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दीदी ने ये चित्र संकलित किए और खींचे भी हैं
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कुमारी लता मंगेशकर - युवावस्था का एक चित्र - ये नीचेवाला मेरे पास है --
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पापा जी, संजीव कोहली ( मदन मोहनजी के पुत्र और दीदी )
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पापाजी और दीदी २ ऐसे इंसान हैं जिनसे मिलने के बाद , मुझे ज़िंदगी के रास्तों पे आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा मिली है -
सँघर्ष का नाम ही जीवन है। कोई भी इसका अपवाद नहीं -
सत्चरित्र का संबल, अपने भीतर की चेतना को प्रखर रखे हुए किस तरह अंधेरों से लड़ना
और पथ में
कांटे बिछे हों या फूल, उनपर
पग धरते हुए, आगे ही बढ़ते जाना ये शायद मैंने इन २ व्यक्तियों से
सीखा। उनका सानिध्य मुझे ये सीखला
गया कि, अपने में रही कमजोरियों से किस तरह स्वयं लड़ना जरुरी है - उनके उदाहरण से , हमें इंसान के अच्छे गुणों में विशवास पैदा करवाता है।
पापा जी का लेखन , गीत, साहित्य और कला के प्रति उनका समर्पण और दीदी का संगीत , कला और परिश्रम करने का उत्साह , मुझे बहुत बड़ी शिक्षा दे गया ।
उन दोनों की ये कला के प्रति लगन और अनुदान सराहने लायक है ही परन्तु उससे भी गहरा था उनका इंसानियत से भरापूरा स्वरूप जो शायद कला के क्षेत्र से भी ज्यादा विस्तृत था ! दोनों ही व्यक्ति ऐसे, जिनमें इंसानियत का धर्म , कूटकूट कर भरा हुआ मैंने , बार बार देखा और महसूस किया ।
जैसे सुवर्ण , शुध्ध होता है, उसे किसी भी रूप में उठालो, वह समान रूप से दमकता मिलेगा वैसे ही दोनों को मैंने हर अनुभव में पाया। जिसके कारण आज दूरी होते हुए भी इतना गहरा सम्मान मेरे भीतर पैठ गया है के , दूरी , महज एक शारीरिक परिस्थिती रह गयी है। ये शब्द फ़िर भी असमर्थ हैं मेरे भावों को आकार देने में --
दीदी ने अपनी संगीत के क्षेत्र में मिली हर उपलब्धि को सहजता से स्वीकार किया है और उसका श्रेय हमेशा परम पिता , ईश्वर को दे दिया है।
पापा और दीदी के बीच , पिता और पुत्री का पवित्र संबंध था जिसे शायद मैं मेरे संस्मरण के द्वारा बेहतर रीत से कह पाऊँ -
हम ३ बहनें थीं - सबसे बड़ी वासवी , फ़िर मैं, लावण्या और मेरे बाद बांधवी
हाँ, हमारे ताऊजी की बिटिया गायत्री दीदी भी , सबसे बड़ी दीदी थीं जो हमारे साथ साथ अम्मा और पापाजी की छत्रछाया में पलकर बड़ी हुईं। पर सबसे बड़ी दीदी , लता दीदी ही थीं - उनके पिता पण्डित दीनानाथ मंगेशकर जी के देहांत के बाद १२ वर्ष की नन्ही सी लडकी के कन्धों पे, मंगेशकर परिवार का भार आ पडा था जिसे मेरी दीदीने , बहादुरी से स्वीकार कर लिया और असीम प्रेम दिया अपने बाई बहनों को जिनके बारे में , ये सारे किस्से मशहूर हैं । पत्र पत्रिकाओं में आ भी गए हैं --
उनकी मुलाक़ात , पापा से , मास्टर विनायक राव, जो सिने तारिका नंदा के पिता थे , के घर पर हुई थी - पापा को याद है दीदी ने " मैं बन के चिडिया , गाऊँ चुन चुन चुन " ऐसे शब्दों वाला एक गीत पापा को सुनाया था और तभी से दोनों को एकदूसरे के प्रति आदर और स्नेह पनपा --
दीदी जान गयीं थीं पापा उनके शुभचिंतक हैं - संत स्वभाव के गृहस्थ कवि के पवित्र ह्रदय को समझ पायीं थीं दीदी और शायद उन्हें अपने बिछुडे पिता की छवि दीखलाई दी थी।
वे हमारे खार के घर पर आयीं थीं जब हम सब बच्चे अभी शिशु अवस्था में थे और दीदी अपनी संघर्ष यात्रा के पड़ाव एक के बाद एक, सफलता से जीत रहीं थीं -- संगीत ही उनका जीवन था - गीत साँसों के तार पर सजते और वे बंबई की उस समय की लोकल ट्रेन से , स्टूडियो पहुंचतीं जहाँ रात देर से ही अकसर गीत का ध्वनि- मुद्रण सम्पन्न किया जाता चूंके बंबई का शोर शराबा शाम होने पे थमता - दीदी से एक बार सुन कर आज दोहरा ने वाली ये बात है !
