Sunday, September 16, 2007

गायत्री दीदी की यादेँ : "मनुष्य की माया और वृक्ष की छाया उसके साथ ही चली जाती है "


डा. शिवशँकर शर्मा "राकेश" मेरे जीजाजी व गायत्री दीदी ३ वर्ष की लावण्या
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"मनुष्य की माया और वृक्ष की छाया उसके साथी ही चली जाती है "
पूज्य चाचाजी ने यही कहा था एक बार मेरे पति स्व. श्री राकेश जी से !
आज उनकी यह बात रह -रह कर मन को कुरेदती है. पूज्य चाचाजी के चले जाने से हमारी तो रक्शारुपी "माया ' और छाया ' दोनोँ एक साथ चली गयीँ और हम असहाय और छटपटाते रह गये ~
जीवन की कुछ घटनायेँ , कुछ बातेँ बीत तो जातीँ हैँ किँतु, उन्हेँ भुलाया नहीँ जा सकता, जन्म - जन्म तक याद रखने को जी चाहता है. कुछ तो ऐसी है, जो बँबई के समुद्री ज्वारोँ मेँ धुल - धुल कर निखर गयी हैँ और शेष
ग्राम्य जीवन के गर्द मेँ दबी -दबी गँधमयी बनी हुईँ हैँ !
सच मानिए, मेरी अमर स्मृतियोँ का केन्द्रबिन्दु केवल मेरे दिवँगत पूज्य चाचाजी कविवर पं.नरेन्द्र शर्मा जी हैँ!
अपने माता पिता से अल्पायु मेँ ही वियुक्त होने के लगभग ६ दशकोँ के उपरान्त यह परम कटु सत्य स्वीकार करना पडता है कि,
मैँ अब अनाथ - पितृहिना हो गयी हूँ ! :-(
एक बरगद की शीतल सघन छाया अचानक चुक गई है !
१९४२ मेँ मैँने पहली बार पूज्य चाचा जी को देखा - जाना था .
तब मैँ केवल छ: वर्ष की थी. तभी एक समर्पित राष्ट्रभक्त काँग्रेसी के नाते, वे दो वर्ष का कठोर कारावास भोग कर गाँव जहाँगीरपुर ( खुर्जा -बुलन्द शहर ) लौटे थे. जनता उनके स्वागत मेँ उमड पडी थी. बडे बडे स्वागत द्वार सजे थे, तोरण झुमे थे और जयजयकार के स्वर जुलूस के बाजोँ के साथ गूँजे थे, तब सरकार ने उन्हेँ बुलन्दशहर मेँ ६ मास तक नज़रबन्द रखा.
उनकी शारीरिक गतिविधि तो नियँत्रित हो गयी किँतु, आत्मिक -मानसिक उछालोँ को शासन छू नहीँ पाया. वे दुर्दिन पूज्य चाचा जी के साथ, मैँने और पूज्य अम्मा जी ने ( दादी जी गँगा देवी जी )
खुरजा की नयी बस्ती के एक मकान मेँ बिताए.
वे बोझिल दिन योँ ही बीत गये.
१९५० हमारे परिवार के लिए बडा अशुभ रहा.
सच मानिए, घर के चोरागोँ ने ही घर को आग लगा दी!
हम भाई बहन पूज्य अम्माजी के साथ गाँव मेँ कृष्णलीला देखने गये थे कि मौका देखकर, हमारे कुछ ईर्ष्यालु भाई -बँधुओँ ने हमारे घर चोरी करा दी !
एक वज्रपात हुआ हम पर, अस्तित्व की जडेँ ही हिल गयीँ पूज्य चाचा जी को वास्तविकता का जब पता चला, तब अपनी परम पूजनीया माता जी के दृढ आग्रह करने पर भी कि दोषी व्यक्तियोँ को अवश्य दँड दिलाया जाए, एक ज्ञानी महापुरुष की तरह यह कह कर मन को समझा लिया और हमारे धैर्य के टूटे बाँध को बाँध दिया कि,
" जो गया वह वापस आनेवाला नहीँ है, भला अपने ही लोगोँ को पुलिस के हवाले कैसे कर दूँ ? अपने घर की बदनामी होगी "
हमारे भरण पोषण के लिए उन्होँने भरपूर सहारा दिया, जिससे हम सम्मान सुविधा सहित रह सकेँ. आर्थिक सहायता तो देते ही थे, अपने चचेरे, फुफेरे भाइयोँ को भी खत लिखते थे कि वे हमारा ध्यान रखेँ.
