पंडित नरेन्द्र शर्मा
मैँ और मेरे पापा
हर लिया क्यों शैशव नादान?
शुद्ध सलिल सा मेरा जीवन,
दुग्ध फेन-सा था अमूल्य मन,
तृष्णा का संसार नहीं था,
उर रहस्य का भार नहीं था,
स्नेह-सखा था, नन्दन कानन
था क्रीडास्थल मेरा पावन;
भोलापन भूषण आनन का
इन्दु वही जीवन-प्रांगण का
हाय! कहाँ वह लीन हो गया
विधु मेरा छविमान?
हर लिया क्यों शैशव नादान?
निर्झर-सा स्वछन्द विहग-सा,
शुभ्र शरद के स्वच्छ दिवस-सा,
अधरों पर स्वप्निल-सस्मिति-सा,
हिम पर क्रीड़ित स्वर्ण-रश्मि-सा,
मेरा शैशव! मधुर बालपन!
बादल-सा मृदु-मन कोमल-तन।
हा अप्राप्य-धन! स्वर्ग-स्वर्ण-कन
कौन ले गया नल-पट खग बन?
कहाँ अलक्षित लोक बसाया?
किस नभ में अनजान!
हर लिया क्यों शैशव नादान?
जग में जब अस्तित्व नहीं था,
जीवन जब था मलयानिल-सा
अति लघु पुष्प, वायु पर पर-सा,
स्वार्थ-रहित के अरमानों-सा,
चिन्ता-द्वेष-रहित-वन-पशु-सा
ज्ञान-शून्य क्रीड़ामय मन था,
स्वर्गिक, स्वप्निल जीवन-क्रीड़ा
छीन ले गया दे उर-पीड़ा
कपटी कनक-काम-मृग बन कर
किस मग हा! अनजान?
हर लिया क्यों शैशव नादान?
...नरेन्द्र शर्मा
...१९३२
(सरस्वती हीरक-जयन्ती विशेषांक १९००-१९५९ से साभार)
मैँ और मेरे पापा
ये सारे श्वेत / श्याम चित्र स्वर साम्राज्ञी सुश्री लता मँगेशकर जी ने स्वयम् खीँचे हैँ कोलाज भी उन्हीँने बनाकर भेजा है ।
(यह पंडित नरेन्द्र शर्मा की एक कविता है ।
(यह पंडित नरेन्द्र शर्मा की एक कविता है ।
जो १९३२ में हिन्दी की प्रख्यात पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुई थी।
यह १९६० में प्रकाशित सरस्वती के हीरक जयन्ती विशेषांक में भी सम्मिलित है; जहाँ से मुझे मिली है।
बहुत सुन्दर लगी मुझे इस लिये आपके साथ बाँट रहा हूँ,
उनकी सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह की अनुमति से।
हर लिया क्यों शैशव नादान?
शुद्ध सलिल सा मेरा जीवन,
दुग्ध फेन-सा था अमूल्य मन,
तृष्णा का संसार नहीं था,
उर रहस्य का भार नहीं था,
स्नेह-सखा था, नन्दन कानन
था क्रीडास्थल मेरा पावन;
भोलापन भूषण आनन का
इन्दु वही जीवन-प्रांगण का
हाय! कहाँ वह लीन हो गया
विधु मेरा छविमान?
हर लिया क्यों शैशव नादान?
निर्झर-सा स्वछन्द विहग-सा,
शुभ्र शरद के स्वच्छ दिवस-सा,
अधरों पर स्वप्निल-सस्मिति-सा,
हिम पर क्रीड़ित स्वर्ण-रश्मि-सा,
मेरा शैशव! मधुर बालपन!
बादल-सा मृदु-मन कोमल-तन।
हा अप्राप्य-धन! स्वर्ग-स्वर्ण-कन
कौन ले गया नल-पट खग बन?
कहाँ अलक्षित लोक बसाया?
किस नभ में अनजान!
हर लिया क्यों शैशव नादान?
जग में जब अस्तित्व नहीं था,
जीवन जब था मलयानिल-सा
अति लघु पुष्प, वायु पर पर-सा,
स्वार्थ-रहित के अरमानों-सा,
चिन्ता-द्वेष-रहित-वन-पशु-सा
ज्ञान-शून्य क्रीड़ामय मन था,
स्वर्गिक, स्वप्निल जीवन-क्रीड़ा
छीन ले गया दे उर-पीड़ा
कपटी कनक-काम-मृग बन कर
किस मग हा! अनजान?
हर लिया क्यों शैशव नादान?
...नरेन्द्र शर्मा
...१९३२
(सरस्वती हीरक-जयन्ती विशेषांक १९००-१९५९ से साभार)
29 comments:
शैशव की निश्च्छलता को रूपायित करती बहुत सुंदर कविता! वाह !
सरस्वती के उस हीरक विशेषांक का एक गर्वित संग्रहकर्ता मैं भी हूँ !
आभार इस सुन्दर कविता को हमारे साथ बांटने के लिए.
चित्र भी बहुत सुन्दर आये हैं.
नववर्ष मंगलमय हो.
आपकी शुभकामनाओं के लिए आभार.
यादें और कविता दोनों ख़ूबसूरत!
---मेरा पृष्ठ
गुलाबी कोंपलें
सुन्दर कविता, सुन्दर चित्र!
