आज देश की समस्याएँ कृषक - बाला की लटोँ जैसी उलझ गई हैँ :" युग की सँध्या कृषक वधू सी किसका पँथ निहार रही ?
उलझी हुई समस्याओँ की,बिखरी लटेँ सँवार रही "
युग का रावण मानव - सभ्यता की सीता को बँदी बनाये है ~
" क्या न मानव सभ्यता ही भूमिजा पावन ?
क्या न इसको कैद मेँ डाले हुए रावण ?"
लेकिन कवि हताश नही है, क्यो कि उसे राम के पुल बाँध कर रावण को समाप्त करने की कथा ज्ञात है वह मानता है कि यह सभ्यता की सीता का परीक्षाकाल है
" क्या न बँधता जा रहा पर सेतु रामेशवर ?
स्वर्ण लँका और अणु के अस्त्र की माया
दर्पमति लँकेश फिर सब विश्व पर छाया ?"
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चिर पुनीता है हमारी सभ्यता सीता
न उसका भी परीक्षाकाल है बीता !
( अग्निसश्य काव्य ~ सँग्रह से )
यह पराधीन भारत की व्यथा -कथा है , किन्तु वह कल आनेवाली स्वतँत्रता के प्रति आश्वस्त है. " केँचुल छोडी " शीर्षक कविता मे कवि ने अपनी इसी आस्था को अभिव्यक्ति दी है""
शेष नाग ने केँचुल छोडी धरती ने काया पलटी
नाश और निर्माण चरण युग नाच रही है नियति नटी "
अपनी इस शीर्षक रचना मे जो १५ अगस्त, १९४७ को लिखी गई थी, कवि ने इस नवोदित स्वतँत्रता का बडे हर्षोल्लास से स्वागत किया है. उसने इस नये राष्ट्र की प्रगति के प्रति आस्था प्रगट की है ~
" तिमिर क्रोड फोड भानु भासमान रे
नवविहान, नवनिशान, भारती नई !
अब न जन रहे विपन्न, ग्रास - ह्रास के,
नृत्य करे ओस -पुष्प अश्रु - हास के,
आज देश माँगता पवित्र एक वर
दास फिर न बने कभी पुत्र दास के "
किन्तु दो वर्षोँ के विभाजन की विभीषिका और दो वर्षोँ के शासन ने उसे बहुत निराश कर दिया फिर भी वह हारा नहीँ
" आज के दुख मे निहित है कल सुखोँ का साज, क्योँ न आशा हो मुझे इस देश के प्रति आज ? राज अपनोँ का बनेगा, क्या न अपना राज ? "
सन्` १९५० की यह कविता है. भारत के गणतँत्र की घोषणा तथा नेहरु के भारत निर्माण की कल्पना के साथ इस राष्ट्र को तटस्थ राष्ट्र घोषित करने पर कवि खीझ उठा था और १९४८ मे इस सँवेदनशील कवि ने क्रान्ति के अपने स्वर को वाणी दी -
- " कौन है मध्यस्थ ? कौन तटस्थ ? केवल कल्पना है !
वाम दक्षिण पक्ष, बीचोबीच कोरी कल्पना है ,
पेच पहलू हैँ बहुत पर सत्य भी प्रत्यक्ष है यह,
मध्य मार्ग, विशाल से, लघु रेख बनता जा रहा है !"
कवि का स्वर मानवतावादी है वह देश की सच्ची प्रगति चाहता है
- वह किसी भी दल से, सँतुष्ट नही है अत: वह प्रार्थना करता है -
मुझे मुक्ति दो, आज अगति से, खँडित कर भूधर जडता के, पाश खोल दो, परवशता के, सीमाओँ को प्रहसित कर अब, पथ सँवार दो, सहज सुमति से ***********
दुर्बलता मे शक्ति प्रगट हो, अल्प पूर्ण हो जायेँ अति से !
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क्रमश: