Tuesday, March 31, 2009

अपूर्णता में सौन्दर्य : Sakura (Japanese kanji : 桜 or 櫻; hiragana: さくら)

सन` १९१२ में अमरीकी जनता को , जापान की जनता ने एक खूबसूरत तोहफा दिया था। जिसको " साकुरा " या ' चेरी ब्लोसम ' कहते हैं।
अप्रेल ४ को इस वर्ष ये हलके गुलाबी रंग के फूल अमरीकी गणतंत्र के प्रमुख शहर , वोशीँगटन डी सी को अपनी छटा से आवृत कर देँगेँ और कई दूसरे शहरोँ से पर्यटक इन फूलोँ के खिले हुए पुष्प गुच्छोँ का नज़ारा देखने यात्रा कर, राजधानी तक आ पहुँचेँगेँ।
देखिये ये लिंक्स :
http://www.nationalcherryblossomfestival.org/cms/index.php?id=404
http://www.washingtonpost.com/wp-dyn/content/article/2009/03/20/AR2009032000883.html
चेरी के फूलों को "ब्लोसम" कहते हैं और जिन फूल के खिलने के बाद उस पेड़ पर फल नही लगते हों उन्हें " ब्लूम " कहते हैं ।
चीन में चेरी ब्लोसम को स्त्री की सुन्दरता के समकक्ष देखा गया है और जापानी सभ्यता में चेरी ब्लोसम को जीवन में निहित ,
" अपूर्णता में सौन्दर्य " के समकक्ष रखा गया है -
कई चित्र चेरी ब्लोसम की सुन्दरता से सम्बंधित कलाकारों ने रचे हैं ।
ये इतिहास देखें :
जापान ने अमरीका को ३,०२० चेरी ब्लोसम के वृक्ष , मैत्री तथा सौहार्द्र की भावना से दिए थे । जिन्हें मेनहेट्टन , न्यू - योर्क प्राँत मेँ साकुरा पार्क उध्यान मेँ सबसे पहले रोपा गया था ।
फिर वे राजधानी मेँ भी स्थापित हो गये और अब यह अप्रैल माह मेँ राजधानी आनेवाले पर्यटकोँ के लिए एक प्रमुख आकर्षण बन गये हैँ ।
http://www.dcpages.com/Tourism/Cherry_Blossoms/
पतंग उडाने से लेकर, विविध साँस्कृतिक झांकी लिए परेड भी अब , चेरी ब्लोसम फेस्टिवल का हिस्सा बन चुके हैं ।
मेकोंन जार्जिया, में ३००,००० चेरी के पेड़ हैं ।
कई दूसरे प्रांत , जैसे न्यू जर्सी , ब्लूम फिल्ड, ब्रुक लेंन , न्यू यार्क में भी चेरी ब्लोसम फेस्टिवल मनाते हैं मगर राजधानी वोशीँगटन डी सी ( डी सी शब्द = डीस्ट्रीक ओफ कोलम्बिया के लिये प्रयुक्त होता है )
ही , चेरी ब्लोसम फेस्टिवल का प्रमुख आकर्षण बना हुआ है ।
कई सैलानी इन फूलों की सुन्दरता निहारने आयेंगें ।
राजधानी में आजकल , राष्ट्रपति मौजूद नहीं हैं ।
राष्ट्रपति बराक ओबामा अपनी पत्नी मिशेल ओबामा के साथ
लन्दन गए हुए हैं जहाँ पर २० देशों की मंत्रणा जारी है ।
आर्थिक बदहाली से सभी देश परेशान हैं और हरेक देश अपनी अपनी समृध्धि तथा अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने की जद्दोजहद में ,
व्यस्त हैं ।
हालत शीघ्र ही सुधरे , यही आशा है ।
...हालत सुधरेंगे तब ही सुधरेंगें मगर तब तक
हम इन सुंदर फूलों को ही निहार लें ...
कुदरत जिन फूलोँ मेँ बेतहाशा मुस्कुराती है वे देखिये ना, ऋतु अनुसार
अपने आप खिले हुए हैँ !
- जापान ने अमरीका पे द्वीतिय विश्व युध्ध के दौरान आक्रमण किया और अमरीका ने एटम बम फेँक कर नागासाकी और हिरोशिमा शहरोँ को ध्वस्त किया और जापान ने हार मान ली थी
अब आज ये स्थिति है कि , जापानी उध्योगपति , अमरीकी अर्थ व्यव्स्था का भरपूर लाभ ले रहे हैँ
निकास के जरीये दोनोँ देश, करीब आ गये हैँ
युध्ध : पृष्ठभूमि मेँ रह गया है -
और फूल सदा की तरह , आज भी खिल रहे हैँ
- लावण्या


Wednesday, March 18, 2009

मेरे स्वप्न, सच हो जाए ...ऐसा हो ...

