Monday, June 29, 2009

कोली : बंबई का मानसून और जल और जिनका जाल है जीवन

साहसी मछुआरिन महिलाएँ जो ज्यादातर मछली बेचने का काम किया करतीँ थीँ , वे , मछुआरीन अपने व्यापार मेँ इसी तरह व्यस्त रहतीँ हैँ ..
कोली कौम की कुलदेवी - एकवीरा देवी
बंबई में मानसून का आगमन हो गया है ये समाचार सुनकर खुशी हुई और मुझे फ़िर, मेरे शैशव के दिनों की याद आ गयी । बरसात , पागल - सी , वह बेकाबू दरिया और उसपे जब ज्वार आता है तब, जल, थल, नभ सभी एकाकार हो जाते हैं । वह याद आ रहा है । हमारे बंबई के ब्लॉग जगत के साथी , इस द्रश्य से वाकीफ हैं । आज भी , कोलेज से , बरसती फिजा में , भीगते हुए जुहू बीच पहुँचने की वह नादानी और मस्ती फ़िर याद आ रही है --

जब् से हम खार नामक उपनगर में रहने आये, अरबी समुद्र का सानिध्य
मेरे अस्तित्त्व के संग ऐसा जुड़ गया कि आज तक ,
मैं, उस की याद , दूर नहीं कर पायी हूँ -
बचपन की यादे :
पापाजी का घर १९ वे रास्ते पर था । उससे आगे , २०, २१ और २२ नंबर की सड़कें थीं । जहाँ, बने बस स्टाप पर, बृहन मुम्बई नगर पालिका की बसें रुकतीं थीं । २२ वे रास्ते के आगे का इलाका , डांडा , कहलाता था ।

इस इलाके की विशेषता यही थी के ये बंबई नगरी के मूल निवासी , मछुआरों की बस्ती थी बिलकुल समंदर की गोद में बसी हुई, खारे पानी के किनारे ऐसे सैट हुई थी की हमेशा दरिया के खारे पानी और हवा और मत्स्य गंध से लिपटी हुई एक अलग ही एहसास दीलाती थी।

यहाँ रहतीं थीं समंदर में , लकडी की नाव पर सवार होकर , अपने मछुआरे पति के संग कभी कभार , मछलियाँ पकडने जानेवाली साहसी महिलाएँ , जो ज्यादातर मछली बेचने का काम किया करतीँ थीँ । उनकी वेशभूषा भी ख़ास तरह की हुआ करती थी । जांघ तक की पहनी हुई साडी को , दो भागों में विभक्त किये पहनी जाती , कसी हुई चोली , रंगीन वस्त्र की और ऊपर , सुफेद दुपट्टा , जिस पे , फूल वाली बॉर्डर हुआ करती थी ।

कानो में भारी सोने के मत्स्य आकार की बालियाँ, गले में , गोल दानो की सोने की मनियां पिरोई माला और केशों को कसकर बांधा हुआ जुडा

जिसमेँ बगिया के सारे सुगँधी

और रँगबिरँगी फूल खोँसे हुए रहते थे :-)


इन मछुआरीन स्त्रियोँ की वेशभूषा , एकदम अलग लगती है । जिस को

" बोबी " फिल्म में राज कपूर ने बखूबी दर्शाया है !

हमारे घर भी एक कोली लड़की जिसका नाम था काशी ,

वो काम करती थी और ऐसी कोली साडी पहना करती थी और उसे हम जब देहली साथ ले गए तब बेचारी का जीना दूभर हो गया था । जो कोई उसे रास्ते में देखता , बस वहीं आँखें फाड़े , देखता रहता !

फ़िर , उसने , आम महिला की तरह साडी पहनना शुरू कर दिया ।

भारत में कितनी विभिन्नता है -- सच !


