स्वयं ~ सिध्धा
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शताब्दियों की परते हटाते हुए , इतिहास के पन्ने हवा के मजबूत झोंकों में , फडफडाते हुए , ११ वीं शताब्दी के उत्तर भारत के एक ग्राम प्रांतर के सुन्दर घर के पास आकर ठहर गये हैं । समय का दर्पण, , स्वच्छ और साफ़ दीखलाई देने लगा है ।
मथुरा और वृन्दावन के मध्य में, बसा क्रिशन गढ़ गाँव, कालिंदी के तट पर बसा है . यमुना को , यहां के लोग कालिंदी ही पुकारते हैं ।
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शताब्दियों की परते हटाते हुए , इतिहास के पन्ने हवा के मजबूत झोंकों में , फडफडाते हुए , ११ वीं शताब्दी के उत्तर भारत के एक ग्राम प्रांतर के सुन्दर घर के पास आकर ठहर गये हैं । समय का दर्पण, , स्वच्छ और साफ़ दीखलाई देने लगा है ।
मथुरा और वृन्दावन के मध्य में, बसा क्रिशन गढ़ गाँव, कालिंदी के तट पर बसा है . यमुना को , यहां के लोग कालिंदी ही पुकारते हैं ।
क्रिशन गढ़ की प्रजा प्रसन्न है . वन प्रांत से लेकर , जहां बस्ती है , हर तरफ , आज चहल पहल है . वन के भीतर , घने पेड़ों की छाया , कदम्ब , बकुल और आम्र वृक्षों से आच्छादित , सूर्य की प्रखर किरणों को रोकने का मिथ्या प्रयास कर रही है ।
कहीं कहीं हरे हरे शुक और पिक, चिल्लाकर उड़ते हुए , मौन को तोड़ते हैं तो कहीं मयूर और कोयल की पुकार भी उनका साथ देती हुई सुनायी पड़ जाती है ।
मेंहदी और जूही के फूलों के वितान की शीतल छाया में , हिरन निर्भय हो कर खड़े हैं । कई तरह के पक्षी , अपने अपने घोंसलों में , आ , जा रहे हैं ।
किशन गढ़ के ठाकुर राय साँचा , अपनी प्रजा का , पुत्रवत पालन करते हैं । सूरमा सामंत वर्ग , अपने ठाकुर के प्रति समर्पित है और प्रजा को राजाज्ञा का पालन करवाने में , वे शौर्य और क्षमता, दोनों का , भली भांति उपयोग करते हैं । प्रजा में शांति है और ब्राह्मण वर्ग भी , संपन्न है ।
हर कुल की बस्तियां क्रिशन गढ़ में, भरे पूरे कुनबे समेत आबाद हैं ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय हैं ही, साथ में विपुल संख्या में , वैश्य वर्ग भी है । हर प्रकार के उद्योग , व्यापार - विनिमय से धनाढ्य , वैश्य वर्ग , ब्राह्मण देवताओं को तगड़ी दक्षिणा देकर, पुण्यशाली व संतुष्ट है ।
ऐसे ही एक कर्मकांडी , ब्राह्मण परिवार में, आज विवाहोत्सव हो रहा है .
दामोदर शास्त्री विद्वान , शास्त्र के मर्मग्य महापंडित हैं । वे , आयुर्वेद के ज्ञाता और वैद्यराज भी हैं । क्रिशन गढ़ के हरी मंदिर के दामोदर शास्त्री , महंत भी हैं ।
पूजन विधि, हवन, य़ग्न्य , विवाह, जनेऊ , दाह कर्म जैसे हर संस्कार को वे ही करवाते हैं ।
कृष्ण सेवा में, उनकी दूर दूर के गाँवों तक , प्रशंसा की जाती है ।
शास्त्री जी के , एक ही सुपुत्र है । ब्राह्मणी के, बड़ी उम्र में यह एकमात्र संतान हुई थी और प्रेमवश वे उसे, ' गोपु ' कहकर ही बुलातीं थीं ।
आज श्री कृष्ण का प्रसाद - सा ' गोपाल ' , दुल्हा बना है तो ब्राह्मण दंपत्ति के आनंद का , सागर हिलोर ले कर , सर्वत्र बह चला है ।
कितना सज रहा है गोपाल आज !
तीन सौ कोस दूर के गाँव , बेलापुर से आज ही नव विवाहीत बहूरानी को लिए , बारात , शास्त्री जी के घर लौटी है ।
तीन सौ कोस दूर के गाँव , बेलापुर से आज ही नव विवाहीत बहूरानी को लिए , बारात , शास्त्री जी के घर लौटी है ।
बहूरानी का नाम, ' सिध्धेश्वरी ' है । वह उच्च कुल की कन्या है । बहू का गाँव दूर भले ही था , यात्रा , थकावट भरी अवश्य थी परंतु, किसी यजमान के घर थोड़े ही न गये थे दामोदर पण्डित के थक जाते !
विष्णुदत्त व्यास जी ने , अपने आँगन पधारी बारात का , भव्य स्वागत सत्कार किया था । असली धृत से सने , खरबूजे जितने बड़े बड़े लड्डू , ब्याह के भोजन में परोसे गये थे और दाल, चावल , आलू का झोल, पूड़ी , चने का सालन और भी बहुत सारा पत्तलों में परोसा गया था जिसे बारातियों ने, आत्म संतोष मिलने तक, छक कर खाया था और सुस्वादु भोज के साथ पूर्ण न्याय किया था ।
बारात जब् चलने को हुई थी तब खीर भी परोसी गयी थी । बादाम , पिस्ता , छुआरे और इलायची डली खीर को, माटी के कुल्हड़ों में परोसा गया था जिसे एक एक बाराती के हाथों में थमाते , विष्णुदत्त जी , स्नेह विगलित हुए जा रहे थे ।
कई प्रकार के फल, मेवे , मठड़ी, पूड़ी , सूखे आलू और आमचूर भरे हुए करेले , लौटती यात्रा के लिए , रंगीन कपड़ों से सजे हुए , बांधकर , बड़े जतन से दिए गये थे ।
दामोदर शास्त्री जी की पत्नी वेदवती जी के लिए कई प्रकार की मिठाईयां भी बाँध कर साथ रखवा दी गयीं थीं । असली घी के घेवर, मोतीचूर के लड्डू, बेसन की बर्फी , मावे से बने , अर्ध चन्द्र आकार के गुझिया , बड़ी , पापड , रेवड़ी , तिल व गुड से बने , चौकोराकार , टुकड़े और भांति भांति के पकवान समधियों को आग्रह पूर्वक थमा दीये थे ...
जब् बारात चली तब समवेत स्वरों से यही स्वर उठ रहे थे
' अरे , वाह !! ब्राह्मणों में , ऐसा ब्याह कहीं होता है भला ? बहुत आवभगत हुई जी ...धन्य हैं विष्णुदत्त जी "
शास्त्री जी मन ही मन आनंदीत हुए सोच रहे थे,
' समधी बड़े ही स्नेही निकले ..राजा , सामंतों जैसा व्यवहार रहा ...जो हरि इच्छा ... यह हमारे आराध्य श्री कृष्ण की कृपा का फल है जो उन्ही के प्रसाद इस बालक को आज इतने अच्छे परिवार से , ये सुशील कन्या मिली है ...दोनों सुखी रहे ..फूले फलें ...'
और उनकी आँखें भर आयीं तो रेशमी धोती की आड़ में , मुख छिपाकर , उन्होंने , आँखें पोंछ लीं ...न जाने कब और कैसे , बैल गाडीयों पे सवार बरात और साथ चल रहे घोड़ों पर सवार रक्षकों के साथ बारात , दामोदर शास्त्री जी के घरद्वार पर आ पहुँची . गृह - प्रवेश की मंगल बेला आ पहुँची ....
वेदवती जी बहू का मुख आराम से , देखने के लिए लालायित हैं । गाँव की महिलाएं , आ गयीं हैं । बहू आस पास सरक आयीं हैं और घूंघट सरका कर, आशीर्वादों की झडी लगा दी ...
" दूधो नहाओ ..पूतो फलो " .." सिध्धेश्वरी , सदा सुहागिन रहो ! "
वेदवती जी ने बहू के द्वाराचार का मंगल कलश , बड़ी पीतल के थाल पर , सम्हाल के रखा और आ कर वे भी सगे सम्बन्धियों के मध्य बैठ गयीं ।
बेटे गोपाल की दुल्हन घर आ गयी । गोपाल को दूल्हे के भेस में देख , माँ के रूलाई , छूट गयी थी .. .बड़े से , पुराने पीतल के दिए में जल रही लौ , झीलमिला रही थी और सुख के अश्रू , गालों पर ढुलक आये थे । और मंगल कलश से , पवित्र कालिंदी के जल के छिडकाव के संग , अश्रू भी छिडक कर , बेटे , बहु , का अभिषेक करने लगे थे ... और नव दम्पति के चरण स्पर्श से विभोर होती वृध्धा ब्राह्मणी ने , दोनों को हाथों से खींचकर उठाते हुए, अपनी छाती से चिपटा लिया था । आनंद वर्षा में तन और मन , भीग गये थे । आशीर्वाद बरस रहे थे ।
सिध्धेश्वरी अब भी चरणों पर पडी है जानकार, वेदवती ने बहु को बलपूर्वक ऊंचे किया और सम्हाल कर खडा किया। नये धान के अक्षत चावल से भरे लकड़ी के बर्तन को बहू ने सीधे पैर से औंधा किया और द्वार के भीतर , बिखेर दिया । .श्वेत चमकते चावल, धुप में हीरक कनियों से आँगन के भीतर , खुले दालान में बिखरे तो , इकट्ठा हुए जन समुदाय के मुख पर मुस्कान पसर गयी। दहलीज पे , कुमकुम से अल्पना बनी थी उसे लांधकर नव वधु ने गृह प्रवेश संपन्न किया तो बधावा देते संनारीयों के स्वरों से , घर द्वार, आँगन , दालान गूँज उठा,
' बधाई हो वेदवती माँ जी, लक्ष्मी पधारीं हैं ...'
हंसी, आनंद - उल्लास से वातावरण रंगीन हो उठा । अब वेदवती, अपने लाडले गोपु को कसकर थामे, दूजे हाथ से बहु को बांहों में थामे, पूजा कक्ष की ओर चल दीं --
ब्राह्मण देव दामोदर शास्त्री जी की ख्याति , जितनी उनके दक्षता से , कर्मकांड विधि संपन्न कराने में , चारों दिशाओं में फ़ैली हुई थी , उतनी ही ख्याति उनके इष्ट देवता की भव्य प्रतिमा की भी थी ।
गाँव के बड़े बूढ़े , कहते थे कि, शास्त्री जी के पुरखों ने , न जाने, कितने ही बरसों पहले, यह प्रतिमा पायी थी । कोइ तो ये भी कहते थे के,
' मथुरा, वृन्दावन , द्वारिका या कोइ भी अन्य तीर्थ धाम के दर्शन कर आओ परंतु, जब् तक, शास्त्रीजी के गृह में बिराजी श्रीकृष्ण की मनोरम छबी के दर्शन , व्यक्ति ने न किये हों तब तक समझो कि, उसका मनुष्य जीवन, इस जनम में तो व्यर्थ ही गया !
