अम्मा
डा. सुनीति रावत जी की कविता :
माँ
बहुत दिनों बाद
बैठी हूँ, आँगन में, कुनमुनी धुप में,
आँगन मेरे बाबा का,
आँगन मेरी माँ का
किनारे खड़े पेड़, आडू खुमानी के
संतरे बुखारे के
खट्टे नीबू के , नन्ही निबोली के
माँ, कहती थी ,
खूब फल खाओ
' कच्चे या पक्के, फल ही तो हैं ! '
माँ होती तो , बो देती,
सब्जियाँ खेत में
बड़े पाटों वाली, हाथी कान राई
हाथ भर की लम्बी शंकर मक्का
मूली गोल गेंद सी
आलू, मेथी, पालक, हरी मिर्च, प्याज,
माँ थी तो तोड़ती
बडियां, मूंग उड़द की
बरौनी भर डालती , आचार, - मुरब्बे
माँ थी तो बेले थीं
छीमियों, कँकोडोँ की, तोरी - लौकी की,
तोड़ लाती सीताफल, पांच सात किलो का,
या लौकी हाथ दो हाथ की
काट देती बडी सी ककडी पहाडी
नमक - मिर्च बुरक देती
चटकारते हम
माँ थी तो कँडी भर, रख देती
खट्टे - मीठे काफल
बडा थाल भर
माँ थी तो साँझ घिरे
बना देती हलुवा, छेद करके बीच घी
रख देती चम्मच भर
माँ थी तो बनाती
पकौडे आलू - प्याज के
गुलगुले श्क्कर के
माँ थी तो बना देती
भरवाँ रोटी कुल्थ की, साबुत दालोँ की
रोटी मेँ रखती गुँदगकी भर मक्खन
आज उसी आँगन का
सूखा पेड
बगीचे की टूटी मेड
चौपाए, यहाँ - वहाँ के, जुगाली करते निरापद
माँ थी तो बँधी होती
चँदा या लाली, पैने सीँगोँ वाली
टिकने नहीँ देती, जो अजनबी चौपाए
माँ नहीँ है अब
भरे भँडारोँवाली
न पिता ही रहे, बरगद की छाँव से !
माँ रात बीते, यूँ ही ना जाने किससे कहती है,
" कौन चन्दा से भी ज्यादा सुन्दर है ? "
फिर खुद ही कहती है, " , चदा से प्यारा है मेरा राज दुलारा या राज दुलारी "
एक सैनिक बनकर देश के लिए कुर्बान होनेवाली माँ ,
अपने शिशु को देखकर,
पिघल जाती है और सीने से लगा ले, सारे सताप भूल जाती है
जब् दुल्हिन बनी कन्या , अपने जीवन का एक नया संधि काल मानकर ,
आगे बढ़ जाती है उस समय
अनगिनत सपने साथ लिए आगे निकल जाती है
पीछे बिछुडे स्वजनों की याद लिए , नये
परिवार को स्वीकार लेती है और संसार चक्र को गति देती है ...............