भारत की महिला : शक्ति का स्वरूप : एक माँ
देवी भगवती की आरती करते हुए एक ससुर तथा दामाद - ये यहां अमरीका में भी हमारे प्राचीन संस्कारों को भक्ति भाव से निभाते हैं - रीति रिवाज , व्रत उत्सव, त्यौहार मनाते हैं । जिस देवी माँ की आराधना करते हैं, उसीका स्वरूप , 'स्त्री ' है - उसे भी सम्मान देने पर ही यह सारे धर्म , कर्म व्यवहार तथा परम्पराएं , सही कहलाएंगी ...
और ये नीचे के चित्र में , मुस्कुराती नव वधु अपने भविष्य के सुनहरे सपने देखती हुई , स्वर्णाभूषणों से , सुसज्जित , अपने जीवन के अर्ध विराम बिन्दु पर , एक क्षण के लिए ठहरी हुई है ........
भारत के ग्राम्य जीवन को समीप से कभी देखा ही नहीं !
ये शायद मेरा ही दुर्भाग्य है ॥
सिर्फ़ चित्रों में देखती हूँ ये द्रश्य और रम्यता लिए,
मन को स्वप्निल जगत में खींच लेता है -
यथार्थ शायद कठिन हो - स्वप्न मृदुल पंख पर गति करते हैं ।
आशा यही है भारत के हर कोने में , हर बेटी ,
हमेशा खुश रहे और पूरे संसार को अपनी मुस्कराहट से जग मग कर दे !


http://www.sambhali-trust.org/aboutus/index.html
जोधपुर , भारत में " संभाली " संस्था की स्थापना हुई ।
११ कन्याओं से शुरू हुई ये एक नन्ही पहल आज सफल हो गयी है ।
एक तरफ़ कन्या के मार्ग में , इतनी मुश्किलें हैं और कहीं ऐसा भी है जब कोई दूसरी कन्या , इन संभाली संस्था की कन्याओं की हम उम्र , बहुत बढिया स्कूल में पढ़ती है, माता और पापा की आंखों का तारा है
और हर सुख सुविधा , खिलौने और आराम उस के नसीब में है -
उदाहरणार्थ :
मेरी सहेली मारिया की बिटिया ,
" अल्मास ", अलास्का यात्रा के दौरान
हेलिकोप्टर में बैठ कर कितनी प्रसन्न है !
बड़ी होकर वह , इसे हवा में उड़ा कर ले भी जाए, ...
क्या पता ?
हम आशा करें ,
" बिटिया, आसमान की ऊंचाईयां छू लेना । "
भीष्म पितामह ने , महाभारत , में धर्मात्मा युधिष्टिर से कहा था , जिस समाज में ,स्त्री का सन्मान नहीं होता ,
वह समाज शनै ; शनै; नष्ट हो जाता है ! “
महाभारत का १८ दिवस चलने वाला, अति भयंकर समर भी
स्त्री के अपमान के कारण ही हुआ --
द्युत क्रीडा में हारे थे इन्द्रप्रस्थ नरेश युधिष्ठिर परन्तु सहना आया महारानी के माथे ! द्रौपदी की लाज लुटने को उद्यत दुशाशन थक कर हार गया था और ईश्वर श्री कृष्ण ने लज्जा की रक्षा की !

रामायण , में लंका युध्ध भी सती सीता देवी के , रावण द्वारा अपहरण तथा श्री रामचंद्र का रावण का संहार कर , सीता जी को पुनः अयोध्या ले चलने के लिए , किया गया धर्म युध्ध था ।
चाणक्य ने भी कहा है , " आपात्तकालीन स्थिति में भी स्त्री को संरक्षण देना हरेक राष्ट्र का कर्तव्य है । सेना तथा राष्ट्र प्रमुख को स्वयं खतरे से बाहर निकल कर, पहले स्त्री समुदाय को सुरक्षित स्थान पर ,
स्थानांतरित करना आवश्यक है।
कई बार आधुनिक समाज में ये प्रश्न भी आता है के
एक तरफ़ हम समानता का नारा लगाते हैं जबके दूसरी तरफ़ ,
स्त्री सुरक्षा , स्त्री सम्मान रक्षा की बातें भी करते हैं !
ऐसा क्यों ?
आप , अपने ही परिवार की, किसी भी महिला से पूछिए ,
" क्या स्त्री उत्पीडन समाप्त हो गया है ?
क्या वे सर्वथा सुरक्षित महसूस करतीं हैं अपने आपको ?
हरेक स्थिति में ? "
आपकी राय, उनके जवाब को सुनने के बाद ही तय कीजियेगा --
अगर , स्त्री सुरक्षा तथा स्त्री की उन्नति के पक्ष धर हैं आप ,
तब इन बातों पर ध्यान दीजियेगा --
समाज में बदलाव लाने के लिए, ये भी करना जरुरी है ।

१) आज के माहौल मेँ स्त्री का कार्य क्षेत्र विस्तृत हुआ है व्यापार वाणिज्य से लेकर, डाक्टरी, अध्यापन तथा सरकारी कार्यालयोँ मेँ भी आपका आमना सामना तथाकार्य स्त्री के सँग पहले से ज्यादा होना
आज आम बात हो गयी है -
स्त्री और पुरुष सोचते भी अलग तरीके से हैँ -
अलग तथ्योँ को अहम मानते हैँ ।
उनके ये अलग मनोवैज्ञानिक द्रष्टिकोण कार्य स्थल पर
अलग सँभावनाएँ भी लाते हैँ ये स्वाभाविक प्रक्रिया है
दोनोँ ही अमूल्य योगदान देते हैँ
जिसका सदुउपयोग करना चाहीये ।
अगर आप के सँग महिला कर्मचारी कार्य कर रहीँ हैँ
तब आप इतना तो कीजिये, उनहेँ भी
अपनी बात कहने का मौका देँ और उनके सुझाव भी सुनिये

२ ) आपके अपने घरोँ मेँ जो स्त्री हैँ
उनकी बातेँ भी सुनिये,
उनकी सलाह पर गौर करेँ वे भी आपकी हितैषी हैँ ।
उनकी कल्पनाओँ को पँख देँ
- उडान भरने के लिये खुला आकाश देँ !
स्त्री के बिना "घर " अधूरा है !
माँ, बहन और बेटीयाँ, भी घर का अहम हिस्सा हैँ ।

३ ).भारत वर्ष उन्नति के पथ पर अग्रसर है -
किँतु, कन्या भृण हत्या, कन्या को अशिक्षित रखना,
दहेज के लिये कन्या का शोषण,
ये बीभत्स सत्य , भारत वर्ष के सर्वोदय के सूर्य को
अँधेरोँ के काले बादलोँ से ढँके हुए हैँ
भले ही कई कन्याओँ ने बहुत से क्षेत्रोँ मेँ
आगे बढकर नाम कमाया है
एक बडा वर्ग आज भी पिछडा ही रह गया है
- उन्हेँ भी सहकार की जरुरत है ...
राष्ट्र या समाज का उत्थान या प्रगति ,
उसीके आधे हिस्से को पिछडा रखने से कदापि सँभव नहीँ ।
जिस भारत वर्ष को हम सभी सीना तान कर बहुत गर्व से
" भारत माता " पुकारते हैँ उसी भारत वर्ष मेँ
कन्या को जन्म से पहले ही समाप्त कर देना
कितना धृणित मानसिकता दर्शाता है -
और कन्या और स्त्री के साथ जुडी हर समस्या मेँ
सँपूर्ण राष्ट्र भी भागीदार है,
और इस सहकार को निभाना हरेक का कर्तव्य है
ये भी एक बहुत बडा सच है
- स्वामी विवेकानँद जी ने भी कहा था कि
"जिस राष्ट्र की कन्या सबल तथा सक्षम है वही राष्ट्र उन्नति के पथ पर अग्रसर है ! "
- लावण्या










Sunday, March 15, 2009

सर्वे भवन्तु सुखिन:

होली का त्यौहार हमारे शहर के हिन्दू मन्दिर के सौजन्य से संपन्न हुआ - रास्ता एक संकरी गली से गुजरता है और वहां यातायात ठप्प था ! जैसा यहां होता है जब् किसी भी व्यक्ति की तबियत ख़राब हो जाती है , फ़ौरन एंबुलेंस आ जाती है । यहां ९११ डायल किया जाता है । वही इमर्जेंसी लाइन है जिससे पुलिस, स्वास्थ्य विभाग तथा आग निरोधक दस्ते , बस मिनटों में रवाना किए जाते हैं !
ऐसे ही किसी के ऊपर ऐसी तकलीफ आयी थी और रास्ते के दोनों ओर लोग संयम से राह देखते हुए , खड़े थे अपने अपने वाहनों को रोके हुए ! हल्की वर्षा भी हो रही थी -
जो भी होगा ईश्वर उसे स्वस्थ रखें ! " सर्वे भवन्तु सुखिन: "
होली से जुड़े गीत तथा श्री कृष्ण तथा राधा और गोप - गोपियों के संग होली का उत्सव भारत में , मनाया जाता है वैसा आज , विश्व के हरेक प्रदेश में उसी उत्साह तथा प्रेम से मनाया जाता है ।-
हां , जी , क्यों नही , भला भारतीय मूल के लोग अपने त्योहारों को कैसे भूल जाएँ ?

हमारे विरासत में मिले यही संस्कार , एक नये सिरे से , नई भूमि पर ,
जड़ें जमाने की कोशिश में हैं ।-
बहुत से देशों से आ कर बसे लोग भी इसी तरह अपने अपने त्यौहार तथा दुसरे रीत रिवाज , हमारी तरह , यहां भी जारी रखते हैं ।
इटालियन हों या जर्मन या आयरिश या चीनी या भारतीय ! सभी ऐसा करते हैं

अश्वेत लोग क्रिसमस शायद उतने उत्साह से नहीं मनाते जितना क्वांज़ा नामक त्यौहार मनाने लगे हैं !

