Saturday, July 7, 2007

...ज़िँदगी ख्वाब है..चेप्टर -- - १० -- कथा की - अँतिम कडी (एक रात शालू का फोन आया ..........)

घर: रोहित और शालिनी का:~~
एक रात शालू का फोन आया ................
" राजश्री जाग रही थी हालाँकि रात के १२.३० बज रहे थे.
वो सोना चाहती थी परँतु, अपना काम निपटाते,
उसे इतनी देरी हो गई थी
- फोन की घँटी ने रात मे सन्नाटे को चीर कर
बजना शुरु किया तो
राजश्री, हडबडाकर, फोन की ओर लपकी..
."हेल्लो, कौन ? " उसने प्रश्न किया -
सामने से शालू की धीमी आवाज़ ने उसे चौँका दिया
" भाभी,...एक बुरे समाचार दे रही हूँ !
हमने अपने रोहित को खो दिया ! "
"क्या मतलब तुम्हारा ? "
राजश्री ने लगभग गभराहट मिश्रित,
भय के आवेग को रोकते हुअ, चिल्लाते हुए पूछा,
" we lost him bhabhi ..about an hour ago "
" राजश्री नो फिर रुँआसे स्वर से पूछा ,
"शालू, तुम क्या कह रही हो बेटे ? "
" भाभी, रोहित हमारे बीच अब नही रहे !
एकाध घँटे पहले ...अँतिम साँस ली..! "
अब शालिनी भी सुबक रही थी जिस की आवाज़ से,
राजश्री के दीमाग ने वो बात समझी,
जो उसका मन, अब भी मानने से इन्कार कर रहा था
और जब ये बात वो समझी तो वो भी रोने लगी --
उसे सूझा नही वो शालिनी से क्या कहे ?
नहीँ ..नहीं....
रोहित का मुस्कुराता चेहारा,
आँखोँ के सामने था,
रोहीत की आवाज़, "भाभी जी, कैसी हैँ आप ? "
उसके खास अँदाज़ मे कहने की आदत,
बार बार राजश्री के जहन मे घूम रहे थे.
अब तो राजश्री की रुलाई छूट पडी .
.ऐसे समाचार जब भी आते हैँ,
इन्सान बिलकुल हतप्रभ: हो जाता है.
अगर आप के तालुकात्त ,
किसी व्यक्ति से घनिष्ट होँ, मधुर होँ
तब सीधे ह्रदय पर चोट हो जाती है.
यही तो है, मनुजता का अहसास !
हम दुनिया मे रहते हैँ पर, सारे सँबँध,
रिश्तोँ पर कायम हैँ
जो सीधा दिल से जुडे रहते हैँ
भावनाएँ ना होँ
तो क्या इन्सान , इन्सान रह पायेगा ?
अगर हमारा ह्रदय द्रवित न हो,
किसी स्वजन के वियोग से,
तो क्या हममे मानवता बची रहेगी ?
नहीँ ना !
ऐसा कौन होगा जो
अपने मित्र या परिवार के सदस्य के बिछोह मे रोया न हो ?
ये आँसू हमारे मनुष्वत्त्व की असली पहचान है !
कभी कभार, अन्य भावनाएँ, मनुज, छिपा भी लेता है.
किसी पर प्रेम या आसक्ति की भावनाएँ दबी रह सकतीँ हैँ -
- वर्षोँ तक !
पाप या कुकर्म की प्रेरणा ,
या ईर्ष्या, जलन, डाह की झहीरीली फुँकार,
दबी, सुप्त नागोँ के फण सी, या, कटुता नागफणी के दँश सी,
भयानक होते हुए भी, द्रष्टिगोचर नही हो पातीँ.
आँखोँ से मनुष्य देखता है इस माया रुपी विश्व को !
फिर भी,
इसी नयन के मूँदते,
ये सँसार स्वप्न मेँ परिणीत हो जाता है
और इन्सान सोचता है ..
.......: सच ! ये ज़िँदगी ..ख्वाब ही तो है ! .
.." मैँ कौन हूँ ? एक शरीर ?
भौतिक सुखोँ की लिप्सा मे प्रयत्नशील,
जीवन निर्वाह मेँ कार्यरत, एक जीव ?
तो जैवी कौन ?