कृष्णन गढ़ के ठाकुर की आलीशान हवेली में , निज मंदिर में भी कई सारीं एक से बढ़कर एक , भव्य देव प्रतिमाएं थीं । किन्तु, शास्त्रीजी के आवास पर विराजमान कृष्ण प्रतिमा की बात ही अलग थी। लोग कानाफूसी करते हुए अकसर कहते,
' ये प्रतिमा अलौकिक है देख नहीं रहे, प्रतिमा के मुख मंडल पर व्याप्त , अतिशय भव्य तेज को ! ऐसे , श्रीकृष्ण ! ऐसी मनमोहन छवि हमने तो देखी नहीं !
कोइ दबी जबान से ये भी कहता के,
' शास्त्री जी के पुरखे ने , यवनों और म्लेच्छों के आक्रमण के समय , इसे द्वारिका के मुख्य मंदिर के गर्भ गृह से, रातों रात गायब करवा दिया था । रात के अन्धकार में, दूसरी प्रतिमा को, मूल स्थान पे रखा गया था और श्रीकृष्ण के द्वारिकाधीश स्वरूप की प्रतिमूर्ति , अब शास्त्री जी के आवास में बिराजी हुई है। श्वेत, स्वच्छ वस्त्रों में, ढांप ढूंप कर , तेज चालवाली बैलगाड़ी को जोतकर, शास्त्री जी के पुरखे , महंत बाबा ने , स्वयं भी द्वारिका का त्याग किया था ..और अपने माहाराजाधिराज द्वारिकाधीश को बड़े जतन से, छिपाकर , दूर आसरा तलाशते हुए, कृष्ण गढ़ आ पहुंचे थे।
कई वर्षों तक, घटना क्या हुई थी उसका किसीको पता था । ७ पीढी पीछे जाते , श्री हरिहर शास्त्री जी ने पुनर्वास किया और ठाकुर ' यशोधर्मन ' के राज काज में , शनै शनै, धार्मिक क्रियाकर्म में , अपनी ख्याति अर्जित करना आरम्भ किया था जो आज, इस परिवार की धर्म पताका , हर दिशा में, उज्जवल , कीर्तिस्तंभ सी , द्रष्टिगोचर
थी । यशोधर्मन धर्मप्रिय और न्याय प्रिय थे। प्रजा सुखी थी . हरिहर शास्त्री जैसे वेदपाठी मर्मग्य ब्राह्मण के कृष्ण गढ़ में बसने से , वे प्रसन्न ही थे और प्रजा भी उन्हें यथोचित आदर दे , अपने को धन्य समझती थी ।
मथुरा से दूर, वृन्दावन से दूर, द्वारिका से भी दूर, अब कृष्ण गढ़ में कालिंदी के तट पर, सुरम्य कृष्ण गढ़ में , इस तरह यह दीव्य प्रतिमा , ब्राह्मण परिवार के नियमित पूजन अर्चन का केंद्र बन कर, प्रतिष्ठित हो गयी । सुरक्षित हो गयी ।
थी । यशोधर्मन धर्मप्रिय और न्याय प्रिय थे। प्रजा सुखी थी . हरिहर शास्त्री जैसे वेदपाठी मर्मग्य ब्राह्मण के कृष्ण गढ़ में बसने से , वे प्रसन्न ही थे और प्रजा भी उन्हें यथोचित आदर दे , अपने को धन्य समझती थी ।
मथुरा से दूर, वृन्दावन से दूर, द्वारिका से भी दूर, अब कृष्ण गढ़ में कालिंदी के तट पर, सुरम्य कृष्ण गढ़ में , इस तरह यह दीव्य प्रतिमा , ब्राह्मण परिवार के नियमित पूजन अर्चन का केंद्र बन कर, प्रतिष्ठित हो गयी । सुरक्षित हो गयी ।
यशोधर्मन ने एक दिवस पधार कर इस प्रतिमा के दर्शन कीये थे और मंत्रमुग्ध हो, वे विश्व के स्वामी , द्वारिकाधीश को एकटक निहारते ही रह गये थे। क्या आशंका उठी , क्या क्या मनोमंथन से मस्तिष्क उलझा ये उन्होंने प्रकट नहीं किया परंतु प्रजा के समक्ष , इस अनमोल प्रतिमा की अपने तन, मन और धन से सदैव रक्षा करने का प्रण ले लिया था । उनके वंशधरों के जीवित रहते, इसे आंच न आयेगी और इसकी रक्षा करते प्राणों की बाजी लगा देंगे ऐसा वचन , भरी सभा के बीच राजवी ने लिया था । प्रजा ने तुमुल हर्षनाद किया था ।
