द्वारिका में सांझ हुई थी ! कृष्ण , झूल रहे, झूले पे ,
हाथ , सरोता लिए रुका था - मन , राधा में , लीन हुआ था !
वृन्दावन की कुञ्ज गलिन में , यमुना तट पे , मौन खड़ा था !अन्यमनस्क , मन के तारों से , तभी , एक स्वर
हो गया झंकृत ! दबी हुई सिसकी थी क्या वह ?
आह ! लहू की बूँद , उभरी , कटी , अंगुली , वन - मालिन की !
सुभद्रा , रुक्मिणी , भामा , दौडीं , ये क्या हो गया !
द्रौपदी , निकट खड़ी चकित थीं !
सहसा , फाड़ दिया आँचल पट , बाँध दिया घाव कृष्णा ने झट पट ( द्रौपदी का , दूसरा नाम , " कृष्णा " है )
-द्वारिका धीश तब सहज मुस्काये -
" पाँचाली ! यह प्रीत तुम्हारी ! मैं , ऋणी, तुम्हारे बन्धन का ! "
यह नौ सो निन्यानबे धागे , बने चीर पंचाली के , आगे ,
हस्तिनापुर की राज्य - सभा में , द्रौपदी की लज्जा के पहरेदार बने !
कहते हैं श्री हरी सदा :
" पत्रं पुष्पं फलं , तोयम , माय भक्त्या प्रयाच्चाती इअदहम भक्त्य्पर्हत्म्श्नामी प्रयात्मनाह ": ई २६ ई
"यात्कारोशी यद्शानासी यज्जुहोशी दादासी यात इयात्त्पस्यासी कौंतैये ! तत्कुरुश्व मदर्पनाम " ई २७ ई
( Meaning of the above Sanskrit shloka फ्रॉम Shrimad Bhagvad Geeta )
" जो भी मुझे प्रेम से देता , फूल , पर्ण याकि फल - जल ,
मैं , उसे , स्वीकारता हूँ !
जो भी तुम भोगते या दे देते ,याकि, जप तप , करते ,
मुझ को वह तर्पण मिलता है ! "
[ यह भगवत गीता का अमर सन्देश और सार है ! ]
15 comments:
घाव पर मरहम लगाने दौड़े सबसे पहले वही सुकर्म में शीर्ष पर है।
सच में पांचाली के चरित्र में मानव की दुर्बलतायें हैं - पर कृष्ण प्रेम तो अद्भुत है। और यही हमें बताता है कि अपनी कमियों के बावजूद हम भी कृष्ण को प्रिय हो सकते हैं।
बहुत अच्छी लाइने हैं...
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव !
कृष्ण का चरित्र का तो अतुलनीय है ही...
बहुत सुंदर पंक्तियाँ और चित्र भी तो कितने सालोने--आभार दीदी
अच्छा लिखा है.
Lavanya Didi
Very nice write up. Shreeji's picture is Manohari.
Thanx & Rgds.
kitane pavitra bhav....!
दिनेश जी सत्य कहा आपने !
कृष्ण पूर्ण पुरुषित्तम यूण ही नहीँ कहलाते ..
हर आत्मा के वही स्वामी हैँ .
पाँचाली की दुर्बलताएँ भी इतिहास के आध्याय रच गयीँ हैँ
जिनसे आज भी सीख ली जा सकतीँ हैँ -
अभिषेक भाई ,
कृष्णँसमर्पयामि इति !
आभार आपका पारुल ..
और आभार . अतुल भाई का भी !
Thank you Harshad bhai
for visiting my BLOG &
for your kind comment.
कँचन ये श्री कृष्ण का प्रसाद ही समझो -
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