ये गीत नृत्य , " मधुबन में कभी कान्हा किसी गोपी से मिले, राधा कैसे ना जले ....राधा कैसे ना जले "ऐ आर रहमान के "लगान " फ़िल्म के गीत पर किया गया था --
२ कृष्ण थे ? ना ना ... ...शायद १ बलदाऊ भैया थे ! ;-)
फ़िर बारी आयी नवरंग फ़िल्म के गीत " जा रे हट नटखट ..." गीत की ॥
नन्ही सी लडकी ने मुखौटा लगा कर बहुत सुंदर नृत्य किया ।
एक तरफ़ स्त्री और दूसरी तरफ़ पुरूष का अभिनय , नृत्य के संग किया और उल्टे हाथों से ढोल भी बजाया और खूब तालियाँ बटोरीं !!
शाबाश बिटिया रानी !!
आप अभी महज १० साल की हो और इतना गज़ब किया वाह !!
अब मंच पर बहुत सारी अमरीकी कन्याएं भी आ गयीं और खूब बढिया नृत्य किया। सही शब्दों पर, सही भाव भंगिमा , सही अभिनय ने साबित कर दिया की प्रेक्टीस, जम कर की गयी है और उत्साह भी भरपूर है !
-- जीती रहो ..खुश रहो बच्चियों !!
होली मुबारक हो !!
और अंत में , हमारे नज़दीक ही किशन कन्हैया जी मुरली थामे , ये प्यारा सा पोज़ देकर मुस्कुराते हुए , फोटो खींचवाने खड़े हुए हैं ! देखिये ना ...

ऐसा है ना, मन प्रफुल्लित करने के लिए सुंदर सुंदर रंगबिरंगे फूल , तितली, बाग़ बगीचे , समुन्दर में बल्खातीं लहरें, चन्द्रमा से दमकता रात का आकाश, अंधेरे में जगमगाते जुगनू, मयूर पक्षी का नृत्य, हंसो का जोड़ा , सारस के संग सरोवर का जल , हल्की फुहारें , पके हुए आम्र से आच्छादित वृक्ष , नारीकेल के लहराते पेड़ , सागर किनारा , गंगा की निर्मल धारा , जल प्रपात , विहंगम परबत , घर का आँगन और तुलसी के समीप रखा दीपक !

ये सारे ऐसे द्रश्य हैं जो मन को शीतल करते हैं आत्मा को सुख पहुंचाते हैं और मन को शांति देते हैं ...
- और इन सारे नामों के साथ , बच्चों की भोली - मुस्कान भी शामिल कर रही हूँ .....
उन्हें देख कर , परदेस में भी , बचपन के मेरे अम्मा पापा जी के आश्रम जैसे पवित्र घर में , युवावस्था में मनाई होली याद आ गयी !
....पास पडौस के सारे परिचित , मित्र का सुबह सुबह आ जाना ....
जयराज अंकल, वामन अंकल, हिंगोरानी परिवार , भाटिया फेमेली , स्वरूप जी , पदमा खन्ना दीदी और पारीख आंटी जी, मेरी सहेलियां मीना और गीतू ....याद आए ...और मेरी बहन वासवी जो अब जीवित नहीं है ..और बांधवी और भाई परितोष !
....कितना आनंद आता था !
...आज यादें हैं ...और आज का समय और सच साथ है .
.......अब , अगले साल की प्रतीक्षा रहेगी ..........
" दिन आए , दिन जाए ,
उस दिन की क्या गिनती ,
जो दिन, भजन किए बिन जाए ...."
गीत गायिका : लातादी , शब्द : पण्डित नरेंद्र शर्मा ....
-- लावण्या




Sunday, March 8, 2009

ऐसो है कोई परम सनेही...



घर आँगन न सुहावे, पिया बिन मोहि न भावे

दीपक जोय कहा करूँ, सजनी हरि परदेस रहावे

सूनी सेज ज्यूँ लागे सिसक सिसक जिय जावे

नयन निद्रा नहि आवे

कब की ऊभी मैँ मग जोऊँ , निस दिन बिरह सतावे

कहा कहूँ कछु कहत न आवे, हिवडो अति अकुलावे

हरि कब दरस दिखावे

ऐसो है कोई परम सनेही, तुरँत सँदेसो लावे

वा विरियाँ कब होसी म्हाँको, हरि सँग कँठ लगावे

मीरा मिल होरी गावे

********************* *************************** * ***************

पँथ निहारूँ

प्राण सखा का पँथ निहारूँ

बारूँ चँदा दीप !

सुर बिन प्यारे मुरलिया सूनी,

बिन बसँत के बगिया सूनी,

कन्त बिन सूना सब जीवन,

मोती बिन ज्योँ सीप !

शून्य पथ, मुँह मोड न पाऊँ !

आशा का जी तोड न पाऊँ !

पर कैसे, मन, समझाऊँ , क्योँ ~~

प्रीतम नहीँ समीप !

- पण्डित नरेन्द्र शर्मा

होली और बसंत हो , फागुनी बयार हो और बिरह व्यथा से अवसादित मन हो ये हमारे साहित्य में मार्मिकता से कविता तथा कथा वार्ता में , बखूबी दर्शाया गया है ।-
आज की ये पोस्ट उन सभी विरही मन के प्रति समर्पित है ।
साहित्याकाश के २ नक्षत्र एक मध्यकालीन और दूजे बीसवी सदी से
बिरहा ह्रदय की व्यथा का निरूपण करतीं
हैं इन दोनों कविताओं में ....
मीरां जी प्रातः स्मरणीय , पवित्रात्मा हैं । महारानी राजपूतानी हैं और श्री कृष्ण की आराधना का मूर्तिमंत स्वरूप !
जिनकी सुमधुर वाणी आज भी समकालीन है ।
पण्डित नरेंद्र शर्मा कवि के रूप में , हिन्दी साहित्य को अनमोल गीत - कविता दे गए हैं जो श्रृंगार, बिरह, भक्ति, ज्ञान तथा हमारी विरासत का प्रतिबिम्ब लगतीं हैं ।

- लावण्या






Friday, March 6, 2009

फिल्मी गीतों में होली ..कहाँ कहाँ ?... चलिये याद करेँ,.....