आज भी अपने अद्वितीय सौन्दर्य से , जन जन को श्रध्दा से नतमस्तक करने में समर्थ श्रीकृष्ण की अलौकिक छवि , आज वैसी
ही सुरम्य और सुद्रढ़ और मनोमुग्धकारी रूप - लावण्य लिए खडी थी ।
सिध्धेश्वरी, नववधू के सूप में सजी हुई , कसमसा रही थी कांप भी रही थी ।
पहली बार, अपने माता, पिता की शीतल छैंया को छोड़, नितांत अकेली, श्वसुर गृह तक आ पहुँची थी वह । कनखियों से , अपने पतिदेव को देखने की मिथ्या चेष्टा भी की थी उसने । पर वो उन्हें देख न पायी थी ।
सास जी दोनों के मध्य थीं । मानो , सूर्य और चंद्रमा के बीच माँ धरती खडी हों !
उसके माथे पर श्वेत और रक्तिम बिंदिया की लडियां , सजी थीं जो स्वेद कणों से मिलकर , उसके कपाल पर, फ़ैल गयीं थीं ॥
सिंदूर की बड़ी लाल बिंदिया , नाक पर बह आयी थी । ....नयनों में लगा काजल, रोते रोते, बह कर गालों पर फ़ैल गया था ।
कुछ महिलाएं उसे घूंघट उठाकर देखते हुए , हंस पडीं थीं । गोपाल तो था, चाँद का टुकड़ा और ये ' सिध्धा' उसके मुकाबले, सांवली ही थी । पसीने से लथपथ देहराशि, केसरी रेशम से बुनी जरी से काढ़े कसीदे की बनारसी साड़ी में , लिपटी हुई थी और वह अब बहुत थक गयी थी। हाथों में जेवर, भारी भारी कंगन, पैरों में मोटे पाजेब, बाजूबंद , गलहार, कर्ण फूल, अब सिध्धेश्वरी को चुभने लगे थे । वस्त्र तन से चिपकने लगे तो काटने लगे थे ।
पर वह क्या करती ? गठरी हुई , लाज से, धरा में गडी जा रही थी सिध्धा' । ये अवसर नव वधु के परीक्षा का समय होता है। नई नवेली , दुल्हन भी क्या बोलती है भला ? सिध्धा भी मौन साधे , सांस को शांत करने के प्रयास में , मूक प्रस्तर प्रतिमा सी , खडी है ।
तभी , मानो किसी स्वप्न में गूंजती, वेदवती जी की स्वर लहरी सुनायी दी,
" प्रणाम करो बहु , ये हमारे इष्ट देव हैं ।
हे श्री कृष्ण ! हे नारायण ! हे मुरली मनोहर ! आपकी सदा जय हो !! "
हठात` सिध्धा ने सारी औपचारिकता भूल कर, मान सम्मान की दुविधा भूल कर, द्रष्टि ऊपर को उठा ली ।
सामने श्रीकृष्ण को साक्षात खडा हुआ पाकर, वह अवाक` रह गयी ।
मनुज कद की, सजीव, सप्राण सी प्रस्तर प्रतिमा, उसे प्रकाश के वलयों में , झूलती हुई दीखलाई पडी ।
मनुज कद की, सजीव, सप्राण सी प्रस्तर प्रतिमा, उसे प्रकाश के वलयों में , झूलती हुई दीखलाई पडी ।
सिध्धा, के बालक मन ने , पलकें झपका दीं ,
- ' असंभव ! '
श्री कृष्ण तो उसी के नयनों में नयने मिलाकर उसकी दृष्टी को बांधे हुए , मुस्कुरा रहे हैं ~
' कहीं ऐसा हो सकता है ? '
सिध्धा की ह्रदय गति द्रुत गति से , तांडव करने लगी । तीव्रतर होती गयी । कलेजा मुंह को आने लगा । यह क्या ? ये तो मेरी ओर देखकर, मुस्कुरा रहे हैं !
