रवि बाबू अपनी डेस्क पर श्री रवीन्द्रनाथ टैगौर (१८६१ -१९४१ ) काव्य पुस्तक "गीतांजलि "बांग्ला कवि गुरूदेव #रवीन्द्रनाथ #टैगोर की सर्वाधिक प्रशंसित और पठित पुस्तक है। सं. १९१० में, विश्व प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार संस्था द्वारा विश्व के सर्वोत्तम साहित्य सृजन के लिए श्री रवीन्द्रनाथ टैगौर को पुरस्कृत किया गया । तद्पश्चात अपने समग्र जीवन काल में वे भारतीय साहित्याकाश पर धूमकेतु सदृश्य छाए रहे। साहित्य की विभिन्न विधाओं, संगीत और चित्र कला में सतत् सृजनरत रहते हुए उन्होंने अन्तिम साँस तक सरस्वती की साधना की तथा भारतवासियों ने उन्हें ' गुरू देव' के सम्बोधन से सम्मानित किया तो भारतवासियों के अगाध स्नेह स्वरूप वे सदा के लिए प्रतिष्ठित हो गए ।
प्रकृति, प्रेम, ईश्वर के प्रति निष्ठा, एवं मानवतावादी मूल्यों के प्रति समर्पण भाव से सम्पन्न काव्य पुस्तक "गीतांजलि" के सभी गीत, पिछली एक सदी से बांग्लाभाषी जनों की आत्मा में रचे ~ बसे हुए हैं। रवींद्र संगीत इसी से उत्पन्न होकर आज एक सशक्त संगीत विधा कहलाता है। विभिन्न भाषाओं में हुए गीतांजलि के गीतों के काव्य अनुवादों के माध्यम से, समस्त विश्व के सह्रदय पाठक अब गुरुदेव श्री रवीन्द्रनाथ टैगौर जी की के भाव सभार गीतों व कविताओं का रसास्वादन कर संपन्न हो चुके हैं।प्रस्तुत अनुवाद हिंदी में भिन्न है कि इसमें मूल बांग्ला रचनाओं के गीतात्मकता को बरकरार रखा गया है, जो इन गीतों का अभिन्न हिस्सा है, इस गेयता के कारण आप इन गीतों को भलीभाँति याद रख सकते हैं।
कविता ~
" तुम्हें रहूँ, प्रभु ! अपना सतत बनाए, इतना-सा ही मेरा ‘मैं’ रह जाए।
तुम्हें निरखता हूँ प्रत्येक दिशा में, अर्पित कर सर्वस्य मिलूँ मैं तुम से;
प्रेम लगाए रहूँ अहर्निश तुम में,इच्छा मेरी इतनी सी रह जीए।
तुम्हें रहूँ प्रभु ! अपना सतत बनाए।।
तुम्हें रखूँ मैं कहीं ढक करके, इतना सा ही मन मेरा बचा रहे।
प्राण-भरित हो लीला,नाथ ! तुम्हारी, रखे हुए हो मुझे इसी भाव से
बँधा रहूँ तव-पाश में चिर मैं, इतना-सा ही बन्धन मेरा रह जाए।
तुम्हें रहूँ प्रभू ! अपना सतत बनाए।।
प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश : डॉ. डोमन साहु ‘समीर कहते हैं :
बँगला भाषा की ‘गीतांजलि’ विश्वविश्रुत कवि रवीन्द्रनाठ ठाकुर (१८६१ -१९४१) की कालजयी कृति है जिस पर उन्हें साहित्य के क्षेत्र में विश्व का सर्वोच्च ‘नोबेल पुरस्कार’ प्राप्त करने का गौरव उपलब्ध रहा है।
वस्तुतः विश्व-साहित्य की एक अपूर्व/अमूल्य निधि है ‘गीतांजलि’।
