेगी अम्मा
' ला व् णी.. ' ...
उनकी आवाज़ आज भी सुनायी पड़ती है ...
जो, सदा के लिए मौन हो गयी है .
और पापा जी की सौम्य मुस्कान और उनका स्नेह भरा स्पर्श ,
आज भी माथे को सहलाता महसूस कर पाती हूँ ...

परंतु जानती हूँ, " आज के बिछुड़े, हम , न जाने कब मिलेंगें ? '
शायद इस जन्म में तो अब कभी नहीं !
मेरे श्रद्धा सुमन अर्पित हैं उस पिता के चरणों पर
...जिनके चैतन्य स्वरूप ने, मुझे ,
ईश्वर से साक्षात्कार करवाया .
उनकी असाधारण प्रतिभा का आंकलन
मैंने कभी नहीं किया...
नाही ऐसी विद्वता का कोइ झूठा दंभ ही भरने की कभी चेष्टा की ..
मैंने उन्हें पिता के रूप में पाया ,
वही मेरे इस नन्हे जीवन का शायद परम सैभाग्य रहा है .
- ईश्वर, मेरे पापा जैसे , पिता ,
हरेक पुत्री के भाग्य में दें ये मेरी प्रार्थना है .
शरीर , नश्वर है आत्मा नित्य है -
- ईश्वरीय गुणों से संपृक्त होकर ही हर आत्मा ,
उसी दिव्य परमात्मा में समाहित हो पाती है .
अस्तु, यही प्रार्थना है के हरेक आत्मा
अपने गंतव्य को प्राप्त हो .
निर्बाध यात्रा अनत ब्रह्माण्ड में व्याप्त परम तेज में समाहित हो.
कितना कुछ लिखने को मन करता है --
और फिर एक गहन गंभीर मौन में , मन लीन हो जाता है .........
सो, आज इतना ही ,
पापाजी , आपकी बिटिया , आपको सादर प्रणाम करती है और आपकी पुण्य तिथि पर
आपकी यादों को सीने से लगाए ,आपके दीये हुए जन्म को ,
अपना जीवन , आपके सिखाये हुए आदर्शों को सहेजे हुए ,
आगे की यात्रा ,
ईश्वर के प्रति दृढ आस्था के संग ,
काटने का प्रण करती है ..
आशीर्वाद दीजिएगा ..
मैं , हूँ पापा, आपकी मंझली बेटी लावण्या

- लावण्या

" दर भी था थीं दीवारें भी , माँ , तुम से ही घर घर कहलाया "

[ ये गीत सुनकर अकसर मैं, बहुत ज्यादा भावुक हो जाती हूँ ]

फिल्म्: भाभी की चुडियाँ :

http://www.youtube.com/watch?v=v323AKmk5E0

स्व मुकेशचँद्र माथुर जी की दिव्य - स्वर लहरी , स्व पण्डित नरेन्द्र शर्मा के पवित्र शब्द और स्व सुधीर फडके जी का संगीत , परदे पे, स्व मीना कुमारी का सशक्त अभिनय , भाभी के अन्तिम श्वास , देवर का उनके समीप , पूजाभाव से , गीत गाते , रोना ..कुल मिलाकर , ये गीत , अंतर्मन को झकझोर देता है .

पुनश्च .

पूज्य पापा जी की पुण्यतिथि पर आप सभी ने मेरी भोली और नादाँन - सी बातों को सुना और मेरे साथ आपने भी मेरे पापा जी को याद किया उसके लिए आभारी हूँ .....

हिन्दी ब्लॉग जगत मेरे लिए , मेरे बिछुड़े परिवार की तरह है ..जो आज यहाँ दूर अमेरीका में बैठे हुए भी मैं आप की आत्मीयता को , आपके सौहार्द्र को , महसूस कर रही हूँ .....

मेरे गुणी , अति विनम्र भाई पंकज जी ने लता दीदी का गाया गीत " मैं केवल तुम्हारे लिए गा रही हूँ " लिखा कर भेजा है उसे भी यहाँ स्थान दे रही हूँ ..छोटे भाई को धन्यवाद क्या कहूं ? आप भी पापा जी के, एक बेटे ही हो ..उन्हें और उनके गीत को याद किया , वही सच्चा प्रेम है ...
गिरिजेश भाई , मैं , अकसर वर्तनी की गलतियां कर जाती हूँ --
आपने जितने शाद भूल - सुधार कर लिखें हैं उन्हें सुधार कर पुन: लिख दीये हैं -
- अत: आपका विशेष आभार और भविष्य में भी इसी तरह ,
मार्गदर्शन करवाते रहियेगा ..ये विनम्र प्रार्थना भी कीये देती हूँ ...
फिल्म " भाभी की चूड़ियाँ " वाला लिंक भी पुन: खोज कर सही कर के , रख दिया है --
अब अवश्य सुनियेगा -- आपका ह्रदय भी द्रवित हो जाएगा इस बात का विश्वास है --
- लावण्या