राज साहब के चेम्बूर के घर "देवनार फार्म " पर अकसर एक बहुत अमीर मछुआरे व्यापारी "राजा भाऊ " आया करते थे । ३ समुद्री जहाज (जिन्हें फिशिंग ट्राव्लर्स कहते हैं ) के राजा भाऊ , मालिक थे और लोब्स्टर , झींगा, पोम्फ्रेट जैसी फीश और केँकडे इत्यादी ताजा पकड़े हुए , राज कपूर के परिवार के लिए , भिजवाते थे।

प्रेमनाथ जो बोबी फ़िल्म में , नायिका डीम्पल के पिताजी के रोल में हैं , उनका चरित्र , इन "राजा भाऊ " पर ही आधारित है ।

डीम्पल कापाडीया ने भी उसी मछुआरीन सी शैली की साडी " बोबी " के कीरदार को जीते हुए , पहनी है ।

याद कीजिये इस गीत को,


" झूठ बोले, कौव्वा काटे , काले कौव्वे से डरीयो,

मैँ मायके चली जाऊँगी, तुम देखते रहीयो "

http://www.youtube.com/watch?v=GKF8UbndXfI

बंबई या आज मुम्बई नाम से जाना जाता ये महानगर , भारत के पश्चिमी किनारे पर बसा हुआ है । पहले यहाँ , ७ भूभाग थे , कोलभात , पालवा बंदर , डोंगरी , मज़गाँव, नयी गाँव और वरली , ये मूल सात टापू थे जिनके बीच की जमीन को समुद्र को पाट कर हासिल किया गया है और बहुधा जमीन खोदने पर , समुद्री जल तुरँत सतह तक आ जाता है । नारीयल के पेड़ तथा कई तरह के वृक्ष और पौधे यहाँ देखे जाते हैं ।


कोली प्रजाति के लोग, महाराष्ट्र , गुजरात, आंध्र प्रदेश और भारत के कई हिस्सों में बसे हुए हैं । महाराष्ट्र में बसे कोली जनजाति के लोग, क्रीस्चीयन या हिदू धर्मी हैं । वे मराठी भाषा से मिलती हुई कोली भाषा बोलते हैं । वसई में भी कोली बस्ती है ।

कोली प्रजा में , कोली, मंगला कोली , वैती कोली, क्रीस्चीयन कोली , महादेऊ कोली और सूर्यवंशी कोली के विभाग भी हैं ।


एकवीरा देवी इनकी मुख्य देवी हैं जो कार्ला गुफा में , आसीन हैं । चैत्र पूर्णिमा देवी पूजन का मुख्य दिवस है। नारीयल पूर्णिमा या राखी का त्यौहार कोली लोगों के लिए ख़ास दिन होता है जब अच्छे हवामान के लिए कोली लोग , समुद्र देवता की पूजा करते हैं और अपने धंधे की सफलता की कामना करते हुए , नारीयल , फूल और कुंकू से समुद्र पूजन करते हैं ।

दूसरा त्यौहार , जिसे कोली मनाते हैं वह है , होली !

जिसे वे " शिम्ग्या " कहते हैं और खूब प्रसन्नता से

यह उत्सव भी मनाते हैं ।


दँडकारण्य मेँ रहने वाले, वाल्मिकी ऋषि खानदेश महाराष्ट्र के निवासी थे और कोली लोग रामायण के रचियता को भी बहुत मानते हैँ ।

कोली संगीत काफी समृध्ध है -

ये रहा लिंक :

http://www.ideasnext.com/marathimusic/Koligeete-Vesavchi%20Sontikali/index.htm

मीनू पुरुषोत्तम और जयदेव जी की कला से बना ये पुराना और
खूबसूरत गीत भी सुनिए

शब्द हैं --
आँगन में बैठी है मछेरन ,
तेरी आस लगाए

अरमानों और आशाओं के लाखों दीप जलाए

भोला बचपन रास्ता देखे ममता कहे मनाये

ज़ोर लगाके कहे मछेरन , देर न होने पाये
जनम जनम से अपने सर पर तूफानों के साए

लहरें अपनी हमजोली हैं और बादल हम साए

जल और जाल है जीवन अपना क्या सरदी क्या गर्मी

अपनी हिम्मत कभी न टूटे रुत आए रुत जाए ।

क्या जाने कब सागर उमडे कब बरखा आ जाए

भूख सरों पर मंडराए मुहँ खोले पर फैलाए

आज मिला सो अपनी पूँजी कल की हाथ पर आ ये

तनी हुई बाँहों से कह दो लोच न आ ने पाये ....

http://www.youtube.com/watch?v=Ed-SmWhzCSU

Tuesday, June 23, 2009

गंगा मैया तोहे पिहरी चढ़इवो से .अमेरिका तक पद्मा खन्ना जी की जीवन यात्रा ....