आज यह सोचकर भी डर लगता है कि पू. चाचा जी का रक्षारुपी हस्त हम पर न होता तो हमारा गाँव मेँ रहना भी सँभव नहीँ था.
चोरी की दुर्घटना के बाद ही पू. चाचाजी मुझे अपने साथ बँबई ले गये.
महानगर की गोद मेँ, गोबर की गुडिया थाप दी !
परम स्नेहशीला पू. सुशीला चची जी ने मुझे बाँहोँ मेँ भर कर
अपने भीतर उतार लिया.
गाँव के घर की देहरी का, जब -तब ध्यान आ ही जाता था.
अपने कर्तव्योँ से कहीँ अधिक,मुझे, अधिकार मिले.
बहुत दिनोँ तक पास - पडौस के लोग मुझे, चाचा जी की बहन समझते रहे. भला, भाई की लडकी को इतनी आत्मीयता से कौन सहेजता है ?
गृह - वापी मेँ पूज्य चाचा जी कमल की तरह मुक्त -निर्लिप्त -से रहते थे.
अपनी धुन मेँ ही सृजन के सूत्र बुनते थे. घर मेँ क्या हो रहा है?
बच्चे क्या कर रहे हैँ ? हम कहाँ आ -जा रहे हैँ ?
उन्हेँ उनसे कोई सरोकार न था.
इसलिए मुझे याद नहीँ कि उन्होँने कभी हमेँ किसी बात पर डाँटा--फटकारा था.
हाँ, प्यारी - प्यारी चाचा जी ही हम सभी से सिर खपाती थीँ जब कभी वे कहती थी कि तुम्हारे चाचा जी ऐसा कह रहे हैँ या तुम्हारे पापा ने यह कहा है, तो हम उनकी भोली अटकल समझकर कहते कि,
" आप ही अपने मन से बना रहीँ हैँ ,
वह तो कभी कुछ कहते ही नहीँ ! "
सच तो यह है कि
बच्चे माँ के निकटतम सँपर्क मेँ रहने कारण सिर चढे हो जाते हैँ
यह सँस्मरण उन दिनोँ का है जब पूज्य चचा जी आकाशवाणी दिल्ली मेँ
" विविधभारती " के लोकप्रिय कार्यक्रम निर्देशक थे.
ट्रेन का समय हो रहा था. हम सब नास्ता कर रहे थे तभी पूज्य चाची जी अचानक किसी बात का ध्यान कर के कुछ रुँआसी होकर कहने लगी
" नरेन्द्र जी, मैँ भी आपके साथ दिल्ली चलूँगी
ये बच्चे मुझे बहुत परेशान करते हैँ "
पूज्य चाचा जी ने मुस्कुराते हुए पूछा,
" कौन परेशान करता है ? "
वो बोलीँ, " गायत्री से लेकर परितोष तक सभी "
चाचा जी फिर मधुर कर्कश आवाज मेँ कहने लगे,
" देखो बच्चोँ, तुम अपनी अम्मा को परेशान मत करना , इनका कहना माना करो नहीँ तो अगली बार इन्हेँ अपने साथ दिल्ली ले जाऊँगा "
यह कह कर कुछ और लँबी मुस्कान होँठोँ मेँ ही पी गये
वे गर्जनाओँ मेँ विश्वास नहीँ करते थे.
शायद उन्हेँ अपने सात्विक सँस्कारोँ पर भरोसा था
और फिर स्टेशन रवाना हो गये.
वे कभी निराश - हताश नहीँ दीखे --
ईश्वर के व्यक्त अव्यक्त निर्णय के प्रति सर्वात्मना विनत रहे.
इसीलिए प्रभु का नाम प्रभुमय होने तक उनका अविरत जप रहा.
उनकी सँत योगी जैसी क्षणिक मृत्यु हुई !
अपना ज्योति कलश , ज्योति पुरुष ने अचानक उठा लिया.
जितना स्नेह सम्मान पाया था, यहाँ ,
उससे कहीँ अधिक दे गये देने पाने वालोँ को !
पू. चाचा जी का बहुचर्चित महामानव - कवि रुप
अविस्मृत स्मृति शेष हो गया है !
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लेखिका " श्रीमता गायत्री "राकेश "
कविता, मैरिस रोड अलीगढ यु.पी. भारत

12 comments:

रजनी भार्गव said...