ऐसे बेदाग चहरे पे , गुलाल मल दिया जाए ? :-) ......
होली आई रे होली आई रे .......
फिल्म ' नवरँग'
नव रँग ९ रँग और नया रँग भी !
भविष्य पुराण, नारद, पुराण गृह्य सूत्र तथा जैमिनिय पूर्व मीमाँसा सूत्रोँ मेँ "होली -उत्सव" का सर्व प्रथम वर्णन आया है। चलिए , प्राचीन काल में झांकें ...

हिरण्यकश्यपु राक्षस राज, ईश्वर का अस्तित्त्व नकारते हुए, दिन रात, कुकर्म मेँ निमग्न हैँ जबकि उन्हीँ का पुत्र बालक प्रह्लाद अत्यँत पवित्र ह्र्दय का ईश्वर का परम भक्त है ।

पिता द्वारा अनेक अत्याचार और रोष करने पर भी प्रह्लाद की भक्ति,> अडिग रहती है ! तब खीझ कर, पिता हिरण्यकश्यपु, बुआ "होलिका " को आदेश देते हैँ कि , वह प्रह्लाद को गोद मेँ लेकर अग्नि मेँ प्रवेश करे और बैठ जाये ...

जब कि उसे पता था कि होलिका को वरदान प्राप्त था कि अग्नि , होलिका को जला नहीँ सकती !

राजाज्ञा का पालन हुआ । होलिका अग्नि मेँ जा बैठीँ और गोद मेँ ईश्वर नाम स्मरण करते बालक भी बैठे ! आश्चर्य !

होलिका की बुरी नियत, वरदान को जुठलाती हुई उसे जलाकर भस्म कर गई जब के प्रह्लाद को तो कुछ भी नहीँ हुआ !

नारायण का नाम स्मरण करते हुए भक्त प्रह्लाद ने पाप पर पुण्य के विजय की कथा पुन: दुहराई ...

भारत मेँ इसी कथा को याद करते हुए, महिलाएँ पूर्ण चन्द्र "राका " की साक्षी मेँ , अपने परिवारोँ की सुरक्षा व खुशहाली के लिये पूजा करतीँ हैँ । ग्राम प्राँत होँ या शहर, अग्नि प्रज्वलित कर, उसमेँ नारियल, खील, बतासे , कुमकुम , अक्षत का भोग लगाकर आहुति दी जाती है और नारियल की गिरी का प्रसाद खाकर असत्य पर सत्य की विजय का उत्सव "होलिका - दहन " मनाया जाता है ।

दूसरे दिन सुबह से अबीर , गुलाल (जो कभी कभार इत्र से मिलाया हुआ भी होता है) भाल पर टीका लगा कर और गालोँ पर गुलाल मल कर, भारतीय लोग, रँगोँ की होली का खेला खेलते हैँ ।

साथ मेँ गर्म मूग़ की दाल के पकौडे, गुझिया , ठडाई, तरह तरह के पकवान और मिठाईयाँ भी हंसी मजाक भरे माहौल में खाई जातीँ हैँ ।

लोग ढोलक पर थाप देते हुए नृत्य गीत से समाँ बाँधते हैँ और होली रँगीन पानी, ओईल कलर और तरह तरह के रँगोँ से मनाई जाती है । रँग छुडाने नदी या समुँदर मेँ स्नान भी किया जाता है पर कई बार रँग चढा रहता है और कुछ दिनोँ बाद ही छूटता है !

ये प्रथा भारतीय मूल के लोग जहाँ भी गये , जैसे, सूरीनाम, मोरेशीयस, जावा, सुमात्रा, फीजी, श्री लँका, इन्डोनेशिया, युरोप और अमरीका , वहाँ भी अब भारतीय लोग इसे मनाने लगे हैँ । इस प्रकार " होली " , अब एक विश्वव्यापी त्योहार बन चुका है ।

बसँत के आगमन के साथ, गुनगुनी धूप और खुशनुमा वातावरण होली के त्योहार को, और भी रँगीन बना देता है ।

हिन्दी फिल्मोँ मेँ, गीतोँ के माध्यम से होली के उत्सव को खूब प्रचार -प्रसार मिला ! होली से जुडे कई फिल्मी गीत आपके जहन मेँ इस वक्त उभर रहे होँगेँ ! चलिये याद करेँ,.....