पदमा खन्ना
ये हैं पदमा खन्ना
..............
देखिये इन्हे इस लिंक में , क्या ज़माना था वो भी,
जब पद्मादी ने सदी के महानायक अमिताभ के साथ
इस फ़िल्म में काम किया था ।
नाम था, "सौदागर "
पद्मादी , अपनी माता जी के संग ,
उत्तर भारत के शायद बनारस शहर से, कई,
उन्हीं की तरह
पहले अपना नसीब आजमाने आयी युवतियों की तरह ,
बंबई आ कर बसीं थीं और ये भी इत्तिफाक था के
हम लोग रहते थे पापाजी के बंबई शहर के खार उपनगर में स्थित
१९ वें रास्ते के घर में और हमारे आगे की सड़क २० वे रोड पे
एक फ्लैट में ,पद्मादी और मां जी रहने आ गयीं ।

आसपास , मोहल्ले में, लोग - बाग़, ये कहने लगे,
' ये लडकी , हिन्दी फिल्मों में काम करेगी । '
वे जब हमारे घर के सामने से गुजरतीं, इठलाती हुई चलतीं ,
तब हम बहने जोर से चिल्लाते ,
" हे गंगा मैया तोहे पिहरी चढ़इवो " .....
और वे मुस्कुरातीं हुई , हाथ हिलाकर हमें खुश करती हुईं चली जातीं !

शायद पहले पद्मादी ने, " गंगा मैया तोहे पिहरी चढ़इवो " ये भोजपुरी भाषा में बनी सबसे पहली फ़िल्म में भी एक छोटा - सा किरदार किया था ।

अब देख लीजिये पदमा जी को, शायद आपको भी , याद आ जाए के मैं किस नायिका कि बात आप से कर रही हूँ ....
लीजिये, देखिये ये लिंक , गीत भी देखिएगा
http://www.youtube.com/watch?v=thTjG0hwybc&feature=

एक और ....

http://www.youtube.com/watch?v=4O_Bf9p0syA&feature=channel
पदमा दी की याद आ गयी जब ये भोजपुरी फिल्मों पर आलेख देखा ।
नई सोच ब्लॉग से :

" भोजपुरी गीतों के साथ साथ फिल्मों के माध्यम से भी
आम लोगों तक पहुंचती रही है
जिसकी शुरुआत हुई सन १९६१ में बनी फिल्म
गंगा मैया तोहे पिहरी चढ़इवो से।

http://naisoch.blogspot.com/2009/06/blog-post_15.html

तब पुरानी यादों को आप तक पहुंचाने का मन बना ...
ये भी देखिएगा ,
http://www.youtube.com/watch?v=zSEShvkZfz0

पद्मा खन्ना का जन्म १० मार्च , को हुआ था।
भोजपुरी फ़िल्म " गंगा मैया तोहे पिहरी चढ़इवो " की
सफलता के बाद ही विजय आनंद को किए देवानंद के आग्रह से ,
इस नयी हेरोइन को फ़िल्म
" जोंनी मेरा नाम " में ,
प्रेमनाथ के साथ एक , आइटम सोंग के लिए ,
लिया गया और उनके डांस ने दर्शकों का ध्यान , बरबस खींचा ।
इसी के साथ , पदमा खन्ना का नाम हिन्दी फ़िल्म जगत में ,
बतौर , सह नायिका और डांसर के रूप में जम गया ।
कत्थक नृत्य शैली कि शिक्षा , पद्मादी ने ,
गुरु जी श्री गोपी कृष्ण से तालीम ली थी ।
रामायण , रामानंद सागर ने बनायी तब कैकेयी का पात्र
पदमा खन्ना को दिया गया ।
पदमा दी का संस्मरण : ( शेष - अशेष पुस्तक से )
" मेरी पहली मुलाक़ात श्री नरेंद्र शर्मा जी से १९६० - ६१ में हुई थी । बंबई आने पर पहला घर लिया उन्हीके तथा चरित्र अभिनेता जयराज जी के घर के सामने । परिचय हुआ, नजदीकियां बढीं और मेरी स्व। माता जी ने उन्हें भाई साहब कहना आरम्भ कर दिया।
आंटी जी और बच्चों से भी मुलाक़ात हुई । फ़िर ये दो महान विभूति ,
मेरे अंकल और आंटी हो गए। तथा , बच्चे मेरे छोटे भाई - बहन !