लावण्य दी आपके पास अनमोल यादों का इतना सारा
खज़ाना है, इसे एक किताब में सहेज दीजिए.

Udan Tashtari said...

आपकी यादों के सफर में साथ बहने का असीम आनन्द आ रहा है. बहुत अच्छा लगा. आपके बचपन का चित्र भी बहुत अच्छा है. :)

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

रजनी भाभी जी, आपके सुखाव पर अमल करने का पक्का इरादा है मेरा !
बस्स देखना यही है कि कब यादोँ को समेटूँगी और एक विविध रँग के फूलोँ से सजा गुल्दस्ता पेश कर पाऊँगी !
काश ...ईश्वर मुझे ये मकाम हासिल करने देँ तो आभारी रहुँगी...
उनकी असीम अनुकँपा और आप जैसे स्नेही स्वजनोँ के स्नेह के प्रति
मेरी आस्था द्रढतर होगी.
स्नेह के साथ,
-- लावण्या

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

समीर भाई ,
आपका इतना कहना (मेरी सारी टाइपीँग की गलतियोँ के साथ भी :-)
मुझे सँतोष से भर गया कि आपको मेरा लिखा पसँद आ रहा है ~~
और मेरे बचपन का चित्र भी !
(कोई फर्क लग रहा है क्या,
आज और कल मेँ ? ;-)
बहुत स्नेह के साथ
-- लावण्या

Divine India said...

आदरणीय मै'म,
आपकी तस्वीर बहुत ही Cute है…
आपके संस्मरण सदा ही बड़े करूणामय होते हैं कई सारी बाते जो हमारे जीवन में अभी आती दिख रही हैं वह इन लेखों में पहले ही आ जाता है…।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

दीव्याभ,
करुणा मेँ भी अपनत्व का अहसास रहता है.आत्मीयता से ही तो हम मनुष्य
एक दूजे के साथ बँध पाते हैँ परँतु जो चले जाते हैँ उन्हेँ यादोँ मेँ सँजोना भी
बहुत कठिन / मधुर चक्र है ~~~
आपका भविष्य उज्वल एवँ सुखी हो ये मेरी प्रार्थना है
-- लावण्या

sanjay patel said...

लावण्या बेन...जय गणेश.
बचपन कितना पवित्र होता है यह आपकी तस्वीर देख कर सहज ही समझा जा सकता है. पवित्र बिरवों के पात भी तो पवित्र होते हैं न. बच्चन जी और लता दीदी के पास सुदर्शन व्यक्तित्व वालीं अम्मा श्वेत श्याम चित्र में भी जगमग लग रहीं हैं . कैसा सादा ज़माना था और कैसे खरे लोगे थे.अब तो सब खारा खारा ही रह गया है...मिज़ाज की मिठास ही जैसे जाती रही है.

Harshad Jangla said...

Lavanyaji
Touching article!
Your childhood picture is very cute. Fark to lagta hai kal aur aajme, aap thodi Moti jo dikh rahi hain!!!!!!LOL

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

सँजय भाई,
आपके भावपूर्ण विचार पढकर मन मेँ सौहार्द्र के भाव छा गये.
बहुत बहुत धन्यवाद आपकी टिपणीयोँ के लिये.
अम्मा वास्तव मेँ सादगी और सुँदरता की अप्रतिम नारी छवि थीँ
जिसने भी उन्हेँ देखा था, कभी भूल न पाया.वे लोग सारे ,
ईश्वर के सात्विक गुणोँ के प्रतिबिम्ब समान ही थे.
स ~~स्नेह,
-- लावण्या

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Harshad bhai,
Haan Badee = Moti to thayee j gayee choon :)
Rgds,
L

Naresh said...

लावण्यजी, पढ़ा और शब्द जैसे गुम गए, बहुत मर्मस्पर्शी संस्मरण था... धन्यवाद

रश्मि प्रभा... said...

ये यादें मन की दहलीज़ पर अखंड दीये सी जलती हैं