Friday, May 30, 2008

कपिल - वस्तु में प्रतीक्षा

* कपिल - वस्तु में प्रतीक्षा *
पावन ज्योति पर्व में मैं ,दीप उत्सव बालती ,

अंगना के द्वारे - द्वारे, दीपक लौ, प्रकाशती !

पवित्र मंगल शुभ प्रसंग सुमन हर्षित वारती

कंचन थाल , कुम कुम ले , मैं , करती उनकी आरती !

पथ में प्रभू के नयन मेरे , ध्यान में मन लीन,

आ जाते यदि वे आज सम्मुख चरण रज उनसे , मांगती !

राहुल , धर कर हाथ तेरा , उन्ही पर तुमको , वारती

क्यों गए वो दूर हमसे ? इस का मैं उत्तर मांगती !

शरण हैं हम आपके हे गौतम , मेरे दुलारे

"बुध्ध" तुम होगे सभी के ,यशोधरा तुमको पुकारे !

Thursday, May 29, 2008

जयपुर राज्य का इतिहास

महाराज कुमारी गायत्री देवी का जन्म २३ मे १९१९ के दिन हुआ था।
महारानी इंदिरा देवी, महारानी गायत्री देवी की माताजी हैं। महारानी इंदिरा देवी, स्वयं संतान हैं -- Maharaja Sayaji Rao III और महारानी चिम्नाबाई (बरोदा के राजा व रानी )की । महारानी गायत्री देवी के पिताजी हैं : Maharaja Jitendra Narayan Bhup Bahadur, जो, महारानी सुनीति देवी सेन एवं Maharaja Nripendra Nayaran Bhup Bahadur की संतान हैं ।
महारानी गायत्री देवी , जयपुर की महारानी बनीं।
आइये, जयपुर राज्य का इतिहास , देखें -
महाराजा सवाई मान सिंघ २ का जन्म एक साधारण से ग्राम प्रांत में , ठाकुर ( Lieutenant-Colonel ) राजा सवाई सिन्घजी व ठकुराइन, ( ठाकुर श्री उमराव सिंघ कोटला की पुत्री ) , की इसाराडा की कोठी में , अगस्त २१ , १९११ की दिन हुआ था। वे उनकी दूसरी संतान थे और उन्होंने पुत्र का प्यार भरा नाम रखा " मोर मुकुट सिंघ "।
इस बालक का भविष्य अलग था .. ११ साल की उमर में जयपुर राज्य की गद्दी का वारिस बनते ही ,इसे , शानो शौकत की जिन्दगी नसीब हुई। वही कालांतर में, महाराज सवाई मान सिंघ के नाम से विख्यात हुए। महाराज , पोलो खेल के कुशल खिलाड़ी थे और दुसरे विश्व युध्ध में भी , उन्होंने , हिस्सा लिया था। स्पेन राज्य के दूत भी बने थे एवम कच्छवा राजपुतोँ के वे मुखिया हैँ ।
उनकी पदवी के मुताबिक , उनका पूरा नाम है -- सरमद -इ -राजा -इ -हीन्दुस्तान , राज राजेश्वर , श्री राजाधिराज् , महाराज सवाई जय सिंघ २ , महाराज
१७०० से १७४३ तक उन्हीके पिता ने राज किया जिनके नाम पे , शहर जयपुर को नाम मिला हुआ है। जयपुर शहर की संरचना , उन्हीं के आदेशानुसार हुई है। आम्बेर की पुरानी राजधानी से नयी जयपुर राजधानी का तबादला किया गया।
बादशाह , मुहम्मद औरंगजेब की बदौलत ही " सवाई " जयपुर राज्य के राजा के नाम के साथ हमेशा के लिए, जोड़ दिया गया ।।
१८८० से १९२२ , तक , महाराजा सवाई माधो सिंघ २ ने राज किया । एक बार जब् एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक के समय , इंग्लैंड की यात्रा का अवसर आया , उस वक्त , महाराज की प्यास बुझाने , गंगा जल, चांदी के विशालकाय घडोँ मेँ , समुद्र पार करके ले जाया गया । चूंकि , समुद्रपार करना अपवित्र समझा जाता रहा था उस वक्त , और महाराज, माधो सिंघ , गंगा जल ही वहां इंग्लैंड में भी उपयोग करते रहे ! और , आज भी जयपुर के राजमहल में, वही चांदी के विशालकाय घडे , आज भी पर्यटक देख सकते हैँ !!
इन को , विश्व के विशालतम चांदी के बरतन , होने का श्रेय भी हासिल है !

सरमद -इ -राजा -इ -हिंदुस्तान , राज राजेश्वर श्री महाराजधिराजा महाराजा सवाई श्री सर मान सिंघ २, महाराजा ने , १९२२ से १९७० तक , राज किया । " सर " का खिताब उन्हें ब्रितानी सरकार ने दिया था । वे पोलो की टीम लेकर, ब्रिटेन गए जहां ब्रिटिश ओपन , जीते । १९४७ , राजप्रमुख राजस्थान बनकर, जयपुर का कार्यभार सम्हालते रहे - फ़िर , १९६४ से १९७० भारतीय दूत बनकर स्पेन गए । । महाराज जे सिंघ जी तथा महारानी गायत्री देवी ने विदेशों से आए , जैक्लिन केनेडी तथा इंग्लैंड की महारानी एलिज़बेथ द्वितीय २ जैसी हस्तियों का जयपुर में स्वागत सत्कार किया है।

१९७० तक राज करने वाले महाराज जे सिंघ जी तथा महारानी गायत्री देवी - इस परिवार का इतिहास , मानो भारत वर्ष के इतिहास का आइना - सा , लगता है - जहां, आपको मुगलिया सल्तनत के साथ साथ राजपूतों का मिला जुला इतिहास, दिखाई देता है और ब्रितानी ताकत के साथ बदलते समाज व राजघरानों का इतिहास भी दीखता है जो , भारत की आज़ादी के समय तक आ पहुंचता है ....
........आज, भी , जयपुर राज्य , सैलानियों के लिए प्रमुख आकर्षण का केन्द्र है जिसकी वजह से ही , आतंकवादीयों के निशाने से घायल है ये गुलाबी शहर ...
आगे , इतिहास की प्रतीक्षा करता हुआ , अतीत को संजोए , आप की प्रतीक्षा करता ...

Wednesday, May 28, 2008

मेमोरियल दिवस


समधियोँ के संग , दीपक जी तथा अमरीकी अतिथि महिला व २ बुआएं, नानी जी भी !
आजकल उत्तर अमरीका के कई हिस्सों में , ग्रीष्म ऋतु आने ही वाली है । बाग़ , पेड़ , पौधे सभी हरे हो रहे हैं ...हवा में अब भी , ठंड है ! ऐसे , मौसम में , हम रहते हैं , वहां से उत्तर की ओर आए, मीशीगन प्रांत की तरफ़ , गत सप्ताह जाना हुआ। अवसर था, १७ साल के युवक , विक्रांत का स्कूल से पास होकर, कोलिज को जाना। उसके माता, पिता ने कई सारे दोस्तों को सगे संबन्धी सभी को दावत दी । नाना आए जयपुर से, दादा आए देहली से , बुआ आयीं फीनीक्स , अरीजोना प्रांत से, हम गए ओहायो से !
बुआ का पुत्र आया टोरोंटो , कनाडा से , जिनके साथ , हम ने " नाचो " मतलब मक्का की चीप्स , टमाटर, सलाद , इत्यादी के साथ , नाश्ते में खायीं फ़िर, पंजाबी भोजन किया जिस को हमारे लिए गेरेज में सजाया गया था ...कई सारे नये लोगों से मुलाक़ात हुई ..अच्छा लगा


मेमोरियल दिवस की ४ दिन की लम्बी छुट्टी इस तरह बिताई गयी ...


Posted by Picasa

Tuesday, May 27, 2008

" राम श्याम गुण गान "

आज, आपके लिए , ये ४ गीत प्रस्तुत हैं ...पहला और नंबर चार हिन्दी फिल्मों से हैं जबके, नंबर २ और ३ , प्राइवेट एल्बम से लिए हुए गीत हैं ...जिसका नाम है , " राम श्याम गुण गान " -- जिसका संगीत , श्रीनिवास खळे जी ने दिया है ..आशा है , आपको , ये पसंद आयेंगें ...मन को शांत रखने के लिए , ऐसे गीत , सुन लेने चाहिए ...
हाईलाईट किए लिंक पे , क्लीक कीजिये .....
Ankhiyan Shyam Milan Ki Pyasi
गायिका : आशा भोसले : संगीत : गोविन्द नरेश : रचना : पण्डित नरेन्द्र शर्मा
Karo Kamal Manohar
गायक : पण्डित भीमसेन जोशी : संगीत : श्रीनिवास खळे :
रचना : पण्डित नरेन्द्र शर्मा
सुमति सीता राम
गायक : पण्डित भीमसेन जोशी , संगीत : श्रीनिवास खळे :
रचना : पण्डित नरेन्द्र शर्मा
यशोमती मैया से बोले नंदलाला : Maiya Bole Nandlala
Singer : लता जी , मन्ना डे
संगीत : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल
रचना : पण्डित नरेन्द्र शर्मा

Monday, May 26, 2008

" बगिया , बरखा के बाद "