फिल्म ' रँ' का ये गीत, नायिका उलाहना देती है " अरे जा रे हट नटखट, ना छू रे मेरा घुँघट, पलट के दूँगी, आज तुझे गाली रे, मुझे समझो ना तुम, भोली भाली रे, "

तो नायक खिलँदडे स्वर मेँ पलट कर गाता है,

" आया होली का त्योहार , उडे रँग की बौछार, तू हे नार नखरेदार, मतवाली रे, आज मीठी लगे रे तेरी गाली रे " ।

लोक गीत और लोक द्रश्य यहाँ कितने सजीव हो उठे हैँ !

फिल्म :' मधर इँडिया' के गीत मेँ " होली आई रे कन्हाई, रँग छलके, सुना दे जरा बाँसुरी " हमारे प्रिय कन्हैया को , जन मन के सँग, नृत्यरत पाते हैँ तो फिल्म ' गोदान' का कलावती राग आधारित गीत " बिरज मेँ होरी खेलत नँद लाला " भी बृजभूमि की लठ्ठमार होली की याद दिलाता है ।

फिल्म ' फागुन' मेँ नायिका "पिया सँग खेलूँ होली " की चाहत मेँ , रँगोँ के खेल मेँ निमग्न है तो फिल्म "आखिर क्यूँ " मेँ " सात रँग मेँ खेल रही है, दिलवालोँ की होली रे " का समूह गान दर्शाया गया है ।

फिल्म "कटी पतँग " मेँ, " आज ना छोडेँगेँ बस हमजोली, खेलेँगेँ हम होली " हमजोलियोँ का मस्तीभरा गीत उभरता है ।

अन्य कई गीत हैँ जिनके मुखडे याद आ रहे हैँ, " तन रँग लो जी , आज मन> रँग लो, " और " होलिया मेँ उडे रे गुलाल, " और " लाई है हज़ारोँ रँग होली " जो लोक त्योहार होली का एक और रुप "फगवा "याद दिलाते हैँ ।

" जय जय शिव शँकर, काँटा लगे ना कँकर, एक प्याला तेरे नाम का पिया " गीत , होली के सँग जुडी एक और प्रथा ठँडाई और भाँग पीने का द्र्श्य उजागर करते हैँ , जहाँ राजेश खन्ना और मुमताज भँग के रँग मेँ , डोलते, भागते धूम मचाते हैँ । सन्` १८७० मेँ " होली आई रे" नाम से पूरी फिल्म बनी ! जिसका सँगीत कल्याणजी - आनँदजी की जोडी ने दिया था ।

फिल्म निर्माता यश चोपडा ने अपनी कई फिल्मोँ मेँ होली के द्रश्य प्रस्तुत किये हैँ । फिल्म ' मशाल ' - गीत : "होली आई, होली आई, देखो होली आई रे " फिल्म ''डर ' मेँ गीत : " अँग से अँग लगाना सजन, मोहे ऐसे रँग लगाना "

फिल्म ,' मोहब्बतेँ', गीत : "सोहनी सोहनी अँखियोँवाली " गीत दर्शाये थे परँतु, सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म, 'सिलसिला' " गीत : " रँग बरसे, भीगे चुनरवाली रँग बरसे " जिसे डा. हरिवँश राय "बच्चन जी ने लिखा है और उनके सुप्रसिध्ध अभिनेता पुत्र अमिताभ बच्चन जी ने अपनी प्रेयसी बनीँ सिनेतारिका रेखा के साथ होली के उत्सव मेँ, जहाँ हँसी ठठ्ठा, मजाक मस्ती का सँगम निहित है, बखूबी पर्दे पर निभाया जिसे दर्शकोँ ने खूब, सराहा !

आनेवाले समय मेँ , शायद यही सर्वाधिक लोकप्रिय गीत बना रहेगा !
ऐसे भी भारत मेँ २५ साल पहले और आज 'होली' का रुप बदला है फिल्मेँ समाज का दर्पण तो कभी आनेवाले समय का आइना दीखलातीँ हैँ
फिल्म 'गाईड ' मेँ, एक गीत मेँ कुछ पँक्तियाँ होली पर लीँ गईँ " आई होली आई, सब रँग लाई, बिन तेरे होली भी ना भाये, हाये, " गीत लताजी के स्वर मेँ भीगा ,रस विभोर करने मेँ सफल हुआ ।

फिल्म, 'आप बीती ' मेँ , हेमा मालिनी ने गाया " नीला, पीला, हरा, गुलाबी, कच्चा पक्का रँग डाला रे मेरे अँग अँग " तो कई रँग बिखर कर निखर गये !

'फूल और पत्थर' ' मेँ गीत : ' लाई है हज़ारोँ रँग होली, कोई तन के लिये, कोई मन के लिये " का सँदेसा गूँजा !

फिल्म, ' कोहीनूर ' मेँ , गीत " तन रँग लो जी आज मन रँग लो " की गुहार उठी लेकिन सुमधुर गायिका लताजी और स्वप्न सुँदरी कहलानेवालीँ हेमा मालिनी ने मिलकर, 'शोले' फिल्म के गीत, " होली के दिन , दिल खिल जाते हैँ, रँगोँ मेँ रँग मिल जाते हैँ, गिले शिकवे भूल कर के सभी, दुश्मन भी गले मिल जाते हैँ " को बाजी मारने का मौका दिलाया !

