" न राजा रहेगा न रानी रहेगी .. ये दुनिया है फानी सो फानी रहेगा ये माटी सभी की कहानी कहेंगी "
..याद है न ये गीत ? वी.शाँताराम जी की कहानी चित्रपट पर यही सन्देश सुनाते हुए इस गीत के जरीये इस "सत्य " को जिसे हमने इतिहास की कई ध्वँस अवशेष हुई इमारतोँ मेँ भी देखा है। कोई भी बाकी नहीँ रहा ! ना टीपू न अशोक ! ना ऐलेक्जेन्डार न सीज़र ! न अकबर ना शिवाजी !
आज यह खबर जब टाइम्स मेँ देखी तो पुराने दिन याद आये। समाचार पात्र में खबर छपी थी कि ' पाली हिल मुम्बई शहर के बान्द्रा उपनगर में स्थित दिलीप कुमार साहब का बँगला अब टूटनेवाला है। बांद्रा उपनगर हमारे खार नामक उपनगर के बस बगल मेँ है। वहीं पर छोटी पहाड़ी नुमा ढलान को पाली हील कहते हैं। ये इलाका, काफी हराभरा हुआ करता था। बचपन से न जाने कितनी बार, हम वहाँ लम्बी वोक करते हुए पहुँच जाया करते थे। जब कुछ बडे हुए, तब हमे फिल्म देखने का का शौक भी लग चुका था।
मेरी अम्मा सुशीला नरेन्द्र शर्मा हमेँ फिल्म देखने के लिए सिर्फ टीकट का पैसा दे देतीँ थीँ। तो थियेटर तक हम , मैँ और मेरी बहने ; वासवी और बाँधवी और बडे ताउजी की बिटिया गायत्री दीदी और हमारी मछेरन कामवाली जो मेरी पक्की सहेली थी , काशी यह हम सारे लोग - पैदल ही चले जाते थे।
कभी बान्द्रा टाकीज़, तो कभी लीडो सिनेमा, जो जुहु किनारे था, या फिर कभी बान्द्रा स्टेशन के पासवाला 'नेप्च्यून टाकीज़ " वगैरह ! कई बारी पाली हिल या जुहु और डाँडा के बीच बाँध के रास्ते से भी चल कर पहुँचते थे।
एक बार काशी के मछुआरे रीश्तेदार ने लकडी की नाँव मेँ हमे लीडो तक पहुँचाया था !
एक दफा, "मधर इँडीया " देखने अम्मा भी साथ थीँ तब अम्मा ने कुछ पैसे देकर एक बैलगाडी वाले से हम बच्चोँ को कुछ दूरी तक बैठने के लिये राज़ी कर लिया था और वह मेरी मेरी एकमात्र " बैलगाडी यात्रा" रही है मेरे जीवन की ;-) तो, पाली हिल का इलाका हिन्दी सिने जगत की कई नामी हस्तियोँ का ठिकाना रहा है।
~ ~ दिलीप कुमार साहब का बँगला ४८ पाली हिल के नाम से ठीक बस्ती के बीचोँबीच एक "एन्कर" की तरह विराजमान है। आज टाइम्स मेँ पढा कि यह "लेन्डमार्क" भी अब टूटने वाला है ! पढ़कर सचमुच बहुत दुख हुआ सोचने लगी ...' क्या बम्बई इतनी तेज़ी से बदल रहा है ? '
मेरा शहर ..जहाँ मेरा जन्म हुआ, बडी हुई और ३ साल के लिये केलीफोर्निया के "लोस ` अन्जीलिस" शहर मेँ भी रह कर वापिस बँबई रहने आ गई थी तब पापा जी अम्मा के पास रहना मेरे जीवन का एक अनमोल स्मृति कोष है।
सुना है, श्री दिलीप कुमार जी का नाम भी मेरे पापाजी ने ही सुझाया था।
~~~ बोम्बे टाकीज़ की फिल्म "हमारी बात" के लिये एक नया स्टार पसँद किया गया था ~
` युसुफ खाँ ~` देविका रानी जो निर्मात्री थीँ उन्हेँ नया नाम रखने की सूझी। एक नाम जहाँगीर भी चुना गया था पर, दिलीप कुमार पापाजी के ज्योतिष ज्ञान के हिसाब से बडा लकी" साबित होनेवाला था और हुआ भी !!