जेअन क्लोद अलेंन फ्रांस के नागरिक हैं जो केरल यात्रा पर गए थे। बरखा की तेज बौछार के समय केरलीय प्रदेश की प्राकृतिक सुषमा , अत्यन्त रमणीय हो जाती है जिस का असर , उन पे ऐसा हुआ के एक अद्भुत नयी खुशबु की उत्पत्ति हुई। उनका कहना था , पानी से आग पैदा हो गयी ! बरखा हो जाने के बाद, बगिया मे फूलों , पत्तियों गीली मिट्टी की कभी न भूलानेवाली सुगंध को , एक शीशी में , कैद कैसे किया जाए ? सोचिये ....पर , परफ्यूम बनानेवाले साहसी , सपने देखते हैं उन्हें सच में तब्दील करना भी , जानते हैं ...ऐसा ही काम किया श्रीमान जेअन क्लोद अलेंन ने ! जिसकी ख़बर बंगलूर के समाचार पत्रों ने भी छापी थी।
..." उन जर्दीन अप्रेस ला मोंसून " == " बगिया , बरखा के बाद " (A Garden After the Monsoon), नामक परफ्यूम का जन्म हुआ ..." आगे का किस्सा, देखिये ...

http://images.google.com/imgres?imgurl=http://artsuppliesonline.com/blog/elephantsdraggingsandalwood.jpg&imgrefurl=http://ayalasmellyblog.blogspot.com/2006_06_01_archive.html&h=309&w=482&sz=37&hl=en&start=57&sig2=uGAxCt2Qbtr8fCPfhUIDsQ&um=1&tbnid=Kbn_LIog6Xa0wM:&tbnh=83&tbnw=129&ei=FFsvSK3FPIqoiAHon4nNAQ&prev=/images%3Fq%3Dimage%2Bof%2Ba%2Bsandalwood%2Btree%26start%3D40%26ndsp%3D20%26um%3D1%26hl%3Den%26rls%



Tuesday, May 20, 2008

घर से जितनी दूरी तन की ,उतना समीप रहा मेरा मन

गुलदस्ता और फूल
घर से जितनी दूरी तन की , उतना समीप रहा मेरा मन ,
धूप ~ छाँव का खेल जिंदगी , क्या वसंत , क्या सावन !!
नेत्र मूँद कर कभी दिख जाते , वही मिटटी के घर ~ आँगन !
वही पिता की पुण्य छवि ~ सजल नयन , पढ़ते रामायण !
अम्मा के लिपटे हाथ , आटे से , फ़िर रोटी की सौंधी खुशबु ,

बहनो का वह निष्छल् हँसना , साथ - साथ रातों को जगना ,

वे शैशव के दिन थे न्यारे , आसमान पर कीतने तारे !

कितनी परियां रोज उतरतीं , मेरे सपनो में आ आ कर मिलतीं ,

" क्या भूलूँ क्या याद करूं ? " मेरे घर को , या मेरे बचपन को ?

कितनी दूर , घर का अब रास्ता , कौन मेरा वहाँ अब रस्ता तकता ?
अपने अनुभव की पुडिया को रखा है सहेज , सुन , ओ मेरी गुडिया !!
" बार बार आती है मुझको , मधुर याद बचपन तेरी
गया ले गया, तू, जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी "
गर्मियोँ मेँ ठहरी हुई शाम हो, धुँधलकेमेँ, बचपन के सपने
और पल दो पल का सुकून...
जब् जब् मैं अपने शैशव के घर को याद करती हूँ मुझे अम्मा के जतन से लगाई बगिया याद आती है, घर के पीछे की वो खुली लाल मिट्टी सी जमीन जिसके हर कोने पे पेड़ थे।
२ अमरूद के पेड़ थे, शायद आज भी उसपे कच्चे पक्के फल लगे होंगें , जिन्हें हरे तोते आकर जुठला जाते होंगें ! वहां १० नारियल के पेड़ भी थे जिसका मीठा , शीतल जल, सदा हमारे घर आनेवाले हर अतिथि की प्यास बुझाने को तत्पर रहता था। एक विलायती इमली का पेड़ भी था इस पे अर्ध वर्तुलाकार आकार की हल्की गुलाबी रंग की इमली , हरी पत्तियों के बीच , लटकती रहतीं थीं ।
१२ , १५ राज - मोगरा जिस को " किंग जासमीन " भी कहते हैं , सुफेद, घनी, महकती कलियों की संपदा लिए बागा की शोभा बढाता , जिसकी कलियाँ , शाम होते होते खिलखिलाकर , खुल जातीं थीं और खुशबु का साम्राज्य फैल जाता था ॥ और शाम , रात में ढल जाती थी और , हम इंतज़ार करते थे सुबह का जब् हम पास रहतीं हमारी सहेलियों के साथ, उसी बाग़ में , लाल मिट्टी के ऊपर, ३ ईंट रखकर , चूल्हा बनाते थे ! सूखी लकड़ी पुराने कागज़ , सजाते , आग , सुलगती , जिस के हवाले किया जाता पतीली में रखा .. चावल , दाल , जिसमें हल्दी और नमक भी पड़ता , फ़िर आधे घंटे के बाद पक कर , वह भोजन , हमारे लिए स्वर्ग सी खुशी लेकर तैयार होता , खिचडी की शकल में हमें अपार खुशी दे जाता।

दुपहर की धूप में, वो उठता धुआं , मीठी खुशबु लेकर आता ..पास में मीना थी मेरी सहेली , छाया अंकल की वो बिटिया थी। जयराज अंकल फिल्मों में काम करते थे उनकी बिटिया गीतू और मेरी बहनें , वासवी और मोंघी , हम सब , उसे खाते और परितोष भी वहीं कहीं , पास में , खेल रहा होता । परितोष आज भी वहीं रहता है ...और शायद उस मिट्टी के आँगन को कई बार देखता भी होगा पर

मैं, उस आँगन को अब, सपनों में ही देखती हूँ।

आज , ये बातें , याद आ रही है ...इस लिंक को पढ़कर ...आप भी देखियेगा ...

blogs.com/2005_20_02_vidhur_archive.html

Monday, May 19, 2008

मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ी गयो रे .. मधुबाला जी ...

मधुबाला जी पर जारी किया गया भारतीय डाक विभाग का स्टाम्प -- जिसे देखा और इस हसीं शख्शियत की फ़िर याद उमड़ने लगी ......
नाम था मुमताज़ जहां बेगम देहलवी
जन्म : १४ फरवरी १९३३ ( जी हां , वैलेंटाइन डे ) अवसान : २३ फरवरी 1969 --
बचपन से उनके पिता की मरजी के मुताबिक , बेबी मुमताज़ , देविका रानी से मिलीँ और "बसँत " फिल्म मेँ काम मिला तो फिल्मों में काम करने लगीं ..... १६ साल की कमसिन उमर से उन्हेँ लोग पहचानने लगे पर शोहरत मिली "महल " फिल्म से !
लता जी का गाया गीत " आयेगा आनेवाला " ने ही , मधुबाला को दर्शकोँ के दिलोँ पे राज करने के सफर पे पहला कदम रखवाया था।
मधु , सुबह , ७ बजे हाजिर हो जातीं और ६ बजे शाम को घर के लिए अपने अब्बा के संग , बंबई की लोकल ट्रेन से , चलीं जातीं थीं !॥
कई बार दिलीप कुमार जी भी उसी ट्रेन से सफर करते थे और मेरी अम्मा हलदनकर इन्स्टीट्युट मेँ चित्रकला सीख् रहीँ थीँ उन्हेँ भी युसुफ खान देख लिया करते थे और बोम्बे टाकीज़ जा कर पापा जी से कहते, " भैया आज मेरी होनेवाली भाभी को गुलाबी साडी पहने देखा था ! "
पापा पूछते "तुम वहाँ क्या कर रहे थे युसुफ ? " तो वो कहते , " भैया ! आप तो जानते हैँ, मैँ शूटीँग के लिये आ रहा था " .
..ये बहुत पुरानी बातेँ हैँ ॥
मधुबाला के अब्बा ने , शायद युसुफ खान और मुमताज़ जहान को ना मिलने दिया और मधुबाला और दिलीप कुमार पर्दे पर ही मोहोब्बत करते रहे
...असली जिन्दगी में , वे ना मिल पाये !
विवाह न कर पाये ।
हुस्न की मलिका , मधुबाला , आजतक , कई दिलों पे राज कर रहीं हैं लोग उन्हें , youtube पे , अपने तरीके से याद करते हैं , उनकी छवि को बार बार निहारते हैं ...जैसे ये http://www.youtube.com/watch?v=25SFO2Z352g&feature=related
और , ये लिंक देखिये , जहां , कान्हा को रिझाने की कहानी , उलाहना देने की अदा को अकबर के दरबार में पेश करते हुए , गाती , नाचती "अनारकली " को , हिन्दी सिने जग में , सदा के लिए अमर बनानेवाली मधुबाला ...का हुस्न !
जिसे , बरसों हो गए पर , आज तक , कोइ भूला नहीं ......
http://www.youtube.com/watch?v=fJOkkUOU7UQ&feature=रेलातेद
किशोर कुमार का हंसी मजाक करना मधुबाला की जिन्दगी में , ताज़ा हवा का झोंका बनकर आया ...वे बीमार थीं , ये उन्हें पता था , फिर भी अन्तिम दिनों तक , अपने परिवार के साथ ही रहीं और सभी की देखभाल भी करतीं रहीं ।
ये उनकी फिल्में हैं :
बसंत - १९४२ (बेबी मुमताज़ )
मुमताज़ महल - १९४४ (बेबी मुमताज )
धन्ना भगत - १९४५ (बेबी मुमताज )
पुजारी - १९४६ (बेबी मुमताज )
फुलवारी - १९४६ (बेबी मुमताज )
राज्पुतानी - १९४६ (बेबी मुमताज )
चितोड़ विजय - १९४६ * राज कपूर हीरो
दिल की रानी - १९४७
खूबसूरत दुनिया - १९४७ *
मेरे भगवन - १९४७ *
नील कमल -१९४७ * राज कपूर
अमर प्रेम - १९४८ * राज कपूर
परायी आग - १९४८ * मुनवर सुल्ताना
लाल दुपट्टा - १९४८
अपराधी - १९४९
दौलत - १९४९
दुलारी - १९४९ * गीता बाली
इम्तिहान - १९४९
महल - १९४९ * अशोक कुमार
नेकी और बड़ी - १९४९ * गीता बाली
सिंगार - १९४९ * सुरैया
सिपहिया - १९४९
पारस - १९४९ * कामिनी कौशल
बेक़सूर - १९५०
मधुबाला - १९५० * देव आनंद
हँसते आंसू - १९५०
परदेस - १९५०
निराला - १९५० * देव आनंद
निशाना - *१९५० * अशोक कुमार
आराम * - १९५१ * देव आनंद
बादल - १९५१ * प्रेमनाथ
ख़जाना - १९५१
सैयाँ - १९५१
तराना - १९५१ * दिलीप कुमार
नाजनीन - १९५१
नादान - १९५१ * देव आनंद
संगदिल - १९५२ * दिलीप कुमार
साकी - १९५२ * प्रेमनाथ
रेल का डिब्बा - १९५३ * शम्मी कपूर
अरमान - १९५३ * देव आनंद
अमर - १९५४ * दिलीप कुमार
बहुत दिन हुवे - १९५४
मिस्टर एन मिसेज़ ५५ - १९५५ *गुरु दत्त
नकाब - १९५५ * शम्मी कपूर
तीरंदाज़ - १९५५
नाता - १९५५
राज हट - १९५६ * प्रदीप कुमार
शीरीं फरहाद - १९५६ * प्रदीप कुमार