तब से हर मसले पर उनकी ( पापा जी की ) राय ,
महत्त्वपूर्ण स्थान रखने लगी ।
जीवन के हर अध्याय में, उनकी सलाह ,
मेरे लिए एक स्तम्भ का रूप बन गयी ।

जीवन में कई बदलाव आए ,
कितनी दुखद और सुखद घडियां और दिन आए ,
बीत भी गए किंतु हमारे और अंकलजी के रिश्ते में
कोई भी बदलाव नहीं आया ।

वर्ष में एक दिन ऐसा आता था जब मैं उनसे और आंटी जी से मिले बिना नहीं रहती थी । वह होता था दीपावली का शुभ अवसर !
उस दिन मैं उन लोगों कि चरण वन्दना करने अवश्य जाती थी ।
ऐसा लगता मानों पूरे वर्ष भर के स्नेह, प्यार और आर्शीवाद की बंधी गठरी खोल कर मुझ पर उँडेल देते
और मैं कृत्य कृत्य हो जाती !

पूज्य आंटी का सत्ताईस साल से देखा स्वरूप
सदा ये सोचने पर आ ठहरता
" हर सुहागिन की इतनी सुंदर और मनोरम छवि क्यों नहीं होती ?
गौरवर्ण ललाट पर सिन्दूर की ही लाल बिंदी ,
होठ पान की स्वाभाविक लाली से रचे हुए,
शुध्ध भारतीय रंगों वाली , सूती साडी के परिधान से
उनका व्यक्तित्त्व कुल मिलाकर ऐसा लगता ,
जैसे साक्षात किसी देवी के सामने खड़ी हूँ .... "

आज पद्मादी अमेरिका के , न्यू जर्सी प्रांत में अपने पति के संग रहती हैं ।
२ बेटियाँ हैं । शादी भी हो गयी है अब दोनों की और पद्मादी , यहाँ बसे भारतीय मूल के तथा दुसरे सभी बच्चों को , डांस सीखालातीं हैं ।
वे आग्रह करतीं हैं बच्चों से " शास्त्रीय नृत्य सीखो "
परन्तु, यहाँ के पेरेन्टस भी
बच्चों को स्टेज परफॉर्मेंस ही करवा कर ज्यादा प्रसन्न होते हैं !

१९९६ में पद्मादी की , Indianica Academy - आरम्भ हुई ।

जिसका पता है :
1165Green StreetIselinNew Jersey - ०८८३०

Phone: (732) 404-1900 , (732) 404-1901

Friday, June 12, 2009

फरिश्ता और शैतान (कल्पित कथा ) ~~~~~~~~~

" कालदँड "
छोटा शैतान
फरिश्ता और शैतान (कल्पित कथा )
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
एक बार यमराज के नरक लोक से एक बडा चालाक शैतान भाग निकलता है । वह एक लम्बी सुरँग से गिरता, पडता , एक भयानक काले, अँधेरे दरिया के पास रुकता है। वहाँ समय का ही दूसरा रुप " कालदँड" नामक नाविक, हरेक जीव की आत्मा को वह दरिया, जीवित अवस्था से जब जीव छूटता है तब , आगे पार करवाता है ।

उसने लम्बा चोगा पहना है । हाथ मे मोटी लाठी है । नाव मेँ धुँधली लालटेन भी एक तरफ लटक रही है ।
छोटा शैतान, कालदँड से कहता है, कि
" मैँने, अब यहाँ तक का सफर तय कर लिया है
अथ: अब तुम्हारा काम सबोँ को पार करवाना है,
सो मुझे भी पार करवाओ " --
" कालदँड " पूछता है,
" तुम कब लौटोगे ? "

छोटा शैतान, झूठा वचन देता है कि
' मैँ कुछ दिनोँ मेँ लौट आऊँगा ! '

अब कालदँड मन ही मन सोचता है,
" देवता लोग जाने कि इसका क्या करना है ! -
मेरा धर्म है नाविक का !
तब क्योँ ना मैँ इसे,
उस पार छोड कर ही आऊँ ? "

इस तरह छोटा शैतान, जीवलोक तक पहुँचने मेँ सफल हो जाता है -

नाव धीरे धीरे चल कर, प्रकाशमय सुरँग तक आ पहुँचती है
अब छोटा शैतान शरीर धारण करने की सोचता है ।

वह सशरीर एक २१ साल के जवाँमर्द का रुप लेकर
लोगों के बीच पहुँचता है ।
अब ..................
आगे क्या होगा -- ?
आप बतायेँ :)
आकाशवाणी और विविध भारती के विभिन्न कार्यक्रोमोँ के लिये पापाजी,
अक्सर गीत, नाटिका, रूपक वगैरह लिखा करते थे ..
ये उन्हीँ का लिखा हुआ रेडियो रूपक अँश प्राप्त हुआ है
जिसे प्रस्तुत कर रही हूँ ..
आगे कथा किस तरह बढती है,
उसके बारे मेँ अब याद नहीँ ..
शायद आप मेँ से किसीने सुना भी हो..
मेरी तो यही कामना है कि,
आप आगे की कथा, अपनी मर्जी के मुताबिक बढायेँ और साझा करेँ
आपके विचार के इंतज़ार में,
की आगे क्या , क्या हो सकता है ......

