चित्रकार श्री लक्ष्मण पै के साथ पद्मा जी
मैं कहती हूँ आँखिन देखी .,
मैं कहती हूँ आँखिन देखी .,
पुस्तक का कवर पेज
एक ख़बर ये भी है कि, मेरे जाल घर की कीमत है
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ऐसा मैं यहाँ से जान पाई हूँ !
श्रीमती पद्मा सचदेव लाल डेड ,अरिन माल , हब्बा ये नाम कश्मीर की खुबसूरत वादियों से गूंजी और उसी सरज़मीन पर जन्मी , कवियात्रीयों की सूची है जिस में आज पद्मा जी का नाम भी शामिल हो गया है। पद्मा जी का जन्म १९४० में , प्रोफेसर जे देव बदु जो संस्कृत के विद्वान थे उनकी प्रथम संतान के रूप में , हुआ था। १९४७ के विभाजन के बाद वे देवका नदी के किनारे बसे पुर्णमँडल गाँव में आ बसे। शैशव मेँ सुनी अपनी प्यारी मातृभाषा डोगरी मेँ पद्मा जी ने छोटी छोटी कविता रच कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया और पिता के पैरोँ तले बैठ, सँस्कृत के श्लोक भी बोले हैँ। कोलेज के स्टेज पर पढी डोगरी कविता को "सँदेश " पत्रिका मेँ स्थान मिला सँपादक वेद पाल दीप जी के सौजन्य से ~~ जो पद्मा से १२ साल बडे थे १६ साल की पद्मा से पर दोनोँ को प्यार हो गया और दोनोँ के परिवारोँ की मरज़ी ना होते हुए भी प्यार परवान चढा!
उसके बाद पद्माजी ने ३ साल श्रीनगर अस्पताल मेँ बिताये और वे राजरोग यक्ष्मा से पीडीत रहीँ ! १४ वर्ष की ऊम्र मेँ लिखी पद्मा जी की कविता "राजा दीयाँ मन्डीयाँ " डोगरी भाषा की हर किताब का हिस्सा बन गई है।
स्वस्थ होने के बाद रेडियो कश्मीर ,जम्मू के लिये कई बरसोँ तक पद्मा जी ने कार्य भार सम्भालाऔर वे उनके पति से अलग हो गईँ। जम्मू कश्मीर के मुख्य मँत्री ने पद्माजी को सहकार पत्र दिया जिसे लेकर वे जम्मू मेँ उनके खिलाफ हो उठे मध्य वर्गीय समाज को पीछे छोड, दिल्ली का रुख किया जहाँ उनकी दोस्ती शास्त्रीय गायक श्री सुरिँदर सिँह जी से प्रगाढ होती गई।
सन १९६९ मेँ पद्मा जी की काव्य पुस्तक निकली जिसकी भूमिका राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिँह दिनकर जी ने लिखी थी और कहा था,
" जो पद्मा लिखती है वही कविता है जिसे पढकर लगता
है मैँ अपनी लेखनी फेँक दूँ ! "
" हर कलाकार उतना बड़ा होता है जितना वोह
अपने अन्दर के बच्चे को बचा कर रखता है "
ये पद्मा जी का कहना है ~~ ये फ़िल्म गीत है !
(१ )
ये नीर कहाँ से बरसे हैये बदरी कहाँ से आई है) -२ये बदरी कहाँ से आई है
गहरे गहरे नाले गहरा गहरा पानी रेगहरे गहरे नाले, गहरा पानी रेगहरे मन की चाह अनजानी रेजग की भूल-भुलैयाँ में -२कूँज कोई बौराई है
ये बदरी कहाँ से आई है
चीड़ों के संग आहें भर लींचीड़ों के संग आहें भर लींआग चनार की माँग में धर लीबुझ ना पाये रे, बुझ ना पाये रेबुझ ना पाये रे राख में भी जोऐसी अगन लगाई है
ये नीर कहाँ से बरसे है ...
