आज अनायास द्रष्टि आम के लहलहाते पुराने पेड पर पसर गई। कई सालोँ से उध्यान मेँ डेरा जमाये खडा है । उसकी कई शाखाए फैल कर मानोँ अब अपने अभ्यस्त और चिर परिचित व्यक्तित्व से पूरित हो, परिवार के सदस्य की तरह , बाग को छोडकर, बारामदे से होकर, गैलरी के जरीये अँदर आने लगीँ हैँ ।
उसकी मुस्कुराहट ग्रीष्म ताप से खिलकर नन्ही नही अमिया मेँ बदल जाती और जैसे जैसे सूर्य नारायण प्रदीप्त होते जाते, उस पे लगे आम भी बडे होते जाते और लाल - सुनहरी हो जाते !
कितने मधुर फल थे उसके !
पूरा वर्ष भर हम, कच्चे आमोँ को अचारोँ मेँ सँजो रखते !
खिचडी या पराठोँ के सँग उनका स्वाद चटखारे ले ले कर सँतुष्ट होते और हमारा आम का पेड किसी दुही गई गौ की भाँति हिलता डुलता रहता -
कमी यही थी कि वो बोल नहीँ पाता था ...
पर मैँ हैरत मेँ पड जाती ये देख कर के जब कभी मैँ बहुत उदास होती,
दुख से भरी रात जैसे तैसे काट कर, सुबह जब नज़रेँ फेरती,
लगता मानोँ आम की पत्तियाँ ज्यादा हरी हो गयीँ हैँ !
जब कभी मैँ प्रसन्न होती, कई बार, दिन मेँ आम के पेड के सामने जाकर हँसती तब दूसरे ही दिन मुझे उसकी सबसे उपरवाली टहनी
नईँ नईँ कोमल पत्तियोँ से , नये जीवन से प्रस्फुटीत सी जान पडतीँ !
क्या मूक होते हुए भी ये पेड मानव मन से उद्वेलित तरँगोँ को ग्रहण करने मेँ सक्षम थे ?
शायद अपनी डालियोँ के हाथ पसारे, हमेँ, अपनी बाहोँ मेँ भरने ,
झूमता भी होगा, हमारा आम का पेड पर हमीँ अनजान,
उसकी भाषा को समझते नहीँ थे ।
माँ का आँचल थामे , भीड भरी राह के बीच , माँ से सटकर खडे शिशु की तरह दीखता स्वप्न !
उस स्वप्न मेँ सारे पेड मुझे जीवन्त जान पडते थे ! वे बोलते थे -
उनके मुख हमेशा उनके तनोँ मेँ हुआ करते थे ।
उपर की डालियाँ और पत्ते उनके सर के केश से लगते ।
नीचे की ओर झुकी हुईँ , भरी डालियाँ हाथ बन जाते ।
जो मुझे नमस्ते भी करते और उपर नीचे हिलडुल कर
अपनी बात कहते समय हाव भावोँ को दोहराने की चेष्टा भी करते थे !
आज मेरे बडे हो जाने पर भी , किसी गहरी निद्रा के क्षणोँ मेँ इस स्वप्न को मैँ, जरुर देखती हूँ ! मानससाश्त्री ना जाने इसका क्या अर्थ करेँ ?
उन्हेँ एकबारगी, घर के किसी सदस्य की जिद्द पर काट डाला गया !
मुझे न जाने क्योँ काफी तकलीफ हुई थी ।
मानोँ मेरे प्रिय जन का हाथ ही काट डाला हो किसी ने !
फिर कई दिवस लगातार बीते, मैँने उस तरफ, झाँका भी नहीँ -
मानोँ अपराधिनी मैँ ही थी !
फिर एक दिवस, किसी कार्य की समाप्ति के बाद, थकी हुई,
मैँ , अलसा रही थी ।
सोफे पर बदन निढाल, पैर सामने की मेज पर फैलाये, सुस्ता रही थी कि अचानक नज़र फिर हमारे आम के पेड से जा टकरायीँ ।
देखती क्या हूँ, कि , उसी कटे हुए तने से सुँदर सी , लचीली डाली, नये बादामी, और कुछ हरे चिकने पात , व्यवस्थित अँतराल पर सजाये,
हवा मेँ भाभी की गुड्डो की तरह ही , हवा मेँ मचल रही है !
और मैँ खुश हो गई !!
यही तो साक्षात्कार था प्रभु के बनाये जीवन से !
कैसी अदम्य शक्ति दे रखी है हर सजीवन प्राणी को
अपने आप को सँजोने की, बढाने की, विकसित करने की !
