रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरतेऔर लाखों बार
तुझ-से पागलों को भी चांदनी में बैठ
स्वप्नों पर सही करते आदमी का स्वप्न?
है वह बुलबुला जल का आज बनता
और कल फिर फूट जाता हैकिन्तु,
फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।
मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने,
जिसकीकल्पना की जीभ में भी धार होती है,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।
दिनकर जी का जन्म भूमिहार ब्राह्मण : Brahmin परिवार में हुआ / सिमरिया गाँव , बेगुसराय तालुका, बिहार : Bihar वीर रस के कवि की जन्मभूमि है।
वे ३ बार रज्य सभाके मनोनीत सदस्य रहे और पद्म भूषण से भी सुशोभित किये गये थे । दिनकर जी न केवल एक महान साहित्यकार थे बल्कि गृह मंत्रालय में हिन्दी सलाहकार के रूप में उन्होंने दक्षिण एवं उत्तरी भारत को भाषाई स्तर पर जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
मानस बवेजा से सुनिए "रश्मि रथी "
बढ़कर विपत्ति पर छा जा , मेरे किशोर मेरे ताज़ा ,
जीवन का रस छन जाने दे , तन को पत्थर बन जाने दे ,
तू स्वयं तेज भयकारी है , क्या कर सकती चिंगारी है ?"
(रश्मिरथी , सर्ग ३ )
दिनकर जी की बड़ी सुंदर पंक्तियां हैं-
" बड़ा वो आदमी जो जिंदगी भर काम करता है।
बड़ी वो रूह जो तन से बिना रोए निकलती है।"
क्षमा शोभती उसी भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दन्त हीन, विषरहित,विनीत,सरल हो।
दिनकर जी की सर्व प्रथम प्रकाशित कृति है : विजय संदेश १९२८
प्रन्भंग १९२९
रेणुका : Renuka १९३५
हुंकार : १९३८
रसवंती : १९३९
द्वंद्वगीत : १९४०
कुरुक्षेत्र : Kurukshetra१९४६
धुप छाँव : १९४६
सामधेनी १९४७
बापू १९४७
इतिहास के आंसू १९५१
धुप और धुआं १९५१
मिर्च का मज़ा १९५१
रश्मिरथी : १९५४
नीम के पत्ते १९५४
सूरज का ब्याह १९५५
नील कुसुम १९५४
चक्रवाल १९५६
कविश्री १९५७
सीपी और शंख १९५७
नए सुभाषित १९५७
रामधारी सिंघ 'दिनकर '
Urvashi उर्वशी : १९६१ : ज्ञान पीठ पुरस्कार
परशुराम की प्रतीक्षा १९६३
कोयला और कवित्व १९६४
मृत्ति तिलक १९६४
आत्मा की आंखे १९६४
हारे को हरिनाम १९७०
काव्य संचय :
लोकप्रिय कवि दिनकर : १९६०
दिनकर की सूक्तियां : १९६४
दिनकर के गीत : १९७३
संचयिता : १९७३
रश्मिलोक : १९७४
उर्वशी तथा अन्य श्रृंगारिक कवितायें : १९७४
दूसरी रचनाएं :
मिटटी की ओर : १९४६
चित्तौर का साका : १९४८
अर्धनारीश्वर : १९५२
रेती के फूल : १९५४
हमारी सांस्कृतिक एकता : १९५४
भारत की सांस्कृतिक कहानी : १९५५
राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता : १९५५
उजली आग : १९५६
संस्कृति के चार अध्याय : १९५६ : साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कृति
काव्य की भूमिका : १९५८
पन्त , प्रसाद और मैथिलीशरण : १९५८
वेणु वन : १९५८
धर्मं , नैतिकता और विज्ञानं : १९५९
वट - पीपल : १९६१
लोकदेव नेहरू : १९६५
शुद्ध कविता की खोज : १९६६
साहित्यामुखी : १९६८
हे राम ! : १९६८
संस्मरण और श्रद्धांजलियां : १९७०
मेरी यात्रायें : १९७१
भारतीय एकता : १९७१
दिनकर की डायरी : १९७३
चेतना की शिला : १९७३
विवाह की मुसीबतें : १९७३
आधुनिक बोध : १९७३
"दिनकर" जी के कुछ काव्य संकलन हैं
दिनकर चाचाजी का व्यक्तित्व बेहद प्रभावशाली था। मेरी मुलाक़ात जब हिन्दी साहित्य केतेजस्वी कवि श्री दिनकर जी से हुई तब मेरी उमर शायद २० बरस की होगी ।
गायत्री दीदी का ब्याह हिन्दी के कवि श्री शिव शंकर शर्मा " राकेश " जी से , दिल्ली में जब हुआ था तब हम नेताजी नगर , दिल्ली में , पापा जी के साथ ,
शादी के समारोह में खुश हो रहे थे !