आभार सुन्दर चित्र और कविता के लिये
कविता सुंदर तो है ही अत्यन्त गंभीर अर्थ लिए हुए है। इतने वर्षों के बाद तो और भी अनेक अर्थ दे रही है।
आपकी कविता दिल छूने वाली है . बस आज कुश से आपको 100 नम्बर हर लाइन पर मिलेंगे .
पर आपने नादान किसे कहा :)
कविता बहुत सुंदर लगी! अलंकारों का बड़ा सुंदर प्रयोग हुआ है! चित्र भी बहुत अच्छे लगे!
किसी एक पंक्ति के बारे मे क्यों कहूँ सारी कविता ही शब्द रूपी मोतियों से सजी माला है बहुत सुन्देर्
विवेक भाई क़ी बात टालने क़ी हममे हिम्मत कहा..? हर लाइन के 100 नंबर..
हर बार नया ही अर्थ देती है यह रचना..
पर.. मैं तो नोआह के छवि को निरखने में ही उलझ कर रह गया था !
बहुत सुन्दर कविता और उतने ही सुन्दर फोटो.... आप बहुत खूबसूरत लग रही हैं. ऐसा लगता है जैसे किसी भरतनाट्यम डांसर के फोटो हैं!
aise pita ki santaan hona kai janmo ka punya prabhav hai....! kavita ki prashansha ko shabda dena khud ki tuchchha ko udghatit karna hoga.....!
पण्डित जी की कविता में अपनत्व और पहचानापन लगता है। आजकल की कवितायें अटपटी/अगम्य लगती हैं!
आपकी पोस्ट सदैव पठनीय/दर्शनीय होती है - धन्यवाद।
बहुत अच्छी रचना.......चित्र भी बहुत अच्छे हैं......
आपकी पोस्ट पर फ़ोटॊ इतने सुन्दर और सहज होते हैं कि वो हमेशा ही दर्शनिय रहते हैं, आज तो पिता-पुत्रि के बडे मनमोहक और शालीन चित्र देख कर बहुत अच्छा लगा.
कविता तो अति सुन्दर है ही. बहुत आभार इस कविता के लिये और चित्रो के लिये भी.
रामराम.
आह्ह......क्या कहूँ,
छवि और कविता दोनों ने ही मन हर लिया....
आभार इस अनमोल प्रस्तुति के लिए.
सुन्दर कविता, आभार
'आभार' शब्द अपर्याप्त और बौना अनुभव हो रहा है-यह सुन्दर कविता उपलब्ध्ा कराने के लिए। आपने तो साक्षात सरस्वती की पायजेब के घुंघरू बिखेर दिए आंगन में।
फिर से आभार।
पहले ऊपर की वो दुर्लभ तस्वीरें...फिर एक अद्वितिय रचना...और अचानक से शैशव की वो रंगीन तस्वीर...
कुछ कहना हिमाकत होगी
बेहद प्यारी कविता... और गए दिनों की याद दिलाते चित्र
अब समझ मै नही आ रहा कि सुंदर चित्रो को कहे या कविता को ? चलियए कहते है यादे बहुत सुंदर होती है, तो कविता तो सुंदर है लेकिन चित्रो ने सोने पर सुहागा का काम किया, ओर आप की कविता को चार चांद लगा दिये इन चित्रो ने.
धन्यवाद
काफी दिनों के बाद आपके चिट्ठे पर आने का मौका मिला. अच्छा लगा.
एक अच्छी रचना पढवाने के लिये एवं काफी सारे एतिहसिक चित्र दिखवाने के लिये आभार !!
जब कुश जैसे पारखी ने 100 नम्बर हर लाईन के लिये दिये हैं तो इस मामले में दो राय नहीं हो सकती.
सस्नेह -- शास्त्री
आप सभी का पुन: बहुत बहुत आभार !
-लावण्या
लता जी की फोटोग्राफी में गहन दिलचस्पी के बारे मे पढ़ा भी है और उसे देखा भी है। आपके सुंदर चित्रों के पीछे भी उसी सुरीले व्यक्तित्व की छाया है ये जानना सुखद लगा।
और हां, नन्हें-मुन्ने की छवि हमारे आग्रह पर आपने लगाई, शुक्रिया...
BAhut Bhut aabhar es tarha ki durlabh pic aur kavitao ke liye....
Regards....
अद्भुत...इसे यहाँ बांटने के लिए आपका आभार ..नीचे के हाइकू भी कमाल के है.....आपका उस शेत्र पर अधिकार भी खूब है....देरी के लिए मुआफी.....छुट्टी पर था समझ लीजिये....
आपकी प्रस्तुति पर मेरे उदगार:-
बचपन के पलों की मधुर याद बाकी है,
भीगी पलकों में बंद ख्वाब बाकी है।
संकलित संजोये सनेह-सिक्त चित्रों में,
अतीत की सुधियों का गुणा-भाग बाकी है।
नरेन्द्र जी के चिर-जीवंत गीतों में,
लता जी के स्वर का मधुर आलाप बाकी है।
प्रतिभाशाली ख्यातिप्राप्त गीतकार पिता से,
बेटी लावण्या का अनुराग बाकी है।
कमल ahutee@gmail.com
Apke blog ki tippiniyon ke page ne meri tippiny sweekar nahin ki. astu email dwara preshit karane ko baadhya hun
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