- लावण्या




Monday, June 8, 2009

या देवी सर्वभूतेषू, मातृ रूपेण सँस्थिता

अम्मा
डा. सुनीति रावत जी की कविता :
माँ
बहुत दिनों बाद
बैठी हूँ, आँगन में, कुनमुनी धुप में,
आँगन मेरे बाबा का,
आँगन मेरी माँ का
किनारे खड़े पेड़, आडू खुमानी के
संतरे बुखारे के
खट्टे नीबू के , नन्ही निबोली के
माँ, कहती थी ,
खूब फल खाओ
' कच्चे या पक्के, फल ही तो हैं ! '
माँ होती तो , बो देती,
सब्जियाँ खेत में
बड़े पाटों वाली, हाथी कान राई
हाथ भर की लम्बी शंकर मक्का
मूली गोल गेंद सी
आलू, मेथी, पालक, हरी मिर्च, प्याज,
माँ थी तो तोड़ती
बडियां, मूंग उड़द की
बरौनी भर डालती , आचार, - मुरब्बे
माँ थी तो बेले थीं
छीमियों, कँकोडोँ की, तोरी - लौकी की,
तोड़ लाती सीताफल, पांच सात किलो का,
या लौकी हाथ दो हाथ की
काट देती बडी सी ककडी पहाडी
नमक - मिर्च बुरक देती
चटकारते हम
माँ थी तो कँडी भर, रख देती
खट्टे - मीठे काफल
बडा थाल भर
माँ थी तो साँझ घिरे
बना देती हलुवा, छेद करके बीच घी
रख देती चम्मच भर
माँ थी तो बनाती
पकौडे आलू - प्याज के
गुलगुले श्क्कर के
माँ थी तो बना देती
भरवाँ रोटी कुल्थ की, साबुत दालोँ की
रोटी मेँ रखती गुँदगकी भर मक्खन
आज उसी आँगन का
सूखा पेड
बगीचे की टूटी मेड
चौपाए, यहाँ - वहाँ के, जुगाली करते निरापद
माँ थी तो बँधी होती
चँदा या लाली, पैने सीँगोँ वाली
टिकने नहीँ देती, जो अजनबी चौपाए
माँ नहीँ है अब
भरे भँडारोँवाली
न पिता ही रहे, बरगद की छाँव से !
माँ रात बीते, यूँ ही ना जाने किससे कहती है,
" कौन चन्दा से भी ज्यादा सुन्दर है ? "
फिर खुद ही कहती है, " , चदा से प्यारा है मेरा राज दुलारा या राज दुलारी "
एक सैनिक बनकर देश के लिए कुर्बान होनेवाली माँ ,
अपने शिशु को देखकर,
पिघल जाती है और सीने से लगा ले, सारे सताप भूल जाती है
जब् दुल्हिन बनी कन्या , अपने जीवन का एक नया संधि काल मानकर ,
आगे बढ़ जाती है उस समय
अनगिनत सपने साथ लिए आगे निकल जाती है
पीछे बिछुडे स्वजनों की याद लिए , नये
परिवार को स्वीकार लेती है और संसार चक्र को गति देती है ...............
कहीं कोइ नन्ही - सी बच्ची भी, अपने से छोटे भाई या बहन की देखभाल करते वक्त , माता का रूप धर लेती है

लोरी को मराठी भाषा में अंगाई कहते हैं - छत्रपति शिवाजी महाराज की माता जीजा बाई भी शौर्य और साहस से भरी कथाएँ अपने शिशु , शिवाजी को लोरी गाते समय सुनातीं थीं -
पुर्रण काल में वीर अभिमन्यु की माता , सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी अर्जुन की पत्नी , श्री कृष्ण भगवान् की बहन सुभद्रा जी , अपने गर्भस्थ शिशु को वीरता भरी गाथाएं सुनातीं थीं और गर्भ में
रहते हुए ही, बालक अभिमन्यु ने चक्रव्यूह भेदन विद्या सीख ली थी -
महादेवी वर्मा हिन्दी भाषा की वाग्देवी हैं - उन्हीं की ये विलक्षण किन्तु , भोली सी , नादान सी रचना , देखिये