असल जिँदगी मेँ नायक धर्मेन्द्र और हेमा का साथ भी इसकी सफलता का एक कोण था जिसे फिल्म 'राजपूत' मेँ दुबारा वही मस्ती उभारने का मौका दिया गया गीत था, " भागी रे भागी रे ब्रिज बाला, कान्हा ने पकडा, रँग डाला " परँतु 'शोले' फिल्म के सामने इसका रँग फीका पड गया !

फिल्म ' बागबान ' निर्माता रवि चोपडा ने अमिताभ और हेमा मालिनी को गीत दिया, " होली खेले रघुबीरा, अवध मेँ होली खेले, रघुबीरा " जो काफी पसँद किया गया ।

फिल्म 'कामचोर' मेँ जया प्रदा ने माँग की, " मल दे गुलाल मोहे के आई होली आई रे " तब फिल्म ' जख्मी' मेँ सुनील दत्त ने उदास स्वरोँ मेँ गाया कि

" दिल मेँ होली जल रही है " .....

फिल्म ' धनवान ' मेँ " मारो भर भर पिचकारी " की पुकार हुई !

फिल्म ' इलाका ' मेँ माधुरी ने ऐलान किया कि ' आई है होली " ।

मँगल पाँडे मेँ, आमीर खान पर फिल्माया गीत भी होली सँबँधित है ।

अमिताभ का एक और गीत " खई के पान बनारसवाला " भी होली के त्योहार की मस्ती का एक अनूठा रँग लिये गीत है !

किँतु आज की युवा पीढी अक्षय और प्रियँका पर फिल्माया , फिल्म 'वक्त' का गीत " डू मी ए फेवर , लेट्ज़ प्ले होली ' होली के उत्सव को २१ वीँ सदी के मुहाने पर ले आया !

सोंग लिंक :

http://vids.myspace.com/index.cfm?fuseaction=vids.individual&VideoID=5757348

हिन्दी फिल्मोँ मेँ होली पर आधारित सर्व प्रथम गीत फिल्म ' ज्वार -भाटा' मेँ निर्माता स्व.अमिय चक्रबर्ती जी ने फिल्माया था।

जिस मेँ दिलीप कुमार ने सबसे पहली बार हिन्दी फिल्म के रुपहले पर्दे पर बतौर एक नायक के काम शुरु किया था और वह ऐतिहासिक समय था सन १९४४ !

आपको ये भी बतला दूँ कि फिल्म 'ज्वार -भाटा ' के लिये कई गीत मेरे पिताजी स्व. पँडित नरेन्द्र शर्मा जी ने ही लिखे थे !

आज, २००९ की होली के इस रँगारँग व पावन उत्सव पर आप को गुलाल और अबीर का शुभ तिलक लगाकर हम , आपकी होली रँगीन हो और जीवनाकाश पर सदा इन्द्रधनुष छाया रहे, यही कामना करते हैँ.....

स - स्नेह,

- लावण्या

पुनः ......

चलते चलते ....." गुलाल " नामक नई फ़िल्म आ रही है ...

Wednesday, March 4, 2009

कोफी -- कहाँ से आयी ?

कोफी विथ कुश के चिठ्ठे से " कुश की कलम "
http://kushkikalam.blogspot.com/2009/02/blog-post_25.html
आज कोफी का कप यहाँ ले आए हैं और आप को कोफी के पीछे छिपी , कोफी की दास्ताँ को उजागर कर दें ...
तो शुरू करें ?
चलिए , एक कप कोफी के साथ ही शुरू करते हैं ...

अजी , चाय भी ले लीजिये या शरबत , या सादा जल ही सही ....

कल्डी नामका चरवाहा , एक शाम , घर जाते समय , हैरान हो गया एक अजीब नज़ारा देखकर जब उसकी बकरी नाच रही थी !! :)
...अजीब हरकतें कर रही थी पहाडी रास्तों पर ...
और जब उसने बकरी को एक पौधे से लाल रंग के बेर जैसे दानो को खाते हुए देखा तब , कल्डी ने भी वे खाए और आहा !
उसे भी ताजगी मिली -- यही थे कोफी के दाने !! --
इथीओपिया की बात है ये --
जहाँ से सूफी संतों और पादरियों ने इस पेय को अपनाया ताकि वे निद्रा का त्याग कर सके और ईश्वर भक्ति में समय दे सके --

९ वी शताब्दी कोफी की खोज निर्धारित करने की तिथि बतलाती है कोफी के पेय को अरब व्यापारी अपने कारवाँ में साथ ले कर आगे बढे और अरब देशों से कोफी , यूरोप और मध्य एशिया और भारत तक फ़ैल गयी ।

यामीन में भी कोफी की पैदाइश होती है ।
मोक्का कोफी का नाम इसी यामिनी कोफी से पहचान में आया !
देखिये लिंक : —

Yemeni [1]coffee Mocha
योरोप में इटली शहर में , कोफी पीने के रेस्तरां खुले --
नीचे की तस्वीर देखिये --
आज ऐसे कोफी रेस्तरां या कोफी हाउस , दुनिया भर में , मिल जायेंगे --