पंछी पगले कहाँ घर तेरा रेपंछी पगले कहाँ घर तेरा रेभूल न जइयो अपना बसेरा रेकोयल भूल गई जो घर -२वो लौटके फिर कब आई है -२
ये नीर कहाँ से बरसे हैये बदरी कहाँ से आई है
गहरे गहरे नाले गहरा गहरा पानी रेगहरे गहरे नाले, गहरा पानी रेगहरे मन की चाह अनजानी रेजग की भूल-भुलैयाँ में -२कूँज कोई बौराई है
ये बदरी कहाँ से आई है
चीड़ों के संग आहें भर लींचीड़ों के संग आहें भर लींआग चनार की माँग में धर लीबुझ ना पाये रे, बुझ ना पाये रेबुझ ना पाये रे राख में भी जोऐसी अगन लगाई है
ये नीर कहाँ से बरसे है ...
पंछी पगले कहाँ घर तेरा रेपंछी पगले कहाँ घर तेरा रेभूल न जइयो अपना बसेरा रेकोयल भूल गई जो घर -२वो लौटके फिर कब आई है -२
ये नीर कहाँ से बरसे हैये बदरी कहाँ से आई है
(२ )
मेरा छोटा सा घरबार मेरे अंगना में -२
छोटा सा चंदा छोटे छोटे तारेरात करे सिंगार मेरे अंगना में
मेरा छोटा सा घरबार मेरे अंगना में
(प्यारा सा गुड्डा मेरा अम्बर से आया -२अम्बर से आया मेरे मन में समाया ) -२कण - कण में जागा है प्यार मेरे अंगना में -२
मेरा छोटा सा घरबार ...
# हुम्मिन्ग #
(देहरी रंग लूँ अंगना बुहारूँ तुलसी मैया मैं तोरी नजर उतारूँ) -२प्यार खड़ा मेरे द्वार मेरे अंगना में -२
मेरा छोटा सा घरबार ...
छोटा सा चंदा छोटे छोटे तारेरात करे सिंगार मेरे अंगना में
मेरा छोटा सा घरबार मेरे अंगना में
(प्यारा सा गुड्डा मेरा अम्बर से आया -२अम्बर से आया मेरे मन में समाया ) -२कण - कण में जागा है प्यार मेरे अंगना में -२
मेरा छोटा सा घरबार ...
# हुम्मिन्ग #
(देहरी रंग लूँ अंगना बुहारूँ तुलसी मैया मैं तोरी नजर उतारूँ) -२प्यार खड़ा मेरे द्वार मेरे अंगना में -२
मेरा छोटा सा घरबार ...
"तावी ते चहान " १९७६ मेँ नेहरियान गलियाँ, १९८२ मेँ और " पोट पोट निम्बल" १९८२ मेँ और १९९९ मेँ " तनहाईयाँ" उनकी कविताओँ की कीताबेँ प्रकाशित हुईँ
" उत्तरबाहिनी" और " ताँथियाँ" उनकी दूसरी शारिरिक बीमारी के बाद लिखी गई कविताओँ की पुस्तक हैँ ।
मैं कहती हूँ आखिन देखी : पद्मा सचदेव : प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
सारांश:
( पदमा सचदेव जी ने देश-विदेश की बहुतेरी यात्राएं की, जिनमें से कुछ विशेष के वृत्तान्त उनकी इस पुस्तक में संगृहीत है।
कहना न होगा कि यहाँ उनकी सृजनात्मकता का एक अलग और अनोखा विस्तार है, जिसमें उत्कटता और उत्ताप की थरथराहट निरन्तर बरकरार रहती है।)
" जय माता दी .... जम्मू के करीब आते ही जब ट्रेन छोटी-छोटी नदियों के खड्डों से गुजर रही होती है, तभी दाहिनी ओर के पहाड़ों में तीन शिखर बड़े-बुजुर्गों की तरह सिर जोड़े बैठे दिखाई देते हैं। जैसे एक तन पर तीन सिर हों। पहाड़ी की इस चोटी को त्रिकुटा पर्वत कहते हैं और इसी के नीचे वह सुन्दर और रहस्यमय गुफा है,
जहाँ माता वैष्णों का निवास है।
‘पहाड़ें आली माता तेरी सदा ई जै’ पहाड़ों वाली माता तुम्हारी सदा ही जय हो और ‘जै माता दी’ के नारों से आकाश झूम उठता है। त्रिकुटा माता भी हम इसे कहते हैं। इसके चरणों में बसा डोगरा वीरों का सुन्दर और पहाड़ों के दामन से आने वाली नम हवाओं में धुला-धुलाया यह जम्मू शहर मन्दिर की घण्टियों से जगता है,