ढाके की मलमल - १९५६ * किशोर कुमार
यहूदी की लड़की - १९५७ * प्रदीप कुमार
गेटवे ऑफ़ इंडिया - १९५७ * भारत भूषण
एक साल - १९५७ * अशोक कुमार
बागी सिपाही - १९५८
चलती का नाम गाडी - १९५८ * किशोर व अशोक कुमार
पुलिस - १९५८ * प्रदीप कुमार
फागुन - १९५८ * भारत भूषण

हावडा ब्रिज - १९५८ * अशोक कुमार
काला पानी - १९५८ * देव आनंद
दो उस्ताद - १९५९ * राज कपूर
कल हमारा है - १९५९ * भारत भूषण
इंसान जाग उठा - १९५९ * सुनील दत्त
महलों के ख्वाब - १९६० * किशोर कुमार
बरसात की रात - १९६० * भारत भूषण
मुग़ल -ऐ -आजम - १९६० * दिलीप कुमार
जाली नोट - १९६० * देव आनंद
बॉय फ्रेन्ड- १९६१ * शम्मी कपूर
झुमरू - १९६१ * किशोर कुमार
पासपोर्ट - १९६१ * प्रदीप कुमार
हाफ टिकेट - १९६२ * किशोर कुमार
शराबी - १९६९ * देव आनंद
ज्वाला - १९७१ * सुनील दत्त
चालाक - * राज कपूर - Incomplete Movie
यह बस्ती यह लोग * बलराज साहिनी - Incomplete Movie

http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2008/03/080319_madhubala_stamp.shtml

Sunday, May 18, 2008

दर भी था थीं दीवारें भी , माँ तुम से ही घर घर कहलाया

जामिनी राय कलाकृति
ब्रिटनीस्पीयर शिशु के साथ
और माँ आनंदमयी

" दर भी था थीं दीवारें भी , माँ
तुम से ही घर घर कहलाया "

ये गीत सुनकर अकसर मैं, बहुत ज्यादा भावुक हो जाती हूँ ॥

फिल्म्: भाभी की चुडियाँ :

http://www.youtube.com/watch?v=1Cz4dJfpPG0

स्व मुकेशचँद्र माथुर जी की दिव्य - स्वर लहरी , स्व पण्डित नरेन्द्र शर्मा के पवित्र शब्द और स्व सुधीर फडके जी का संगीत , परदे पे, स्व मीना कुमारी का सशक्त अभिनय , भाभी के अन्तिम श्वास , देवर का उनके समीप , पूजाभाव से , गीत गाते , रोना ..कुल मिलाकर , ये गीत , अंतर्मन को झकझोर देता है ..

.देखिये , बहुत समय से इसे खोज रही थी ..आज मिला है ...

Saturday, May 17, 2008

"राम चरित मानस " :गोस्वामी तुलसीदास जी

गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म , उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के राजपुर ग्राम मेँ सं १५८९ या १५३२ मेँ हुआ बतलाते हैँ। वे सरयूपारायणी ब्राह्मण थे। उन्हेँ वाल्मीकि ऋषि का अवतार कहा जाता है।
 उनके पिता का नाम आत्माराम शुक्ल दुबे व माता का नाम हुलसी था। उनके जन्म के समय से ही ३२ दाँत मौजूद थे और वे अन्य शिशु की भाँति जन्मते ही रोये नहीँ थे!
तुलसीदास जी को बचपन मेँ  ग्राम वासी जन "राम - बोला " कहकर पुकारा करते  थे।
 उनकी पत्नी का नाम "बुध्धिमती" था परँतु वे "रत्नावली " के नाम से ही अकसर साहित्य मेँ पहचानी जातीँ हैँ।  उनके पुत्र का नाम "तारक " था।
तुलसीदस जी को रत्नावली के प्रति आसक्ति इतनी गहन थी कि वे उनका बिछोह सहन न कर पाते थे। एक दिन रत्नावली बिना अनुमति लिये, अपने पीहर चली गयी और भयानक बारिश के बीच और तूफानी नदी को एक मृत शव के सहारे, पार कर, मरे हुए सर्प को रस्सी समझकर , पकडकर, सहारा लेकर तुलसी, रत्ना के पास पहुँचे तब, पत्नी ने उलाहना देते हुए कहा कि,
" मेरी हाड मांस से बनी देह पर इतनी आसक्ति के बदले ऐसी प्रीत श्री राम से करते तो  आपको अवश्य मुक्ति मिल जाती ! "
 रत्ना की कही कठोर वाणी बात तुलसी के मर्म को भेद गयी ! आत्मा के सोये हुए सँस्कार जागे और वे सँसार त्याग कर १४ वर्ष तक तीर्थस्थानो मेँ घूमते रहे। हनुमान जी की कृपा से उन्हेँ प्रभु श्री रामचँद्र जी के दर्शन हुए और उन्होँने भावविभिर हो गाया ,
" गँगा जी के घाट पर, भई सँतन की भीड,
तुलसीदास चंदन रगडै,तिलक लेत रघुबीर "
लेखन : विनय - पत्रिका, जानकी - मँगल तथा १२ अन्य पुस्तकें  उन्होँने रचीँ पँरतु,  सर्वाधिक लोकमान्य व लोकप्रियता हासिल करनेवाली उनकी अमर कृति "राम चरित मानस " ही है।
 भारतीय भक्तिकाव्य में गोस्वामी तुलसीदासजी का "श्री राम चरित मानस " या तुलसी कृत
 "  राम अयन " कौस्तुभमणि की भांति पूज्य है !
गोस्वामी तुलसीदासजी ने सन १५७४ मंगलवार ९ अप्रिल अर्थात संवत १६३१ रामनवमी के शुभ दिन, अयोध्या में रामचरित -मानस का श्री गणेश किया था । गोस्वामी तुलसीदासजी का जीवनकाल सं  १५३१ -१६२३ पर्यंत रहा ! अर्थात आज से ३८१ वर्ष पूर्व !
       देशकाल परिवर्तन के अनुरूप , कवि नरेन्द्र शर्मा  मेरे पापा जी ने ने 'रामचरित मानस ' को नये -नये माध्यमो द्वारा जनता तक पहुँचने की कल्पना की  और दृढ संकल्प कीया !
आईये इस संदर्भ में कवि नरेन्द्र के महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी और 'राम चरितमानस' के प्रति भक्तिभाव , और श्रधाभाव सुनें :
"गोस्वामी तुलसीदासजी हिन्दी भाषा के तो सर्वश्रेष्ट कवि है ही , संसार भर में वह सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रतिषिठित माने जाते है ! उनका सबसे महान ग्रंथ 'राम चरित मानस ' है , जिसकी चौपाई और दोहे शिलालेख और शुभाषित, पुष्प बन गए हैं ! उन्होंने जनता के मनोराज्य में रामराज्य के आदर्श को सदा के लिए प्रतिष्टित कर दिया है ! किसान का कच्चा मकान हो या आलिशान राजमहल , गृहस्थ का घर हो या महात्मा का आश्रम , देश हो , या विदेश , सर्वत्र 'राम चरित्र मानस ' हिन्दी भाषा का सर्वोत्तम और सर्वमान्य पवित्र -ग्रन्थ माना जाता रहा है !
निरक्षर श्रोता हो , या शास्त्री -वक्ता , सामान्य जन हो , या अति विशिष्ट व्यक्ति , हिन्दी भाषी हो , या अहिन्दी भाषी देशी भाष्यकार हो , या विदेशी अनुवादक, 'राम चरित मानस ' सबके मन में भक्ति , ज्ञान और सदा चार की त्रिवेणी बनी हैं ! गोस्वामी तुलसीदास कृत 'राम -चरित मानस ' जनमानस में , राम -भक्ति का कमल खिलानेवाले सूर्य के समान प्रकाशित रहा है ! "
रामचरित मानस इन वौइस् ऑफ़ मुकेश जी संगीत : मुरली मनोहर स्वरूप का संकलन भी पण्डित नरेन्द्र शर्मा जी का ही प्रयास है ।
श्री रामचरित मानस में  सात कांड हैं जिन्हें सप्त सोपान कहते हैं । सुंदर - काण्ड मानस का पांचवा काण्ड है ! किंतु लोकप्रियता की द्रिष्टि  से इसे सदा से सर्वप्रथम स्थान प्राप्त है ! जैसा की इस काण्ड के नाम से प्रकट है यह अत्यंत सुन्दर, सरस अध्याय है। मानस का यह अंश रामकथा प्रेमियौं को सर्वाधिक सुंदर लगता रहा है ! संसारी भक्त और सद्ग्रुहस्थ , संकट से छुटकारा पाने के लिये , " सुंदर -काण्ड " का पाठ करते रहे हैं और करते रहेंगे !
सुंदर -काण्ड में वर्णित रामकथा से सह -हृदय रामभक्त , भली -भांति परिचित हैं ! उनका कहना है के इस काण्ड में सम्पूर्ण रामकथा अपने सार -स्वरुप में उपलब्ध हो जाती है !
रामदूत हनुमान , सीताजी को पूर्व कथा सार - रूप में सुनाते हैं ! त्रिजटा के स्वपनानुकथान में , भावी घटनाओ का पूर्वाभास हमें मिल जाता है ! यही नही, लंकिनी के मुख से ,  रावण  की ब्रम्हाजी से वर -प्राप्ति और इस -के अंत की बात भी जान लेते हैं !
इस कांड का स्वतंत्र रूप से भी पाठ किया जाता है !
ये अँजनि पुत्र हनुमान जी का सबसे पुनीत स्तवन है :
http://www.youtube.com/watch?v=fKKSurfd6Ys
http://www.bollywoodsargam.com/bollywoodsargam_search.php?search_term=hanuman&searchop=seemoreall
- लावण्या

Thursday, May 15, 2008

ऐलिफ़न्टा!