ठंडे पानी से नहलातीं,

ठंडा चंदन इन्हें लगातीं,

इनका भोग हमें दे जातीं,

फिर भी कभी नहीं बोले हैं।

माँ के ठाकुर जी भोले हैं।

यह तुकबंदी उस समय की है जब महादेवी जी की अवस्था छः वर्ष का थी। जब महादेवी जी पाँच वर्ष से भी कम की थीं तभी पिता जी राजकुमारों के कालेज इन्दौर के वाइस प्रिंसिपल नियुक्त हो गए और उन्हें सर्वथा भिन्न वातावरण मिल गया। घर माँ की लोरी-प्रभाती में मुखरित, धूप-धूम से सुवासित, आरती से आलोकित रहता था और बाहर बया के घोंसलों से सज्जित पेड-पौधे, झाडियाँ। संगी के लिए निक्की नेवला और रोजी नाम की कुत्ता और अबोधपन की जिज्ञासाओं के समाधान के लिए सेवक-गुरु ‘रामा’ रहते थे। माँ शीतकाल में भी पाँच बजे सवेरे ठंडे पानी से स्वयं स्नान कर और उन्हें भी नहलाकर पूजा के लिए बैठ जाती थीं। उन्हें कष्ट होता था और उनकी बाल बुद्धि ने अनुमान लगा लिया था कि उनके बेचारे ठाकुर जी को भी कष्ट होता होगा। वे सोचती थीं कि यदि ठाकुर जी कुछ बोले तो हम दोनों के कष्ट होता होगा। वे सोचती थीं कि यदि ठाकुर जी कुछ बोलें तो हम दोनों के कष्ट दूर हो जावें, पर वे कुछ बोलते ही नही थे।

या देवी सर्वभूतेषू, मातृ रूपेण सँस्थिता
विस्मयकारी है माता के विविध रूप - सँतान चाहे पुरुष हो या स्त्री , बेटा हो या बेटी, एक माता के ह्र्दय से उत्पन्न वात्स्ल्य रस एक समान ही दोनोँ के लिये बहता है - विश्व मेँ अगर माँ न होँ तब एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व का अभाव हो जायेगा - "शिव " शब्द से इ की मात्रा निकल गयी तब "शव " ही रह जायेगा - श्री कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति स्वरुपा राधा रानी के ना रहते , क्या दशा होगी ये भी अकल्पनीय है !
या देवी सर्वभूतेषू, मातृ रूपेण सँस्थिता

माता का यशगान महज धर्म नहीँ है बल्के, उसके परे की बात है - इसी कारण से हरेक रचनाकार ने माँ के लिये, अपनी जननी के लिये सर्वित्कृष्ट रचना का सर्जन किया है - सर्जन क्रिया मेँ ही ईश्वरत्त्व का वास है और हरेक माता के भीतर उसी परम तत्त्व की सुखद उष्मा है जिसे हर शिशु ने अपनी माता के आँचल की शीतल छाया मेँ महसूस किया है ...चुपके से, उस परम शाश्वती श्वेत धवल धारा से अभिसिक्त होकर मधुपान किया है -


स्त्री किसी भी कार्यक्षेत्र में क्यों न हो, माता बनकर , शिशु के लिए लोरी गाते समय, कितना गर्व महसूस करती है ये भी देख लें..................


Tuesday, June 2, 2009

मिनी बिटिया की कहानी

जब हम इन्सानोँ के पास , ' निन्दिया रानी' आतीँ हैँ ....
तब्, उनकी सहेली 'सपना ' भी अक्सर चली आती है
और
हमें , उड़ा ले चलती है, अपने साथ और
नई नई दुनिया की सैर करवाने ले चलती है --

सोने का अनार
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
एक थी लड़की, मिनी नाम था उसका।

बड़ी शैतान और चुलबुली थी मिनी। सुबह उठते ही, सारा घर , सर पर उठा लेती थी। दादा जी , दादी, माँ, बाबूजी , बुआ, बड़ी दीदी , बड़े भैय्या , भाभी , छोटे चाचा सब की लाडली थी मिनी । खेल कूद में इतना मन था मिनी का के अकसर दिनचर्या भी ठीक से नहीं करती और माँ से डांट भी खाती !
एक दिन , घर के सभी बड़े , पासवाले मंदिर में , सुबह सवेरे उठ कर, माता रानी के दर्शन के लिए चले गए।

मिनी की आँख खुली तब वहां घर की महरी फुलवा ही थी.
फुलवा मिन्नतें करती रहीं की, ...