खैर !!
आज दिलीप कुमार जी को दादा साहेब फालके पुरस्कार से नवाज़ा गया है। जो मेरी नज़रोँ मेँ उन्हेँ बहुत पहले ही मिल जाना चाहिये था!
सायरा बानो और उनकी माँ सुँदरी नसीम बानो जी का घर भी , दिलीप सा'ब के पुराने घर के नज़दीक ही है।
हमारे घर १९ वेँ रास्ते खार से आँबेडकर रोड की ऊँचाई की तरफ बढते हुए पाली हिल के हरीयाले छोटे से टीलेदार इलाके मेँ प्रवेश करने पर पहले खलनायक प्राण साहब का बडा मकान आता है। उनके कुत्ते के लिये लाल किला नुमा कुत्ता ~ घर बनवाया गया था :-) जिसे देखकर हमेँ बडा अचरज होता था !
फिर आगे कमाल अमरोही साहब व ट्रेजेडी-क्वीन =मीना कुमारी जी का फ्लेट पहले मँज़िल पर वह मकान पडता था। उसकी दाहिनी तरफ सिर्फ लडकियोँ की स्कूल पेटीट हाई स्कूल जिसके सामने एक फ्लेट मेँ सँगीतकार अनिल बिस्वासजी की पत्नी आशालता जी व उनके बच्चे रहते थे। फिर वहाँ नायिका वीणा जी का घर भी था।
मीना जी के घर से आगे बढने पर उषा किरन और डो.मनहर खेर ( तन्वी आज़्मी के माता , पिता - तनवी, शबाना के भाई फोटोग्राफर आजमी से ब्याही हैँ ) और ठीक सामने दीलिप सा'ब का घर था!
इस घर मेँ असँख्य पर्शीयन कार्पेट हुआ करते थे। सायरा जी व दिलीप सा'ब की शादी के बाद, शाम के खाने पर सिर्फ २०० के करीब लोग आमँत्रित थे। जिसमेँ राज कपूर कृष्णा राज कपूर, देवानँद व कल्पना कार्तिक जी जैसी सुप्रसिध्ध हस्तियाँ थीं और पापा , अम्मा और हम ४ बच्चे भी थे! लोन पर जगमगाते रोशनी के बल्ब के बीच सायरा जी हल्की सी गुलाबी साडी मेँ कितनी सुँदर दीख रहीँ थीँ वह किसी भी फोटो मेँ कैद न हो पाया है !
उनकी नाज़ुक ,लँबी गरदन पर बेशकिमती हीरोँ का हार एक पतली सी धागे की डोरी से बँधा देखा था मैँने ! टूट जाता उसका शायद उन्हेँ डर भी नहीँ था !
दिलीप अँकल पापा जी को बहुत प्यार करते थे। मेरी बडी बहन वासवी के जन्म के बाद वे अस्पताल से उनकी बडी गाडी मेँ पहली बार अम्मा और उस नवजात बच्ची को पापाजी के घर तक लाये थे। दिलीप अंकल की सबसे बडी बहन "आपा" जी का उनके घर पर राज चलता था। भरेपूरे कुनबे का वही पूरा पूरा ध्यान रखा करतीँ थीँ।
शादी के कई वर्षोँ बाद दिलीप सा'ब सायरा जी के घर पर ही अक्सर रहा करते थे और अपने घर भी आया , जाया करते थे। उनका परिवार भी फलफूल कर बढता जा रहा था।
दिलीप सा'ब जैसा शालीन व्यक्ति , हर समय हँसमुख, उर्दु ज़बाँ के धनी और सच्चे एहसास वाले लोग फिल्म इँडस्ट्री मेँ कम ही हुए हैँ। ये सारी बातेँ उनके व्यक्तिगत जीवन से जुडी हुई हैँ। उनकी फिल्मी कारकिर्दी के बारे मेँ तो बहोत कुछ लिखा गया है और सभी जानते हैँ।
देवदास, मधुमती,गँगा जमुना,लीडर..जैसी फिल्मोँ को दर्शक वर्ग क्या कभी भुला पायेगा ? ना ...कभी नहीँ
तो दिलीप अँकल से पापाजी के जाने के बाद मिलना हुआ था।
वासवी को उन्हेँने समय दिया था और कहा था कि ' आ जाओ..सायरा जी के बँगले पर ! '
मैं और वासवी पहुँचे तो घर के बडे की तरह पूछा था, " फ्रेश होना है क्या ? " फिर पापा जी से जुडी उनकी यादोँ को बयान करने लगे ..