सदियों से मौन खडी प्रस्तर प्रतिमा क्या कहती है ?
ॐ नम : शिवाय .. ॐ नम : शिवाय ... ॐ नम : शिवाय .. ॐ नम : शिवाय .. ॐ नम : शिवाय ..
ऐलिफ़न्टा !
अगर आप अरबी समुँदर मेँ सैर पर निकल चलेँ तो , मुम्बई से ९ समुद्री मील दूर एक पुरातन टापु है जिसका नाम है, ऐलिफ़न्टा !
हाँ वही मुम्बई जहाँ की लोकल ट्रेन पीक आवर माने ओफिस पहुँचने की हडबडी वाले समय मेँ , लोगोँ से भरी हुई, दनदनाती, मुम्बई को चीरती हुई निकलती है , खुले दरवाजोँ से लोग, हैन्डल पकड कर, जीने और मरने के बीच, झूलते दीखाई देते होँ , जब, बसेँ, केपेसीटी से ज्यादा, लोगोँ का बोझ उठाये, रेँगतीँ हुईँ, मुम्बई शहर की मुख्य सडकोँ पे , आप , देखेँ और रिक्षा और टेक्सी के साथ अपार जन समुदाय का कभी न थमनेवाला दरिया आपका दिल दहला दे, ऐसे नज़ारोँ के आगे ये सोचना शायद जहन मेँ आता ही नहीँ के , इससे परे भी, कुछ है जो इसी महानगरी मुम्बई का एक अभिन्न अँग भी हो सकता है !!
तो, यही जगह है , ये एक ऐसी शांत और पुरातन - सी स्थली है ऐलिफ़न्टा आयलैन्ड !! मुम्बई से दूर फिर भी मुम्बई का हिस्सा है , तो वह ऐलिफन्टा का टापु ही है जी हां ,जहां स्कूल की ट्रिप पे भी कई बार घूमने का अवसर मिला और फ़िर, यूँ ही सहेलियों के साथ, भी घूमने गए हैं।
अपोलो बंदर , ताज महल पाँच सितारा होटल के ठीक सामने से, टिकट लेकर, किराये की किसी भी फेरी बोट मेँ आप, दूसरे सैलानियोँ के सँग, सवार हो जाइये, नाव हिचकोले लेती हुई, शोर करती हुई, अरब सागर के सलेटी पानी पे चल पडेगी ॥
धूप, सुफेद, कबूतरोँ जैसे सी - गल, आपके साथ साथ नीले आसमान पे उडते दीखेँगेँ और ९ समुद्री मीलोँ का फासला तै करते ही आप ऐलिफन्टा आयलैन्ड के नज़दीक पहुँच जायेँगेँ। सडक के मील और दरिया के मीलोँ मेँ भी अँतर रहता है । ऐसा सुना है तो ये दूरी ज्यादा नही --
ऐलिफ़न्टा की गुफा २ री और ६ वीं , शताब्दी में अस्तित्व में आयीं थीं । यूनेस्को ने इन को " वर्ल्ड हेरिटेज साईट " = 'विश्व विरासत स्थल " का दर्जा दिया हुआ है।
हर वर्ष , यहां , खुले आकाश के नीचे, टिमटिमाते तारों के साथ , नृत्य , संगीत के समारोह किए जाते हैं । जिन्हें देखकर एक सुखदाई अनूभूति होती है और एहसास होता है इस बात का , " ये मुम्बई , महज , एक मशीनी शहर नहीं है! इसकी आत्मा भी है !
जहां ऐसे कला और संगीत के आयोजन होते हैं।
आप मुम्बई के वासी हों या प्रवासी या अ - प्रवासी ..... एक बार अवश्य घूमने जाईयेगा , देखियेगा ...और , ऐलिफ़न्टा के टापू पे , शिवजी की प्रतिमा के दर्शन भी करियेगा !
-- लावण्या

Tuesday, May 13, 2008

मेरे महबूब -- H.S. रवैल संस्मरण

फ़िल्म निर्माण : कैमरा के आगे कलाकार और पीछे कार्यकर्ता --
ये गीत है मशहूर फ़िल्म " मेरे महबूब " का - हुस्ना और अनवर की प्रेम कहानी है ये , दोनों , अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं और इनके मिलने में कितनी तकलीफें आतीं हैं ये इसकी कहानी है और मुस्लीम थीम पे बनी सफलतम फिल्मों में इस का शुमार किया जाता है -
और ये देखिये दिलीप कुमार और वैयजयन्तीमाला की फ़िल्म : संघर्ष
दोनों फिल्मों के निर्माता थे श्री हरनाम सिंग रवैल जी जिन्हें हिन्दी फ़िल्म संसार एच । एस । रवैल के नाम से पहचानता है ............
मेरी बचपन की यादों की गर्द में , रवैल अंकल और अंजना आंटी और उनकी बिटिया , रुही भी कहीं खो गए हैं । बस याद है जब् राज कपूर के देवनार फार्म वाले घर के खुले बाग़ में , अंजना आंटी जी ने एक बार 'ऋतू की शादी पे हीर गाते हुए सब को रुला दिया था ..बोल थे, " रख ले मेरी डोली नी माँ आज, रख ले मेरी डोली ...ना मैं लडियाँ , ना मैं बोली , रख ले मेरी डोली नी माँ .."
५ मई २००८ को उनका, बंबई शहर में , देहांत हो गया पर , ना जाने क्यूं , किसी ने उनको भावांजलि नही दी। :(
अखबार में कहीं ये ख़बर गायब हो गयी ...
ये दौर भावुकता का नही है।
१९६० में बनी " मेरे मेहबूब" आज भी मुस्लीम थीम पे बनी संगीतमय फ़िल्म में, नौशाद के जादुभारे , रेशमी गीतों से सजी अपनी अनोखी पहचान बनाए , वैसी ही दमक रही है और सदा दमकती रहेगी।
रवैल साहब का जन्म , लायलपुर पंजाब में हुआ था जहां से उनका संघर्षमय जीवन आरंभ हुआ। बीस बरस से कम उमर थी जब् वे बिना कोइ पैसा लिए मायानगरी मुम्बई आ गए अपनी तकदीर आजमाने !
पहले कहानी, पटकथा लेखन किया । "दोरंगिया डाकू " से १९४० में वे दिग्दर्शक बने । १९५० तक हास्य तथा मारधाड़ वाली फिल्में बनाईं । परंतु सफलता का सेहरा मुस्लीम सामाजिक कथा पे बनी "मेरे मेहबूब " से ही मिला।
इसमें श्री अशोक कुमार, निम्मी , राजेन्द्र कुमार और साधना ने सफल अभिनय किया। १९७१ में "मेहबूब की मेहंदी " भी उसी तरह की मुस्लीम थीम पे बनी जिसमें लीना चंदावरकर ने अभिनय किया और राजेश खन्ना ने साथ निभाया। जिसका ये गीत, लक्ष्मी कान्त प्यारेलाल की जोड़ी ने दिए संगीत से सजा , सदाबहार है और मुझे भी बहुत पसंद है -- सुनिए : ~~~
उस के बाद रवैल साहब ने मशहूर "लैला - मजनूँ " की दास्ताँ को परदे पे उतारा इस बार ऋषी कपूर और रंजीता कौर की जोड़ी को लेकर जिसका संगीत श्री मदन मोहन जी के दिए संगीत से शुरू हुआ --
उसी का ये गाना बहुत प्रसिध्ध हुआ -
" कोइ पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को " लता जी का गाया हुआ, जिस को लोगों ने सराहा पर , मदन मोहन जी का उसी अरसे , फ़िल्म की रीलीज़ के पहले देहांत हो गया और , जयदेव जी ने संगीत का रहा सहा काम पूरा किया।
उसके बाद " दीदारे यार " जीतेंद्र को लेकर बनायी , फ़िल्म ,
रवैल साहब के पुत्र राहुल रवैल की पेशकश थी ।
ये फ़िल्म बुरी तरह पीट गयी -
राहुल रवैल , की नाकामयाबी ने,
रवैल साहब की बरसों की मेहनत को पानी में मिला दिया ।
शायद "संघर्ष " १९६८ में बनी रवैल साहब की फ़िल्म जिसकी कथा बंगाल की प्रख्यात novel लेखिका श्री महाश्वेता देवी , ने लिखी थी और "संघर्ष " की कहानी १९ वीं सदी में, भारत में , प्रचलित , ठगों पे आधारित थी जिसमें काफी घुमाव थे drama और पात्र थे मंजे हुए कलाकार जयंत , बलराज सहनी , संजीव कुमार , दिलीप कुमार और वैयजयन्तीमाला।
राहुल रवैल ने अपने प्रख्यात पिताजी को श्र्ध्धांजलि देते हुए एक और प्रयास किया "जीवन एक संघर्ष " फ़िल्म बनाकर १९९० में ।
"मेरे मेहबूब " और "संघर्ष " दोनों ही देवदास तथा " ब्लैक " जैसी सफल फिल्मों के निर्माता , निर्देशक श्री संजय लीला भंसाली की सबसे पसंदीदा फिल्मों में से २ हैं --
वे कहते हैं के , " एक फ़िल्म निर्माता को आवश्यक है के वो ख़ुद को तथा अपने दर्शकों को हमेशा नयी चीज़ दीखालाये "
सुमधुर सँगीत से सजी इतनी सारी सफल फिलोँ के निर्माता निर्देसक रवैल साहब को , अँकल जी को मेरी विनम्र श्रध्धान्जलि -
-- लावण्या

