सूरदास जी : जन्म : १४७८ निर्वाण : १५८३
" अब मैँ नाच्यौ बहुत गोपाल "
राग : धनाश्री
अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल।
काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निन्दा सब्द रसाल।
भरम भर्यौ मन भयौ पखावज, चलत कुसंगति चाल॥
तृसना नाद करति घट अन्तर, नानाविध दै ताल।
माया कौ कटि फैंटा बांध्यो, लोभ तिलक दियो भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल॥
" द्रढ इन चनन केरो भरोसो" राग : बिहाग मेँ , "चकित चली चरन सरोवर " राग बिलावल मेँ तो कभी राग सारँग मेँ ठाकोरजी को रीझाते शुध्धाद्वैत मेँ आस्था रखनेवाले, पुष्टीमार्गीय, वल्ललाभाचार्य के अष्टछाप शिष्योँमेँ अग्रणी, आँखोँ की ज्योति विहिन अवस्था से विवश परँतु मन के प्रकाश से, श्रीकृष्ण के साक्षात दर्शन करनेवाले महात्मा सुरदासजी का जन्म १४७८ ईस्वी में मथुरा आगरा मार्ग के किनारे स्थित रुनकता नामक गांव में हुआ। सूरदास के पिता रामदास गायक थे।
६ वर्ष की आयु मेँ इस अँध बालक ने स्वयम को निराधार पाया - गौघाट के पास परम वैषणव वल्लभाचार्य जी से मिलन होने के पस्चात यमुना मेँ स्नान करने के बाद, गुरु के आदेश से बाल कृष्ण की लीला के पद रचते हुए सुरदास जी का जीवन, प्रकाशित हुआ जिससे ब्रज भाषा को असीम वैभव प्राप्त हुआ -
ये सुंदर वर्णन इस प्रभाती में है --
"जागिए ब्रजराज कुंवर कमल-कुसुम फूले।
कुमुद -बृंद संकुचित भए भृंग लता भूले॥
तमचुर खग करत रोर बोलत बनराई।
रांभति गो खरिकनि मैं बछरा हित धाई॥
विधु मलीन रवि प्रकास गावत नर नारी। "
सूर श्रीगोपाल उठौ परम मंगलकारी॥
और
" रानी तेरो चिरजीयो गोपाल ।
बेगिबडो बढि होय विरध लट, महरि मनोहर बाल॥
उपजि पर्यो यह कूंखि भाग्य बल, समुद्र सीप जैसे लाल।
सब गोकुल के प्राण जीवन धन, बैरिन के उरसाल॥
सूर कितो जिय सुख पावत हैं, निरखत श्याम तमाल।
रज आरज लागो मेरी अंखियन, रोग दोष जंजाल॥ "
"सूरसारावली' " होली" के त्योहार पे आधारित पदावलियाँ हैँ
जिनमेँ श्रीकृष्ण भगवान को सृष्टिकर्ता का स्वरुप देकर
उनकी आराधना की गयी है।
नल-दमयन्ती: ब्याहलो : दो अप्राप्य हैं।
अन्य भजन हैं --
अखियाँ हरि दर्शन की प्यासी ।
देखो चाहत कमल नयन को, निस दिन रहत उदासी ॥
केसर तिलक मोतिन की माला, वृंदावन के वासी ।
नेहा लगाए त्यागी गये तृण सम, डारि गये गल फाँसी ॥
काहु के मन की कोऊ का जाने, लोगन के मन हाँसी ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिन लेहों करवत कासी ॥
साहित्य ~ लहरी मेँ मुख्यत: प्रभु भक्ति के गीत हैँ तो प्रमुख कृति सुर ~ सागर मेँ १००,००० कृष्ण जीवन लीला को बखानते हुए मधुर भजन व गीत हैँ जो ब्रज भाषा व जगत के साहित्य की अमुल्य धरोहर हैँ।
राग : केदार
प्रभू मोरे अवगुण चित न धरो ।
समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो ॥
एक लोहा पूजा में राखत एक घर बधिक परो ।
पारस गुण अवगुण नहिं चितवत कंचन करत खरो ॥
एक नदिया एक नाल कहावत मैलो ही नीर भरो ।
जब दौ मिलकर एक बरन भई सुरसरी नाम परो ॥
एक जीव एक ब्रह्म कहावे सूर श्याम झगरो ।
अब की बेर मोंहे पार उतारो नहिं पन जात टरो ॥
और
निसिदिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहत पावस ऋतु हम पर, जबते स्याम सिधारे।।
अंजन थिर न रहत अँखियन में, कर कपोल भये कारे।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहुँ, उर बिच बहत पनारे॥
आँसू सलिल भये पग थाके, बहे जात सित तारे।
'सूरदास' अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे॥
सूरदास जी रोज ही कृष्ण भजन लिखा करते थे - श्री राधेरानी और हरी के सौन्दर्य का वर्णन इतना सजीव होता मानो वे सामने हों -
आख़िर वृध्ध हो चले सूरदास जी एक रात्री को भजन गाकर मन्दिर से अपनी कुटी की और हाथ में लाठी लिए चल पड़े ..मार्ग निर्जन था , अन्धकार में दिशा भ्रम हुआ और वे एक गहरे कुवेँ में गिरने ही वाले थे के एक बालक ने उनकी लाठी थाम कर उन्हें मधुर स्वर में सावधान करते कहा,
" बाबा ! ठहरो ..."