आत्मा का सत्य क्या है ?
क्योँ है आत्मा ?
किसने देखा है परमात्मा को ?
आकाश के उपर है स्वर्ग ?
जन्नत ?
जिसके ख्वाब, हर इन्सान
आँखे खोलके और बँद करके देखता रहता है?
सूफी सँतोँ ने, दरवेशोँ ने, मौला के लिये,
न जाने कितनी बार, पुकार कीँ,.......
साधु सँतोँने, योगीयोँने,
ना जाने कितने तरीकोँ से,
उस एक "सत्य " को खोजा.
..हर इन्सान की यात्रा
इसी तरह, चलती रही है
जिस के ज़ोर पर, ये फानी दुनिया कायम है !
ये तो दार्शनिकता की बातेँ हैँ
जो हम अपने आपको साँत्वना देने के लिये गढते हैँ.
सत्य फिर भी हमेशा सत्य रहता है.
अपने आप मेँ पूर्ण !
पूर्णता से निकला, पूर्ण को जनम देता
फिर भी जो रहता है, पूर्ण का पूर्ण !
रहस्यपूर्ण !
जिस पर से पर्दा, यदा कदा हटा है.
बिरले व्यक्तियोँ की तपस्या से
,मसीहा के आगमन से,उनके अनुभव से ,
वे हमे राह बता कर चले गये हैँपर,
आम ,साधारण इन्सान कि अक्ल मे,
ये सारी बात कहाँ आतीँ हैँ ?
आज राजश्री और शालिनी बस २ दुखी ह्रदय से भरे इन्सान थे !
बस ! इससे अधिक कुछ नही!
"भाभी, आप के लिये इन्तज़ाम हो रहा है.
.आप और प्रकाश भाई आ जाइये.
.रोहित से मिलने नही आओगे?"
राजश्री को लगा कि वह, सात समुद्रोँ की दूरी पाटकर,
नन्ही सी कन्या को कलेजे से लगा ले ! काश !
वे लोग पास मे होते.....
आमने -सामने -
- कितनी सँयत थी शालिनी इस वक्त भी !
" हाँ बेटे हम लोग आ रहे हैँ .
.तुम से मिलने..मेरी बहादुर बिटिया है तू !"
राजश्री ने कहा और फिर दोनोँ रोहित की बातेँ, याद करने लगे -
प्रकाश और राजश्री रोहित के घर गये - पर वहाँ रोहित नहीँ था. उसकी तस्वीर थी फूलोँ के सुगँधित हार से ढकी हुई-मुस्कुराता हुआ चेहरा -वही हिम्मती अँदाज़, स्वप्न साकार करने की क्षमता लिये एक आधुनिक दीर्घद्रष्टा की छवि मे जा कर , उनका मित्र छिप गया था और मानोँ उनसे कह रहा था, " आप लोग नही आये ना मुझसे मिलने ? अब आये हो जब मैँ नहीँ रहा !'तब राजश्री और प्रकाश को शालू ने बतलाया कि, दीदी प्रियँका ने रोहित का चेक -अप किया था - पूरे शरीर का ! रोहित ने कहा कि उसे सर दर्द रहने लगा था - हो सकता है, अत्याधिक काम की व्यस्तता के कारण ही ये हो! पर, दीदी डाक्टर जो थीँ ! ब्रैन स्केन करके ही मानीँ और पता चला कि उनके प्यारे छोटे भाई को ब्रेन का कन्सर था जो काफी बढ गया था. बातोँ बातोँ मे, शालिनी तक भी ये राज़ पहुँचा तो शालिनी ने जिद्द पकड ली कि वो रोहित की सेवा -सुष्रुषा से ज्यादह रोहित का सान्निध्य चाहती है और शादी क्रना चाहती है ! रोहित ने उसे बहुत समझाया पर शालू ने एक ना मानी -- इसी के फलस्वरुप दोनोँ की शादी हुई थी जिस के कारण झवर भाईसा नाराज़ हुए थे चूँकि रोहित, प्रियँका दीदी और शालिनी के अलावा किसी को ये बात का पता उन तीनोँ ने लगने न दिया था. उसके बाद के ३ वर्ष स्वप्न से बीते.अँतिम दिनोँ मेँ रोहित ने, बँबई के,एक अस्पताल का जीर्णोध्धार करवाने के लिये १० करोड रुपये की धनराशि खर्च की थी -उसके वकील रात दिन रोहित की इन अँतिम इच्छा रुपी योजनाओँ को कार्यान्वित करने मे व्यस्त थे.
रोहित ने, लँदन और अमेरीका के, म्युजियमोँ को दान किया. ब्रज के १० हज़ार बच्चोँ के लिये,दोपहर के भोजन के लिये धनराशि जमा करवायी और शालू ने ही बतलाया कि अँतिम समय मे उस के विचार तीव्रता से आ, जा रहे थे
- कभी वह बोलता," गाँधी जी "
- फिर बेहोश हो जाता -
फिर कहता," मेरी स्कूल "
- फिर होश खो देता , फिर शालू से कहता,
"तुम वचन दो कि मेरी हर योजना को बँद नही होने दोगी
-उन्हे पूरा करोगी !"
शालू ने कहा, "मैँ वचन देती हूँ , मेरे रोहित ! -"
और आखिर शालू ने अपना हाथ छुडा लिया था
जिसे रोहित ने कस कर पकड रखा था
- शालू अस्पताल के पलँग के पैताने खडी हो
तो रोहित ने उसकी ओर देखते हुए, प्राण त्याग दिये !
नैन दीप की ज्योति, महा ज्योति मे विलीन हो गयी
-उसकी भव्य अँतिम यात्रा मे कैसे फूल रहेँगे कितने बडे, ये भी सारा रोहित ने तै किया था , वो भी शालिनी नेपूरा किया. और कई सारी घर मे खिँची चित्र विथी देखते हुए, आज भी प्रकाश और राजश्री, मानने के लिये तैयार नही कि उनका हँसमुख, बहादुर और स्फूर्तिला दोस्त, रोहित सशरीर उनके साथ नही रहा
-क्या यही है ज़िँदगी ?थोडी हँसी, थोडी खुशी, कुछ नगमे, कुछ वादे .....
....और......और ...आप बत्तायेँ ?
क्या है ज़िँदगी ? .
....मैँ तो यही कहूँगी, कि,...
.....ज़िँदगी ........ख्वाब है !....
...उसके अलावा, और कुछ नही........
(- ये कथा मेरे परम मित्र को समर्पित है जिसकी याद आज भी आँसू से आँखेँ भिगो देतीँ हैँ ,,अगर आत्मा है, तो मेरे मित्र की आत्मा को चिर शाँति मिले परमात्मा का सामीप्य मिले यही मेरी प्रार्थना है .
..ईश्वर, स्वीकारियेगा !
इति -
- लावण्या



3 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया रही पूरी कथा...लगा कि काश यह अंतिम कड़ी न होती. अब कुछ नया शुरु करिये इसी अंदाज में. इन्तजार करेंगे.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

जी समीर भाई,
जो भी हो सकता है - लिखती रहती हूँ
स -स्नेह,
-- लावण्या

Devi Nangrani said...

प्रिय लावण्य

तेरी हर बात से अपनेपन की महक आती है और यही अपनापन मिलने पर खुशी तो देता है पर, बिछडने पर आँखें नम कर जाता है. पर बेबसी पर काश हमारा बस चलता. सच है जिंदगी इक सफर है सुहाना, यहाँ कल क्या हो किसने जाना....आना...और ...जाना.............

-क्या यही है ज़िँदगी ?थोडी हँसी, थोडी खुशी, कुछ नगमे, कुछ वादे .....
....और......और ...आप बत्तायेँ ?
क्या है ज़िँदगी ? .
....मैँ तो यही कहूँगी, कि,...
.....ज़िँदगी ........ख्वाब है !....
...उसके अलावा, और कुछ नही........
जिंदगी एक आह होती है
मौत जिसकी पनाह होती है.

देवी