‘पहाड़ें आली माता तेरी सदा ई जै’ पहाड़ों वाली माता तुम्हारी सदा ही जय हो और ‘जै माता दी’ के नारों से आकाश झूम उठता है। त्रिकुटा माता भी हम इसे कहते हैं। इसके चरणों में बसा डोगरा वीरों का सुन्दर और पहाड़ों के दामन से आने वाली नम हवाओं में धुला-धुलाया यह जम्मू शहर मन्दिर की घण्टियों से जगता है,
श्लोक और वेदमंत्र सुनकर आँखे खोलता है,
तवी में नहाने जाती बड़ी-बूढ़ियों की फुसफुसाहट से अँगड़ाई तोड़ता है।
इसके मन्दिरों के सोने के कलश सुबह के समय कच्चे वासन्ती रंग की किरणों की फुहार से गेंदे के फूलों की रंगत से होड़ करते हैं...दोपहर को मजदूर या किसान के तपे हुए मुँह से जैसे पसीना पोंछते दिखाई देते हैं और शाम को जाती किरणों के साये में हवनकुण्ड में बुझती-जलती आग की तरह चमक उठते हैं। मन्दिरों का यह शहर मानो कोई पुराना तपस्वी है।माँ का भवन जम्मू से 39 मील की दूरी पर है। पर पहाड़ की दूसरी जगहों की तरह खूब पास दिखाई देता है। किसी-किसी ऊँचे घर से पहाड़ पर खड़े बिजली के खम्भे रात को चमकती तारों की झिलमिल में उन सुन्दर स्त्रियों जैसे लगते हैं, जो किसी आहट को सुनकर अपने हाथ में उठायी दीये की थाली को थामे ठिठक गयी हों। पहाड़ों में आती पुजारियों से पुजी हुई हवा भी मानो यह दृश्य देखने के लिए रुक जाती है।
‘सन्तो जै माता दी.. कहते-कहते कोई बुढ़िया अपने घुटने थामे सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ती है। ऊपर से आता कोई सन्त कह उठता है-
बस करीब ही है माता का भवन।
इसके मन्दिरों के सोने के कलश सुबह के समय कच्चे वासन्ती रंग की किरणों की फुहार से गेंदे के फूलों की रंगत से होड़ करते हैं...दोपहर को मजदूर या किसान के तपे हुए मुँह से जैसे पसीना पोंछते दिखाई देते हैं और शाम को जाती किरणों के साये में हवनकुण्ड में बुझती-जलती आग की तरह चमक उठते हैं। मन्दिरों का यह शहर मानो कोई पुराना तपस्वी है।माँ का भवन जम्मू से 39 मील की दूरी पर है। पर पहाड़ की दूसरी जगहों की तरह खूब पास दिखाई देता है। किसी-किसी ऊँचे घर से पहाड़ पर खड़े बिजली के खम्भे रात को चमकती तारों की झिलमिल में उन सुन्दर स्त्रियों जैसे लगते हैं, जो किसी आहट को सुनकर अपने हाथ में उठायी दीये की थाली को थामे ठिठक गयी हों। पहाड़ों में आती पुजारियों से पुजी हुई हवा भी मानो यह दृश्य देखने के लिए रुक जाती है।
‘सन्तो जै माता दी.. कहते-कहते कोई बुढ़िया अपने घुटने थामे सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ती है। ऊपर से आता कोई सन्त कह उठता है-
बस करीब ही है माता का भवन।
‘पैड़ी-पैड़ी चड़ दे जाओजै माता दी करदे जाओ’
(सीड़ियाँ चढ़ते चलो और माता की जय बोलते चलो)
