गुलदस्ता और फूल
घर से जितनी दू
री तन की , उतना समीप रहा मेरा मन ,
धूप ~ छाँव का खेल जिंदगी , क्या वसंत , क्या सावन !!
नेत्र मूँद कर कभी दिख जाते , वही मिटटी के घर ~ आँगन !
वही पिता की पुण्य छवि ~ सजल नयन , पढ़ते रामायण !
अम्मा के लिपटे हाथ , आटे से , फ़िर रोटी की सौंधी खुशबु ,
बहनो का वह निष्छल् हँसना , साथ - साथ रातों को जगना ,
वे शैशव के दिन थे न्यारे , आसमान पर कीतने तारे !
कितनी परियां रोज उतरतीं , मेरे सपनो में आ आ कर मिलतीं ,
" क्या भूलूँ क्या याद करूं ? " मेरे घर को , या मेरे बचपन को ?
कितनी दूर , घर का अब रास्ता , कौन मेरा वहाँ अब रस्ता तकता ?
अपने अनुभव की पुडिया को रखा है सहेज , सुन , ओ मेरी गुडिया !!
" बार बार आती है मुझको , मधुर याद बचपन तेरी
गया ले गया, तू, जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी "
गर्मियोँ मेँ ठहरी हुई शाम हो, धुँधलकेमेँ, बचपन के सपने
और पल दो पल का सुकून...
जब् जब् मैं अपने शैशव के घर को याद करती हूँ मुझे अम्मा के जतन से लगाई बगिया याद आती है, घर के पीछे की वो खुली लाल मिट्टी सी जमीन जिसके हर कोने पे पेड़ थे।
२ अमरूद के पेड़ थे, शायद आज भी उसपे कच्चे पक्के फल लगे होंगें , जिन्हें हरे तोते आकर जुठला जाते होंगें ! वहां १० नारियल के पेड़ भी थे जिसका मीठा , शीतल जल, सदा हमारे घर आनेवाले हर अतिथि की प्यास बुझाने को तत्पर रहता था। एक विलायती इमली का पेड़ भी था इस पे अर्ध वर्तुलाकार आकार की हल्की गुलाबी रंग की इमली , हरी पत्तियों के बीच , लटकती रहतीं थीं ।
१२ , १५ राज - मोगरा जिस को " किंग जासमीन " भी कहते हैं , सुफेद, घनी, महकती कलियों की संपदा लिए बागा की शोभा बढाता , जिसकी कलियाँ , शाम होते होते खिलखिलाकर , खुल जातीं थीं और खुशबु का साम्राज्य फैल जाता था ॥ और शाम , रात में ढल जाती थी और , हम इंतज़ार करते थे सुबह का जब् हम पास रहतीं हमारी सहेलियों के साथ, उसी बाग़ में , लाल मिट्टी के ऊपर, ३ ईंट रखकर , चूल्हा बनाते थे ! सूखी लकड़ी पुराने कागज़ , सजाते , आग , सुलगती , जिस के हवाले किया जाता पतीली में रखा .. चावल , दाल , जिसमें हल्दी और नमक भी पड़ता , फ़िर आधे घंटे के बाद पक कर , वह भोजन , हमारे लिए स्वर्ग सी खुशी लेकर तैयार होता , खिचडी की शकल में हमें अपार खुशी दे जाता।
दुपहर की धूप में, वो उठता धुआं , मीठी खुशबु लेकर आता ..पास में मीना थी मेरी सहेली , छाया अंकल की वो बिटिया थी। जयराज अंकल फिल्मों में काम करते थे उनकी बिटिया गीतू और मेरी बहनें , वासवी और मोंघी , हम सब , उसे खाते और परितोष भी वहीं कहीं , पास में , खेल रहा होता । परितोष आज भी वहीं रहता है ...और शायद उस मिट्टी के आँगन को कई बार देखता भी होगा पर
मैं, उस आँगन को अब, सपनों में ही देखती हूँ।
आज , ये बातें , याद आ रही है ...इस लिंक को पढ़कर ...आप भी देखियेगा ...
blogs.com/2005_20_02_vidhur_archive.html
6 comments:
शुरुवाती रचना जबरदस्त है, आनन्द आ गया.
सच में, घर की याद घर से दूर जा कर ही आती है और शिद्दत से आती है।
यादें स्वाभाविक है उस पर बचपन की यादें .... अच्छा रचना .....
आपकी पीड़ा समझी जा सकती है पर ये मीठी यादे कई बार मन के आंगन मे खेलती रहती है......
आपकी पोस्ट पढ़कर मैं भी अपने बचपन में चली गयी...सबका बचपन एक सा ही तो होता है न..
आप सभी का सच्चे मन से आभार -
- लावण्या
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