" उड़न तश्तरी " के मशहूर समीर लाल " समीर " जी
ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल
http://halchal.gyandutt.com/
नत्तु पांडे के साथ , झूले पर झूलिए
नेट पर फैला साइबरित्य :
ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल
http://halchal.gyandutt.com/
नत्तु पांडे के साथ , झूले पर झूलिए
नेट पर फैला साइबरित्य :
ये आलेख इन्होने लिखा और साहित्य और ब्लॉग पर लिखा जानेवाला आजके युग का जितना भी लिखा जा रहा है उसके लिए
ये नया शब्द सुझाया - " साइबरित्य "
" शहर बने। जब गांव शहर की ओर चले तो सबर्ब (Urban>Suburban) बने। अब लोग सबर्ब से साइबर्ब (Suburb>Cyburb) की ओर बढ़ रहे हैं। की-बोर्ड और माउस से सम्प्रेषण हो जा रहा है। नई विधा पुख्ता हो रही है। बन्धुवर, यह गांव/शहर या सबर्ब का युग नहीं, साइबर्ब ..."
टिप्पणियां [25] पसंद[5] बार पढ़ा गया[49]
ये नया शब्द सुझाया - " साइबरित्य "
" शहर बने। जब गांव शहर की ओर चले तो सबर्ब (Urban>Suburban) बने। अब लोग सबर्ब से साइबर्ब (Suburb>Cyburb) की ओर बढ़ रहे हैं। की-बोर्ड और माउस से सम्प्रेषण हो जा रहा है। नई विधा पुख्ता हो रही है। बन्धुवर, यह गांव/शहर या सबर्ब का युग नहीं, साइबर्ब ..."
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http://udantashtari.blogspot.com/
" उड़न तश्तरी " के मशहूर समीर लाल " समीर " जी
हिन्दी ब्लॉग से
जो कोई भी इतेफाक रखता है ,
उनके लिए ये नाम अपरिचित नहीं ! :)
ऐसा कहना शायद अंडर स्टेटमेंट हो !
उन्होंने भी प्रश्न किया था, के
" ब्लॉग और साहित्य में क्या फर्क है
कोई बताये "
आज पुराने कागजात सहेजते हुए,
एक पुरानी हस्त लिखित प्रति मिली है ।
षड लिँग व्याख्या :
(वही आप के समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ ! )
" उड़न तश्तरी " के मशहूर समीर लाल " समीर " जी
हिन्दी ब्लॉग से
जो कोई भी इतेफाक रखता है ,
उनके लिए ये नाम अपरिचित नहीं ! :)
ऐसा कहना शायद अंडर स्टेटमेंट हो !
उन्होंने भी प्रश्न किया था, के
" ब्लॉग और साहित्य में क्या फर्क है
कोई बताये "
आज पुराने कागजात सहेजते हुए,
एक पुरानी हस्त लिखित प्रति मिली है ।
षड लिँग व्याख्या :
(वही आप के समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ ! )
उपक्रमोपसँहाराव्भ्यासो पूर्वता फलम्`
अथर्वादोपपती च लिँग तात्पर्यनिर्णये
रचनाकार को अपने आलेख / कृति के विषय मेँ
६ मुख्य नियमोँ का पालन करना होता है ।
इसे षडलिँग व्याख्या कहते हैँ ।
इन छ: आयामोँ का विधिवत निरुपण होने से "कृति" सम्पूर्ण बनती है ।
१ ) उपक्रम : उपसँहार - यह प्रथम चरण है जहाँ विषय,
विवेचन सँबँधी कथ्य स्पष्ट हो जाने चाहीये ।
जिससे पाठक को विषय के बारे मेँ प्रथम " सत्य " ज्ञात हो सके आदि से कृति के अँत तक " एक समता " विषय सँबँधी रहे,
इसकी भी रचनाकार को सावधानी बरतनी होती है ।
२ ) अभ्यास : रचनाकार अपनी कृति के द्वारा विषय के " अभ्यास " का निरुपण करता है अपनी रचना / कृति मेँ, रचनाकार का क्या उद्देश्य रहा
है उस सत्य से कृतिकार पाठक को परिचित करवाता है
" विषय विवरण " क़ृतिकार की विषय के प्रति
समझ और विषय के अध्ययन व मनन से ही
" नव रचना " प्रकाश मेँ आती है ।
३) अपूर्वता : " नवीनता " हर रचनाकार अपनी रचना के माध्यम से
२ ) अभ्यास : रचनाकार अपनी कृति के द्वारा विषय के " अभ्यास " का निरुपण करता है अपनी रचना / कृति मेँ, रचनाकार का क्या उद्देश्य रहा
है उस सत्य से कृतिकार पाठक को परिचित करवाता है
" विषय विवरण " क़ृतिकार की विषय के प्रति
समझ और विषय के अध्ययन व मनन से ही
" नव रचना " प्रकाश मेँ आती है ।
३) अपूर्वता : " नवीनता " हर रचनाकार अपनी रचना के माध्यम से
कुछ नई बात कहने का प्रयास करता है।
ईश्वर ने हर प्राणी को "अपूर्वता " प्रदान की है ।
व्यक्ति विशेष है क्योँकि,
हर व्यक्ति अपनी अनूठी प्रतिभा , समझबूझ ,
विचारोँ तथा लाक्षणिकता क स्वामी है ।
रचनाकार भले ही पुराने कथ्योँ को दोहराये ,
रचनाकार भले ही पुराने कथ्योँ को दोहराये ,
पुरानी कहानी भी
हर नये कहानीकार के द्वारा नवीन स्वरुप मेँ
हर नये कहानीकार के द्वारा नवीन स्वरुप मेँ
उभर कर सामने आती है ।
४) परिणाम : कृति की रचना के अँत मेँ " फल " होना चाहीये
रचनाकार क्या कहना चाहता है ?
