[२ द्रश्य]
[१]" एक पग उठा था मेरा परँतु, मानवता की थी एक लम्बी छलाँग !
[१]" एक पग उठा था मेरा परँतु, मानवता की थी एक लम्बी छलाँग !
रात थी, चाँद था, और सन्नाटे मेँ, श्वेत सरँक्षक वस्त्र मेँ
काँच की खिडकी से, पृथ्वी को देखता, "मैँ! "
[ अँतरिक्ष यात्री : श्री नील आर्मस्ट्रोँग के उदगार २]
सूर्य वँश के सूर्य राम[ अँतरिक्ष यात्री : श्री नील आर्मस्ट्रोँग के उदगार २]
"हे तरुवर अशोक के,
हरो तुम मेरा भी शोक!
करो सार्थक नाम अपना,
दर्शन देँ, प्रभु श्री राम!
हे गगन के चँद्रमा,
हैँ मेरे सूर्य कहाँ ?
सूर्य वँश के सूर्य राम,
बतला दो हैँ कहाँ ? "
अशोक वाटिका,रात्रि,
चाँद, रात थे साक्षी,
सीताजी के प्रश्नेँमेँ,
' मैँ ' भाव हुआ विलीन!
[ श्री सीताजी के उदगार ]-
- लावण्या
6 comments:
वाह जी, बहुत बढ़िया...तस्वीर उम्दा है.
सुन्दर। ऐसे विलक्षण मौके पर वास्तव में अद्बुत अनुभूति हुयी होगी आर्मस्ट्रॉग को।
अशोक वाटिका में सीताजी के सोच से तुलना करना ... बहुत विस्तार है सोच में आपकी।
आपके ब्लाग पर आकर एक आंतरिक खुशी मिलती है हमेशा..
समीर भाई धन्यवाद --
ज्ञान भाई साहब, आप का भी बहुत बहुत आभार जो आपको मेरा प्रयास पसंद आया --
कुलवंत भाई साहब आपको , आंतरिक खुशी मिलती है ये मेरा सौभाग्य है -
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