साक्षात हो गये क्या श्री हरि ?
सिध्धा का मस्तिष्क चकराने लगा सांस फूलने लगी और वह मूर्च्छित हो उठी ॥
श्रीकृष्ण ने पलक झपकते , आगे बढ़कर, सिध्धा का हाथ थाम लिया उसके रोम रोम में असंख्य बिजली से संचालित ध्वनि स्पंदन - सी , झनझनाहट सी दौड़ने लगी ।
शरीर का रक्त संचार थम गया । नयन उठे और विशाल देव नयनों में समा गये।
सिध्धा को ऐसा लगा मानो जल के चक्रवात में डूबते, उतराते , वह अज्ञात , प्रकाश और अंधकार के वलय रूपी समुद्र में गोते खा रही डूबती
उतराती, किसी अनिर्वचनीय आनंद सिन्धु में डूब रही है।
उतराती, किसी अनिर्वचनीय आनंद सिन्धु में डूब रही है।
उसने नेत्र भींच लिए ।
' पगला गयी हूँ, मैं ! यह सत्य नहीं ...कोइ मृगतृष्णा है...
परंतु, अब भी एक शक्ति, उसकी कलाई थामे, समक्ष खडी थी, । उनके विशाल वक्ष पर , कौस्तुभ मणि की नीली, आभा दमक रही थी और वैजयंती माल से , रक्ताभ, नील और श्वेत कँवल पुष्प की सुगंध उठकर उसके नथुनों में व्याप्त थी ।
दीव्य नील वर्ण परम तेजस्वी रूपराशि के भण्डार सम तन से , चन्दन की केसर मिश्रीत दीव्य सुगंध , श्वास को अधीर कर रही थी ...और धरा पर , पीताम्बर के रेशमी दुकूल की आभा , ओजस्वी शत शत सूर्य से अधिक स्वर्णिम बनी, सहस्त्रों सूर्य को स्तंभित किये , लहरा रहीं थीं ॥
उसने कलाई को छुड़ाने की व्यर्थ चेष्टा की और कृष्ण हंस पड़े और असहाय सिध्धा , मूर्च्छित होकर , वहीं श्री चरणों पर गिर पडी ।
वेदवती जी जोरों से चिल्लाईं,
वेदवती जी जोरों से चिल्लाईं,
' अरी कोइ बहु को सम्हालो ..थक कर चूर हो गयी है ...
चलो चलो री , ले चलो इसे ...गद्दे पर लिटाओ मेरी बहु को ...'
कई हाथ , सिध्धेश्वरी को सम्हालकर , मखमली गाव तकिये से सजे मसनद तक ले आये और उसे आराम से लिटा दिया गया ॥
वेदवती जी स्वयं पंखा झलने लगीं ॥
मंगल कलश के शीतल जल के छींटे , सिधेश्वरी के मुख पर हलके से डालतीं हुईं वे बड़े प्रेमवश, सिध्धा की मूर्च्छना तोड़ने का प्रयास करने लगीं ॥
सिध्धा की आत्मा , स्वप्नलोक में विचरण कर रही थी।
उसके पार्थिव शरीर के आगेपीछे क्या हुडदंग मचा हुआ है, उसकी उसे क्या खबर ?
स्वप्न में सिध्धा ने देखा वह दौड़ रही है ।
- श्रीकृष्ण उसके आगे आगे भागे जा रहे हैं ।
वह चिल्ला रही है,
' रूक जाइए...प्रभू, रूक जाइए ...'