रचनाकार एक स्वतँत्र व सशक्त नया स्वर है ।
उसकी कृति समाज को क्या "सँदेसा " देना चाहती है ?
रचनाकार को समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्तव कृति
के "परिणाम " या " फल " द्वारा प्रतिपादित करना होता है ।
५) विस्तार : फल या कृति के विषय की अधिक जानकारी ,
४) परिणाम : कृति की रचना के अँत मेँ " फल " होना चाहीये
रचनाकार क्या कहना चाहता है ?
रचनाकार एक स्वतँत्र व सशक्त नया स्वर है ।
उसकी कृति समाज को क्या "सँदेसा " देना चाहती है ?
रचनाकार को समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्तव कृति
के "परिणाम " या " फल " द्वारा प्रतिपादित करना होता है ।
५) विस्तार : फल या कृति के विषय की अधिक जानकारी ,
कृतिकार को विस्तार से पाठक के सामने रखनी होती है ।
कृति के विषय - विशेष की प्रशँसा कृति मेँ निहित होनी चाहीये ।-
तभी रचनाकार अपनी कृति के विशय मेँ तथा विषय सामग्री के विषय मेँ ,
पाठक के मन पर गहरी छाप छोड पाता है ।
विस्तार से किया गया वर्णन, पाठक को आकृष्ट करता है ।
६ ) समापन - कृति को समेटते हुए रचनाकार को अपनी बात को पूर्ण करना चाहीये और अनेक प्रश्न या मनोमँथन पाठक के लिये छोडते हुए
कृति के विषय - विशेष की प्रशँसा कृति मेँ निहित होनी चाहीये ।-
तभी रचनाकार अपनी कृति के विशय मेँ तथा विषय सामग्री के विषय मेँ ,
पाठक के मन पर गहरी छाप छोड पाता है ।
विस्तार से किया गया वर्णन, पाठक को आकृष्ट करता है ।
६ ) समापन - कृति को समेटते हुए रचनाकार को अपनी बात को पूर्ण करना चाहीये और अनेक प्रश्न या मनोमँथन पाठक के लिये छोडते हुए
"इति " कह्ते हुए
अपनी बात को विराम देना भी उतना ही आवश्यक है
जितना उपसंहार से
कथानक का आरँभ करना होता है ।
एक कुशल रचनाकार इतनी बातोँ पर ध्यान देगा
कथानक का आरँभ करना होता है ।
एक कुशल रचनाकार इतनी बातोँ पर ध्यान देगा
तब अवश्य एक सर्वथा नवीन तथा उत्कृष्ट कृति की रचना सँभव होगी -
और हाँ समापन करते हुए ,
और हाँ समापन करते हुए ,
हम आप सभी को इतना ही कहेंगे ,
मज़े से लिखिए , आपका ब्लॉग है !
साहित्य के विभिन्न मठाधीशोँ तथा रखवालोँ के कोप से डरीयेगा नहीँ ना ...बस्स !
आप अपने मन की तरँगोँ को विश्व जाल पर
सुँदर फूल की तरह आरोपित कर दीजिये ॥
कहीँ दूर तलक इसकी खुश्बु ....जायेगी....
ऐसी हवा चली है ..
- लावण्या
ऐसी हवा चली है ..
- लावण्या
26 comments:
दीदी! आपने तो हमारी क्लास ले ली!
दी, बहुत सुन्दर आलेख और मेरे विषय में अंडर स्टेतमेन्ट नहीं, कुछ ज्यादा ही स्नेहवश ओवर स्टेटमेन्ट है. मैं तो अदना सा ब्लॉगर :)
एक बात:
मेरे सीमित ज्ञान के आधार पर उपक्रम : उपसँहार - यह प्रथम चरण है न हो कर प्रस्तावना यह प्रथम चरण है
एवं
समापन: यह उपसंहार होना चाहिये.
सही करियेगा अगर मेरी समझ गलत हो तो.
आलेख के लिए बहुत आभार.
मेरे विचार में आलेख का प्रवाह कुछ यूँ बनता है हालांकि साहित्य की जानकारी नहीं, विशेषज्ञ बतायेंगे विस्तार से:
प्रस्तावना, विवेचना, विश्लेषण, निष्कर्ष, उपसंहार.
थोड़ा देखियेगा!!
बहुत अच्छी जानकारी, हमेशा काम आयेगी. हमने छापकर अपनी डायरी में रख ली है, धन्यवाद!