‘गीतांजलि’ के गीतों के अनुवाद अनेक भाषाओं में हुए हैं। उसके कुछ गीतों के अनुवाद सन्ताली भाषा में किए हैं। विश्वभारती-ग्रन्थ-विभाग, कोलकत्ता द्वारा प्रकाशित बँगला ‘गीतांजलि’ की जो प्रति कुल १५७ गीत हैं। उनमें से जो गीत आत्माभिव्यंजन, अध्यात्म-चिन्तन, जीवन-दर्शन, प्रकृ़ति-चित्रण, भाव-प्रकाशन आदि की दृष्टि से मुझे ‘विशिष्ट’ लगे उन १३८ गीतों के अनुवाद मैंने इस संग्रह में संकलित किए हैं। शेष तीन गीत रबि बाबू की अन्य तीन पुस्तकों से हैं। मेरे द्वारा अनूदित ये सभी गीत लयात्मक और छन्दोबद्ध हैं। यद्यपि इनमें अन्त्यानुप्रास के निर्वाह का कोई आग्रह नहीं है ताकि मूल बँगला गीतों की भाव-सम्पदा की सुरक्षा में कोई व्यवधान न पड़े। प्रस्तुत अनूदित गीतों का प्रकाशन राधाकृष्ण प्रा। लि. नई दिल्ली द्वारा किया जा रहा है जिसके लिए मैं अपना हार्दिक आभार उक्त प्रकाशन-संस्था के प्रति अभिव्यक्त करना चाहूँगा। आशा है, हिन्दी-जगत में इन अनुवादों का स्वागत होगा। इति शुभम् !
२१ नवम्बर, २००२ ई.
-डॉ. डोमन साहु ‘समीर
(१ )
मेरा माथा नत कर दो तुमअपनी चरण-धूलि-तल में;
मेरा सारा अहंकार दोडुबो-चक्षुओं के जल
-मंडित होने में नितमैंने निज अपमान किया है;
घिरा रहा अपने में केवलमैं तो अविरल पल-पल
सारा अहंकार दो डुबो चक्षुओं के जल
करूँ प्रचार नहीं मैं, खुद अपने ही कर्मों से;
करो पूर्ण तुम अपनी इच्छामेरी जीवन-चर्या से
तुमसे चरम शान्ति मैं, परम कान्ति निज प्राणों में;
रखे आड़ में मुझकोआओ, हृदय-पद्म-दल में
सारा अहंकार दो।डुबो चक्षुओं के जल में।।-
आमार माथा नत क’रे दाव तोमार चरण धूलार त’ ले।)
(२ )
विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भीवंचित कर उनसे तुमने की है रक्षा मेरी;संचित कृपा कठोर तुम्हारी है मम जीवन में।अनचाहे ही दान दिए हैं तुमने जो मुझको, आसमान, आलोक, प्राण-तन-मन इतने सारे, बना रहे हो मुझे योग्य उस महादान के ही, अति इच्छाओं के संकट से त्राण दिला करके।मैं तो कभी भूल जाता हूँ, पुनः कभी चलता, लक्ष्य तुम्हारे पथ का धारण करके अन्तस् में, निष्ठुर ! तुम मेरे सम्मुख हो हट जाया करते। यह जो दया तुम्हारी है, वह जान रहा हूँ मैं;मुझे फिराया करते हो अपना लेने को ही।कर डालोगे इस जीवन को मिलन-योग्य अपने, रक्षा कर मेरी अपूर्ण इच्छा के संकट से।।
(आमि / बहु वासनाय प्राणपणे चाइ...। )
(३ )
अनजानों से भी करवाया है परिचय मेरा तुमने;
जानें, कितने आवासों में ठाँव मुझे दिलवायाहैदूरस्थोंको भी करवाया है स्वजन समीपस्थ तुमने,
भाई बनवाए हैं मेरे अन्यों को, जानें, पुरातन वास कहीं जब जाता हूँ, मैं,
‘क्या जाने क्या होगा’-सोचा करता हूँ मैं।नूतन बीच पुरातन हो तुम,
भूल इसे मैं जाता हूँ;दूरस्थों को भी करवाया है स्वजन समीपस्थ
और मरण में होगा अखिल भुवन में जब जो भी,
जन्म-जन्म का परिचित, चिन्होगे उन सबको तुम ही।
तुम्हें जानने पर न पराया होगा कोई भी;नहीं वर्जना होगी और न भय ही कोई
हो तुम मिला सभी को, ताकि दिखो सबमें ही।