सूरदास जी का रोम रोम रोमांचित था, एक अज्ञात उल्लास से ह्रदय , आंदोलित हो गया ..और बरसों की तपस्या फलीभूत होती लगी और वे जान गए की शायद उनका गोपाल ही आज उन के प्राण रक्षा हेतु आ पहुंचा है ! सूरदास जी ने धीरे से हाथ लाठी पे सरकाते हुए, कसकर बालक की नर्म , दिव्य हथेली थामने की कोशिष की और बालक लाखों सुवर्ण की घंटियां एक साथ खनक उठीं हों उस तरह हंसने लगा और हाथ हटाकर दूर हो गया ! अब सूरदास जी रोने लगे, गिर पड़े और करुना विगलित स्वर से आर्त पुकार करने लगे,
" हे कृष्ण , हाथ छुडाकर जात हो, मोरे मन से जाओ तब जानूं "
श्री कृष्ण ने भक्त की भक्ति स्वीकार कर ली ।
सूरदास जी को दीव्य द्रष्टि से श्री नारायण के अष्टभुजा स्वरूप का दर्शन प्राप्त हुआ --
ये दीव्य कथा आज कहने को मन किया - आज मानस कथा की पूर्णाहुति हुई है , मन है की अब भी वहाँ से विमुख नहीं हो पा रहा - इसीलिये श्री राम के नाम के साथ श्री कृष्ण को भी याद कर रही हूँ -
शुभम :
18 comments:
आज की पोस्ट ने मन प्रसन्न कर दिया। बहुत सी पुरानी यादें दोहरा गईं।
Lavanyaji
Very interesting write up.
Navinya se bharpur lekh.
Dhanyavaad.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
बहुत ही रसीली आनन्दमयी पोस्ट !
हे कृष्ण , हाथ छुडाकर जात हो, मोरे मन से जाओ तब जानूं "
बहुत अच्छा लगा आपकी आज की यह पोस्ट पढ़ कर ..
लावण्याजी,
हाईस्कूल की हिन्दी की पुस्तक में सूरदासजी के ये पद पढे थे, आज सब पुराने याद आ गये । बस आनन्द आ गया ।
आज ही आपकी टिप्पणी "गौतम धार" के चिट्ठे पर भी देखी www.gdhar.com |
सूरदासजी पर यह सुन्दर पोस्ट पढ़ "उर आनन्द समायो"!
लगता है सूर का अध्ययन एक बार नये सिरे से करना चाहिये। विलक्षण व्यक्ति थे वे!
inmey se kuch bajan to hum bhi gaatey hain DI,post bahut acchhi lagi
बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट... कृष्ण के बारे में जितना पढूं कम ही लगता है... सूरदास और मीरा की भक्ति... और लिखिए.
बहुत सुन्दर लिखा है आपने सूरदास को मैने बहुत पढ़ा और पढ़ाया है पर उनके बारे में आपने काफी जानकारी दी है। आनन्द आया पढ़कर। आभार ।
लावण्या जी
हम तो धन्य हुए....
नीरज
लावण्या जी,आज तो भगवान के दर्शन करवा दिये आप ने,ओर साथ मे सुर दास जी के भी,बहुत बहुत धन्यवाद
shukriya in darshano ke liye aor in sundar bhajano ke liye.....
बहुत अच्छा लगा आपकी यह पोस्ट पढ़ कर.आनन्द आ गया.आभार.
अत्यन्त सुंदर पोस्ट. आभार.
इन पदों के बहाने आपने हाईस्कूल की यादों को जीवंत कर दिया। सुंदर पोस्ट के लिए बधाई।
school ke baad aaj padhne ko mili ye saari baaten...achcha laga.
आप सभी का आभार !
यहाँ पधार कर
मेरे साथ ,
सँत कवि सूरदास जी को श्रध्धा सहित याद करने के लिये और स्कूल को भी याद करने के लिये ~~
स्नेह,
-लावण्या
अद्भुत ज्ञानमई प्रकाशमई ....हृदय आलोकित करती प्रस्तुति ...!!
आभार लावण्या जी ...
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