कई बार वे भूखी ही, बाहर पडी किसी बेंच पे सुस्ता लेतीं थीं , इंतजार करते हुए ,ये सोचतीं
" कब गाना गाऊंगी पैसे मिलेंगें और घर पे माई और बहन और छोटा भाई , इंतजार करते होंगें , उनके पास पहोंच कर , आराम करूंगी ! "
दीदी के लिए माई कुरमुरोँ से भरा कटोरा , ढँक कर रख देतीं थी जिसे दीदी खा लेतीं थीं पानी के गिलास के साथ सटक के ! आज भी कहीं कुरमुरा देख लेतीं हैं उसे मुठ्ठी भर खाए बिना वे आगे नहीं बढ़ पातीं :)
ये शायद उन दिनों की याद है - क्या इंसान अपने पुराने समय को कभी भूल पाया है ? यादें हमेशा साथ चलतीं हैं, ज़िंदा रहतीं हैं -- चाहे हम कितने भी दूर क्यों न चले जाएँ --
फ़िर समय चक्र चलता रहा - हम अब युवा हो गए थे -- पापा आकाशवाणी से सम्बंधित कार्यों के सिलसिले में देहली भी रहे ..फ़िर दुबारा बंबई के अपने घर पर लौट आए जहाँ हम अम्मा के साथ रहते थे , पढाई करते थे ।
हमारे पडौसी थे जयराज जी - वे भी सिने कलाकार थे और तेलेगु , आन्ध्र प्रदेश से बंबई आ बसे थे। उनकी पत्नी सावित्री आंटी , पंजाबी थीं / (उनके बारे में आगे लिखूंगी ) --
उनके घर फ्रीज था सो जब भी कोई मेहमान आता , हम बरफ मांग लाते शरबत बनाने में ये काम पहले करना होता था और हम ये काम खुशी , खुशी किया करते थे ..पर जयराज जी की एक बिटिया को हमारा अकसर इस तरह बर्फ मांगने आना पसंद नही था - एकाध बार उसने ऐसा भी कहा था " आ गए भिखारी बर्फ मांगने ! " जिसे हमने , अनसुना कर दिया। ! :-)) ...आख़िर हमारे मेहमान , का हमें उस वक्त ज्यादा ख़याल था ...ना के , ऐसी बातों का !!
बंबई की गर्म , तपती हुई , जमीन पे नंगे पैर, इस तरह दौड़ कर बर्फ लाते देख लिया था हमें दीदी नें ..... और उनका मन पसीज गया !
- जिसका नतीजा ये हुआ के एक दिन मैं कोलिज से, लौट रही थी , बस से उतर कर , चल कर घर आ रही थी ... देखती क्या हूँ के हमारे घर के बाहर एक टेंपो खडा है जिसपे एक फ्रिज रखा हुआ है रसीयों से बंधा हुआ !
तेज क़दमों से घर पहुँची , वहाँ पापा , नाराज , पीठ पर हाथ बांधे खड़े थे !
