तब , उनके दीव्य प्रेम की झांकी हो गयी थी !
पुरातत्व विद भी विस्मय से स्तब्ध थे !
और खामोश थे इस प्रेम की परम अनुभूति को देख कर ...जैसे आज भी दुनिया भर के सैलानी , ताज महल को देख , बेगम मुमताज़ महल के लिए बनाए प्रेम के दीव्य स्मारक ताज को चांदनी रात में देखते हैं और महसूस करते हैं और
~~ बादशाह शाहजहान के विरह की गहराई को महसूस करते हैं
जो रीस रीस कर , पिघलता है संगमरमरी दीवारों से , किसी बिछुडे स्वजन की याद की तरह , लावा बना , आंसूओ में फिसलता , चाँदनी के साए में ढलता !
चाँद .................नज़र आता है, प्यार की इबादत में खामोश खडा , आज भी पुकारता हुआ ..उस प्रेमी युगल को .....
ऐसी ही मासूमियत , प्यार भरा समर्पण और वियोग की आतुरता महसूस कीजिये ............. इस कविता मेँ.........शब्द हैं ...
" आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? "
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? आज से दो प्रेम योगी, अब वियोगी ही रहेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधूँ,
किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ!
जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आयेगा मधुमास फिर भी, आयेगी श्यामल घटा घिर,
आँख भर कर देख लो अब, मैं न आऊँगा कभी फिर!
प्राण तन से बिछुड़ कर कैसे रहेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
अब न रोना, व्यर्थ होगा, हर घड़ी आँसू बहाना,
आज से अपने वियोगी, हृदय को हँसना सिखाना,
अब न हँसने के लिये, हम तुम मिलेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आज से हम तुम गिनेंगे एक ही नभ के सितारे
दूर होंगे पर सदा को, ज्यों नदी के दो किनारे
सिन्धु तट भी न दो जो मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
तट नदी के, भग्न उर के, दो विभागों के सदृश हैं,
चीर जिनको, विश्व की गति बह रही है, वे विवश है!
आज अथइति पर न पथ में, मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?यदि मुझे उस पार का भी मिलन का विश्वास होता,
सच कहूँगा, न मैं असहाय या निरुपाय होता,
किन्तु क्या अब स्वप्न में भी मिल सकेंगे?
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?आज तक हुआ सच स्वप्न, जिसने स्वप्न देखा?
कल्पना के मृदुल कर से मिटी किसकी भाग्यरेखा?
अब कहाँ सम्भव कि हम फिर मिल सकेंगे!आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आह! अन्तिम रात वह, बैठी रहीं तुम पास मेरे,
शीश कांधे पर धरे, घन कुन्तलों से गात घेरे,
क्षीण स्वर में कहा था, "अब कब मिलेंगे?"आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
"कब मिलेंगे", पूछ्ता मैं, विश्व से जब विरह कातर,
"कब मिलेंगे", गूँजते प्रतिध्वनिनिनादित व्योम सागर,"कब मिलेंगे", प्रश्न उत्तर "कब मिलेंगे"!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
- पं. नरेन्द्र शर्मा
18 comments:
सुंदर गीत।
'आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?'
बहुत सुंदर रचना !
यह रचना तो कई दार्शनिक प्रश्नों से रूबरू कराती है। धर्म की कई धारणाओं से।
बहुत अच्छी है यह।
शांत सरिता सी बहती है पंडित जी की हर कविता। जहाँ विरह में भी सौन्दर्य और प्रेम है।
.
सदैव याद रहने वाली एक रचना..
निःसंदेह ही, मेरे हिसाब से तो यही है ..
अनुत्तरित आदिम प्रश्न
यदि मुझे उस पार का भी मिलन का विश्वास होता,
सच कहूँगा, न मैं असहाय या निरुपाय होता,
किन्तु क्या अब स्वप्न में भी मिल सकेंगे?
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
दिल को छू लिया है पंडित जी की इस रचना ने ..याद रहेगी यह ..
"आज के बिछुड़े... "
दर्द तो है मगर उस दर्द में भी सौंदर्य की अनुभूति है. बहुत खूब!
rom rom sihar utha aur a.nkho.n me jaane kitna paani simat gaya, padh kar..... padha sabhi ne hoga saraha bji sabhi ne hoga, lekin jisne is kashta ko jiya ho, apne sab se priya vyakti ko khoya ho us se poonchhiye, ise padhna kitna sukhad aur kashtakar hai.
आहा एक सुंदर गीत........
शांत,निर्मल,गंभीर और सुंदर रचना, बधाई।
अति सुंदर लिखा है. रचना दिल को छू गई. सस्नेह .
कब मिलेंगे", पूछ्ता मैं, विश्व से जब विरह कातर, "कब मिलेंगे", गूँजते प्रतिध्वनिनिनादित व्योम सागर,
"कब मिलेंगे", प्रश्न उत्तर "कब मिलेंगे"!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
अत्यन्त सुंदर रचना ।
अनमोल रचना है ! मेरी व्यस्तता के चलते लेट आया हूँ ! अगर नही पढ़
पाता तो बड़ा मलाल रहता ! बहुत शुभकामनाएं !
वाह !अंतर्मन को गहराईयों तक छू गयी यह कविता !विछोह को भी कवि की सशक्त अभिव्यक्ति ने एक रूमानियत /अदम्य चाहत का संबल दे दिया -आप की वंश परम्परा धन्य है- रचनाधर्मिता ,कवि ,कविता और कवि हृदयता की विरासत सब कुछ यहाँ है !
बहुत ही प्यारी ओर अनमोल कविता ,
धन्यवाद
आप सभी को ये कविता उतनी ही पसँद आई जितनी मुझे है टीप्पणीयोँ के लिये और सराहना के लिये बहुत बहुत आभार
ये कविता सबसे पहली बार जब कवि सम्मेलन मेँ पढी गई थी तब ७ बार " वन्स मोर " पुकारा गया था और ७ बार इसे
कवि ने पढा था -
बरसोँ बाद,
न्यु योर्क के भारतीय दूतावास मेँ
मैँ ने इसे पढा और मेरे स्वर्गीय पिताजी को भी बहुत याद किया था
आज आपके साथ शेर कर रही हूँ
सादर, स स्नेह,
-लावण्या
abhar aapka lavanyaji kavita padhane ke liye.kanchanji ki baton se ittafak rakhti hoon jaanewala to chala jaata he lekin jeenewale ki rooh roz chalni hoti he
Varsha ji,
aapki Tippani ke liye bahut bahut shukriya, Aap ne sahee kaha ki Janewala chala jata hai ,yaad reh jaatee hai ~~
Humare apno ki smritiyon ke prati, saprem, saabaar , samarpit,
- L
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