इस भीड़ में बूढ़े, जवान, बच्चे, नये ब्याहे हुए, नये पैदा हुए और कन्याएँ सब शामिल रहते हैं। कोई पिट्ठू अपने पीछे किसी गदवदे बच्चे को बिठाए छड़ी के साथ ऊपर चढ़ता जाता है। कोई डोली में, कोई घोड़े पर। अधिकतर पैदल। माँ भी तभी प्रसन्न होती है। बादशाह अकबर भी नंगे पाँव पैदलचलकर आये थे और सोने का छत्र चढ़ाया था।माता वैष्णों के दर्शनों को जाना मानो प्रकृति के घर के आँगन के बीचो–बीच गुजर कर निकलना हो। यह प्रकृति कभी भरे हुए बादलों की सूरत में आकर आपको अपनी आगोश में ले लेती है, कभी जंगली फूलों की सुगन्ध का रूप धरकर आपके ऊपर चुल्लू भर सुगन्ध फेंक जाती है, कभी एक मालिन की तरह आँचल में फूल लिये खड़ी मिलती है और कभी एक कन्या की तरह, जो स्वयं देवी ही हो। कभी-कभी लोगों को लाल कपड़े पहने एक कन्या अपनी सहेलियों के संग दिखाई दी है जो कभी गिट्टे और कभी गेंद खेलती है।
इस कहानी पर माता के भजन भी बने।
‘पंज सत्त कंजका खेडदियांबिच्च खेड्डै आधकुआंरी’ (पाँच-सात कन्याएँ खेल रही हैं, उनमें अधकुँआरी भी है)माता की स्तुति में गाये जाने वाले भजनों को भेटाँ कहते हैं।छुटपुन में जब अपने गाँव पुरमण्डल में मैं बाकी लड़कियों के साथ नवरात्रि रखती थी, तब रोज शाम को उस घर में एकत्रित होते थे, जहाँ माता की ‘साख’ बोयी जाती थी। साख माने जौ के दाने एक मिट्टी के बर्तन में बोये जाते हैं और उस पर लाल कपड़े का पर्दा किया जाता है। जिसकी साख खूब बड़ी होती है वह भाग्यशालियों में गिना जाता। लाल किनारी जड़े कपड़े में वह पीली हरी साख खूब सुन्दर लगती। एक पुजारिन होती जिसे हम डोगरी में ‘पचैलन’ कहते हैं, वह पूजा करती। फिर बहुत बड़े आँगन में ढोलकी पर भेंटें गायी जातीं। जब भेंटें खत्म होतीं तब डोगरी के लोकगीत गाये जाते। नवरात्रों की समाप्ति के दिन गोपियाँ कान्ह बनते पुरमण्डल के छोटे से गाँव की हर दुकान पर जातीं, एक-एक ताँबे का पैसा मिलता, जो बाद में सबमें बँटता। यह भी होड़ रहती कि किसकी राधा अधिक सुंदर है। किसके कान्ह का श्रंगार अद्वितीय है। इसके अलावा सुबह जब हम देविका में नहाने जाते थे, तब पुजारिन कौन है, यह बात गुप्त रखी जाती थी। नहीं तो दूसरी टोली की लड़कियाँ उस पर अपना साया डाल देतीं तो उसे दोबारा नहाना पड़ता था। देविका को गुप्त गंगा भी कहते हैं। उसमे पतला-सा पानी का प्रवाह तो रहता है पर जगह-जगह रेत खोदकर छोटे ‘सूटे’ (छोटा जलाशय) बनाये जाते हैं।
‘पंज सत्त कंजका खेडदियांबिच्च खेड्डै आधकुआंरी’ (पाँच-सात कन्याएँ खेल रही हैं, उनमें अधकुँआरी भी है)माता की स्तुति में गाये जाने वाले भजनों को भेटाँ कहते हैं।छुटपुन में जब अपने गाँव पुरमण्डल में मैं बाकी लड़कियों के साथ नवरात्रि रखती थी, तब रोज शाम को उस घर में एकत्रित होते थे, जहाँ माता की ‘साख’ बोयी जाती थी। साख माने जौ के दाने एक मिट्टी के बर्तन में बोये जाते हैं और उस पर लाल कपड़े का पर्दा किया जाता है। जिसकी साख खूब बड़ी होती है वह भाग्यशालियों में गिना जाता। लाल किनारी जड़े कपड़े में वह पीली हरी साख खूब सुन्दर लगती। एक पुजारिन होती जिसे हम डोगरी में ‘पचैलन’ कहते हैं, वह पूजा करती। फिर बहुत बड़े आँगन में