ये गीत है मशहूर फ़िल्म " मेरे महबूब " का - हुस्ना और अनवर की प्रेम कहानी है ये , दोनों , अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं और इनके मिलने में कितनी तकलीफें आतीं हैं ये इसकी कहानी है और मुस्लीम थीम पे बनी सफलतम फिल्मों में इस का शुमार किया जाता है -
और ये देखिये दिलीप कुमार और वैयजयन्तीमाला की फ़िल्म : संघर्ष
दोनों फिल्मों के निर्माता थे श्री हरनाम सिंग रवैल जी जिन्हें हिन्दी फ़िल्म संसार एच । एस । रवैल के नाम से पहचानता है ............
मेरी बचपन की यादों की गर्द में , रवैल अंकल और अंजना आंटी और उनकी बिटिया , रुही भी कहीं खो गए हैं । बस याद है जब् राज कपूर के देवनार फार्म वाले घर के खुले बाग़ में , अंजना आंटी जी ने एक बार 'ऋतू की शादी पे हीर गाते हुए सब को रुला दिया था ..बोल थे, " रख ले मेरी डोली नी माँ आज, रख ले मेरी डोली ...ना मैं लडियाँ , ना मैं बोली , रख ले मेरी डोली नी माँ .."
५ मई २००८ को उनका, बंबई शहर में , देहांत हो गया पर , ना जाने क्यूं , किसी ने उनको भावांजलि नही दी। :(
अखबार में कहीं ये ख़बर गायब हो गयी ...
ये दौर भावुकता का नही है।
१९६० में बनी " मेरे मेहबूब" आज भी मुस्लीम थीम पे बनी संगीतमय फ़िल्म में, नौशाद के जादुभारे , रेशमी गीतों से सजी अपनी अनोखी पहचान बनाए , वैसी ही दमक रही है और सदा दमकती रहेगी।
रवैल साहब का जन्म , लायलपुर पंजाब में हुआ था जहां से उनका संघर्षमय जीवन आरंभ हुआ। बीस बरस से कम उमर थी जब् वे बिना कोइ पैसा लिए मायानगरी मुम्बई आ गए अपनी तकदीर आजमाने !
पहले कहानी, पटकथा लेखन किया । "दोरंगिया डाकू " से १९४० में वे दिग्दर्शक बने । १९५० तक हास्य तथा मारधाड़ वाली फिल्में बनाईं । परंतु सफलता का सेहरा मुस्लीम सामाजिक कथा पे बनी "मेरे मेहबूब " से ही मिला।
इसमें श्री अशोक कुमार, निम्मी , राजेन्द्र कुमार और साधना ने सफल अभिनय किया। १९७१ में "मेहबूब की मेहंदी " भी उसी तरह की मुस्लीम थीम पे बनी जिसमें लीना चंदावरकर ने अभिनय किया और राजेश खन्ना ने साथ निभाया। जिसका ये गीत, लक्ष्मी कान्त प्यारेलाल की जोड़ी ने दिए संगीत से सजा , सदाबहार है और मुझे भी बहुत पसंद है -- सुनिए : ~~~
उस के बाद रवैल साहब ने मशहूर "लैला - मजनूँ " की दास्ताँ को परदे पे उतारा इस बार ऋषी कपूर और रंजीता कौर की जोड़ी को लेकर जिसका संगीत श्री मदन मोहन जी के दिए संगीत से शुरू हुआ --
उसी का ये गाना बहुत प्रसिध्ध हुआ -
" कोइ पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को " लता जी का गाया हुआ, जिस को लोगों ने सराहा पर , मदन मोहन जी का उसी अरसे , फ़िल्म की रीलीज़ के पहले देहांत हो गया और , जयदेव जी ने संगीत का रहा सहा काम पूरा किया।
उसके बाद " दीदारे यार " जीतेंद्र को लेकर बनायी , फ़िल्म ,
रवैल साहब के पुत्र राहुल रवैल की पेशकश थी ।
ये फ़िल्म बुरी तरह पीट गयी -
राहुल रवैल , की नाकामयाबी ने,
रवैल साहब की बरसों की मेहनत को पानी में मिला दिया ।
शायद "संघर्ष " १९६८ में बनी रवैल साहब की फ़िल्म जिसकी कथा बंगाल की प्रख्यात novel लेखिका श्री महाश्वेता देवी , ने लिखी थी और "संघर्ष " की कहानी १९ वीं सदी में, भारत में , प्रचलित , ठगों पे आधारित थी जिसमें काफी घुमाव थे drama और पात्र थे मंजे हुए कलाकार जयंत , बलराज सहनी , संजीव कुमार , दिलीप कुमार और वैयजयन्तीमाला।
राहुल रवैल ने अपने प्रख्यात पिताजी को श्र्ध्धांजलि देते हुए एक और प्रयास किया "जीवन एक संघर्ष " फ़िल्म बनाकर १९९० में ।
"मेरे मेहबूब " और "संघर्ष " दोनों ही देवदास तथा " ब्लैक " जैसी सफल फिल्मों के निर्माता , निर्देशक श्री संजय लीला भंसाली की सबसे पसंदीदा फिल्मों में से २ हैं --
वे कहते हैं के , " एक फ़िल्म निर्माता को आवश्यक है के वो ख़ुद को तथा अपने दर्शकों को हमेशा नयी चीज़ दीखालाये "
सुमधुर सँगीत से सजी इतनी सारी सफल फिलोँ के निर्माता निर्देसक रवैल साहब को , अँकल जी को मेरी विनम्र श्रध्धान्जलि -
-- लावण्या
4 comments:
अच्छा संस्मरण है.
बहुत बचपन में रवैल साहब की संघर्ष देखी थी। उपन्यास अच्छा था। लेकिन फिल्म समय से बहुत पहले बनी थी। आज बनती तो हिट हो जाती।
मेरी भी उन्हें श्रद्धांजलि।
मेरे महबूब फिल्म आज भी मेरे खयालों में है...! इसके गीत नायक की मजबूरी बहुत ही अच्छी थीम ले कर बनाई गई थी फिल्म..! श्रद्धांजलि में हम भी शामिल है।
समीर भाई,
दिनेश भाई साहब,सही कहा आपने ..
कँचन जी, तो आपको भी ये फिल्म पसँद है ! :)
आभार !
- लावण्या
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