सुनी सुनाई कहानियां

श्री राम व सीता बन मेँ : श्री राम का कैकेयी माँ से मिलन , बड़ा करुण प्रसंग है -- रामायण कथा का ! हर्ष और विषाद दोनों जब् संग - संग चलते हैं तब करुना की पराकाष्ठा हो जाती है । उसीके सन्दर्भ में , आगे की कथा भी याद आ रही है की , बिल्कुल आख़िर में श्री राम , कौशल्या माँ के कक्ष में आए । माँ ने १४ बरसों का लाड अपने सरल , सीधे , सच्चे , एक मात्र , पुत्र , राम पर निछावर कर दिया ---माता कौशल्या , राम जी का हाथ पकड़ कर , उर्मिलाजी के भवन की और ले चली ........लक्ष्मनजी, माता सुमित्राजी के संग थे .......उर्मिलाजी , मौन - थीं ......

उनके कमरे की दीवारों पर हलके से धब्बे देख कर ,

रामजी और सीताजी ने कौशल्याजी से पूछा ,

" ये क्या है माँ ? " तब , कौशल्या माँ ने कहा ,

" ये उर्मिला के सिर पटकने से , दीवारों पर दाग = धब्बे लग गए हैं ! क्योंकि वह अपना दुःख , किसीसे कहती ही थी -

माता कौशल्या का एक और प्रसंग सुना है की , अपने प्रिय पुत्र राम के वन - गमन के समय , माता कौशल्या , अयोध्या पुरी की , अश्वशाला भी , गयीं थी -- जब् उन्हें ये पता चला की , श्री राम के अश्व , भली भाँती उनका खाना , घास और चना इत्यादी नही खाते हैं ! और ये - राम के वियोग में , मूक पशु भी शोकाकुल हैं :-( और माँ कौश्लाया ने उन अश्वों को बहोत प्रेम से, सहलाया था और धीरज बंधाई थी की , " राम लौट आयेंगें , तुम भी उनकी प्रतीक्षा करो ! जैसे मैं करूंगी " -

ऐसे प्रसंग शायद रामायण में हों या नही , लोक - कथा वाली रामकथा हमारे लोक गीतों से जुड़ी , सदियों से , हमारी संस्कृति को मजबूत रखे हुए है --- और ऐसे प्रसंग सुन कर ही , श्री राम या श्री कृष्ण , हमारे लिए , पूजनीय ही नही , हमारे बहोत निकट आ कर हमारे अपने हो जाते हैं और हमारे ह्रदय में समां जाते हैं ----

I believe thisis the Genius of Indian thought !

सुनिये ये गीत :

केहू बन दिहले दोनु राजकुमार -

Yatra - Sucharita Gupta -

( In the context of the 14 years exile given to Ram and Lakshman according to Ramayana, the singer is asking Dashrath, how he could bring himself to do

http://www.beatofindia.com/mainpages/videos-all.htm -

-लावण्या

Sunday, May 11, 2008

२ रेडियो इंटरव्यू

दीदी और मैं और पापा
( 1 ) Remembering Pt Narendra Sharma: Bollywood's greatest Hindi poet : -
Hindi poet Pt Narendra Sharma fought for India's independence and then went to Mumbai to write some memorable songs like
'Jyoti Kalash Chalke' and 'Satyam Shivam Sundaram'।
Lata Mangeshkar revered him like her father।
In this interview, first broadcast on Cincinnati local radio, his daughter Lavanya Shah remembers her legendary father।
The All India Radio's entertainment channel was named by him as
'Vividh Bharati'।
To click here (Hindi)
( 2 ) Lata remembers Papa Pt Narendra Sharma In this remarkable interview legendry singer Lata Mangeshkar nostalgically talks about her early life and how Pt Narendra Sharma encouraged her in the days of her struggle। It was a special relationship। Lata called the great Hindi poet as Papa as she saw in him the image of her father। In this very informal interview with Pt Narendra Sharma's daughter Lavanya Shah Lata opens her heart। The interview was first broadcast at Radio Cincinnati's Indian programme Swaranjali। To Listen click here (Hindi)

Saturday, May 10, 2008

भारतीय धर्म, सँस्कार की खुशबु,आज विश्वव्यापी बन पाई है


को क्या कोइ सिर्फ़ एक दिन ही याद करता है ? या पिता को ? या गुरु को ? नहीं ..जी ।

ये तो, महज बहाना है वेस्टर्न सभ्यता का , अगर यहां ऐसे दिन ना रखते तब, व्यस्त , मशीनी जिन्दगी र हे लोग , शायद , इस एक दिन के लिए भी समय निकाल न पाते ..ऐसा भी नही लोग अपने माता , पिता को याद नही करते , करते भी हैं और जीवन की आपाधापी में समय अभाव में , या अन्य कारणों से व्यस्त हो जाते हैं ॥

आज, " माता ओं के ख़ास दिवस पर

" मेरी जन्मभूमि, मेरी , भारत माता को मेरे सलाम "

नरसिँह मेहता भी कह गये,

"गोळ विना सुनो कँसार्,

मात् विना सुनो सँसार

मात विना ते शो अवतार ? "

आपके आसपास की हर माँ को , अवश्य कहियेगा, " ओ माँ तुझे सलाम " !

http://www।indianera.com/slideshow/april/08041001/index.asp महात्मा गाँधी की जीवनी आज , भारत ही नही विदेश मेँ भी, हर किसी को प्रेरित करती है. न्यू योर्क शहर मेँ " टमारीन्ड कला दीर्घा " के सौजन्य से, गाँधी जी की विरासत क्या है उस से जुडे चित्रोँ की प्रदर्शनी लगायी गयी . जिस मेँ गाँधी बापू उपवास मेँ , दुर्बल अवस्था मेँ भी प्रसन्न मुद्रा मेँ लेटे हुए हैँ ये देखकर , दर्शकोँ के विस्मय ने तुरन्त गौरव व स्वाभिमान की भावना का स्थान ले लिया. कई भारतीय तथा विदेशी अतिथि गण गाँधी के प्रति श्रध्धा वचन कहते हुए अपने को धन्य महसूस कर रहे थे. ये देखेँ : ~~ http://www.indianera.com/slideshow/april/08041001/index.asp भारतीय धर्म, सँस्कार की खुशबु, हर प्राँत से निकलकर आज विश्वव्यापी बन पाई है जिसका आधार है भारतीयोँ का देशाटन तथा अपने सँस्कारोँ की धरोहर को हर भौगोलिक भूखँड पर बसते हुए भी, अपने देश से जो सौगात लेकर चले हैँ उस उद्दात परँपराओँ को सहेजे रखना ! कार्य क्षमता मेँ दक्ष भारतीय, चाहे युरोपीय देशोँ मेँ रहेँ या औस्ट्रेलिया, न्यूझीलैन्ड जैसे पूर्वीय छोर के द्वीपीय महाखँडोँ मेँ जा पहुँचे या कि, उत्तर अमरीका के कनाडा या अमरीका के ही क्योँ ना नागरीक बनेँ, हर परिस्थिती मेँ, भारतीय मूल के स्त्री व पुरुष, एक सफल कार्यकर्ता होने के साथ, आदर्श नागरीक तथाअपने मूल वतन भारत के प्रतिनिधि भी बन ही जाते हैँ. भारत के प्रति प्रेम, सदभाव, भारत के अतीत से जुडे सँस्कारोँ की विरासत को भी ये भारतीय जन अपने ह्र्दय से लगाये रखते हैँ . दोहरी भूमिका, दोहरा बोझ, अनेक विषम परिस्थितीयोँ मेँ भी हँसते हुए , द्रढ मनोबल से उठाये रखते हैँ और भारत के ज्वलँत प्रश्नोँ व समस्याओँ के प्रति भी सदा जागरुक रहते हैँ. जो धन कमाया उसका सद्` उपयोग भी कई प्रकार अपने नये अपनाये देश के अन्य नागरिकोँ के हित मेँ करते हुए, अपनी जिम्मेदारीयाँ उठाते हुए, भारत के करोडोँ भाई बहनो के लिये भी , अमरीका हो या इन्ग्लैँड या कि सिँगापोर या खाडी के अन्य मुल्क, वहाँ से हर भारत माँ का सच्चा सपूत या सुपुत्री भारत माँ के लिये अपने श्रम की बूँदोँ की कतरेँ , सेवा भाव से , चरण कमलोँ पर निछावर करती आयी है. ये देखेँ तेलेगु कौम का " सर्वधारी उगादी पर्व महोत्सव " : http://www.indianera.com/slideshow/april/08042102/index.asp तेलेगु भाई बहन उगादी मनाते हैँ तो गुजराती कौम सोत्साह स्वामीनारायण सँस्था से जुडकर , कच्छ के भूकँप की तबाही जैसे दारुण कुदरती हादसोँ के वक्त अपना श्रम दान्, धन दान करते नजर आते हैँ http://www.indianera.com/slideshow/april/08040501/index.asp ये चित्रमय लोकापर्ण है श्री बाल्मिकी प्रसाद सिँह की पुस्तक " बहुधा और " ९ / ११ के बाद " पुस्तक के बारे मेँ : और भारत से दूर रहते हुए भी अगली पीढी को होली के रँग भरे मस्ती के आनँद से भी इस तरह अवगत कराया गया देखिये लिन्क http://www.indianera.com/slideshow/08032405/index.asp