श्री दिनकर जी , बच्चन जी , नागेन्द्र जी इत्यादि कई महानुभाव पधारे थे .....
श्री दिनकर जी ,उनकी खुली, उन्मुक्त, ठहाकेदार हँसी, चमकता हुआ दीव्य ऊँचा ललाट, सुफेद झक्क धोती, उस पे पहना रेशमी कुर्ता ,
आज भी आँखोँ के सामने स्पष्ट है
फ़िर कई बरसों के बाद उनके निधन की दुखद घटना के बारे मेँ मेरी अम्मा ने जो रोमाँचक बात बतलाई थी वह याद आ रही है -
श्री दिनकर चाचा जी किन्हीँ निजी मामलोँ मेँ उलझ कर असँतुष्ट थे।
उनके जीवन की सँध्या काल मेँ वे अपनोँ से ही शायद किन्हीँ कारणोँ से
मन ही मन कुछ खिन्नता महसूस कर रहे थे।
इसी मन:स्थिती मेँ वे भुवनेश्वर के सुप्रसिध्ध जगन्नाथ धाम मँदिर के लिये अपना घर छोड कर वे यात्रा पे निकले थे -
जैसे ही मँदिर के प्राँगण मेँ उन्होँने प्रवेश किया और भक्ति भाव से दोनोँ हाथ प्रणाम मुद्रा मेँ उपर की ओर उठाये और प्रभु
को " जय हो ! " की गुहार की,
ठीक उसी वक्त, दैव योग से कवि के प्राण पँखेरु उड गये !
ये कितनी विस्मयकारी बात है ना ?
उनकी आत्मा दिव्य रही होगी जो प्रभु ने वहीँ पर उन्हेँ अपनी शरण मेँ ले लिया !
लाल कीले की प्राचीर से देश भक्ति की वीर रस से ओत - प्रोत कविताओँ का
स -स्वर पाठ करनेवाले हमारे राष्ट्रकवि दिनकर जी
चाचाजी हिन्दी काव्य जगत के अनमोल रतन हैँ!
आप सभी ने एक प्रभावशाली एवँ ओजस्वी कविवर दिनकर जी की कविताओँ को चाव से पढा होगा -आज उन्हेँ देखिये, एक बेटी की द्रष्टि से,जैसे कोई एक घर के सद्स्य को देखता है ॥
मेरी नज़रोँ से देखिये ..
उनकी महानता का बोध, मुझ अबोध को उस समय कम ही रहा होगा -
आज जब उनकी काव्य पँक्तियाँ, विशुध्ध देश प्रेम की वैतरणी सम जन मन की मलिनता को धोती हुई पावन करती हुई बहतीँ हैँ तब सोचती हूँ ,
कि ईश्वर हर मनुष्य की आत्मा की ना जाने कितनी कसौटीयाँ लेते हैँ।
तभी तो हरेक आत्मा कुँदन की तरह तप कर, और निखरती है और जब इस प्रक्रिया का अँत होता है तब जो मूल तत्त्व है वह, स्वर्ण सा दमकता हुआ उस पूर्ण मेँ समा जाता है -
अहम्` ब्रह्म्` मेँ विलीन हो जाता है
सदा सदा के लिये और मुक्ति के द्वार खुल जाते हैँ
श्री दिनकर जी , उनकी कालजयी कविताओं द्वारा सदा अमर रहेँगेँ !
उनकी पावन स्मृतियोँ को मेरे शत शत प्रणाम !!
-- लावण्या
19 comments:
एक अच्छी प्रस्तुती के लिये बधाई!!मुझे उनकी ये चार लाईने ज्यादा पसंद है !!
होश करो दिल्ली के देवो होश करो
सब दिन यह मोहनी ना चलने वाली है
होती जाती है गर्म दिशाओ की सांसे
लगता है धरती फ़िर कोई आग उगलने वाली है!!