दूरस्थों को भी करवाया है स्वजन समीपस्थ तुमने।।
(कत’ अजानारे जानाइले तुमि...। )
(४ )
मेरी रक्षा करो विपत्ति में, यह मेरी प्रार्थना नहीं है;मुझे नहीं हो भय विपत्ति में, मेरी चाह यही है।दुःख-ताप में व्यथित चित्त कोयदि आश्वासन दे न सको तो, विजय प्राप्त कर सकूँ दुःख में, मेरी चाह यही है।।मुझे सहारा मिले न कोई तो मेरा बल टूट न जाए, यदि दुनिया में क्षति-ही-क्षति हो, (और) वंचना आए आगे, मन मेरा रह पाये अक्षय, मेरी चाह यही है।।मेरा तुम उद्धार करोगे, यह मेरी प्रार्थना नहीं है;तर जाने की शक्ति मुझे हो, मेरी चाह यही है। मेरा भार अगर कम करके नहीं मुझे दे सको सान्त्वना, वहन उसे कर सकूँ स्वयं मैं, मेरी चाह यही है।।नतशिर हो तब मुखड़ा जैसे सुख के दिन पहचान सकूँ मैं, दुःख-रात्रि में अखिल धरा यह जिस दिन करे वंचना मुझसे, तुम पर मुझे न संशय हो तब, मेरी चाह यही है।।
(विपोदे मोरे रक्षा क’रो, ए न’हे मोर प्रार्थना)
(५ )
प्रेम, प्राण, गीत, गन्ध, आभा और पुलक में, आप्लावित कर अखिल गगन को, निखिल भुवन को, अमल अमृत झर रहा तुम्हारा अविरल है।दिशा-दिशा में आज टूटकर बन्धन सारा-मूर्तिमान हो रहा जाग आनंद विमल है;सुधा-सिक्त हो उठा आज यह जीवन है।शुभ्र चेतना मेरी सरसाती मंगल-रस, हुई कमल-सी विकसित है आनन्द-मग्न हो;अपना सारा मधु धरकर तब चरणों
जागउठी नीरव आभा में हृदय-प्रान्त में, उचित उदार उषा की अरुणिम कान्ति रुचिर है, अलस नयन-आवरण दूर हो गया शीघ्र है।।
(प्रेमे प्राणे गाने गन्धे आलोके पुलके...।)
(६ )
आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में;
आओ गन्धों में, वर्णों में, गानों में।आओ अंगों में तुम,
पुलिकत स्पर्शों में;आओ हर्षित सुधा-सिक्त सुमनोंमनाओ
मुग्ध मुदित इन दोनों नयनों में;आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में
निर्मल उज्ज्वल कान्त !
आओ सुन्दर स्निग्ध प्रशान्त !
आओ, आओ हे वैचित्र्य-विधानों में।आओ सुख-दुःख में तुम, आओ मर्मों में;आओ नित्य-नित्य ही सारे कर्मों में।आओ, आओ सर्व कर्म-अवसानों में;आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में।।(तुमि ! नव-नव रूपे एसो प्राणे...।)
(७ )
लगी हवा यों मन्द-मधुर इसनाव-पाल पर अमल-धवल है;
नहीं कभी देखा है मैंनेकिसी नाव का चलना
है किस जलधि-पार सेधन सुदूर का ऐसा,
जिससे-बह जाने को मन होता है;
फेंक डालने को करता जीतट पर सभी चाहना-पाना !
पीछे छरछर करता है जल, गुरु गम्भीर स्वर आता है;
मुख पर अरुण किरण पड़ती है, छनकर छिन्न मेघ-छिद्रोंसेकहो, कौन हो तुम ?
कांडारी।किसके हास्य-रुदन का धन है ?
सोच-सोचकर चिन्तित है मन, बाँधोगे किस स्वर में यन्त्र ?
मन्त्र कौन-सा गाना होगा
(लेगेछे अमल धवल पाले मन्द मधुर हावा)
(८ )
कहाँ आलोक, कहाँ आलोक ?