मूर्च्छित अवस्था में भी सिध्धा के हाथ ऊपर हवा में उठ गये और वह उन्हें रोकने के असफल प्रयास में अपने हाथ फैला रही है।
उन्हें रोकने का प्रयास कर रही है ...
परंतु श्रीकृष्ण बस एक बार ही मुड कर देखते हैं , हाथ हिलाते हैं जिस हाथ में मुरली थामे हैं ...मुरली हवा में लहरा उठती है और छवि अद्रश्य हो जाती है ..श्रीकृष्ण अंतर्ध्यान हो जाते हैं और सिध्धा सुबकने लगती है ।
वह पुन: जड़ जगत में लौट आयी है । झेंप कर उठ बैठती हुई सिध्धा से सास जी वेदवती जी पूछतीं हैं,
" थक गयी बिटिया ? लो प्रसाद खा लो सुबह से अन्न ग्रहण नहीं किया न तुमने , अब विश्राम करो ।
यात्रा भी लम्बी रही .......चलो, उठो ...शरमाओ मत बहुरानी ! "
अनायास हुए इस प्रकरण से हंसी ठिठोली करती हुई स्त्रीयों का समूह भी शांत हो गया है और वे सिध्धा को , उसके अपने खंड की ओर हाथ थामे , ले गयीं और बिस्तर पर बिठला दिया।
सिध्धा की वहीं पर बैठे हुए, आँख लग गयी ।
उसने पुन: श्रीकृष्ण की मधुर छवि को देखा ।
सिध्धा के मुख पर अनगिनत भावों की लहरी , उठने लगी ...
गोपाल अब भी बाहर , अतिथियों में घिरा हुआ बैठा है।
शास्त्री दामोदर जी के मंदिर के गर्भ गृह में, श्री कृष्ण की जाग्रत मूर्ति , हाथ उठाकर अपने महीन रेशमी उत्तरीय से , मस्तक पर प्रकट हुए , स्वेद कणों को पोंछते हैं ।
मुरली को, सुवर्ण की करधनी में , पुन: खोंस लेते हैं ।
इस एकांत क्षण में , ईश्वर की माया , लीला , स्वयं ठगी हुई , एक प्रज्वलित दीप के साथ खडी हुई देख रही है ।
आदेश का पालन करने को उतावली , माया आज स्तंभित है ।
' यह कौन सी माया रचने चले हो मोहन ? '
प्रश्न उसके अधरों पर , धरा रह गया ...
' ईश्वर , आप की माया को , कब, कौन जान पाया है ?
आप सर्वग्य हो । मैं आपकी चेरी हूँ प्रभो !
आप की लीला अपरम्पार है ..."
ये कहते हुए वह भी प्रस्थान कर जाती है ।
श्रीकृष्ण , सिध्धा के साथ भागते हुए स्वयं भी श्रमित हुए ....
श्रीकृष्ण , सिध्धा के साथ भागते हुए स्वयं भी श्रमित हुए ....
परंतु ईश्वर भी प्रसन्न हैं !
आज उनकी भगतन , सिध्धा , उनके समक्ष, नव वधु के रूप में आ पहुँची थी। ।
आज उनकी भगतन , सिध्धा , उनके समक्ष, नव वधु के रूप में आ पहुँची थी। ।
जीव, मुक्ति के द्वार तक आ पहुंचा था।
' सींच दूंगा तुम्हे प्रेम सुधा से ......
भिगो दूंगा रोम रोम को अमृत वर्षा में,
तुम्हारे प्राण , मुक्ति के द्वार के सोपान पर स्तंभित हैं ...
सिध्धा, आज से तुम, मेरे हुईं
जाओ ...आज के पश्चात , संसार के आवागमन से,
क्षणिक बंधन से मैं तुम्हे मुक्त करता हूँ ।
तुम सा प्रेम अंडाल ने भी मुझसे किया था ...
आज तुम्हारी बारी है ॥
अब तुम " स्वयं सिध्धा " बनोगी । "
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-- लावण्या
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