मृत प्राय: शाखा से जीवन के स्त्रोत सी उस छोटी टहनी ने
मेरे पूरे अस्तित्त्व को प्रभु के जीवन प्रवाह से उसी क्षण जोड दिया -
शायद मेरा हाथ कट जाता तो मैँ, वहाँ नन्ही सी ऊँगली ना उगा पाती,
किँतु पेड जो एक जगह स्थित है उसने बिलकुल वही करिश्मा
कर दीखाया था ।
जीवन विकसित हो रहा था , नये नये आयामोँ से
भविष्य स्पष्ट हो रहा था अतीत के अँधेरोँ से !
( १५ जुन, १९८९ )
ये लघु कथा अँतराष्ट्रीय हिन्दी त्रैमासिक "विश्वा " मेँ छपी थी ये जिसे आज यहाँ आप सब के साथ बाँट रही हूँ ।
रसीले , मीठे आम खाइयेगा और 'वृक्षोँ के राजा आम ' को याद करीयेगा जिनकी यादेँ मेरे मन मेँ मेरे भारत की छवि साथ जुडी हुई हैँ ~~
ये कथा मेरी ननिहाल (जिसका नामकरण पूज्य पापा जी ने किया था )
उस की बगिया में लगे एक ऐसे ही आम के पेड़ से प्रेरित है ।
नानी जी , माने मेरी 'बा !
जिनका नाम था श्रीमती कपिला गुलाबदास गोदीवाला !
बा जी का घर, माने मेरा ननिहाल, वही घर है... जो बम्बई के एक प्रसिध्ध उपनगर - बान्द्रा मेँ, बान्द्रा टाकिज़ के ठीक सामने,
विवेकानन्द मार्ग पर स्थित , सन १९०० में बना पुराना सा एक घर है !
शायद आज भी ...........होगा ,
( सुना है अब बिक गया है ...बहुमँजिला आधुनिक मकान वहाँ बनेगा और एक नया स्मारक बन जायेगा ..! )
पहले ये घर , पुराने जमाने की मशहूर गायिका 'राजकुमारी ' का आवास था और वे उसे निजी कारणोँ की वजह से बेचना चाहतीँ थीँ ।
( राजकुमारी जी की एक पुरानी फ़िल्म "स्वामी " के गीत का लिंक दे रही हूँ --
गीत : क्रम २ " बिरहन जागे आधी रात " सुनियेगा )
http://www.indianmelody.com/old1940s2.htm
http://www.desimusic.com/songs/singer/7285/rajkumari.html
http://www.desimusic.com/songs/singer/7285/rajkumari.html
उसे खरीदने का समय आ पहुँचा था और इत्तफाक से उसी समय ,
मेरे नानाजी सेन्ट्रल रेल्वे की एक लम्बी अवधि तक की गई नौकरी से
रीटायर हो रहे थे ।
कई शहरोँ का तब तक वे , दौरा कर चुके थे ।
गँगानगर, रतलाम, और आग्रा के स्टेशन मास्टर भी रहे थे ।
फिर चीफ वेगन इन्स्पेक्टर की हैसियत से काम करते रहे थे और रेल्वे क्वार्टरोँ कई बरस रहे थे । ये सरकारी आवास , विशाल हुआ करते थे अकसर कई सारे नौकर - चाकर भी साथ मिला करते थे ।
अब नानाजी अपने निजी गृह मेँ स्थायी होना चाहते थे ।
उन्हेँ इस घर के बारे मेँ जब खबर मिली तो उन्होँने उसे खरीदने का मन बना लिया ।
मुझे अम्मा ने बतलाया था के , उस वक्त , पेन्शन का आधा हिस्सा उसी मेँ लगाया गया था और मेरे मझले मामाजी शम्भु गोदीवाला जी उसी समय लँदन से टेक्सटाइल इन्जीनीयर बनकर फिर भारत लौट आये थे । उन्होँने भी बाकी के पैसे बा - नानाजी को दीये और घर मेँ बडे मामाजी बालकृष्ण, उनकी धर्मपत्नी धन गौरी मामीजी तथा ३ पुत्रियाँ बडी माधुरी, दीपिका और रचना वहाँ साँताक्रुज के रेल्वे क्वार्टर से रहने जाने के लिये निकले । ( शम्भू मामा ओपेरा हाउस में आज भी रहते हैं )
तब तक अम्मा तथा पापा जी भी हमारे खार स्थित आवास से पहुँच चुके थे और पापाजी ने बा से कहा
" बा, आप ही के नाम पर इस घर का नाम " कपिल्वस्तु ' रखेँ ! "
पापाजी के ज्योतिष तथा पुराण व भारतीय ग्रँथोँ के ज्ञान से बा तथा पूरा गोदीवाला परिवार यूँ भी बेहद प्रभावित था और झट उस नाम को सर्व सम्मति से स्वीकार कर लिया गया !