विरहानल से इसे जला
है, दीपक पर दीप्ति नहीं है;
क्या कपाल में लिखा यही है ?
उससे तो मरना अच्छा है;
विरहानल से इसे जलालोव्यथा-दूतिका गाती-प्राण !
जगें तुम्हारे हित भगवान।सघन तिमिर में आधी
रात तुम्हें बुलावें प्रेम-विहार-करने, रखें दुःख से मान।
जगें तुम्हारे हित भगवान।’मेघाच्छादित आसमान है;
झर-झर बादल बरस रहे हैं।
किस कारण इसे घोर निशा मेंसहसा मेरे प्राण जगे हैं ?
क्यों होते विह्वल इतने हैं ?झर-झर बादल बरस रहे हैं।
बिजली क्षणिक प्रभा बिखेरती, निविड़ तिमिर नयनों में भरती।
जानें, कितनी दूर, कहाँ है-गूँजा गीत गम्भीर राग में।
ध्वनि मन को पथ-ओर खींचती, निविड़ तिमिर नयनों में भरती।
कहाँ आलोक, कहाँ आलोक ?
विरहानल से इसे जला लो। घन पुकारता, पवन बुलाता,
समय बीतने पर क्या जाना !निविड़ निशा, घन श्याम घिरे हैं;
प्रेम-दीप से प्राण जला लो।।
(कोथाय आलो, कोथाय ओरे आलो ? )
प्रकृति, प्रेम, ईश्वर के प्रति निष्ठा, एवं मानवतावादी मूल्यों के प्रति समर्पण भाव से सम्पन्न काव्य पुस्तक "गीतांजलि" के सभी गीत, पिछली एक सदी से बांग्लाभाषी जनों की आत्मा में रचे ~ बसे हुए हैं। रवींद्र संगीत इसी से उत्पन्न होकर आज एक सशक्त संगीत विधा कहलाता है। विभिन्न भाषाओं में हुए गीतांजलि के गीतों के काव्य अनुवादों के माध्यम से, समस्त विश्व के सह्रदय पाठक अब गुरुदेव श्री रवीन्द्रनाथ टैगौर जी की के भाव सभार गीतों व कविताओं का रसास्वादन कर संपन्न हो चुके हैं।प्रस्तुत अनुवाद हिंदी में भिन्न है कि इसमें मूल बांग्ला रचनाओं के गीतात्मकता को बरकरार रखा गया है, जो इन गीतों का अभिन्न हिस्सा है, इस गेयता के कारण आप इन गीतों को भलीभाँति याद रख सकते हैं।
कविता ~
" तुम्हें रहूँ, प्रभु ! अपना सतत बनाए, इतना-सा ही मेरा ‘मैं’ रह जाए।
तुम्हें निरखता हूँ प्रत्येक दिशा में, अर्पित कर सर्वस्य मिलूँ मैं तुम से;
प्रेम लगाए रहूँ अहर्निश तुम में,इच्छा मेरी इतनी सी रह जीए।
तुम्हें रहूँ प्रभु ! अपना सतत बनाए।।
तुम्हें रखूँ मैं कहीं ढक करके, इतना सा ही मन मेरा बचा रहे।
प्राण-भरित हो लीला,नाथ ! तुम्हारी, रखे हुए हो मुझे इसी भाव से
बँधा रहूँ तव-पाश में चिर मैं, इतना-सा ही बन्धन मेरा रह जाए।
तुम्हें रहूँ प्रभू ! अपना सतत बनाए।।
प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश : डॉ. डोमन साहु ‘समीर कहते हैं :
बँगला भाषा की ‘गीतांजलि’ विश्वविश्रुत कवि रवीन्द्रनाठ ठाकुर (१८६१ -१९४१) की कालजयी कृति है जिस पर उन्हें साहित्य के क्षेत्र में विश्व का सर्वोच्च ‘नोबेल पुरस्कार’ प्राप्त करने का गौरव उपलब्ध रहा है।
वस्तुतः विश्व-साहित्य की एक अपूर्व/अमूल्य निधि है ‘गीतांजलि’।