केरल से कई भारतीय खाडी मुल्कोँ मेँ काम करने जाते हैँ उनकी कार्य स्थिति के बारे मेँ बहारीन के श्रम मँत्री मजिद अल अलावी से परदेश मँत्री वायलार रवि जी ने (जो भारतीय कार्योँ से सँबँधित हैँ) उन्होँने, कई नये मुद्दोँ पर करार स्थापित किया -- करीब २८०, ००० भारतीय केरल से बहारीन मेँ काम कर रहे हैँ - व्यापार और वाणिज्य मँत्री कमल नाथ जी का तो ये कहना है कि अगर आफ्रीकी पिछडे और अकाल व युध्ध की दोहरी मार से व्यथित प्राँतोँ को अगर खाडी के देश , अरब गण राज्य और भारत मिलकर सहायता करते हैँ तब अफ्रीका मेँ राहत जो मिल सकती है और स्थिती पलट सकती है। ऐसी बातेँ सुनकर भविष्य के प्रति आशा बँधती है कि अगर विश्व अगर सचमुच एक ईकाई बनता जा रहा है और भूमँडलीकरण और वैश्वीकरण बाजार के साथ साथ विश्व बँधुत्व की भावना का प्रेणेता बनता जाये तब , २१ वीँ सदी मेँ, मनुष्य अनेक समस्याओँ के साथ जूझते हुए भी शायद , एक सँतोषकारक दिशा की ओर अग्रसर हो पायेगा। शायद मैँ आशावान हूँ, इसलिये, अनेक विडँबना और वर्जनाओँ के मध्य भी , आशा की हल्की किरण देखने की आदी हूँ ! चूँकि, सूरज वहीँ उस किरण के पीछे ही तो कुहासे से ढँका हुआ, एक नई सुबह का इँतज़ार कर रहा है! जहाँ से एक नया सुनहरा " मानव दिवस" अवश्य प्रकट होगा
-- लावण्या

Friday, May 9, 2008

ग्रीष्म की एक रात

रात उतर आयी गहरी कालिमा
साथ उमस लाई पीली नीलिमा
विवश थकान भरे तन मन मेरे,
अश्रु सुषुप्त मन बालू में
मन जगा , भागे अविरल चेतक सा -
नेत्र खींच ले पलक बिछोना,
हे मन, होंगें, ऐसे कितने प्राणी
बोझ लिए मंथन का !
हर तरफ़ ग्रीष्म जलन फ़ैली,
पीली तपन बिखरती,
गहरी सुनहरी, दिन भर ,
फ़िर, रात उतर आयी थकी बुझी ,
चाँद मुरझाया ,
गगन पे मैली सी चांदनी,
रात उतर आयी गहरी कालिमा
आज रात ...
-- लावण्या

Thursday, May 8, 2008

जीवंत प्रकृति



खिले कँवल से, लदे ताल पर,
मँडराता मधुकर~ मधु का लोभी.
गुँजित पुरवाई, बहती प्रतिक्षण
चपल लहर, हँस, सँग ~ सँग,
हो, ली !
एक बदलीने झुक कर पूछा,
"ओ, मधुकर, तू ,
गुनगुन क्या गाये?
"छपक छप -
मार कुलाँचे,मछलियाँ,
कँवल पत्र मेँ,
छिप छिप जायेँ !
"हँसा मधुप, रस का वो लोभी,
बोला,
" कर दो, छाया,बदली रानी !
मैँ भी छिप जाऊँ,
कँवल जाल मेँ,
प्यासे पर कर दो ये, मेहरबानी !"
" रे धूर्त भ्रमर,
तू,रस का लोभी --
फूल फूल मँडराता निस दिन,
माँग रहा क्योँ मुझसे , छाया ?
गरज रहे घन -
ना मैँ तेरी सहेली!"

टप, टप, बूँदोँ ने
बाग ताल, उपवन पर,
तृण पर, बन पर,
धरती के कण क़ण पर,
अमृत रस बरसाया -
निज कोष लुटाया !

अब लो, बरखा आई,
हरितमा छाई !
आज कँवल मेँ कैद
मकरँद की, सुन लो
प्रणय ~ पाश मेँ बँधकर,
हो गई, सगाई !!

Wednesday, May 7, 2008

पुष्प की अभिलाषा : श्री माखनलाल चतुर्वेदी


पुष्प की अभिलाषा : श्री माखनलाल चतुर्वेदी


चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूंथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर, है हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के शिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।

कवि ने " सुर बाला" शब्द क्यों इस कविता में इस्तेमाल किया है " पुष्प की अभिलाषा" काव्य में श्री माखनलाल लाल जी ने ?? ....


उसके बरे में मेरी समझ अनुसार , यह " संकेत " है -- सांकेतिक शब्द चयन से स्वर्गीय , अप्सरा सम - - सुन्दरी का आभास स्पष्ट हो जाता है . देवों के सिर पर पुष्प चढाया जाता है ...किंतु , पुष्प की अभिलाषा है ....किसी वीर सैनिक की वह , चरण धूलि बने ..
काव्य - शिल्प का एक सशक्त चरण येही है कि , " IMAGE " याने कि , " अदृश्य - दृश्य " को भाव प्रवण व मुखरित कर जाए ऐसे शब्दों से , जो कवि कहना चाहता है , वह पाठक , के सामने स्पष्ट = साफ दिखायी देने लगता है । जब् कोई चित्र , आंखों के सामने होता है , उस समय , रंग , आकर , आकृति , दृश्य बहुत कुछ कह जाते हैं -- किंतु , उस के द्वारा उभरते दृश्य की जो प्रतिध्वनि और प्रतिसाद दर्शक के ह्रदय से भावों को आंदोलित करते हैं और जो भाव उठते हैं वही चित्र का स्थायी असर है .
Both POEM & PAINTINGS are ART forms. The effect they impart & the conotation they generate r " ABSTARACT " . The more successful is the attempt in creating SUCH art , the deeper emotion it invokes in the viewer's heart & leaves more lasting impression.
" चाह नही मैं ...सुर - बाला के गहनों में गूंथा जाऊं " इस पंक्ती के द्वारा , कवि कहते हैं कि , गहनों के साथ - साथ स्वर्ण तथा सुन्दरी का सामीप्य , व संनिन्ध्य भी पुष्प के लिए वाँछित नही ....जितना मातृ- भूमि पर शीश चढाने वाले , वीर सैनिक की चरण - रज बनना उसके लिए श्रेयस कर है । ऐसी उद्दात भावना से ही ये कविता कालजयी बन पायी है जिस का असर सदीयाँ बीत जाने पर भी दमकता रहेगा -
परम आदरणीय, हिन्दी के मूर्धन्य कवि श्री माखन लाल चतुर्वेदी जी को शत शत प्रणाम !
-- लावण्या

Monday, May 5, 2008

चोर का गमछा

ये चित्र प्रसिध्ध कवि श्री अशोक चक्रधर जी ने खीन्चा है --

बहुत कम ऐसा होता है जब् आप कोइ कविता पढ़ें और आप को , बखूबी हंसी के साथ साथ, करुना का भाव भी मन में आए !॥

ये कविता जब् मैंने पढी कविता - कोश में, जिसका कार्य भाई श्री ललित कुमार ने , शुरू किया जो आज , कई और लोगों की सहायता से , तैयार हो रहा है अगर आपने कविता - कोश न देखा हो तो मेरी आपसे नम्र इल्तजा है , आप अवश्य देखें इस साइट को ! यहां बहुत सारी कविता और कवि आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं --

आज , ये कविता आपके साथ शेर कर रही हूँ जो मुझे बहुत पसंद आयी और मन को छू गयी
चोर का गमछा छूट गया

जहां से बक्सा उठाया था उसने,

वहीं-एक चौकोर शून्य के पास

गेंडुरियाया-सा पड़ा चोर का गमछा

जो उसके मुंह ढंकने के आता काम

कि असूर्यम्पश्या वधुएं जब, उचित ही, गुम हो गई हैं इतिहास में

चोरों ने बमुश्किल बचा रखी है मर्यादा

अपनी ताड़ती निगाह नीची किए

देखते, आंखों को मैलानेवाले

उस गर्दखोरे अंगोछे मेंगन्ध है उसके जिस्म की

जिसे सूंघ/पुलिस के सुंघिनिया कुत्ते शायद उसे ढूंढ निकालें

दसियों की भीड़ में, हमें तो

उसमें बस एक कामगार के पसीने की गन्ध मिलती है

खटमिट्ठी

हम तो उसे सूंघ/केवल एक भूख को

बेसंभाल भूख को

ढूंढ़ निकाल सकते हैं दसियों की भीड़ में

रचनाकार: ज्ञानेन्द्रपति
"कविता कोश " से लिया गया

पता : www।kavitakosh।org














मेरे मन का भेदी

मेरे मन का भेदी : [ आइना : मेरा हमराज़ ]
बदरीया बीच जिम चन्दा ,तुझ में , झांके जो मूखडा ,
काजल की ओट समाया है ज्यूँ मेरी अँखियोँ में सजनवा !
सिंगार ऊतारूं , जब् जब् , सिंगार सजाऊं निस - दिन ,
तू मेरे मन का भेदी ,तुझ से न छिपी कोई बात !
जोबन को देखे दर्पण ,नयनन माँ जलती आग !
गए मोरे पिया गहन , वन , तू दिखलाना घर की बाट !
नीली सारी मोरी मैली भई, नील गगनवा चमके तारे ,
तुझ से कहती हूँ , सुन ले , तू ,पियु कब लौटेंगे मोरे दुवारे