कहीं कोइ नन्ही - सी बच्ची भी, अपने से छोटे भाई या बहन की देखभाल करते वक्त , माता का रूप धर लेती है लोरी को मराठी भाषा में अंगाई कहते हैं - छत्रपति शिवाजी महाराज की माता जीजा बाई भी शौर्य और साहस से भरी कथाएँ अपने शिशु , शिवाजी को लोरी गाते समय सुनातीं थीं - पुर्रण काल में वीर अभिमन्यु की माता , सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी अर्जुन की पत्नी , श्री कृष्ण भगवान् की बहन सुभद्रा जी , अपने गर्भस्थ शिशु को वीरता भरी गाथाएं सुनातीं थीं और गर्भ में
रहते हुए ही, बालक अभिमन्यु ने चक्रव्यूह भेदन विद्या सीख ली थी -
महादेवी वर्मा हिन्दी भाषा की वाग्देवी हैं - उन्हीं की ये विलक्षण किन्तु , भोली सी , नादान सी रचना , देखिये
ठंडे पानी से नहलातीं,
ठंडा चंदन इन्हें लगातीं,
इनका भोग हमें दे जातीं,
फिर भी कभी नहीं बोले हैं।
माँ के ठाकुर जी भोले हैं।
यह तुकबंदी उस समय की है जब महादेवी जी की अवस्था छः वर्ष का थी। जब महादेवी जी पाँच वर्ष से भी कम की थीं तभी पिता जी राजकुमारों के कालेज इन्दौर के वाइस प्रिंसिपल नियुक्त हो गए और उन्हें सर्वथा भिन्न वातावरण मिल गया। घर माँ की लोरी-प्रभाती में मुखरित, धूप-धूम से सुवासित, आरती से आलोकित रहता था और बाहर बया के घोंसलों से सज्जित पेड-पौधे, झाडियाँ। संगी के लिए निक्की नेवला और रोजी नाम की कुत्ता और अबोधपन की जिज्ञासाओं के समाधान के लिए सेवक-गुरु ‘रामा’ रहते थे। माँ शीतकाल में भी पाँच बजे सवेरे ठंडे पानी से स्वयं स्नान कर और उन्हें भी नहलाकर पूजा के लिए बैठ जाती थीं। उन्हें कष्ट होता था और उनकी बाल बुद्धि ने अनुमान लगा लिया था कि उनके बेचारे ठाकुर जी को भी कष्ट होता होगा। वे सोचती थीं कि यदि ठाकुर जी कुछ बोले तो हम दोनों के कष्ट होता होगा। वे सोचती थीं कि यदि ठाकुर जी कुछ बोलें तो हम दोनों के कष्ट दूर हो जावें, पर वे कुछ बोलते ही नही थे।
या देवी सर्वभूतेषू, मातृ रूपेण सँस्थिता
विस्मयकारी है माता के विविध रूप - सँतान चाहे पुरुष हो या स्त्री , बेटा हो या बेटी, एक माता के ह्र्दय से उत्पन्न वात्स्ल्य रस एक समान ही दोनोँ के लिये बहता है - विश्व मेँ अगर माँ न होँ तब एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व का अभाव हो जायेगा - "शिव " शब्द से इ की मात्रा निकल गयी तब "शव " ही रह जायेगा - श्री कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति स्वरुपा राधा रानी के ना रहते , क्या दशा होगी ये भी अकल्पनीय है !
या देवी सर्वभूतेषू, मातृ रूपेण सँस्थिता
माता का यशगान महज धर्म नहीँ है बल्के, उसके परे की बात है - इसी कारण से हरेक रचनाकार ने माँ के लिये, अपनी जननी के लिये सर्वित्कृष्ट रचना का सर्जन किया है - सर्जन क्रिया मेँ ही ईश्वरत्त्व का वास है और हरेक माता के भीतर उसी परम तत्त्व की सुखद उष्मा है जिसे हर शिशु ने अपनी माता के आँचल की शीतल छाया मेँ महसूस किया है ...चुपके से, उस परम शाश्वती श्वेत धवल धारा से अभिसिक्त होकर मधुपान किया है -
स्त्री किसी भी कार्यक्षेत्र में क्यों न हो, माता बनकर , शिशु के लिए लोरी गाते समय, कितना गर्व महसूस करती है ये भी देख लें..................
20 comments:
माँ से बढ़ कर कौन है .इसलिए तो माँ को पृथ्वी से भी बडा दर्जा दिया गया है . सुंदर पोस्ट .
man ke bheetar tak anand ka sagar bhar gaya.
WAAH WAAH
इस दुनिया में माँ से बढ़कर कोई नहीं है . बहुत ही सुन्दर रचना और फोटो. आभार.
अत्यंत ही सुंदर और मनभावन चित्रों से सजी यह मां को समर्पित पोस्ट बहुत ही वंदनिय है.
प्रणाम है मां को. बस मां तो हर हाल मे मां ही है.
रामराम.
सुन्दर रचना और अति सलोने चित्र!
बहुत सारी चीजे समेटे होती है माँ..कभी भी जो शब्द पुराना ना पड़े वो शब्द माँ ही है.!