‘गीतांजलि’ के गीतों के अनुवाद अनेक भाषाओं में हुए हैं। उसके कुछ गीतों के अनुवाद सन्ताली भाषा में किए हैं। विश्वभारती-ग्रन्थ-विभाग, कोलकत्ता द्वारा प्रकाशित बँगला ‘गीतांजलि’ की जो प्रति कुल १५७ गीत हैं। उनमें से जो गीत आत्माभिव्यंजन, अध्यात्म-चिन्तन, जीवन-दर्शन, प्रकृ़ति-चित्रण, भाव-प्रकाशन आदि की दृष्टि से मुझे ‘विशिष्ट’ लगे उन १३८ गीतों के अनुवाद मैंने इस संग्रह में संकलित किए हैं। शेष तीन गीत रबि बाबू की अन्य तीन पुस्तकों से हैं। मेरे द्वारा अनूदित ये सभी गीत लयात्मक और छन्दोबद्ध हैं। यद्यपि इनमें अन्त्यानुप्रास के निर्वाह का कोई आग्रह नहीं है ताकि मूल बँगला गीतों की भाव-सम्पदा की सुरक्षा में कोई व्यवधान न पड़े। प्रस्तुत अनूदित गीतों का प्रकाशन राधाकृष्ण प्रा। लि. नई दिल्ली द्वारा किया जा रहा है जिसके लिए मैं अपना हार्दिक आभार उक्त प्रकाशन-संस्था के प्रति अभिव्यक्त करना चाहूँगा। आशा है, हिन्दी-जगत में इन अनुवादों का स्वागत होगा। इति शुभम् !
२१ नवम्बर, २००२ ई.
-डॉ. डोमन साहु ‘समीर
(१ )
मेरा माथा नत कर दो तुमअपनी चरण-धूलि-तल में;
मेरा सारा अहंकार दोडुबो-चक्षुओं के जल
-मंडित होने में नितमैंने निज अपमान किया है;
घिरा रहा अपने में केवलमैं तो अविरल पल-पल
सारा अहंकार दो डुबो चक्षुओं के जल
करूँ प्रचार नहीं मैं, खुद अपने ही कर्मों से;
करो पूर्ण तुम अपनी इच्छामेरी जीवन-चर्या से
तुमसे चरम शान्ति मैं, परम कान्ति निज प्राणों में;
रखे आड़ में मुझकोआओ, हृदय-पद्म-दल में
सारा अहंकार दो।डुबो चक्षुओं के जल में।।-
आमार माथा नत क’रे दाव तोमार चरण धूलार त’ ले।)
(२ )
विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भीवंचित कर उनसे तुमने की है रक्षा मेरी;संचित कृपा कठोर तुम्हारी है मम जीवन में।अनचाहे ही दान दिए हैं तुमने जो मुझको, आसमान, आलोक, प्राण-तन-मन इतने सारे, बना रहे हो मुझे योग्य उस महादान के ही, अति इच्छाओं के संकट से त्राण दिला करके।मैं तो कभी भूल जाता हूँ, पुनः कभी चलता, लक्ष्य तुम्हारे पथ का धारण करके अन्तस् में, निष्ठुर ! तुम मेरे सम्मुख हो हट जाया करते। यह जो दया तुम्हारी है, वह जान रहा हूँ मैं;मुझे फिराया करते हो अपना लेने को ही।कर डालोगे इस जीवन को मिलन-योग्य अपने, रक्षा कर मेरी अपूर्ण इच्छा के संकट से।।
(आमि / बहु वासनाय प्राणपणे चाइ...। )
(३ )
अनजानों से भी करवाया है परिचय मेरा तुमने;
जानें, कितने आवासों में ठाँव मुझे दिलवायाहैदूरस्थोंको भी करवाया है स्वजन समीपस्थ तुमने,
भाई बनवाए हैं मेरे अन्यों को, जानें, पुरातन वास कहीं जब जाता हूँ, मैं,
‘क्या जाने क्या होगा’-सोचा करता हूँ मैं।नूतन बीच पुरातन हो तुम,
भूल इसे मैं जाता हूँ;दूरस्थों को भी करवाया है स्वजन समीपस्थ
और मरण में होगा अखिल भुवन में जब जो भी,