17 वर्ष की आयु में मैने उनका काव्य उर्वशी पढ़ा। और मैं दिनकर मय हो गया था। उसी वर्ष मेरी पहल पर एक साहित्यिक संस्था दिनकर साहित्य समिति का गठन हुआ। यह संस्था अभी तक मेरे पैतृक नगर बाराँ में जीवित है।
वे उस समय के भारत की आकांक्षाओं के कवि थे, इसी कारण उन्हें राष्ट्र कवि कहा गया।
दिनकर जी को पढाने का शुक्रिया । मेरी प्रिय पंक्तियाँ हैं ये,
क्षमा शोभती उसी भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दन्त हीन, विषरहित,विनीत,सरल हो।
लावण्या जी,
दिनकर जी को स्कूल में काफी पढा था, मगर उनके बारे में बहुत जानकारी नहीं थी. इतना सब बताने के लिए बहुत धन्यवाद. मानस बवेजा का रश्मि रथी का काव्यपाठ भी बहुत कर्णप्रिय बन पडा है.
दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएँ ! सम्पूर्ण आलेख अत्यन्त सुंदर है ! इस पुरे काव्य को पढ़वाने के लिए बहुत धन्यवाद !
बहुत अच्छा प्रयास है। दिनकर की कविताओं से होश आ जाता है। जोश के साथ।
दिनकर जी का कवि रूप तो अप्रतिम हैं ही पर एक इतिहासकार, दार्शनिक और अध्येता वाला रूप संस्कृति के चार अध्याय में नज़र आता है। यह मेरी प्रिय पुस्तक है।
विजयादशमी की शुभकामनाएं...
दशहरा के पावन पर्व पर राष्ट्रकवि दिनकर का पुण्य स्मरण आह्लादित करनेवाला है। आपका सौभाग्य है कि आपको ऐसे मनीषियों का सानिध्य मिला है।
कोटिश धन्यवाद आप को दिनकर जी के बारे में इतनी सारगर्भित जानकारी और उनकी अद्भुत रचनाएँ पढ़वाने के लिए...
नीरज
यह तो पोस्ट के रूप में एक नगीना है। दिनकर जी के बारे में और उनकी रचनायें पढ़ी बहुत हैं; पर आपकी पोस्ट के रूप में एक समग्र दृष्टि मिली उनके विषय़ में। और रश्मिरथी का ऑडियो लिंक तो बहुत ही जमा।
इस पोस्ट के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनांयें ।
दिनकर जी पर आपका यह संस्मरण मन को छू गया ! आप सौभग्यशाली है कि आपने अपनी आंखों से उन्हें देखा था !
उनका काव्य ओज आज भी पाठकों में अजस्र ऊर्जा का संचार करता है !
Dinkar Ji Bachapan se mere priya kavi rahe hai.n. Parantu aaj aapne mere ek bram toda, ki vo Brahman Parivar me janme the, naam ke aage Singh hone se mai yah nahi jaan pati thi..khair inssaniyat ka koi kul gotra to hota nahi...! Dinkar ji ki mritu ke vishay me bhi jo jaankaari di vo navin thi aur ye kavita to meri bahut priya kavita rahi hi hai.. Urvashi ko padhne ke baad prem se adhyatma tak ka safar tay ho jaat hai.
बचपन में पढ़ी ये कविता आज फ़िर याद दिला दी आपने....कभी कभी लगता है आप अपने भीतर कितना कुछ समेटे हुए है.
श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' जी की रचनये बचपन मे बहुत पढते थै, ओर याद ना रखने पर पापा से ओर कभी कभी मास्टर जी से मार भी खाते थे,लेकिन सभी रचानये अभी तक याद है जितनी पढी थी.... ओर आज फ़िर आप ने याद दिला दिया.उन की कविताये तो तोते की तरह से रटी है,
आप ने उन के बारे इतना कुछ विस्तार से लिखा, हमे बहुत नयी जानकारी मिली.
धन्यवाद
दिनकर जी की तरह ओज और किसी कवि की लेखनी में नहीं दीखता. श्रद्धांजलि दिनकरजी को.
आप सभी की टीप्पणी का शुक्रिया
स स्नेह्,
लावण्या
bahut acche.
दिनकर जी के अन्तर्मन में निहित, नारी के अस्तित्व को उकेरती, 'उर्वशी, की यह अद्भुत उक्ति,भला किसे रोमांचित नहीं करती -
मैं नाम गोत्र से रहित पुष्प,
अम्बर में उड़ती हुई मुक्त आनन्द शिखा
... ... ,
देवालय में देवता नहीं केवल मैं हूँ।
मेरी प्रतिमा को घेर उड़ रही अगुरु-गन्ध,
बज रहा अर्चना में मेरी मेरा नूपुर।
भू-नभ का सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है,
सारी कविता जयगान एक मेरे त्रयलोक-विजय का है।
Post a Comment