'बिटिया, दांत माँज ले ... चल इसनान करवा दूं ...'
पर मिनी कहाँ माननेवाली थी !
आज माँ भी नहीं थीं जो उसे , धमका कर ये सारे नित्यकर्म करवा लेतीं !
आज मिनी मनमानी करने पे उतारू हो गयी
खूब खेलती रही - आँगन से बाहर बगिया में दौड़ कर जा पहुँची और अमरुद से लदे पेड़ की डाली में पैर फंसा कर उल्टे सर खूब झूला झूली !
कभी बल देकर, ऊपर आती, पका अमरुद तोड़ती और वहीं डाल पे बैठे हुए, कुतर कुतर कर खाती तो कभी हरे हरे तोतों के चीं चीं के साथ खुद भी जोरों से वही दोहराती ....

आज मिनी ने छक्क कर अपनी मर्जी के मुताबिक , खेल खेले ।
शाम होने तक घर के सारे , मंदिर से लौट आये ।

माँ थकी हुईं थीं, फुलवा से
पूछा ' मिनी ने क्या किया दिनभर ? '
और फुलवा ने मिनी बिटिया का बचाव करते हुए , माँ से कोइ शिकायत भी नहीं की
रात का भोजन खाते ही मिनी थककर चूर हुई, जल्दी ही सो गयी !


गहरी निद्रा के आगोश में , मिनी ने देखा, उसकी खिड़की के बाहर, एक चमचमाता कांच का बड़ा गोलाकार यान आ कर ठहर गया है और उसका दरवाजा खुलते ही, एक सुन्दर परी रानी , हवा में तैरती हुई, मिनी के पलंग के सामने आकर खडी हो गयी !
मिनी आश्चर्य से उसे देखती रही --
परी रानी ने कहा,
" चलो मिनी, मैं तुम्हे चंदामामा के पास ले चलूँ ॥" ..

मिनी हवा से भी ज्यादा हल्का महसूस करते हुए, परी रानी के पीछे चल दी यान का दरवाजा खुला । वहां तख्त पर बैठते ही, यान का दरवाजा बंद हो गया और वह गहर नीले आसमान में तारों के बीच से उड़ते हुए, चन्दा मामा की ओर उड़ चली ।
चंद्रमा पूरी चमक के साथ गोलाकार और बहुत सुन्दर दीखलाई दिया ।

यान के रुकते ही परी रानी , मिनी को बाहर ले आयीं ।
मिनी देखती रह गयी !

चंद्रमा की धरती पर, बहुत बड़े , चांदी के पेड़ थे जिस पर सोने के अनार लगे हुए थे । वहाँ , पहाडियां पन्ने की बनी हुईं थीं और हर तरफ, रूई से नर्म बादल तैर रहे थे ।
तालाब में नीला जल था जिसमे , लाल कँवल थे और सुफेद हंस भी तैर रहे थे ! आहा ! कितना सुन्दर दृश्य था !
मिनी प्रसन्न हो गयी !
आगे देखा , सामने एक बड़ा राजमहल था जिसके कमरों में चोकलेट और केंडी के ढेर रखे हुए थे। रबड़ी से भरे सोने के बर्तन में गुलाब जामुन तैर रहे थे । समोसे, कचौडियाँ, नमकीन, लड्डू पेड़े, गुझिया, इमरती , बालूशाही , चमचम, रसगुल्ले, और भी ना जाने , क्या क्या रखा हुआ था !
वहां बाहर बगिया में झूले थे जहां कई सारे , मिनी की उम्र के बच्चे भी खेल रहें थे । मिनी खुश होकर दौडी और उनके साथ खेलने लगी ।

कुछ देर बाद सुमधुर वाध्य बजने लगा जिसकी आवाज़ सुनते ही कई सारी परियां उड़ती हुईं बच्चों के हाथ थामे , वहां आ पहुँचीं और सुनहरी परी ने ताली बजाकर बच्चों से शांत होने को कहा और बतलाया,