- लावण्या

Saturday, May 3, 2008

गोरा और काला

ये चित्र है वैजयन्तीमाला का !
तुम काली हो ये फरीश्तों कि भूल है।
वो तिल लगा रहे थे कि स्याही बिख़र गयी।
अब मैं समझा तेरे गालों पर काले तिल का मतलब ,
दौलते हुस्न पर दरवान (watchman) बिठा रखा है ।
*********************************************************
बड़ी मुश्किल बाबा बड़ी मुश्किल , गोरे गोरे गलों पे है काला काला तिल ;-)
ये नृत्य, गीत देखिये
http://www.youtube.com/watch?v=6cQAUQc04f4


Friday, May 2, 2008

समीक्षा : " चूड़ीवाला और अन्य कहानियाँ " - लेखक श्री अमरेन्द्र जी


युवा कवि व लेखक अमरेन्द्र जी व सौ. हर्षा प्रिया


युवा कवि, सम्पादक व लेखक, श्री अमरेन्द्र जी की कहानियाँ पैन्ग्वीन बुक्स से प्रकाशित हुईँ हैँ नाम है, " चूड़ीवाला और अन्य कहानियाँ " जो , अमरेन्द्र जी की, लेखकीय प्रतिभा का प्रथम सोपान कहा जायेगा. शीर्ष कथा "चूडीवाला " पढकर मै प्रभावित हुई थी. कथानक भारतीयता से रँगा हुआ है जिसमेँ मुख्य पात्र "चूडीवाला" यानी " सलीम चाचा," गाँव गाँव घूमकर, चुडियाँ , बेचते हैँ और बहू बेटीयोँ को आत्मीय नज़र से देखते हैँ. उन्हेँ अपनी वृध्धावस्था का एहसास तब गहराता प्रतीत होता है कि जब जब उनकी नीयत पर आशँका जतायी जाती है एक बहू के , अनादरपूर्ण वाक्य से .....और मर्माँतक शब्द , उन्हेँ भीतर तक बेध जाते हैँ . यह बदलते रीश्तोँ की कहानी है जहाँ समाज खरीददार और विक्रेता बन कर रह गया है और रीश्तोँ की जगह धन विनिमय ने ले ली है. हमारी यादोँ मेँ बसा भारत, कब का बदल चुका है ये आघातकारी सत्य, बूढे सलीम चाचा के हारे थके तन, मन से निकल कर, पाठक के अन्तर्मन को भीतर तक झकझोर जाता है और जब ,औरसँबम्धोँ मेँ, मनुष्य की आस्था मेँ पडतीँ दरारेँ चटखतीँ,हैँ और जब , जब टूट कर बिखरतीँ हैँ तब, भूतकाल के समाज से वर्तमान की बेरुखी से लैस समाज मेँ पनप रही सभ्यता के ह्रास के हम मौन प्रेक्षक बनते हैँ !यही लेखक की सफलता है जो अपनी कहानी के जरिये हमेँ सामाजिक सत्य का सच्चा आइना दीखलाने मेँ सफल हो कर पात्रोँ के आपसी रीश्तोँ के तानो बानोँ से हमेँ बाँधने मेँ पूर्णत: सफल रहे हैँ इस कथा मेँ और पुस्तक की शीर्ष कथा को यादगार बनाते हैँ इस पुस्तक की दूसरी कथा जिसे मैँ त्वरित गति से पढ गई वह "मीरा " जो एक विदेशी नारी पात्र के जीवन सँघर्ष की कथा है और भारत की धरती से दूर रहते सम्वेदनाशील, कवि ह्रदय लिये लेखक की नये परिवेश से , स्वयम को जोडने की चेष्टा भी है, साथ साथ आत्म मँथन, जीवन के गहनतम क्षण की अनुभूति से भी पाठक को परिचित करवाती कथा है. मीरा नाम उस परदेसी स्त्री का है जिसका जीवन उतार चढावोँ से गुजरता हुआ भारतीय आध्यात्म मेँ कृष्णाराधना के समीप जाकर पाथेय ग्रहण करता है जो उसके शैशव काल के ऐकाँत को कुछ हद तक सँबल प्रदान करता है. उसी दौरान लेखक की अपनी माँ का निधन, भारत जाना , करुण प्रसँग मेँ शामिल होकर , दुबारा विदेश आ जाना , यह ह्रदय विदारक मनोदशा वही अनुभव कर पाता है जिसे ऐसे कठिन सँजोगोँ से गुजरना पडता है. सूफी सँत दरवेसोँ ने भी गाया है कि, "बहुत कठिन है डगर पनघट की " तो जहाँ कथा का मुख्य पात्र मीरा भी इसी कठिन पथ पर चल कर , हीम्मत से , अपने जीवन मेँ आयी कठिन परिस्थितियोँ से जूझती है लेखक भी, माँ के बिछोह से छलनी ह्रदय को सँजोये फिर पराये देस काम करने लौट आता है अकेले हाथोँ , " मातृत्त्व" का सामना करती हुई मीरा भी उसे दीख्लायी देती है. ईश्वर आस्था ही विषम क्षणोँ मेँ , मानव जीवन को पार करती है ये भी द्र्ष्टिगोचर है यही मानवता का हर धर्म से परे, जीवन यात्रा को आगे बढाने का अमर सँदेश है जो लेखक हमेँ बडी सहजता से देता है. "एक पत्ता टूटता हुआ" और चिडिया यूँ तो मानवीय प्राणी कथानकोँ से जुडी हुई कहानियाँ हैँ परँतु, इस मेँ परीलक्षित सँवेदना उन्हेँ मूक प्राणी व प्राकृतिक तत्व से उपर उठाकर मानवीय सँवेदनाओँ से जोडतीँ हैँ . चिडिया कथा मेँ , लेखक और चिडिया मानोँ एक दूसरे को ना बोलते हुए भी समझ रहे हैँ जब बुखार से तप रही हथेली पर बैठ कर चिडिया अपनत्व का इजहार करती हुई प्रतीत होती है और कभी इतना विश्वास कि अपनी सहेली चिडिया को भी मिलवाने ले आती है और अपनी सहेली का न होना भी आकर जतलाती हुई चिडिया मूक नहीँ, सँवेदना के हर बोल से अपनी बात कहती सी जान पडती है इतना सजीव चित्रण किया है अमरेन्द्र जी ने ...जो , सँयत भाषा मेँ , एक पँछी और मनुष्य का न रह कर , " हर प्राणी मेँ राम बसे " इस भक्ति कालीन सँतोँ की , उक्त्ति की प्रतीति करवाता सा लगता है. पत्ते की कथा, उसके उद्`भव पेड से गिरकर होती हुई, हमेँ भी यात्रा पे ले चलती है, जहाँ हम और लोगोँ से मिलते हैँ और विश्व की व्यापकता के साझीदार हो जाते हैँ .. भाई अमरेन्द्र की कहानियाँ अपने विविध पात्रोँ के सँग कभी गतिशीलता से तो कहीँ अपने ही स्थान पर समय के एक लँबे कालखँड को जो जी रहा हो ऐसी इमारत "ग्वासी " के जरीये हमेँ अलग अलग अनुभवोँ से परिचय करवातीँ हैँ .ये शहर का प्राचीन अवशेष प्राय: भवन ही नहीँ समस्त गतिविधियोँ का केन्द्र बिन्दु भी रहा है जो किशोर मन को सजीव अपने ही परिचित सा लगता है. भविष्य के कल्पनाकाश को, वर्तमान से जोडता हुआ, भूतकाल की नीँव पर खडा, अविचल प्रहरी सा ! जो विगत इतिहास को , जन जीवन के रोजमर्रा के जीवन से जोडने मेँ सक्षम होता है तब पाठक दार्शनिकता के बोध से बँध कर ठिठक जाता है, इतिहास से, समाज से, अपने परिवेश से जुड जाता है. ये "ग्वासी " कहानी की अन्तर्निहित शक्ति है जो प्रवाही भाषा के सहारे तटस्थता के प्रतीक मेँ समूचे जीवन का सार दीखला जाती है. " रेत पर त्रिकोण " 'रेलचलितमानस' और 'वज़न" ये अन्य ३ कथाएँ हैँ जिनमेँ से अँतिम दो हास्य व्यँग लिये हुए हैँ जिन्हेँ पाठक अवश्य पसँद करेँगेँ और तीन कोणोँ को सीधी रेखाओँ से जोडती कहानी, तीन मित्रोँ के सँघर्ष, उनके अपने नजरियोँ को उजागर करती हुई कथा है -- नीरज और सचिन, लेखक के मित्र हैँ जिनसे ये त्रिकोण पूर्ण बनता है. हरेक के लिये जीवन सँघर्षमय है परँतु जीवन जीने की प्रक्रिया और हल तीनोँ अपने अँदाज से चुनते हैँ ये कहानी किसी भी समाज के तीन व्यक्ति की कथा हो सकती है. आप, मैँ और कोई तीसरा ! इसी कारण, स्वाभाविक और आत्मीय सी जान पडती है. अम्रेन्द्र जी ने पूरी इमानदारी से अपने आसपास के समाज को, प्रकृति को परखा है , उससे ताल मेल साधा है और उनके पात्र मूक होँ या वाचाल, सभी पाठकोँ से , गहरी बात सरल भाषा मेँ कर जाते हैँ . ये उनके लेखक - मन की, सूक्ष्म दृष्टि की , उनके मानवीय व सहज ही सँवेदनशील अन्तर्मन की छविे पाठक से मिलवाने की प्रक्रिया का सफल प्रयोग है. नया प्रयोग है. जो अवश्य सराहा जायेगा चूँकि यहाँ पारदर्शीता है ! पाठक और लेखक के बीच ! जो हमेँ सीधे पात्रोँ, कथानक और हमारे अपने सामाजिक परीवेश से, सीधे ही जोड देतीँ, हमारी अपनी ही कहानियाँ हैँ ! अँत मेँ भाई अम्रेन्द्र जी को, जिन्हेँ मैँ, अपना अनुज मानती हूँ इस समीक्षा के जरीये एक बात अवश्य कहना चाहूँगी और वो ये है कि, वे अपने आपको, अपने अन्तर्मन को और विस्तृत करेँ , ताकि उनके नये नये प्रयासोँ से उपजे ऐसे ही सामाजिक बिम्ब हमेँ, नये आयामोँ से प्रकाशित हो कर, दीखेँ और अन्य विषयोँ पर भी उनके विचार, अन्य तत्त्वोँ के प्रति उनकी सँवेदना का उन्हीँ के कथा पात्रोँ से हम बार बार परिचय कर पायेँ ॥ इस कुशल, प्रथम प्रयास के लिये मैँ उन्हेँ , शुभ कामनाएँ व बधाई देती हूँ और भविष्य मेँ और गहरी बात उन्हीँ की कहानी से कह पाने के लिये आशा है कि मेरे इस प्रयास से, प्रेरणा देते हुए उनके लेखकीय मन को , नये भावाकाश तक पहुँचने के लिये , शब्दोँ के डैनोँ का उपहार भी देती हूँ ! .. लेखक "अमरेन्द्र " क्रियाशील रहेँ उसी सद्` आशा सहित, मेरी बात को यहीँ पर विराम देती हूँ --
शुभम्` --
-- लावण्या