ढोलकी पर भेंटें गायी जातीं। जब भेंटें खत्म होतीं तब डोगरी के लोकगीत गाये जाते। नवरात्रों की समाप्ति के दिन गोपियाँ कान्ह बनते पुरमण्डल के छोटे से गाँव की हर दुकान पर जातीं, एक-एक ताँबे का पैसा मिलता, जो बाद में सबमें बँटता। यह भी होड़ रहती कि किसकी राधा अधिक सुंदर है। किसके कान्ह का श्रंगार अद्वितीय है। इसके अलावा सुबह जब हम देविका में नहाने जाते थे, तब पुजारिन कौन है, यह बात गुप्त रखी जाती थी। नहीं तो दूसरी टोली की लड़कियाँ उस पर अपना साया डाल देतीं तो उसे दोबारा नहाना पड़ता था। देविका को गुप्त गंगा भी कहते हैं। उसमे पतला-सा पानी का प्रवाह तो रहता है पर जगह-जगह रेत खोदकर छोटे ‘सूटे’ (छोटा जलाशय) बनाये जाते हैं।
वहीं हम नहाया करते थे।
फिर जब पहली बार मैं माता वैष्णों गयी, उसकी खूब याद है। खूब छोटी थी मैं। मेरे ताऊजी के बड़े बेटे और उनकी पत्नी के चेहरे तो दिखायी दे रहे हैं और न जाने कौन-कौन था। धुँधलायी-सी एकाध बुढ़िया भी दिखाई दे रही हैं। शायद मेरी ताई होंगी। मैं थी, हाथ में जल की लुटिया। बार-बार प्यास लगती। तारों की छाँह में चले थे हम। रात कटरा में कहीं धर्मशाला में रुके होंगे। उस वक्त उस कठिन चढ़ाई में जा रहे बहुत कम लोग थे। बात भी तो चालीसेक बरस पहले की है। ‘जै माता दी’ हर साँस में से निकलता रहा। मेरी धर्मपरायणा भाभी निर्जल थीं। माता को मत्था ‘सुच्चे मुँह’ ही टेकना था। मैं भी जिद में आ गयी। जल न पिया। शायद चार बज चले थे। सूनसान चढ़ाई पर लगता कहीं से भी माता रानी निकल आएँगी। फिर सुबह के उजास फूटते ही हम बाल गंगा में नहा लिये थे। फिर याद है कुछ छत्र। सँकरी गुफा में हाथों में दिये लेकर खड़े राह दिखाते पुजारी। सीली पहाड़ी की दीवारों पर आँखें झपकती दीपक की लौ। जब मन्दिर में सीढ़ी चढ़ कर पहुँची तो एक दो पुजारी धोती पहने बैठे थे। छत्र नजर आये और दर्शन हो गये।
फिर स्कूल के साथ भी जाना हुआ था। गर्भजून की गुफा में मेरा दम घुटने लगा था। तभी पीछे से एक मोटे सेठ की भयावह साँसे सुनाई दीं। वह भी रेंग रहा था। मैं किसी तरह बाहर निकल आयी। पहले भी इसमें से गुजरी थी तब भाभी शरारत से बोली थीं-‘‘बुआजी, अब आप दोबारा गर्भजून में न जाएँगी। हो गया मोक्ष।’’ मैं खूब प्रसन्न थी। पण्डितों की मूर्ख कन्या को मोक्ष से ज्यादा क्या अच्छा लगता पर आज ठीक से जानती हूँ, मुझे मोक्ष नहीं चाहिए।
फिर जब पहली बार मैं माता वैष्णों गयी, उसकी खूब याद है। खूब छोटी थी मैं। मेरे ताऊजी के बड़े बेटे और उनकी पत्नी के चेहरे तो दिखायी दे रहे हैं और न जाने कौन-कौन था। धुँधलायी-सी एकाध बुढ़िया भी दिखाई दे रही हैं। शायद मेरी ताई होंगी। मैं थी, हाथ में जल की लुटिया। बार-बार प्यास लगती। तारों की छाँह में चले थे हम। रात कटरा में कहीं धर्मशाला में रुके होंगे। उस वक्त उस कठिन चढ़ाई में जा रहे बहुत कम लोग थे। बात भी तो चालीसेक बरस पहले की है। ‘जै माता दी’ हर साँस में से निकलता रहा। मेरी धर्मपरायणा भाभी निर्जल थीं। माता को मत्था ‘सुच्चे मुँह’ ही टेकना था। मैं भी जिद में आ गयी। जल न पिया। शायद चार बज चले थे। सूनसान चढ़ाई पर लगता कहीं से भी माता रानी निकल आएँगी। फिर सुबह के उजास फूटते ही हम बाल गंगा में नहा लिये थे। फिर याद है कुछ छत्र। सँकरी गुफा में हाथों में दिये लेकर खड़े राह दिखाते पुजारी। सीली पहाड़ी की दीवारों पर आँखें झपकती दीपक की लौ। जब मन्दिर में सीढ़ी चढ़ कर पहुँची तो एक दो पुजारी धोती पहने बैठे थे। छत्र नजर आये और दर्शन हो गये।
फिर स्कूल के साथ भी जाना हुआ था। गर्भजून की गुफा में मेरा दम घुटने लगा था। तभी पीछे से एक मोटे सेठ की भयावह साँसे सुनाई दीं। वह भी रेंग रहा था। मैं किसी तरह बाहर निकल आयी। पहले भी इसमें से गुजरी थी तब भाभी शरारत से बोली थीं-‘‘बुआजी, अब आप दोबारा गर्भजून में न जाएँगी। हो गया मोक्ष।’’ मैं खूब प्रसन्न थी। पण्डितों की मूर्ख कन्या को मोक्ष से ज्यादा क्या अच्छा लगता पर आज ठीक से जानती हूँ, मुझे मोक्ष नहीं चाहिए।
मैं बार-बार इस दुनिया में आना चाहती हूँ। यह कम्बख्त बड़ी सुन्दर है।
हमउम्र लड़कियों के साथ जाने का और ही मजा होता है। रास्ते भर पुण्य काम और खाद्य-सामग्री का इस्तेमाल ज्यादा। पिकनिक और पूजा साथ-साथ होती है। तब ठहरने के उतने अच्छे इन्तजाम न थे। उसी गुफा में से वापस भी आना पड़ता था। पर हमारे महाराजा डॉक्टर कर्णसिंह ने माता को मत्था टेककर निकलने की राह दूसरी बनवा दी, जहाँ काफी लोग बैठ भी सकते है। अधकुआँरी में अपने दादा प्रताप सिंह जी के नाम से उन्होंने धर्मशाला भी बनवायी। हमारी महारानी और महाराजा साहब दोनों ही देवी के भक्त हैं। जब पाकिस्तान से हमारी जंग हुई थी तो गँवई लोगों ने यह कहानी बुनी कि माता रानी ने डॉ। कर्णसिंह को कहा,
हमउम्र लड़कियों के साथ जाने का और ही मजा होता है। रास्ते भर पुण्य काम और खाद्य-सामग्री का इस्तेमाल ज्यादा। पिकनिक और पूजा साथ-साथ होती है। तब ठहरने के उतने अच्छे इन्तजाम न थे। उसी गुफा में से वापस भी आना पड़ता था। पर हमारे महाराजा डॉक्टर कर्णसिंह ने माता को मत्था टेककर निकलने की राह दूसरी बनवा दी, जहाँ काफी लोग बैठ भी सकते है। अधकुआँरी में अपने दादा प्रताप सिंह जी के नाम से उन्होंने धर्मशाला भी बनवायी। हमारी महारानी और महाराजा साहब दोनों ही देवी के भक्त हैं। जब पाकिस्तान से हमारी जंग हुई थी तो गँवई लोगों ने यह कहानी बुनी कि माता रानी ने डॉ। कर्णसिंह को कहा,
‘‘अपनी तोपों के मुँह पाकिस्तान की तरफ मोड़ो।’’
और हाँ, कन्या-पूजन जानते हैं न आप। माता के रास्ते में जगह-जगह कन्याएँ रहतीं टोलियों में। उन्हें सन्त पैसे देते। गुड़ीमुड़ी बनी ये लड़कियाँ पतले कपड़ों में ठण्ड से सिर जोड़े बैठी रहतीं और माता की भेंटें गाती रहतीं। नवरात्रों में हमारे खूब पैसे बनते थे। तब एक पैसा मिलता था, अब रुपयों पर आ गये हैं लोग। और औरतों ने जबसे कंजूसी से बच्चे पैदा करना शुरू किये हैं, छोटी कन्याएँ पूजने के लिए भी कहाँ मिलती हैं। पर जितनी मिलती हैं वे एक घर की पूरियाँ छोले की रिकाबी रखकर दूसरे घर भाग जाती हैं।