" अभी चन्दा मामा पधारेंगें साथ होंगीं उनकी माँ ! "
इतना कहते ही, एक बड़ा तख्त उभर आया और चन्दा मामा के संग उनकी माँ , बैठी हुई दीखलाई दीं ।

दोनों प्रसन्न थे और उनके मुख पर अपार तेज था -
परियों ने उनके समक्ष सुन्दर नृत्य किया ।
विविध प्रकार के वाद्यों पे संगीत बजने लगा और सभी बच्चे बहुत प्रसन्न हुए ।

अब चन्दा की माँ ने कहा,

" बच्चों, चाँद पर आप का स्वागत है ! आप आये , हमें खुशी हुई । अब घर लौटने का समय हुआ है । आप में से, जो बच्चा, अपना हर काम ठीक से करता है उसे आज हम, सोने का अनार, इनाम में देंगे ! इस अनार में मोती के दाने हैं । जो अपने अपने मोती से सुन्दर दांतों को रोज साफ़ रखता है, उसी बच्चे को , ये अनार इनाम में मिलेगा ! "


सभी बच्चे तालियाँ पीटने लगे और खुश हुए बस एक मिनी को छोड़कर !

मिनी उदास हो गयी ...
क्यूंकि वह दातुन नहीं करती थी -

वह बोलने लगी,
" मैं अब रोज दातुन मंजन करूंगी ...."

और हडबडाकर उठ बैठी ....
आह ! ये मिनी का स्वप्न था !

..............मगर इतना सच्चा स्वप्न था कि, अब मिनी ,
रोज दातुन करने लगी है ।
मिनी एक अच्छी बच्ची बन गयी है -
- लावण्या

ये कहानी मैंने , मेरी उमर ९, या १० वर्ष की थी तब लिखी थी । आज स्मृति के पन्ने पलटते हुए , लिख रही हूँ .............
आपके जीवन में , जो भी शिशु हों , उन्हें , सुनाईयेगा ......
मेरा स्नेह और आशीष भी दीजियेगा ।
ये तस्वीर हमारे नोआ जी की है ! मित्र की बिटिया ने ये पोशाक पहनी थी सो, उसे भी मन हुआ पहनकर देखने का - कोस्ट्युम "टीँकर बेल " की है और मुझे नोआ बहुत प्यारा लगा इसे पहने हुए ...

परी के से पंख लगाए, कितना निश्छल और पावन देखा उसे मैंने और मैं अपने बचपन के दिनों को याद करने लगी ।

ये कहानी " सोने का अनार " भी याद आयी और सोचा, आप सभी के संग साझा करूँ !
अंत में, आपके लिए एक गीत का लिंक दे रही हूँ - सुश्री अल्पना जी ने सुझाया है, ऐसे लिंक मेरे जालघर पर, लगाने की विधि बताई है परन्तु, अभी सीख नही पाई -
माफ़ कीजियेगा -
ये जब सीख लूंगी तब से , ऐसा ही किया करूंगी ! तब तक ...यही सही ॥
फ़िल्म है: काबुलीवाला
संगीत " सलिलदा का है --
बचपन के दिनों से आज तक, मुझे, ये गीत सुनना अच्छा लगता है --
अब , ऐसे , बच्चों पे केन्द्रीत , गीत क्यूं नही बनाते हिन्दी ज्यादा ? " तारे जमीन पर " अच्छे विषय पर आधारित है , परन्तु मेरा मत है के, बच्चों के लिए, नादाँ, पवित्र और मन को खुशी दे ऐसी फ़िल्म और गीत , संगीत बनाना बहुत जरुरी है ।
बचपन हो फूलों जैसा !
सुरक्षित हो , दुनिया जहाँ के ताप और गर्द से .दूर .........
फ़िर आगे जो भी आता है उसे , हरेक इंसान को भोगना ही पड़ता है ..........
क्यों न हम बचपन को , सबसे खुशनुमा पड़ाव रखें ?
प्रयास करें , के , हरेक बच्चे को, एक स्वस्थ और सुखी बचपन मिले .............
तब ये दुनिया कितनी सुंदर होगी !
काश हम इतना ही करें .............
अब ये गीत भी देख लीजिये ...
और थोड़े लम्हों के लिए,
आप भी शिशु बन जाइए ............
http://www.youtube.com/watch?v=iiO3k6NVwYo
स्नेह,
- लावण्या