Thursday, May 1, 2008

" अच्छा ! तो अमरीका मेँ भारतीय शादियाँ, इस तरह से होती है क्या ? "

जन्म
शादी का रिश्ता
वृध्ध दँपत्ति

" अच्छा ! तो अमरीका मेँ भारतीय शादियाँ, इस तरह से होती है क्या ? " ये कहा था, मेरी एक सहेली ने जब,हमारी बातचीत हो रही थी और मैँने उसे भारतीय रस्मोँ के बदले बदले से अँदाज़ के बारे मेँ उसे बतलाया --
ये ३ कौन से प्रसंग है जो हर इंसान के साथ जुड़े हुए होते हैं?

उत्तर आसान है : ~ पहला है, जन्म , दूसरा है शादी का रिश्ता और ३ रा है मृत्यु !
सारे सामाजिक संस्कार , रीति रिवाज , वेदों के समय से , आधुनिक युग तक , हर सभ्यता के उत्थान के साथ , हर भूखंड पर , मानव जीवन के विकास के साथ , बदलाव के साथ , ही सही परंतु , हर कॉम में, हर प्रदेश में , हर मानव के जीवन में , प्राय: पाये जाते हैं।
भारतीय मूल के लोग सदीयों से , व्यापार के लिए, अपने संजोग से या किसी उत्सुकता के रहते , अपने जन्म स्थान से दूर की यात्रा करते रहे हैँ। जहां कहीं हम भारतीय मूल के लोग गए, बसे, और नये सिरे से जीने लगे, हमारी संस्कृति से पाई विरासत भी सहेज कर लेते गए और नयी धरती पर हमने , इन्हें अपनाए रखा ।
हां, कई बार कुछ नया भी अपना लिया
ऐसा भी अकसर हुआ है
हमारे पूर्वज जमीन से जुड़े थे , खेती प्रधान देश ही रहा है भारत और जब् अंग्रेज़ गए ,
उसके बाद , समाज में काफी परिवर्तन आए।
आज अमरीका में भारतीय मूल के लोग बहुत विशाल संख्या में बसे हुए हैं। धर्म अनेक, जातियाँ अनेक , पर वही रीति रिवाज, वही व्रत त्यौहार इस पराई भूमि पर , आज भी , हमारे अपने से ही लगते हैं।
ये अलग बात है , यहां दीवाली की छुट्टी नहीं होती ....न होली की !
इतवार को या वीकएंड पर अकसर हिंदू मन्दिर , जैन देरासर या सीखों के गुरूद्वारे पे , भारतीय लोग अपने व्रत त्यौहार सम्पन्न करते दिखाई देते हैं। नयी नस्ल के बच्चे , जो भारत से दूर की भूमि पर पैदा हुए , उन्हें नही पता उनके माता , बाबुजी , अपने त्योहारों के बारे में पता लगे उसके लिए , कितने प्रयास करते हैं!
ये भारत में रहने वाले और जन्म लेनेवाले बालक के लिए , आम बात होती है। आज आप से , अमरीका में , ये तीनों प्रसंगों के साथ जो, बदलाव आए हैं उनके बारे में , दो शब्द कहना चाहती हूँ ।
१- जन्म : अमरीकी समाज में " बेबी शावर " मनाने की प्रथा है जिस भारतीयों ने भी अब अपना लिया है। कोइ लडकी जब् माँ बननेवाली होती है उसके सगे संबन्धी, सहेलियां और परिवार की दूसरी स्त्रीयां मिलकर, किसी दुपहरी में , एक जगह इकट्ठा होते हैं , चाय, कोफी , शरबत कोल्ड ड्रिंक्स के साथ साथ, हंसी मजाक, गीत और आनेवाले बच्चे के लिए उपयुक्त उपहार प्रेग्नँट कन्या को भेंट किए जाते हैं, कार्ड भी देते हैं ....कई बार , सहेलियां , इस मौके को " सर्प्राइज़ " ही रखतीं हैं और ये , उस कन्या के लए , और ज्यादा खुशी की घड़ी बन जाती है जब् उसे पता लगता है की सब उसे कितना चाहते हैं और उसके और आनेवाले शिशु के लिए , सभी ने मिलजुलकर इतना सारा , इंतजाम किया -- बच्चा पैदा हो जाए उसके बाद भी उपहार / gift , वो बोनस !! :-)
२ - शादी : आजकल , देसी भाई लोग भी बहुत शानदार मगर सौम्य शादी के फन्कशन का प्रबंध करने लगे हैं ...लड़का और लडकी एक दूसरे को पहले से पहचानते होते हैं अकसर -- लड़का , मंगनी के पहले अंगूठी बनवाकर , लडकी से बाकायदा प्रोपोकरता है , हां हो उसी के बाद अपने परिवार से तथा कन्या के परिवार से आगे बातचीत होती है , शादी तै की जाती है , सबसे पहले , मेहमानों को "सेव ध डे " के ख़त भेजे जाते हैं ताकि , किसी भी मेहमान को , आगे से , अपना , दिन और समय किस तरह , पहले से प्लान किया जाए उसके लिए समय मिले ...फ़िर कार्ड भेजे जाते हैं जिसमें आप की मंजूरी या ना - मंजूरी और परिवार से कितने लोग आ पायेंगें , ये पहले से लिखकर भेजना होता है और ये सारा काम कई महीने पहले हो जाता है ..शादी से पहले भी सहेलियां कन्या / वधु के लिए ,"ब्राइडल शावर " रखतीं हैं , जहां सिर्फ़ कन्या व उसकी सहेलियां ही होतीं हैं और खूब मजाक होता है, ब्युटी पार्लर से लेकर्, डाँस, डीस्को , रेस्टाँरँटज़ मेँ खाना पीना ये सभी उस का हिस्सा होते हैँ ..कन्या पक्ष की तैयारी अलग होती है वैसे ही वर पक्ष से दुल्हे के साथी, दोस्त भी गोल्फ या टेनिस या पार्टी करते हैं दुल्हे के साथ भी हंसी मजाक होता है उसकी आज़ादी के बाकी लम्हें ,बचे हैं उनमें यार दोस्त उसे मौज मन्नाने की , उन्हें जी लेने की सलाह देते हैं।
शादी के समय बुफे भेज हो या हर टेबल पे आनेवाले मेहमान का नाम , रखा होता है --
भोजन कक्ष या डाइनीँग होल के बाहर , कन्या की सहेली आपको , आपकी मेज का नंबर बड़े प्यार से पकडा देती है - कन्या के फेरे , सप्तपदी , ये रस्में , पूरी होतीं हैं और खाने के समय , परिवार से पिता , कन्या की खास सहेलियाँ वर के खास मित्र इत्यादी लोग अपनी अपनी यादेँ वर -वधू से जुडी मेह्मानोँ के साथ बाँटते हैँ -- उसके बाद ३, ४ घंटों तक खूब जोर शोर से नाच गाना होता है , नया जोडा अपना पहला नृत्य करते हैँ फिर कन्या अपने पिता के साथ और माँ अपने बेटे के साथ डाँस करती है और फिर सारे मित्र समुदाय को भी आमँत्रित किया जाता है। ये नाच गाना युवा वर्ग भाँगडा के साथ खूब देरी तक जब तक बडे बूढे थक कर बैठ जाते हैँ तब तक जारी रखते हैं।
विदाभी होती है ...वही मार्मिक प्रसंग होता है क्या भारत और क्या अमरीका !! ॥
३ -मृत्यु : आजकल, मन्दिर या देरासर में ही अकसर भजन , पूजा रखते हैं साथ साथ , कई बार , दिवंगत को जो चीजेँ पसंद होती हैं वही भोजन भी, भजन के बाद , सभी आनेवालोँ के प्रति, आभार प्रक़ट करने की औपचारिक छोटी स्पीच के बाद , परोसा जाता है -
लोग दिन भर काम करके दूर दूर से आते हैँ और अमरीकी समाज मेँ भी अक्सर ऐसे ही होता है कि फ्युनरल के बाद्, भोजन भी देते हैँ वही प्रथा अब कई भारतीयोँ ने भी अपनानी शुरु कर दी है - ये बदलाव है - अच्छा है या बुरा ये नहीँ कह रही - सिर्फ, आज हम बदलते नजरीये की बात कर रहे हैँ आशा है आप सभी को ये नया लगा होगा - अगर कोई सवाल होँ तब अवश्य पूछेँ --