अम्मा फ़िर जयराज जी के घर , दीदी का फोन आया था , वहाँ बात करने आ , जा रहीं थीं ! फोन हमारे घर पर भी था - पर वो सरकारी था जिसका इस्तेमाल , पापा जी सिर्फ़ , काम के लिए ही करते थे और कई फोन हमें , जयराज जी के घर रिसीव करने दौड़ कर जाना पड़ता था ! दीदी , अम्मा से , मिन्नतें कर रहीं थीं
" पापा से कहो ना भाबी, फ्रीज का बुरा ना मानें ! मेरे बाई बहन आस पडौस से बर्फ मांगते हैं ये मुझे अच्छा नहीं लगता - छोटा सा ही है ये फीज ..जैसा केमिस्ट दवाई रखने के लिए रखते हैं ... "
अम्मा पापा को समझा रहीं थीं -- पापा को बुरा लगा था -- वे , मिट्टी के घडों से ही पानी पीने के आदी थे ! ऐसा माहौल था मानों गांधी बापू के आश्रम में , फ्रीज पहुँच गया हो !!
पापा भी ऐसे ही थे ! उन्हें क्या जरुरत होने लगी भला ऐसे आधुनिक उपकरणों की ? वे एक आदर्श गांधीवादी थे - सादा जीवन ऊंचे विचार जीनेवाले , आडम्बर से , सर्वदा , दूर रहनेवाले, सीधे सादे, सरल मन के इंसान !
खैर ! कई अनुनय के बाद अम्मा ने , किसी तरह दीदी की बात रखते हुए फ्रीज को घर में आने दिया और आज भी वह, वहीं पे है ..शायद मरम्मत की ज़रूरत हो ..पर चल रहा है !
हमारी शादियाँ हुईं तब भी दीदी , बनारसी साडियां लेकर आ पहुँचीं ..अम्मा से कहने लगीं, " भाभी , लड़कियों को सम्पन्न घरों से रिश्ते आए हैं ! मेरे पापा कहाँ से इतना खर्च करेंगें ? रख लो ..ससुराल जाएँगीं , वहाँ सबके सामने अच्छा दीखेगा " --
कहना न होगा हम सभी रो रहे थे ..और देख रहे थे दीदी को जिन्होंने उमरभर शादी नहीं की पर अपनी छोटी बहनों की शादियाँ सम्पन्न हों उसके लिए , साडियां लेकर हाजिर थीं ! ममता का ये रूप , आज भी आँखें नम कर रहा है जब ये लिखाजा रहा है ...मेरी दीदी ऐसी ही हैं । भारत कोकीला और भारत रत्ना भी वे हैं ही ..मुझे उनका ये ममता भरा रूप ही , याद रहता है --
फ़िर पापा की ६० वीं साल गिरह आयी -- दीदी को बहुत उत्साह था कहने लगीं ,
"मैं , एक प्रोग्राम दूंगीं , जो भी पैसा इकट्ठा होगा , पापा को , भेंट करूंगी ! "
पापा को जब इस बात का पता लगा वे नाराज हो गए, कहा,
" मेरी बेटी हो , अगर मेरा जन्मदिन मनाना है , घर पर आओ, साथ भोजन करेंगें , अगर , मुझे इस तरह पैसे दिए , मैं तुम सब को छोड़ कर, काशी चला जाऊंगा , मत बांधो मुझे माया के फेर में ! "
उसके बाद, प्रोग्राम नहीं हुआ - हमने साथ मिलकर , अम्मा के हाथ से बना उत्तम भोजन खाया और पापा अति प्रसन्न हुए !
आज भी यादों का काफिला चल पडा है और आँखें नम हैं ...इन लोगों जैसे विलक्षण व्यक्तियों से , जीवन को सहजता से जीने का , उसे सहेज कर, अपने कर्तव्य पालन करने के साथ, इंसानियत न खोने का पाठ सीखा है उसे मेरे जीवन में कहाँ तक , जी पाई हूँ , ये अंदेशा , नहीं है फ़िर भी कोशिश जारी है .........
- लावण्या