लेकिन आज के श्रोता बहुत समझदार हो गए वो पूरी व्याख्या सुनना नहीं चाहते बस उनको लेखन का निचोड़ सूना दो ! इतना चाहते हैं!!
एक ज्ञानवर्धक आलेख की प्रस्तुति। समीर जी ने जो कहा उससे मैं भी सहमत हूँ।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
समीर भाई ,
सच कहूँ तो ये पूरा आलेख एक परम योगी "मोटा भाई जी " ने बहुत बरसोँ पूर्व लिखवाया था - और जैसा
वे बोलते गये, उसी तरह मैँने लिखा है बाकि तो कोई रीसर्च करके बतलाये ..सँस्कृत श्लोक के अनुरुप ही व्याख्या की गयी है -
स स्नेह,
- लावण्या
बहुत उम्दा निरूपण .
आपने तो साहित्य की पूरी शास्त्रीय विवेचना ही कर दी -सायिबर्ब शब्द क्यूट है !
अच्छी विवेचना।
आज तो आपकी क्लास मे आकर आनंद आगया. बस युं समझ लिजिये एक दिशा निर्देश मिल गया. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत बढिया जानकारी !!
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर...आपका लेखन साहित्य ही है...
नीरज
दिलचस्प रचना रोचक प्रस्तुति.
मजेदार और ज्ञानवर्धक प्रस्तुति!
दो नये शब्द और चिट्ठा साहित्य में जुड़ गये। ओह, चिट्ठा साहित्य नहीं कहना था साईबरित्य में।
ओ हां वे दो शब्द हैं साईबरित्य और साइबर्ब।
बहुत खूब।
ओह, गॉड! मैं तो बहुत मेहनत कर भी इतना बढ़िया न लिख पाता।
और ये दोनो चित्र मुझे प्रिय हैं - अपना भी! :)
बहुत दिनों बाद हिन्दी साहित्यिक विधा की नियमावली पढ़कर अच्छा लगा, आप लिखती रहिये इन मूल(बेसिक) जानकारियों की बहुत जरुरत है इस ब्लोगजगत को।
पढना एक भी आदत है ओर आदते कभी नहीं जाती .एक उम्र में आकर ओर नकचढ़ी हो जाती है....हमारी भी बुरी आदत है पढना .यहाँ तक की खाते वक़्त अगर कुछ पढने को न मिले तो खाने में स्वाद नहीं आता.....सो किताबे लाजावाब है ..वैसे जो अच्छा लगे पढ़ लेते है .कही भी लिखा हो..कम्पूटर पे......अख़बार में ......कही भी.....
bahot ही लाजवाब और बहुत अच्छी जानकारी, हमेशा काम आयेगी
बहुत सुंदर आलेख... वैसे साहित्य हो या ना हो हमें क्या :) हमें तो अच्छा लगता है वही पढ़ते हैं.
आजकल साहित्य बनाम ब्लॉगलेखन की बहस चल रही है। कुछ परम्परावादी साहित्यकार ब्लॉग पर लिखी जाने वाली सामग्री को साहित्य नहीं मान रहे हैं। मुझे आपकी क्लास के बाद इस मुद्दे पर अब कोई संशय नहीं रहा। ब्लॉग में भी पूरा साहित्य है जी। :)
बहुत ही अच्छी विवेचना की है.क्या कहूँ ..
इतना कुछ ऊपर सब ने कह दिया.
ब्लॉग साहित्य है या नहीं इस बहस में न पड़ते हुए हमें सार्थक लिखने की कोशिश जारी रखनी चाहिए, जैसा आप कर रही हैं.
आदरणीय लावण्या दी,
मैं अपने अल्प ज्ञान से आपसे सहमत हूँ और समीर जी से असहमत हूँ...!कोई भी साहित्यिक रचना का प्रथम चरण उसके अंत के बारे में निश्चय करना होना चाहिए.इसी को उपसंहार का उपक्रम कहा जाना चाहिए.सबसे पहले यह जानकार ही कि कृति अथवा रचना का अंत क्या होगा उसका दायरा तय कर सकते है.समीर जी के प्रस्तावना से उप संहार तक के चरण मेरे जैसे नौसिखिये को जरूर लाभ दायक होंगे पर साहित्य में उपसंहार सोचने में प्रथम और रचना के अंत में लिखा जाने वाला चरण है...
वैसे यह मेरी कमअक्ल व्याख्या है असल में क्या होना चाहिए यह तो कोई विद्वान ही बता सकता है..
आदरणीय समीर जी और आदरणीय ज्ञान जी के बारे में साइबरित्य में कौन नहीं जानता है...आपने उनके बारे में लिख कर हमारे जैसे पाठको की उनमे आस्था को मजबूत ही किया है.
प्रकाश 'पाखी'
Behatrin vishleshan...bloggars ke liye sukhad Post !!
मेरे ब्लॉग "शब्द सृजन की ओर" पर पढें-"तिरंगे की 62वीं वर्षगांठ ...विजयी विश्व तिरंगा प्यारा"
bhut hi sateek vivechna ki hai ham sbke liye pathykarm ho gya hai .
dhnywad
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