अपने पैसे भींचकर रखती हैं जैसे कभी हम रखते थे।
और हाँ, जब से वैष्णों का इन्तजाम सरकार ने अपने हाथों में ले लिया है तब से सुनती हूँ और भी सुधार हुआ है। हालाँकि हजारों बारीदारों ने मुकदमें वगैरह भी ठोंके हैं। अगर इस चढ़तल को सरकार अच्छे कामों में लगाये तो श्रद्धालुओं का चढ़ावा बेकार न जाएगा। पर बारीदारों को भी कहीं-न-कहीं काम मिलना चाहिए। माता वैष्णों के दरबार के इन्तजाम में कई तरह के सुधार हुए हैं और होंगे। सन्तों की श्रद्धाभरी यात्राएँ अब पहले से भी सुगम हो गयी हैं।
मेरी माँ ने तब मन्नत माँगी थी कि मेरी टाँगें ठीक हो जाएँगी तो मैं चलकर माँ के दर्शन करूँगी। मैं गयी थी। पर इस बात को भी तीस बरस तो हो ही गये। पता नहीं अब कब बुलाएँगी माँ। कब फिर उनके दर्शन कर पाऊँगी। कब ताजा खिले फूलों जैसी कुमारी कन्याओं के मुँह देख पाऊँगी, कब बादलों से लिपटकर सीढ़ियाँ चढ़ते अपने आपको उड़ते हुए महसूस करूँगी। हर बार जम्मू जाने पर कहती हूँ ‘‘माँ, मुझे बुलाओ न।’’ उसकी मर्जी के बगैर उसके दर्शन भी कोई नहीं कर पाता। जब भी उस गुफा में गयी हूँ, तन फूलों की तरह हल्का हो गया है। एक अनिवर्चनीय सुख से भर उठी हूँ। रास्ते पर माता से माँगने के कई मंसूबे...और फिर जब माँ की ठण्डी चट्टान पर सिर रखा है तब कुछ भी माँगने को नहीं रहा। आँसुओं से भरी आँखों से माँ के दर्शन भी धुँधले-धुँधले हुए। वे तो बिना माँगे ही सब देती हैं। माता हैं न, सारे जगत् की माता !
ॐ Namestehttp://lavanyam-antarman.blogspot.com/
और हाँ, जब से वैष्णों का इन्तजाम सरकार ने अपने हाथों में ले लिया है तब से सुनती हूँ और भी सुधार हुआ है। हालाँकि हजारों बारीदारों ने मुकदमें वगैरह भी ठोंके हैं। अगर इस चढ़तल को सरकार अच्छे कामों में लगाये तो श्रद्धालुओं का चढ़ावा बेकार न जाएगा। पर बारीदारों को भी कहीं-न-कहीं काम मिलना चाहिए। माता वैष्णों के दरबार के इन्तजाम में कई तरह के सुधार हुए हैं और होंगे। सन्तों की श्रद्धाभरी यात्राएँ अब पहले से भी सुगम हो गयी हैं।
मेरी माँ ने तब मन्नत माँगी थी कि मेरी टाँगें ठीक हो जाएँगी तो मैं चलकर माँ के दर्शन करूँगी। मैं गयी थी। पर इस बात को भी तीस बरस तो हो ही गये। पता नहीं अब कब बुलाएँगी माँ। कब फिर उनके दर्शन कर पाऊँगी। कब ताजा खिले फूलों जैसी कुमारी कन्याओं के मुँह देख पाऊँगी, कब बादलों से लिपटकर सीढ़ियाँ चढ़ते अपने आपको उड़ते हुए महसूस करूँगी। हर बार जम्मू जाने पर कहती हूँ ‘‘माँ, मुझे बुलाओ न।’’ उसकी मर्जी के बगैर उसके दर्शन भी कोई नहीं कर पाता। जब भी उस गुफा में गयी हूँ, तन फूलों की तरह हल्का हो गया है। एक अनिवर्चनीय सुख से भर उठी हूँ। रास्ते पर माता से माँगने के कई मंसूबे...और फिर जब माँ की ठण्डी चट्टान पर सिर रखा है तब कुछ भी माँगने को नहीं रहा। आँसुओं से भरी आँखों से माँ के दर्शन भी धुँधले-धुँधले हुए। वे तो बिना माँगे ही सब देती हैं। माता हैं न, सारे जगत् की माता !