- यही 'कपिलवस्तु ' मेरे शैशव की स्मृतियोँ का केन्द्र स्थान रहा है !
हमारी बा ४ थी कक्षा तक पढीँ थीँ किँतु इसी घर से बान्द्रा कोँग्रेस पार्टी महिला शाखा के प्रधान मँत्री पद पर कई बरसोँ तक महिलाओँ के उत्थान के लिये कपिला बा ने काम किया था । नानाजी तथा बा खुद खादी के कपडे सूत से , चरखे पे काँत कर बनवाते और वही पहनते थे ।
सिलाई कक्षा आरँभ करवाने से लेकर ' आनँद मेलोँ ' का सफल आयोजन भी बा किया करतीँ थीँ ।
जिसमेँ २०० से ज्यादा महिलाएँ हमारे ननिहाल 'कपिलवस्तु ' के बडी बगिया मेँ विविध प्रकार के खेल खेला करतीँ थीँ । गरबा भी होता था और सारी स्त्रियोँ को १० पूडियाँ और आलू की सूखी सब्जी लानेको कहा जाता था जो २ बडे हाँडोँ मेँ , आते ही एक साथ मिलाकर रखा जाता था और खेलकूद और गरबा हो जाने के बाद , सभी के घर का खाना एक साथ मिलकर इतना स्वादिष्ट हो जाता था कि आज भी मेरे मुँह मेँ उस भोजन की याद करते हुए, पानी आ रहा है ! :)
दसहरे के दिन सुबह से बहुत बडे पीत्तल के २०० किलो घेऊँ भरनेवाले पीपे को धुलवाकर उसमेँ शीतल स्वच्छ जल भरवाया जाता था ।
बडे मामाजी बालकृष्ण जी जिन्हेँ हम सभी 'बाबर मामा ' पुकारते थे :)
( क्यूँकि वो पेहलवान किस्म के थे :) उसमेँ बर्फ की बडी सी शिला भी डलवाते थे और दसहरे का मेला जो बम्बई के इस मुख्य मार्ग जो बम्बई शहर को गोरेगाँव से चर्चगेट तक शरीर की मुख्य धमनी की तरह ठीक बीच से गुजरकर जोडे रखता है वहाँ उत्तर प्रदेश से आये सारे लोग दसहरे के दिन 'रावण का मेला ' मनाने के लिये उमड पडते थे । उत्तर प्रदेश से आये लोग या तो साग सब्गी या दूध के व्यापारी हुआ करते थे और उन्हेँ अक्सर, "भैयाजी " कहा जाता था -
उन सभी को हम लोग, ऐसा शीतल जल पिलाते और झूठे गिलास साफ करते -
ये मेरी नानीजी 'बा' का सालाना प्रोग्राम था और वे मेरी अम्मा को कहतीँ :,
" देख सुशीला , ये सारे तेरे समधी लोग आये हुए हैँ " :)
( क्योँकि अम्मा ने उत्तर प्रदेश के पुत्र "नरेन्द्र शर्मा ' से ब्याह जो किया था !! )
कई सारी यादेँ हैँ फिर कभी सुनाऊँगी ..आज इतना ही ..- लावण्या
23 comments:
बहुत सुंदर यादें बचपन की। इन्हें पढ़कर मेहंदी हसन की गाई ग़ज़ल याद आई....
कोंपलें फिर फूट आयी हैं, कहना उसे ....
आपका आलेख पढ़कर मैं यह सोचने लगा कि हम भारतीय रिश्तों को कितना महत्व देते हैं। और, इन रिश्तों का आयाम कितना व्यापक होता है। धरती, आकाश की सारी सजीव-निर्जीव चीजों से हमारा भावनात्मक लगाव ऐसा होता है कि आजीवन हमारी स्मृतियों में उनकी महक बसी रहती है। कई पीढियों को अपनी शीतल छाया व फल दे चुका एक वृक्ष हमें हर पल हमारे पुरखों का अहसास कराता रहता है और हम उनकी पावन स्मृतियों से जुड़े रहते हैं।
आपका आलेख सुंदर है ही, चित्र भी कम मनमोहक नहीं हैं। चिरंजीवी नोआ वाली पिछली पोस्ट के चित्र भी मन मोह लेते हैं।
यह छतनार आम्र वृक्ष कितना मनोहर है -हापुस है या केशर ? यह भी तो बताएं ?