" ऐ दोस्त, किसी हमदमे दरीना का मिलना
बेहतर है मुलाकातेँ मसीहा और फिज़ार से .."
जिसे हमने पुस्तक ,"शेष ~ अशेष" मेँ " एक हसीन शख्शियत " के तौर पर छापा है।
अब आगे पढिये - दिलीप सा'ब ने और क्या क्या कहा ...
क्रमश:
13 comments:
अच्छा लगा पढ़कर. :)
अच्छी जानकारी दी, धन्यवाद!
हील --> हिल
दीलिप --> दिलीप
बहुत अच्छा लगा इसे पढ़कर!
आप के पड़ोसी और पारिवारिक मित्र तो हमारे जाने पहचाने भी हैं. शायद वह दिन भिन्न थे क्योकि मानवीय रिश्ते अधिक आसान थे और घरों के दरवाजों पर ऊँची दीवारों, कुत्तों और गार्ड के बँधन कम थे?
लावण्या जी, दिलीप साहब पर दोनों पोस्ट पढ़ीं अच्छा लगा । मैं बस आपको ये बताना चाहता हूं कि दिलीप साहब के बंगले को एक बहुमंजिला इमारत बनाने के लिए ढहा दिया गया, वो भी पिछले हफ्ते । अब ये बंगला केवल तस्वीरों में रहेगा ।
समीर भाई,
आपका आभार --
स स्नेह
-- लावण्या
श्रीश जी,
आप ने गल्ती सुधार करवा दी -
धन्यवाद !
स स्नेह
-- लावण्या
अनुप जी,
आपको अच्छा लगा उसकी खुशी है
आप ने गल्ती सुधार करवा दी -
धन्यवाद !
स स्नेह
-- लावण्या
सुनील दीपक जी,
नमस्ते !
आप इन प्रसिध्ध इन्सानोँ मेँ से किन लोगोँ की बात कर रहे हैँ ? बतलाइयेगा ~~
हाँ, पापा जी ने श्री हरिवँश राव बच्चन जी से कहा था, " बँधु आप मेरे घर आया करेँ ! चूँकि उनके सुपुत्र श्री अमिताभ जी की बढती प्रसिध्धि से उनके घर जाने से पहले इसी तरह, ऊँची दीवार, सीक्यूरीटी गार्ड, इत्यादी को पार करके पहुँचना होता था जब कि मिलना होता था "बडे "बच्चन साहब से ! "
स स्नेह
-- लावण्या
युनुस भाई,
आपने जानकारी दी कि बहुमँजिली इमारत बनेगी तब तो वहाम का इलाका बदला बदला नज़र आयेगा -
टिप्पणी के लिये शुक्रिया
स स्नेह
-- लावण्या
बेहतरीन स्मृति लेख
कथा के विस्तार में जाने की बेसब्र प्रतीक्षा है। वैसे, यह कड़ी अत्यंत रोचक और ज्ञानवर्धक है। आभार आपका!
लावण्या जी ,
आपका संस्मरण बहुत जीवन्त है। दिलीपकुमार जी के जीवन के बारे में अच्छी जानकारी मिली।आपके परिवार से
उनकी निकटता और उनके नाम का रहस्य भी ज्ञात हुआ।
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