Colombian
Costa Rican
Hawaiian Kona
Ethiopian Sidamo
Guatemala हेहेतेनांगो
Jamaican Blue Mountain
Java
Kenyan
Panama
Sumatra
Indonesia
Sulawesi तोराजा कलोस्सी
Tanzania पाबेर्री
Uganda- रोबुस्ता काफ़ी ,
ये सारे कोफी उत्पादक स्थल हैं । इस नक्शे में , दुनिया में जहाँ कोफी उगाई जाती है उसका हरे रंग से उल्लेख किया गया है --
भारत में कर्णाटक के पहाडी इलाकों में चिकमंगलूर में कोफी की पैदाइश होती है और मैसूर कोफी बड़े चाव से पी जाती है --

यमन कोफी को " अरेबिया फीलिक्स " कहते हैं ।
आज कोफी कल्चर , ग्लोबल कल्चर बन गया है

- विश्व को कोफी देनेवाले अरब देशों और आफ्रीकी देशों में भी अमरीकी व्यापारी कल्चर घुसपैठ कर रहा है !
मोका कोफी शब्द " अल मखा " शब्द से आया है
( शब्दोँ का सफर के अजित भाई के लिये :)

http://shabdavali.blogspot.com/2009/03/blog-post_04.html


कोफी के निद्रा विरोधक गुण को पहले तो ईस्लामी और ख्रिस्ती धर्म का समझकर दोनोँ ही धर्म के अनुयायीओँ ने कोफी का विरोध किया था परन्तु कोफी के चाहक वर्ग ने कोफी को अपना लिया और खूब प्रसार किया --
आज पस्चिम की देन हैँ स्टारबक्स,सीयाटल, बीग्बी कोफी, हडसन, एस्प्रेसो हाउस वगैरह --


काफी हाउस "पब" की तरह लोगोँ के मिलने की एक जगह हो गई है -
भारत में कोफी का आगमन किस तरह हुआ ? इसकी रोचक कथा है -
यामिनी सूफी संत बाबा बुदान , ‘बाबा ’(हज़रात शैक जमेर अल्लाह मज़राबी ) .यमन से अल -मखा से, पश्चिम घाट के परबत चिकमंगलूर , कर्णाटक प्रांत , भारत में , कोफी के दाने अपने साथ , लेकर आए थे और उन्हें रोप कर कोफी को भारत की जमीन में , उगा दिया था !
१६७० की बात है और आज मैसूर कोफी भारत में ही नही भारत के बाहर भी सुप्रसिध्ध है
उन्ही के नाम से " बाबा बदन गिरी हिल्ज़ " और बाबा बदन गिरी कोफी भी प्रसिद्ध है --
केफ्फे इटालियन शब्द है जो , काहवा का बिगडा रूप है - टर्की शब्द बदल कर " खावे " बना
जो " काहवा - अल बुन " शब्द जो अरब शब्द है उसके करीब है --
जिसका अर्थ होता है " कोफी बीन का रस - " काहवा - अल बुन " --
यमन के मक्खा बंदरगाह से चली कोफी , आज मोका कोफी के नाम से मशहूर है !!
किव हाँ ने इस्तांबुल में १४७१ में सबसे पहला " कोफी हाउस " खोला था और बाद में यूरोप के इटली में कई काफी हाउस खुल गए वहाँ से फ्रांस में भी इसका प्रचलन हुआ जहाँ सार्त्र और सिमोन दे बेऔवोइर और असंख्य चित्रकार, कवि , दार्शनिक , मनोवैज्ञानिक १६५४ के बाद मिलने लगे और दुनिया को नए नए विचार देने लगे ---

एक तरह से वैचारिक क्रान्ति का सूत्रपात भी कोफी हाउस की दें ही कही जायेगी --

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और डच ईस्ट इंडिया कंपनी , ने काफ़ी को १६ वी सदी में इंग्लैंड में दाखिल किया जहाँ से कोफी का साम्राज्य पूरे विश्व में , अन्ग्र्ज़ सता के साथ साथ फैला गया
काफ़ी हाउस मूलत अरब और तुर्क्स ही चालाया करते थे ।
काफ़ी : की बात है और मक्का व मदीना (सौदी अरेबिया ),से कैरो (ईजिप्ट ), दमस्कुस (सिरिया ), बगदाद (इराक ) इस्तांबुल (तुर्की ) सभी जगह कोफी का चलन है --
अमरीका ने " बोस्टन टी पार्टी " में अँगरेज़ सता का विरोध प्रदर्शन पूर्व से निर्यात की हुई महँगी चाय को बोस्टन शहर के पास समुद्र में फेंक कर , चाय का निषेध प्रर्दशित किया था और आज कहीं कहीं चाय घर दीख जाते हैं परन्तु अमेरीकी कोफी पीना ही ज्यादा पसंद करते हैं ! --

अब बताएं , आप को चाय पसंद है या कोफी ?
या और ही कोई पेय आपको ज्यादा प्रिय है ?
आशा है कोफी का रोमांचक सफर आपको पसंद आयेगा .......
- लावण्या