जन्म-जन्म का परिचित, चिन्होगे उन सबको तुम ही।
तुम्हें जानने पर न पराया होगा कोई भी;नहीं वर्जना होगी और न भय ही कोई
हो तुम मिला सभी को, ताकि दिखो सबमें ही।
दूरस्थों को भी करवाया है स्वजन समीपस्थ तुमने।।
(कत’ अजानारे जानाइले तुमि...। )
(४ )
मेरी रक्षा करो विपत्ति में, यह मेरी प्रार्थना नहीं है;मुझे नहीं हो भय विपत्ति में, मेरी चाह यही है।दुःख-ताप में व्यथित चित्त कोयदि आश्वासन दे न सको तो, विजय प्राप्त कर सकूँ दुःख में, मेरी चाह यही है।।मुझे सहारा मिले न कोई तो मेरा बल टूट न जाए, यदि दुनिया में क्षति-ही-क्षति हो, (और) वंचना आए आगे, मन मेरा रह पाये अक्षय, मेरी चाह यही है।।मेरा तुम उद्धार करोगे, यह मेरी प्रार्थना नहीं है;तर जाने की शक्ति मुझे हो, मेरी चाह यही है। मेरा भार अगर कम करके नहीं मुझे दे सको सान्त्वना, वहन उसे कर सकूँ स्वयं मैं, मेरी चाह यही है।।नतशिर हो तब मुखड़ा जैसे सुख के दिन पहचान सकूँ मैं, दुःख-रात्रि में अखिल धरा यह जिस दिन करे वंचना मुझसे, तुम पर मुझे न संशय हो तब, मेरी चाह यही है।।
(विपोदे मोरे रक्षा क’रो, ए न’हे मोर प्रार्थना)
(५ )
प्रेम, प्राण, गीत, गन्ध, आभा और पुलक में, आप्लावित कर अखिल गगन को, निखिल भुवन को, अमल अमृत झर रहा तुम्हारा अविरल है।दिशा-दिशा में आज टूटकर बन्धन सारा-मूर्तिमान हो रहा जाग आनंद विमल है;सुधा-सिक्त हो उठा आज यह जीवन है।शुभ्र चेतना मेरी सरसाती मंगल-रस, हुई कमल-सी विकसित है आनन्द-मग्न हो;अपना सारा मधु धरकर तब चरणों
जागउठी नीरव आभा में हृदय-प्रान्त में, उचित उदार उषा की अरुणिम कान्ति रुचिर है, अलस नयन-आवरण दूर हो गया शीघ्र है।।
(प्रेमे प्राणे गाने गन्धे आलोके पुलके...।)
(६ )
आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में;
आओ गन्धों में, वर्णों में, गानों में।आओ अंगों में तुम,
पुलिकत स्पर्शों में;आओ हर्षित सुधा-सिक्त सुमनोंमनाओ
मुग्ध मुदित इन दोनों नयनों में;आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में
निर्मल उज्ज्वल कान्त !
आओ सुन्दर स्निग्ध प्रशान्त !
आओ, आओ हे वैचित्र्य-विधानों में।आओ सुख-दुःख में तुम, आओ मर्मों में;आओ नित्य-नित्य ही सारे कर्मों में।आओ, आओ सर्व कर्म-अवसानों में;आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में।।(तुमि ! नव-नव रूपे एसो प्राणे...।)
(७ )
लगी हवा यों मन्द-मधुर इसनाव-पाल पर अमल-धवल है;
नहीं कभी देखा है मैंनेकिसी नाव का चलना
है किस जलधि-पार सेधन सुदूर का ऐसा,
जिससे-बह जाने को मन होता है;
फेंक डालने को करता जीतट पर सभी चाहना-पाना !
पीछे छरछर करता है जल, गुरु गम्भीर स्वर आता है;
मुख पर अरुण किरण पड़ती है, छनकर छिन्न मेघ-छिद्रोंसेकहो, कौन हो तुम ?
कांडारी।किसके हास्य-रुदन का धन है ?
सोच-सोचकर चिन्तित है मन, बाँधोगे किस स्वर में यन्त्र ?
मन्त्र कौन-सा गाना होगा
(लेगेछे अमल धवल पाले मन्द मधुर हावा)
(८ )
कहाँ आलोक, कहाँ आलोक ?
विरहानल से इसे जला
है, दीपक पर दीप्ति नहीं है;
क्या कपाल में लिखा यही है ?
उससे तो मरना अच्छा है;
विरहानल से इसे जलालोव्यथा-दूतिका गाती-प्राण !
जगें तुम्हारे हित भगवान।सघन तिमिर में आधी
रात तुम्हें बुलावें प्रेम-विहार-करने, रखें दुःख से मान।
जगें तुम्हारे हित भगवान।’मेघाच्छादित आसमान है;
झर-झर बादल बरस रहे हैं।
किस कारण इसे घोर निशा मेंसहसा मेरे प्राण जगे हैं ?
क्यों होते विह्वल इतने हैं ?झर-झर बादल बरस रहे हैं।
बिजली क्षणिक प्रभा बिखेरती, निविड़ तिमिर नयनों में भरती।
जानें, कितनी दूर, कहाँ है-गूँजा गीत गम्भीर राग में।
ध्वनि मन को पथ-ओर खींचती, निविड़ तिमिर नयनों में भरती।
कहाँ आलोक, कहाँ आलोक ?
विरहानल से इसे जला लो। घन पुकारता, पवन बुलाता,
समय बीतने पर क्या जाना !निविड़ निशा, घन श्याम घिरे हैं;
प्रेम-दीप से प्राण जला लो।।
(कोथाय आलो, कोथाय ओरे आलो ? )
18 comments:
-डॉ. डोमन साहु ‘समीर द्वारा गुरुदेव की गीतांजली के बंगला से हिन्दी में अनुवादित गीत पढ़वाने के लिए आपका बहुत २ आभार ! आपने पुस्तक के प्रकाशक का नाम देकर भी बहुत उपकार किया है जिससे खरीदने में दिक्कत नही होगी ! धन्यवाद!
गीतांजलि गुरूदेव की अदभुत रचना है। गुरूदेव को नमन। आप का आभार आप ने उन्हें स्मरण का अवसर दिया।
bahut achchi rachna padwaai aur upyogi jankari di.
http://www.ashokvichar.blogspot.com
गुरुदेव पर इस प्रस्तुति के लिए आभार !
आप का बहुत आभार
बहुत सुंदर. गुरुदेव की रचनाएं अद्भुत हैं ....
अच्छा लगा इसको पढ़ना शुक्रिया
गीतांजलि की रचनाये मेरी पसंदिता हैं ,आदरणीय रविन्द्र नाथ जी की कविताये स्वयं में अद्वितीय हैं .आपका आभार
गीतांजलि की रचनाये मेरी पसंदिता हैं ,आदरणीय रविन्द्र नाथ जी की कविताये स्वयं में अद्वितीय हैं .आपका आभार
आपकी हर पोस्ट से बहुत कुछ नया मिलता है। यह पोस्ट तो encyclopedic है!
gurudev ki kavitaayen lajawaab hain.....dhanyvaad yaha padhwane ke liye.
गुरूदेव को नमन। आप का आभार आप ने उन्हें स्मरण का अवसर दिया।
आप सभी का आभार ~~ गुरुदेव का स्मरण साहित्य का स्मरण ही तो है !
very good , its wonderful,nalinikamalini kathak duo
writing of guru dev ji very rythmic appropriate for music compostions.nalinikamalini
Great sir you have done
a great job I feel very glad to read your translated songs of geetanjli and most of all these are very musical and poetic in hindi also
guru dev aapko namn hamish
Kash me us samay janm leta.Aur gurudev se shikchha leta.us mahan atma ke prakash ko chhu leta.Ap chir kal tak amar rhe. Attri
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