ॐ Namestehttp://lavanyam-antarman.blogspot.com/
19 comments:
आप ने पद्मा जी के व्यक्तित्व को सजीव कर दिया।
bahut sundar prstuti.
वाह, पद्मा जी के बारे में इतना कुछ जानने को मिला।
आप ने पद्मा के बारे बहुत ही विस्तार से बताया इस के लिये आप क धन्यवाद
etani jaankari dene ke liye bahot hi dhnyabad,
पद्मा जी के बारे में इतनी सारी जानकारी मिली ! बहुत धन्यवाद आपका !
kahoo to tussi chaa gaye... dil chhoo liya.
पद्मा के बारे विस्तार से बताया, धन्यवाद.
आप तो एक ही पोस्ट में इतना ज्यादा पेश कर देती हैं, कि बंदा एक बार फंस गया तो फिर टाइमआउट के बाद ही निकलेगा.
आभार उनके व्यक्तित्व ओर जीवन से मै पहले ही बहुत प्रभावित हूँ....
" हर कलाकार उतना बड़ा होता है जितना वोह
अपने अन्दर के बच्चे को बचा कर रखता है "
कितनी सच्ची बात है..
धन्यवाद आपने पद्मा जी के व्यक्तित्व को इतनी सजीवता से यहा प्रस्तुत किया..
मैं पद्मा जी का बहुत बड़ा प्रशंकक रहा हूँ...और उनकी ये किताब मेरे निजी संग्रह में है...आप ने उनके बारे में जो लिखा पढ़ कर बहुत अच्छा लगा...और उनके लिखे गीत...अलग सी दुनिया में ले जाते हैं...शुक्रिया.
नीरज
आप तो एक ही पोस्ट में पूरा खजाना भर देती हैं। क्या-क्या बटोरें... कुछ छोड़ते नहीं बनता।
सार्थक जानकारी से लवरेज आपका आलेख पढा बधाई स्वीकारें समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर भी पधारें
पद्मा सचदेव जी का कव्यात्मक गद्य किसी समय मनोयोग से फैन होने के जुनून के साथ पढ़ा था। आपकी इस अद्वितीय पोस्ट ने वह पुन: याद दिला दिया।
धन्यवाद।
लावण्या जी, बहुत-बहुत धन्यवाद.
पद्मा जी को छुटपन से पढा है और उनसे बहुत प्रभावित हूँ. मेरे बचपन के कुछ महत्वपूर्ण वर्ष जम्मू में गुज़रे हैं इसलिए उनके डोगरी उद्धरणों से भी अपनापा सा लगता है. सच तो यह है कि पिछले कुछ दिनों से मैं अपने ब्लॉग पर जम्मू के संस्मरणों के बारे में लिखने की सोच रहा था, शायद कुछ दिनों में शुरू करुँ.
मैंने यह किताब पढ़ी है .बहुत पसंद आई थी यह मुझे .जम्मू में रहने के कारण भी इनसे बहुत जुडाव महसूस होता है ..:)..आज इसको यहाँ देखा पढ़ा अच्छा लगा शुक्रिया
पद्मा जी के बारे में इतना सब कुछ बताने के लिए आभार। बहुत ही जीवंत प्रस्तुति।
आप सभी की टीप्पणी का शुक्रिया ~~
स स्नेह्,
-- लावण्या
लावण्या जी,
पद्मा जी के सुललित गीतों की बौछार में मैं पूरी तरह से
भीग गयी। आपने इतनी जानकारी देकर बहुत आनन्द
बरसाया। धन्यवाद
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