महादेवी जी कि इस कविता को कई बार याद करती थी, एक बार दूरदर्शन पर उनके इण्टर्व्यू में उन्होने ये बात बताई थी कि ६ साल की उम्र में उन्होने ये कविता लिखी थी और मैं मन मन खुश होती थी कि मैने भी पहली कविता छः साल की उम्र में ही लिखी है :)
भावपूर्ण जानकारी युक्त सुंदर पोस्ट...!
अजीब बात है .कल ही किसी किताब में पिता पर लिखी कई कविताएं पढ़ रहा था ....आज इस कविता को पढ़ा ...कुछ पंक्तियों ओर एक चित्र पर ठहर गया .जिसमे वो अपने छोटे भाई को संभाल रही है ....आज ही चार बच्चो की एक मां अपने नन्हे बेटे को मुझे दिखने आयी थी ...पति की म्रत्यु के बाद वो उसी के स्थान पे पर जॉब पर है....उससे पूछा फिर घर में कोई बड़ा है..बोली नहीं .१२ साल की बेटी है पांच बजे तक वही संभालती है.....जीवन कई अग्नि परीक्षायों का दौर है....
माँ थी तो बँधी होती
चँदा या लाली, पैने सीँगोँ वाली
टिकने नहीँ देती, जो अजनबी चौपाए
माँ नहीँ है अब
भरे भँडारोँवाली
न पिता ही रहे, बरगद की छाँव से !
माँ नहीँ है अब
भरे भँडारोँवाली
न पिता ही रहे, बरगद की छाँव से !
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माँ रात बीते, यूँ ही ना जाने किससे कहती है, " कौन चन्दा से भी ज्यादा सुन्दर है ? " फिर खुद ही कहती है, " , चदा से प्यारा है मेरा राज दुलारा या राज दुलारी "
बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना। वैसे भी विषय ऐसा है जहां कविता खुद-ब-खुद निखर जाती है।
यूट्यूब पर सुनें ये लोरी, मेरी अब तक सुनी लोरियों में सर्वश्रेष्ठ-
http://www.youtube.com/watch?v=3GdRDWDXeVI
शब्द लोकभाषा के हैं पर आसानी से समझ आ जाने योग्य हैं।
माँ को शब्दों में बांधना कहाँ संभव है ! जितना कहो कम ही है.
आपकी इस पोस्ट का जवाब नहीं !
Bhaav vibhor kar gayi aapki yah post.
Dr.Suniti ji kavita padhtey aisa laga...sabhi maanyen ek si hoti hain shayad!
Aap ka 'Chitron ka chayan to gazab ka hota hai hee.
bahut achchee prastuti.
लावण्या दी, आपने तो रुला ही दिया.......लेकिन यह रोना कितना सुखी कर गया...बता नहीं सकती.....
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण प्रेरणादायी आनंद दायक इस पोस्ट के लिए मेरा नमन स्वीकारें..
माँ के बारे में जितना कहा जाए कम है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बहुत सुन्दर !!माँ से बढ कर कोई नही।बहुत बढिया पोस्ट।बधाई।
मात्रेय नम:।
बहुत सुन्दर लिखा जी। यह पोस्ट तो सुन्दर फूलों का बुके लगती है।
bahut sundar post....
डा सुनीति रावत की कविता पढवाने के लिए आभार।
घुघूती बासूती
मां की याद आ गयी. करीब बीस साल से मेहरूम हूं ममतामयी दुलार और स्नेहमयी प्रेरणा से...
अब क्या लिखू, आप का लेख बहुत कुछ याद दिला गया, अब मेरी मां भी एक ऎसा दीपक बन गई है जिस की लॊ कभी भी बन्द हो सकती है, लेकिन मेरी समझ मै नही आता इस लॊ को केसे ज्यादा देर तक जलाये रखूं.
बस आज का लेख मेरे मन की गहराईयो मै उतर गया.
धन्यवाद
कविता, आलेख और महादेवी की बाल-कविता सभी कुछ बहुत अच्छा लगा, धन्यवाद!
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी!
antrman ko chu gai anrman ki post .
baDHAI
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