Arvind bhai,
Ye Hapoos Aam ka ped hee tha Meri Nani ji ke Gharwala
( sorry to post in English - I am away from my PC )
Aapke blog per na jane kaise aai...aur khatti mithi amon ki tarah ye yaden padhkar achha laga.
Lavanya Di
Pondring the memories of childhood in such wonderful manner!Beautiful word may not be enough!
Thanx for sharing.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
आपके सभी पोस्ट के चित्र बड़े मनमोहक और सजीव होतें हैं ,और आलेख भी दमदार ..
हमेशा की तरह एक सुंदर और बहुत ही नायाब चित्रों से सजी पोस्ट. आपके बचपन की यादें बहुत प्रवाहमयी भाषा मे पढना अच्छा लगा.
आपने आम पेड सपने मे दिखने की बात कही है तो किसी भी फ़लदार वृक्ष का इस तरह लहलहाते हुये दिखाई देना एक शांत और ऐश्वर्यशाली जीवन की तरफ़ इंगित करता है. बहुत अच्छा स्वपन्न है ये.
रामराम.
आपको तो कल क़ी ही बात लगती होगी ना..
इस संस्मरण को पढ़ कर बहुत आनंद आया.'कपिलवस्तु के बारे में जाना.अब भी सब बीते कल की बात जैसा लगती होगी?
आप की नानी जी से आप की इन यादों के जरिए मिलकर अच्छा लगा.
आम के पेड़ की शाखायों के काटने पर हुई पीडा जानकार जाना कि प्रकृति से आप का प्रेम अद्भुत है.
आप ने अपनी यादों को हमसे बांटा ..abhaar
ए मलीहाबाद के रंगी गुलिस्तां अलविदा
आम के बागों में जब बरसात होगी पुरखरोश
जैसी कई पंक्तियां है जो आमों से जुड़ी हैं । मेरे बचपन की भी ढेरों यादें हैं आमों के साथ । वो पहली आंधी में दौड़ पड़ना कच्ची केरियां और पक्की साखें बटोरने । आज के बच्चे नहीं जानते कि वे क्या खो चुके हैं ।
बहुत मीठी सुन्दर यादें बांटी है आपने ..अच्छा लगा इसको पढना
सच !कहते है हर इन्सान एक समंदर है जाने कितना कुछ अपने सीने में लिए बैठा है ....एक याद रूह को रिचार्ज कर देती है ना......
बचपन की यादें ऐसे ही गुदगुदा जाती है हमें ... बहुत सुंदर लिखा ... अच्छा लगा आपको पढना।
आपके साथ यादों की गलियों मे घूमना अच्छअ लगा दीदी...!
बहुत सुंदर पोस्ट....बहुत सारी बातें याद आईँ बचपन की
ITS GOOD. I HAVE ALSO SEEN OTHER POSTS.
KEEP IT UP.
--AJIT PAL SINGH DAIA
आपकी याह पोस्ट देख मुझे अपने गांव की बारी (जिसमें मुख्यत: आम के पेंड़ हैं) याद आ गये। बचपन उन आम्रकुंजों की छाया में बहुत बीता है। और टपकते आम की ध्वनि तो मन में अभी भी ताजा है।
बचपन याद आया और उस समय के कई बुजुर्ग। जो अब मात्र स्मृति हैं। आम के पेंड़ कुछ बचे हैं।
यादों के बादल जब मन पर छा जाते हैं, तो कभी आल्हादित कर देते हैं, वर्षा की बूंदों के वाहक बन कर , तो कभी हृदय में पीडा भर देते है, तूफ़ान और बिजली के अंदेशे लिये, पुराने ज़ख्म हरे कर देते है.
आम कभी मेरा पसंदीदा फ़ल नही रहा, क्योंकि, हमारे गांव से हर साल इतने आम आते थे कि हमें उसका अजीर्ण हो जाता था.
अब पिछले कुछ सालों से फ़िर से भाने लगा है.
आप सभी की टीप्पणियोँ के लिये , बहुत बहुत आभार -
मोटाबेन
हम निसर्ग को परिवार का हिस्सा मानते थे और शायद यही वजह है कि तब पर्यावरण के लिये अलग से कुछ करने की ज़रूरत नहीं होती थी. निसर्ग भी एक संबधी होता था. अब संबधियों से ही पर्यावरण बिगड़ा पड़ा है क्या करें.
सँजय भाई,
दद्दा / श्री मैथिली शरण गुप्त जी ने लिखा है,
" हम सुधरेँ तो सुधर जायेगा, ये सँसार हमारा ,
एक दीप सौ दीप जलाये, मिट जाये अँधियारा "
bahut sundar yaad:)
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